Thursday, 22 May 2014

'' आज बैठे ठाले का फितूर -बेमतलब की बकवास                नहीं गीता से स्नेह लेने की इच्छा ''
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"गिरते हैं जब खयाल तो गिरता है आदमी ,जिसने इसे संभाला वो ही संभल गया " | और आदमी को संभालने के लिए गीता से इतर और कुछ हो सकता है क्या ? गीता कथाओं का ग्रन्थ नहीं है ये तो चिंतन है ,दर्पण में अपने को देखने की प्रक्रिया | ये माँ गंगा की भांति पतित पावनी -"कृष्ण कृपा संजीवनी " है |
कृष्ण अपने कई रूपों में ,जीवन के हर  पल और हर कर्म के लिए हमारे साथ हैं पुत्र से धर्म-प्रवर्तक   समाज-सुधारक तक | श्रृंगाररस  के संयोग वियोग दोनों पक्षों में  पूरा जीवन समाहित है और वहां प्रत्येक स्थान पे कृष्ण मौजूद हैं हमारे साथ | गीता के  स्पर्श  मात्र से ही कान्हा  की समीपता का अहसास होता है -हर श्लोक माँ के सामान बच्चे की ऊँगली थाम के जीवन की कठिनाइयों से पार ले जाता सा प्रतीत होता है |
तनाव से बाहर निकलने को ,अशांति को शांत करने को ,गीता को पढना ,समझना और जीना ही एक मात्र साधन है |  दूसरे अध्याय का ४८ श्लोक -----
   योगस्थ: कुरू कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय |
   सिद्धयसिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ||_____से यदि दिन का प्रारम्भ हो इसे  प्रात:काल पढ़ के जीवन में उतारा जाय तो मजबूत दिनचर्या का मांगलिक आधार बन जाएगा एक प्रबोधात्मक प्रेरणा ,पुरुषार्थ के प्रति जागरूकता ,जहाँ योग शब्द को प्रभु ने मन की समता से जोड़ा है ,कर्म  के अहंकार से दूर ,कृपा भाव से कर्म  , मैं इस कर्म को या कर्म से क्या दे सकता हूँ न कि मुझे क्या मिलेगा |यही गीता की दिव्यता है जो भी कर्म कुशलता और निष्ठा से किया जा रहा है  वो योग है तुझे कर्म के कर्तव्य की दृष्टि हो देने वाला तो मैं हूँ | सुबह सवेरे अपने कर्मों को प्रारम्भ करने से पहले का श्लोक --फिर किसी भी गलती की सम्भावना ही नहीं |
 भोजन से पहले का श्लोक ____यज्ञशिष्टशिनसंतो मुच्यन्ते सर्व किल्बिषे |
        अध्याय ३ का १३ _______  भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पच्न्त्यात्मकारणात् ||
                                                                      और
       अध्याय ४ का २४ -_______ब्रह्मार्पणम् ब्रह्म ह्यविरब्रह्माग्नो  ब्रह्मणा हुतं |
                                                 ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं  ब्रह्मकर्म समाधिना     ||______और अधिक नहीं इन दो श्लोकों को ध्यान करके यदि भोजन का इंतजाम हो और भोजन किया जाए तो कोई भी भूखा न रहे | कोमल कन्हैया कठोर वाणी में आदेश देते हैं कि केवल घी और आहुति के होम को ही यज्ञ नहीं कहतेहैं ,यद्यपि ये भी यज्ञहै  अपितु खिला के खाना और परोपकार की भावना ही असली यज्ञहै   ,गो ग्रास , श्वान के लिए ,पक्षी के लिए यहाँ तक किसांप के लिए दूध  भी क्यूंकि वो भी प्रकृति का शोधक तत्व है तेरे निवाले से जाना चाहिए | समत्व भाव ,परोपकार ,प्रकृति संरक्षण और जितना चाहे बस उतना ही लो प्रकृति से -अपरिग्रह ,सब भोजन यज्ञ में ही निहित है | "त्वमेव वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पयेत " आस्था ,श्रधा ,विश्वास ,समर्पण --यदि गोविन्द को समर्पित करके खाओगे तो भक्ष्य ही खाओगे जो तुम्हारे लिए अमृत होगा ,चिन्तन में श्याम सलोना होगा , तो मीरा के विष की तरह हर पदार्थ अमृत हो जाएगा |दुराग्रह की स्थिति नहीं ,चिन्तन की स्थिति यदि केवल भाव बदलने से प्रभाव बदल जाए तो क्या बुराई है ईश्वरी भाव होगा तो विराट उदारता होगी ,शुद्धता होगी और फिर मन और देह का सारा