Sunday, 24 May 2015


What's on your mind -----आजकल तो गर्मी का प्रकोप ,जोक भी सारे सूरज पे ,बेचारे को दोषी ठहरा के अपने कुकृत्यों के छुट्टी --सारे जंगल काट के कंक्रीट के बेतरतीब जंगल उगा दिये ,नदी नाले तालाब सब गंदे नाले बन गए ,भूजल के अति - दोहन से धरती को बंजर बना दिया पर दोष सूरज पे वो ज्यादा गर्म हो रहा है ,अरे वो तो सदैव ही इतना गर्म है। मैंने देखा सूरज पे धरती के वातावरण का क्या असर पड़ा ,--वो भी परेशानी में है --देखा तो लिखा कुछ बच्चों के लिए -----
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''चढ़ा सूर्य को तेज बुखार ''
चढ़ा सूर्य को तेज बुखार
दिन पर दिन वो तपता जाये ,हो बेचैन हांफता जाये
मैया -मैया ; शोर मचाये , न कुछ पीये न कुछ खाये।
छोड़- छाड़ कर सारे काम ,मैया दौड़ी -दौड़ी आयी ---
बड़े लाड से गोद बिठाया ,मुख चूमा और सिर सहलाया।
बच्चे का मुहं लाल हो रहा ,उस पर तपता जलता माथा ,अकुलाहट
-बेचैनी से बच्चे को निंद्रा न आती ,सांस उखड़ -उखड़ सी जाती।
मेरा चंदा तड़प रहा है , ज्वर-ताप से झुलस रहा है
[(मैया ? मैया ही होती ,लाड़-लाड़ में; सूरज को भी चंदा कहती! )]
अरे! कोई तो वैद बुलाओ , मुन्ने का ज्वर ताप भगाओ।
मेरा मुन्ना जग का पालक ,गर ये ही तपता जायेगा
जीव जन्तु सब जल जाएंगे ,चातक- कोकिल कुम्हलायेंगे
आसमान की परियों जाओ ,वैदराज को ढूंढ के लाओ
परियों ने फिर ढूंढ मचाई ,पवन वैद को संग-संग लायीं।
सर -सर ,फर-फर हवा चली , पल में ,लू में वो बदली
पास पवन आता जाता औ मौसम और बिगड़ता जाता।
धरती पे भी लू चलने पे ,पशु-पक्षी जन-जन अकुलाये
ताल -तलैया सूखे सारे ,वन -उपवन सब ही मुरझाये।
सूरज मुन्ना व्याकुल होकर ,मैया- मैया शोर मचाये
ना डर मेरे प्यारे मुन्ने मैया संग -संग ही है तेरे। ---
क्रोधित हो मैया ने तब ,पवन वैद को भगा दिया है
परियों को आदेश हुआ ,दौड़ो-- दूजा वैद ले आओ।
अमलतास -गुलमोहर ने तब ,परियों को है पास बुलाया ,
फूलों के कालीन बना, देश-देश उनको पहुंचाया।
कोई वैद न कोई भेषज ,कलयुग में '' महावीर ''कहाँ ?
लाडेसर बोला मैया से ,जो तू खुश हो मैं, बादल संग खेलूं ?
लुका - छिपी ,आइस -पाइस ,स्टेपू, पकड़म-पकड़ाई
बादल औ मैं ; सखा बचपन के तू कहती थी , लंगोटिया भाई।
संग-संग जब हम खेलें कूदें, कभी ताप ज्वर ना होता
तू भी व्यर्थ न अकुलाती है ,सारा जगत चैन से रहता।
गयी बादलों को हुंकार
आओ-आओ सूरज द्वार
परियां ढूंढें घाट -घाट
जंगल जंगल औ चौबाट।
पर बादल तो लुप्त हो गए ,
बरस बेमौसम ! सुप्त हो गये
मचा सकल जग हाहाकार
सूरज का क्यूँकर हटे बुखार !
पेड़नहीं -कैसे बादल ?
जंगल कटे औ नदियाँ सूखीं
हिम जगती की पिघल रही है
,बादल!
कैसे बने; कहाँ से आयें ?
गईया -बछिया सोच रही हैं ,
धरती मइया सोच रही हैं
क्या ?
ये मानव मेरी ही संतान !
क्यूँ ब्रह्माण्ड को किया हैरान ?आभा।।

