'' आज बैठे ठाले का फितूर -बेमतलब की बकवास नहीं गीता से स्नेह लेने की इच्छा ''
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"गिरते हैं जब खयाल तो गिरता है आदमी ,जिसने इसे संभाला वो ही संभल गया " | और आदमी को संभालने के लिए गीता से इतर और कुछ हो सकता है क्या ? गीता कथाओं का ग्रन्थ नहीं है ये तो चिंतन है ,दर्पण में अपने को देखने की प्रक्रिया | ये माँ गंगा की भांति पतित पावनी -"कृष्ण कृपा संजीवनी " है |
कृष्ण अपने कई रूपों में ,जीवन के हर पल और हर कर्म के लिए हमारे साथ हैं पुत्र से धर्म-प्रवर्तक समाज-सुधारक तक | श्रृंगाररस के संयोग वियोग दोनों पक्षों में पूरा जीवन समाहित है और वहां प्रत्येक स्थान पे कृष्ण मौजूद हैं हमारे साथ | गीता के स्पर्श मात्र से ही कान्हा की समीपता का अहसास होता है -हर श्लोक माँ के सामान बच्चे की ऊँगली थाम के जीवन की कठिनाइयों से पार ले जाता सा प्रतीत होता है |
तनाव से बाहर निकलने को ,अशांति को शांत करने को ,गीता को पढना ,समझना और जीना ही एक मात्र साधन है | दूसरे अध्याय का ४८ श्लोक -----
योगस्थ: कुरू कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय |
सिद्धयसिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ||_____से यदि दिन का प्रारम्भ हो इसे प्रात:काल पढ़ के जीवन में उतारा जाय तो मजबूत दिनचर्या का मांगलिक आधार बन जाएगा एक प्रबोधात्मक प्रेरणा ,पुरुषार्थ के प्रति जागरूकता ,जहाँ योग शब्द को प्रभु ने मन की समता से जोड़ा है ,कर्म के अहंकार से दूर ,कृपा भाव से कर्म , मैं इस कर्म को या कर्म से क्या दे सकता हूँ न कि मुझे क्या मिलेगा |यही गीता की दिव्यता है जो भी कर्म कुशलता और निष्ठा से किया जा रहा है वो योग है तुझे कर्म के कर्तव्य की दृष्टि हो देने वाला तो मैं हूँ | सुबह सवेरे अपने कर्मों को प्रारम्भ करने से पहले का श्लोक --फिर किसी भी गलती की सम्भावना ही नहीं |
भोजन से पहले का श्लोक ____यज्ञशिष्टशिनसंतो मुच्यन्ते सर्व किल्बिषे |
अध्याय ३ का १३ _______ भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पच्न्त्यात्मकारणात् ||
और
अध्याय ४ का २४ -_______ब्रह्मार्पणम् ब्रह्म ह्यविरब्रह्माग्नो ब्रह्मणा हुतं |
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्म समाधिना ||______और अधिक नहीं इन दो श्लोकों को ध्यान करके यदि भोजन का इंतजाम हो और भोजन किया जाए तो कोई भी भूखा न रहे | कोमल कन्हैया कठोर वाणी में आदेश देते हैं कि केवल घी और आहुति के होम को ही यज्ञ नहीं कहतेहैं ,यद्यपि ये भी यज्ञहै अपितु खिला के खाना और परोपकार की भावना ही असली यज्ञहै ,गो ग्रास , श्वान के लिए ,पक्षी के लिए यहाँ तक किसांप के लिए दूध भी क्यूंकि वो भी प्रकृति का शोधक तत्व है तेरे निवाले से जाना चाहिए | समत्व भाव ,परोपकार ,प्रकृति संरक्षण और जितना चाहे बस उतना ही लो प्रकृति से -अपरिग्रह ,सब भोजन यज्ञ में ही निहित है | "त्वमेव वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पयेत " आस्था ,श्रधा ,विश्वास ,समर्पण --यदि गोविन्द को समर्पित करके खाओगे तो भक्ष्य ही खाओगे जो तुम्हारे लिए अमृत होगा ,चिन्तन में श्याम सलोना होगा , तो मीरा के विष की तरह हर पदार्थ अमृत हो जाएगा |दुराग्रह की स्थिति नहीं ,चिन्तन की स्थिति यदि केवल भाव बदलने से प्रभाव बदल जाए तो क्या बुराई है ईश्वरी भाव होगा तो विराट उदारता होगी ,शुद्धता होगी और फिर मन और देह का सारा कूड़ा कचरा बह जाएगा |''आहारौ शुद्धौ सत्य शुद्धि ,जैसा मन वैसा अन्न '', भीतर सात्विक भाव तो आरोग्यता ,तो हुई न गीता भोजन से पहले आचमन करने वाली गंगा | गीता में कार्य स्थल पे जाने से पहले से लेकर दिन भर के कार्यों के विश्लेष्ण तक के सभी श्लोक हैं जो जीवन के लिए मन्त्रों का कार्य करते हैं और निष्काम कर्म,जागरूकता और कर्तव्य निष्ठा से जीवन को सुगम बनाने का मार्ग प्रशस्त करते है | आवश्यकता है गीता को एक बनिया के बहीखाते ,एक शिक्षक के हाजिरी - रजिस्टर या एक शेयर ब्रोकर के शेयरों की तरह प्रति दिन देखने की |
और पूरे दिन भर की भाग दौड़ ,आपा-धापी और थकन के बाद रात्रि में बिस्तर पे जाने से पहले कान्हा का दुलार तो देखिये वे कहते हैं ___------
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणम् व्रज |
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: ||
कितना दुलार ,कितना लाड करते है कन्हैया ,कोई भी भूल है उसे अपना तनाव न बना तू तो बस मेरी शरण में आजा पगले ,'मा शुच':., मैं देखूंगा तेरे सब पापों को ,५०१५० वर्ष पूर्व कहा गया ये वाक्य किसी मत ,सम्प्रदाय या पन्थ का नहीं है | ये तो उस विराट परमात्मा की एक प्यारी सी ममत्व भरी लाडली वात्सल्यमय पुकार है |वो कह रहा है मेरे लाडले ,दिन भर के क्रिया कलापों में जो तेरे कर्तव्य नहीं थे ,जैसे ईर्ष्या ,राग द्वेष वो भी तूने अपने ऊपर लाद लिए उतार फेंक इस कलुष को ,मुझ पे विश्वास कर ,जैसे माँ कीचड़ में सने अपने बच्चे को धो के साफ़ करदेती है वैसे ही मैं भी तुझे अभय देता हूँ तू मेरी ये लाड़ली पुकार तो सुन ! मेरा तो बन ! मेरी शरण तो आ ! यह श्लोक दिव्य आह्वान है कान्हा का मानवता के लिए,' मा शुच' की लाडली पुकार ,अज्ञान के आवरण को उतारफेंक और मेरे पास आ ,जहाँ परमात्मा है वहां सत् है शुचिता है ,निर्भयता है और सुमति है
मेरे जीवन को तो गीता का ही सहारा है ,कृष्ण मेरे प्राण हैं ,उनकी लाडली पुकार मेरे लिए अभय का संकेत है |
गीता निर्भय जीवन की प्रेरणा है ,जिज्ञासू को जागृत करती है ,खंडन नहीं परम्पराओं का प्रतिष्ठापन है सब कुछ भूल के गोविन्द की विराट गोद में विश्राम है |
गीता हमे स्वयं पे विश्वास और क्षमा दोनों सिखाती है ताकि हमपे ताकत हो ये कहने की कि ____
जिन्दगी का सफर मैंने यूँ आसां कर लिया ,