कूड़ा कचरा बह  जाएगा |''आहारौ शुद्धौ सत्य शुद्धि ,जैसा मन वैसा अन्न '', भीतर सात्विक भाव तो आरोग्यता ,तो हुई न गीता भोजन से पहले आचमन करने वाली गंगा | गीता में कार्य स्थल पे जाने से पहले से लेकर दिन भर के कार्यों के विश्लेष्ण तक के सभी श्लोक हैं जो जीवन के लिए मन्त्रों का कार्य करते हैं और निष्काम कर्म,जागरूकता और कर्तव्य निष्ठा से जीवन को  सुगम बनाने का मार्ग प्रशस्त करते है | आवश्यकता है गीता को एक बनिया के बहीखाते ,एक शिक्षक के हाजिरी - रजिस्टर या एक शेयर ब्रोकर के शेयरों की तरह प्रति दिन देखने की |
 और पूरे दिन भर की भाग दौड़ ,आपा-धापी और थकन के बाद रात्रि में बिस्तर पे जाने से पहले कान्हा का दुलार तो देखिये वे कहते हैं ___------
                                                 सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणम् व्रज |
                                                 अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि  मा शुच: ||
कितना दुलार ,कितना लाड करते है कन्हैया ,कोई भी भूल है उसे अपना तनाव न बना तू तो बस मेरी शरण में आजा पगले ,'मा शुच':., मैं देखूंगा तेरे सब पापों को ,५०१५० वर्ष पूर्व कहा गया ये वाक्य किसी मत ,सम्प्रदाय या पन्थ का नहीं है | ये तो उस विराट परमात्मा की एक प्यारी सी ममत्व भरी लाडली वात्सल्यमय पुकार है |वो कह रहा है मेरे लाडले ,दिन भर के क्रिया कलापों में जो तेरे कर्तव्य नहीं थे ,जैसे ईर्ष्या ,राग द्वेष वो भी तूने अपने ऊपर लाद लिए उतार  फेंक इस कलुष को ,मुझ पे विश्वास  कर ,जैसे माँ कीचड़ में सने अपने बच्चे को धो के साफ़ करदेती है वैसे ही मैं भी तुझे अभय देता हूँ तू मेरी ये लाड़ली पुकार तो सुन ! मेरा तो बन !  मेरी शरण तो आ ! यह श्लोक दिव्य  आह्वान  है कान्हा का मानवता के लिए,' मा शुच' की लाडली पुकार ,अज्ञान के आवरण को उतारफेंक और मेरे पास आ ,जहाँ परमात्मा है वहां सत् है शुचिता है ,निर्भयता है और सुमति है
 मेरे जीवन को तो गीता का ही सहारा है ,कृष्ण मेरे प्राण हैं ,उनकी लाडली पुकार मेरे लिए अभय का संकेत है |
गीता निर्भय जीवन की प्रेरणा है ,जिज्ञासू को जागृत करती है ,खंडन नहीं परम्पराओं का प्रतिष्ठापन है सब कुछ भूल के गोविन्द की विराट गोद में विश्राम है |
 गीता हमे स्वयं पे विश्वास और क्षमा दोनों सिखाती है ताकि हमपे ताकत हो ये कहने की कि ____
 जिन्दगी का सफर मैंने यूँ आसां कर लिया ,
कुछ से माफ़ी मांग ली कुछ को माफ़ कर दिया ||आभा ||












Tuesday, 6 May 2014

    " बैठे ठाले का फितूर ,बेमतलब की बकवास "
                      (जिन्दगी की बाराखड़ी)
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बरसों ये सूरज चाँद सितारे जुगनू मेरे साथ जले ,चमके जगमगाये टिमटिमाये , आज भी सबकुछ वैसा ही है प्रकृति  उतनी ही हसीन है ,बस सांझ ढलने  पे अपनी  पोटली बांधने और चलने की तैयारी मैंने शुरू कर दी है | कितना कुछ है इस पोटली में शायद कुछ व्यक्त से अव्यक्त में भी साथ जाए अनन्त की यात्रा में |नदी, पहाड़, झरने ,जंगल, बाग़, बगीचे तितली, फूल, भंवरे, परिंदे और सागर; आज भी मन में वही तरंग जगाते हैं ,ताली बजाके उछलने का मन आज भी होता है कोई पागल समझे तो ये उसकी समझ का दोष है शायद हर उम्र में एक बच्चा तो इन्सान के भीतर रहता ही है जो बंधन में नहीं रहना चाहता है मन के किसी  कोने से  बाहर आने की कोशिश में रहता है और नकारने पे हमें खींच के बचपन की यादों के बागीचे में सैर करने को मजबूर कर देता है |  'ॐ नम: सिद्धम्  ' के साथ स्लेट या पुती हुई तख्ती पे  आड़ी तिरछी रेखायें खींचते हुये कब बच्चा बाराखड़ी और पहाड़ों के फेर में पड़ जाता है उसे पता भी नहीं चलता |और बस यहीं से ९९ के फेर में पड़ने का सिलसिला प्रारम्भ |