कुछ से माफ़ी मांग ली कुछ को माफ़ कर दिया ||आभा ||
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"गिरते हैं जब खयाल तो गिरता है आदमी ,जिसने इसे संभाला वो ही संभल गया " | और आदमी को संभालने के लिए गीता से इतर और कुछ हो सकता है क्या ? गीता कथाओं का ग्रन्थ नहीं है ये तो चिंतन है ,दर्पण में अपने को देखने की प्रक्रिया | ये माँ गंगा की भांति पतित पावनी -"कृष्ण कृपा संजीवनी " है |
कृष्ण अपने कई रूपों में ,जीवन के हर पल और हर कर्म के लिए हमारे साथ हैं पुत्र से धर्म-प्रवर्तक समाज-सुधारक तक | श्रृंगाररस के संयोग वियोग दोनों पक्षों में पूरा जीवन समाहित है और वहां प्रत्येक स्थान पे कृष्ण मौजूद हैं हमारे साथ | गीता के स्पर्श मात्र से ही कान्हा की समीपता का अहसास होता है -हर श्लोक माँ के सामान बच्चे की ऊँगली थाम के जीवन की कठिनाइयों से पार ले जाता सा प्रतीत होता है |
तनाव से बाहर निकलने को ,अशांति को शांत करने को ,गीता को पढना ,समझना और जीना ही एक मात्र साधन है | दूसरे अध्याय का ४८ श्लोक -----
योगस्थ: कुरू कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय |
सिद्धयसिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ||_____से यदि दिन का प्रारम्भ हो इसे प्रात:काल पढ़ के जीवन में उतारा जाय तो मजबूत दिनचर्या का मांगलिक आधार बन जाएगा एक प्रबोधात्मक प्रेरणा ,पुरुषार्थ के प्रति जागरूकता ,जहाँ योग शब्द को प्रभु ने मन की समता से जोड़ा है ,कर्म के अहंकार से दूर ,कृपा भाव से कर्म , मैं इस कर्म को या कर्म से क्या दे सकता हूँ न कि मुझे क्या मिलेगा |यही गीता की दिव्यता है जो भी कर्म कुशलता और निष्ठा से किया जा रहा है वो योग है तुझे कर्म के कर्तव्य की दृष्टि हो देने वाला तो मैं हूँ | सुबह सवेरे अपने कर्मों को प्रारम्भ करने से पहले का श्लोक --फिर किसी भी गलती की सम्भावना ही नहीं |
भोजन से पहले का श्लोक ____यज्ञशिष्टशिनसंतो मुच्यन्ते सर्व किल्बिषे |
अध्याय ३ का १३ _______ भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पच्न्त्यात्मकारणात् ||
और
अध्याय ४ का २४ -_______ब्रह्मार्पणम् ब्रह्म ह्यविरब्रह्माग्नो ब्रह्मणा हुतं |
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्म समाधिना ||______और अधिक नहीं इन दो श्लोकों को ध्यान करके यदि भोजन का इंतजाम हो और भोजन किया जाए तो कोई भी भूखा न रहे | कोमल कन्हैया कठोर वाणी में आदेश देते हैं कि केवल घी और आहुति के होम को ही यज्ञ नहीं कहतेहैं ,यद्यपि ये भी यज्ञहै अपितु खिला के खाना और परोपकार की भावना ही असली यज्ञहै ,गो ग्रास , श्वान के लिए ,पक्षी के लिए यहाँ तक किसांप के लिए दूध भी क्यूंकि वो भी प्रकृति का शोधक तत्व है तेरे निवाले से जाना चाहिए | समत्व भाव ,परोपकार ,प्रकृति संरक्षण और जितना चाहे बस उतना ही लो प्रकृति से -अपरिग्रह ,सब भोजन यज्ञ में ही निहित है | "त्वमेव वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पयेत " आस्था ,श्रधा ,विश्वास ,समर्पण --यदि गोविन्द को समर्पित करके खाओगे तो भक्ष्य ही खाओगे जो तुम्हारे लिए अमृत होगा ,चिन्तन में श्याम सलोना होगा , तो मीरा के विष की तरह हर पदार्थ अमृत हो जाएगा |दुराग्रह की स्थिति नहीं ,चिन्तन की स्थिति यदि केवल भाव बदलने से प्रभाव बदल जाए तो क्या बुराई है ईश्वरी भाव होगा तो विराट उदारता होगी ,शुद्धता होगी और फिर मन और देह का सारा कूड़ा कचरा बह जाएगा |''आहारौ शुद्धौ सत्य शुद्धि ,जैसा मन वैसा अन्न '', भीतर सात्विक भाव तो आरोग्यता ,तो हुई न गीता भोजन से पहले आचमन करने वाली गंगा | गीता में कार्य स्थल पे जाने से पहले से लेकर दिन भर के कार्यों के विश्लेष्ण तक के सभी श्लोक हैं जो जीवन के लिए मन्त्रों का कार्य करते हैं और निष्काम कर्म,जागरूकता और कर्तव्य निष्ठा से जीवन को सुगम बनाने का मार्ग प्रशस्त करते है | आवश्यकता है गीता को एक बनिया के बहीखाते ,एक शिक्षक के हाजिरी - रजिस्टर या एक शेयर ब्रोकर के शेयरों की तरह प्रति दिन देखने की |
और पूरे दिन भर की भाग दौड़ ,आपा-धापी और थकन के बाद रात्रि में बिस्तर पे जाने से पहले कान्हा का दुलार तो देखिये वे कहते हैं ___------
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणम् व्रज |
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: ||
कितना दुलार ,कितना लाड करते है कन्हैया ,कोई भी भूल है उसे अपना तनाव न बना तू तो बस मेरी शरण में आजा पगले ,'मा शुच':., मैं देखूंगा तेरे सब पापों को ,५०१५० वर्ष पूर्व कहा गया ये वाक्य किसी मत ,सम्प्रदाय या पन्थ का नहीं है | ये तो उस विराट परमात्मा की एक प्यारी सी ममत्व भरी लाडली वात्सल्यमय पुकार है |वो कह रहा है मेरे लाडले ,दिन भर के क्रिया कलापों में जो तेरे कर्तव्य नहीं थे ,जैसे ईर्ष्या ,राग द्वेष वो भी तूने अपने ऊपर लाद लिए उतार फेंक इस कलुष को ,मुझ पे विश्वास कर ,जैसे माँ कीचड़ में सने अपने बच्चे को धो के साफ़ करदेती है वैसे ही मैं भी तुझे अभय देता हूँ तू मेरी ये लाड़ली पुकार तो सुन ! मेरा तो बन ! मेरी शरण तो आ ! यह श्लोक दिव्य आह्वान है कान्हा का मानवता के लिए,' मा शुच' की लाडली पुकार ,अज्ञान के आवरण को उतारफेंक और मेरे पास आ ,जहाँ परमात्मा है वहां सत् है शुचिता है ,निर्भयता है और सुमति है
मेरे जीवन को तो गीता का ही सहारा है ,कृष्ण मेरे प्राण हैं ,उनकी लाडली पुकार मेरे लिए अभय का संकेत है |
गीता निर्भय जीवन की प्रेरणा है ,जिज्ञासू को जागृत करती है ,खंडन नहीं परम्पराओं का प्रतिष्ठापन है सब कुछ भूल के गोविन्द की विराट गोद में विश्राम है |
गीता हमे स्वयं पे विश्वास और क्षमा दोनों सिखाती है ताकि हमपे ताकत हो ये कहने की कि ____
जिन्दगी का सफर मैंने यूँ आसां कर लिया ,
कुछ से माफ़ी मांग ली कुछ को माफ़ कर दिया ||आभा ||