   हाँ ! ये जिन्दगी  भी तो बाराखड़ी की तरह ही है ;अ से प्रारम्भ होके सभी स्वरों को साथ लेते हुए व्यंजन और व्यंजनाओं में डूबती उतरती नैया की मानिंद ज्ञ तक का लम्बा रास्ता तय करती है | फुर्सत के क्षणों में चिंतन जब बीते हुए पलों में गोता लगाता है तो सारी यादें ,सारे बीते पल स्वरों और व्यंजनों की तरह उछल-कूद करने लगते हैं मन की कापी के पन्ने पे, कभी सपाट और कभी  करीने से खींची गयी लाइनों पे चलते से -अलग -अलग रंगों की स्याही से लिखी इबारत , हर पल ,हर घटना ,हर मूड का अपना सुलेख ! कहीं  मोती से उकेरे गये अक्षर हैं  मानो मानसरोवर में राजहंस तैर रहे हों और कहीं  लिखाई  आकाश में बिखरे  बादलों की  मानिंद -जहाँ किसी भी अक्षर का कोई आकार ही नहीं है -अपना ही लेख पढना समझना कुछ दिनों बाद मुश्किल |
जिन्दगी की बाराखड़ी के रस्ते में शायद   पूर्ण विराम नहीं है अव्यक्त से व्यक्त और अनन्त की यात्रा कभी प्रकाश तो कभी अंधकार -चरेवेति-चरेवेति एक राह से दूसरी राह एक चोले से दूसरा चोला --
''  वासांसि जीर्णानि यथा विहाय ,नवानि गृह्णाति नरोपराणी '' की निरंतरता | हाँ ! हलन्त् तो हम इसे बना ही लेते हैं ,जहाँ से आगे न बढ़ना हो ,किसी का साथ छोड़ना हो ,कहीं से मोड़ मुड़ना हो तो हलन्त् हमें खूबसूरत अंत सिखाता है ठीक वैसे ही जैसे सृज् धातु से सृष्टि बनी  पर वहां भी अव्यक्त से व्यक्त की यात्रा है, निरंतर;  पूर्ण विराम के स्थान पे हलन्त् ही है और मेरे जीवन को  तो हलन्त् ने ही  पकड़ रखा है ,आधी-अधूरी ख़ुशी ,पूर्ण निष्ठा और समर्पण के पश्चात भी कार्य न होना, सफल असफलताओं का अम्बार , ढेरों पूर्ण विराम थे जीवन के जो मैंने हलन्त् की खूबसूरती के साथ स्वीकार कर लिए ;जीवन का ककहरा सीखते हुए कैसे जिन्दगी कभी मूर्ध्यन्य हो गयी कभी तालव्य की तरह गोल-गोल घूमने लगी पर "ॐ तत्सत् " के साथ अपनाने से  किसी भी परिस्थिति में मिठास कम नहीं हुई |आधे को हलन्त् की खूबसूरती देके पूरे का अहसास और फिर चल पड़ना  दूसरी राह् ठीक वैसे ही जैसे अनजाने में तत्सम -तदभव् शब्दों में य र ल व् श स ष ह के साथ अनुस्वार के स्थान पर चन्द्रबिन्दु का प्रयोग वर्तनी की अशुद्धि है  पर अर्थ स्पष्ट है  | ऐसा नहीं है कि जीवन में हमेशा अनुस्वार की खूबसूरत सी बिंदी या चन्द्रबिन्दु का ताज नहीं रहा  ( माँ होने पे तो ये साथ -साथ ही चलता है ) अपितु असंख्यों बार तो विसर्ग ने  भी जीवन के सुलेख  में जुडके उसे खुबसूरत अर्थ दिया है  पर इसका आभास होने में समय लग गया  | दुःख में विसर्ग : ने जुड़ के उसे कितने सुन्दर शब्द में ढाल दिया  यदि दुःख में विसर्ग न होता तो दुख नग्नता का आभास देता | ये विसर्ग यदि समझ में आ जाए तो दुःख के पल सिमट जाते हैं मन के किसी कोने में विसर्ग की खुबसूरती लिए हुए वरना तो अनुस्वार कब खिसक के नीचे आ जाए और नुक्ता . बनके तालव्य को गले में जाने को मजबूर कर दे भान ही न हो |
  बच्चे को बाराखड़ी और वो भी ॐ नम: सिद्धम्  के साथ सिखाना ,सुलेख लिखना ,स्लेट पे बाराखड़ी लिखना फिर मिटाना फिर लिखना ,फिर तख्ती पे अभ्यास वो भी तख्ती की रंगाई पूताई के साथ फिर कलम की कत बना के सुंदर अक्षरों को उकेरने की प्रेरणा शायद जीवन  रूपी रंगमंच की घटनाओं का रिहर्सल ही होता है |संयम ,,धैर्य ख़ुशी ,खोना- पाना ,दुःख -सुख सारे रसों से बालपन में ही परिचय ताकि सनद रहे |
यूँ ही बैठे ठाले अ से ज्ञ तक घूम आयी और एक बार बाराखड़ी फिर से लिख ली फिर से तख्ती पोती ,कलम में कत बनाई ,होल्डर की निब घिसी और सुलेख के बाद अब बाग़ में तितली के पीछे क्यूंकि दिल तो बच्चा है जी || ....आभा ...