Friday, 1 May 2015

               [ ये पत्नियाँ ]
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बचपन में एक बार सर पे पड़ने पे या यूँ कहूँ  कि  माँ के प्रोत्साहन से आठ दस लाइनों की एक कविता बना दी ,वो भी माँ से ही पूछ-पूछ के ही ,अपने तो उसमें दो चार शब्द ही थे ---लो जी  हमें  तो  अपने  कवियत्री होने का भान सा होने लगा जो कालांतर में साहित्यकार होने के भूत की तरह सर चढ़ के बोलने लगा --और हम अपने को हिंदी साहित्य का एक स्वनामधन्य हस्ताक्षर समझने लगे। आश्चर्य की बात तो यह कि जिंदगी की सारी  समस्याओं उलझनों और कठिनाइयों की जूतम-पैजार के बाद भी ये भूत  नहीं उतरा ,साहित्य की जरासी फ़टी चादर में जो टांग फंसी तो ऐसी उलझी कि  आज भी वहीँ फंसी  हुई है। बुद्धि का हलुवा हो गया है या यूँ कहूँ  कि दिमाग की दही जम चुकी है खट्टे वाली पर मजाल कि साहित्य का नशा उतरे। शादी के बत्तीसवें वर्ष में  ही अजय ने पत्नी के फिजिकल उत्तरदायित्व से मुझे मुक्ति दे दी  , मार समय की और पल्ले समय  ही समय --अब पत्नी के नाम पे अजय की बहू  का रोल ससुराल में और बाकी तो माँ ,बहन ,सास ,दादी ,बुआ ,मौसी ,चाची ,भाभी ,मामी --ऐसे रोल जिसमे पत्नीपन नेपथ्य में चला गया।  अब खाली समय और  साहित्य सृजन के लिए बेताब मन ,लेखनी कुलबुलाई ,जो सामने हो वही  शिकार बन जाता है --और वो मासूम सा शिकार आज मैं पत्नी ही हो गयी।
सो आज पत्नियां  शीर्षक --अब कटाक्ष पहले अपने पे होगा तभी तो पती  नाम के जीव पे भी लिख सकूँगी वरना  तो पक्षपात कहलायेगा न।
जी  जनाब! मेरे आस-पास खूबसारी  पत्नियां निवास करती हैं। सुंदर,मनमोहक ,कमसिन ,अधेड़ ,काली पीली ,गोरी -मृगनयनी ,चन्द्रबदनी ,मयूर सी चाल वाली ,या सधी हुई चाल वाली -घोड़े की जैसी या फिर कोई अपने ही भार  से लचकती हुई ,मानों  एक टांग घिस के छोटी हो गयी हो ,जवानी का बोझ ढोते- ढोते।
बेटियां जो खेत को देख के ही नहीं ,गेहूं की बाल का मुआइना करके छांटी -बांटी जाती हैं।  बेटियाँ  जो ऊपर से ही अलॉट होक आती हैं पत्नी पद के लिए --हर पती  के नाम की एक पत्नी।  पत्नी जो  बरात के साथ बड़े शान से लायी जाती है ,पत्नी जो ससुराल प्रवेश के साथ ही अपने साथ लाये सामान को न्यौछावर  करना शुरू कर देती है।  पत्नी जो हर घर  के लिए एक तो   अलाटेड ही है, ऊपर से.  सास ससुर भी साथ हों तो एक घर में दो पत्नियाँ। संयुक्त परिवार में तो न जाने कितनी पत्नियां पर वो समां कुछ और था अब कितनी सारी पत्नियों वाले नजारे कहाँ ! पत्नी जो भी है जैसी भी है , खूब ठोकबजा के ,पत्री मिला के ,दहेज के साथ और नयी गाडी ,जो उसका पिता देता ,के साथ लायी जाती है।
पत्नी जिसको सरल ,मधुर ,सुघड़ ,कान्वेंट पढ़ी ,घरेलू ,सिलाई-बिनाई जानने वाली होना ही चाहिये।  पती  के दिल तक पहुंचने का रास्ता पेट से होकर गुजरता है तो उसे खाना वो भी स्वादिष्ट वाला बनाना न आये ये कैसे हो सकता है। पत्नी जो  सर्विस करती हो।  पत्नी को चाहिये  अपनी '' पे  ''ससुराल पे ही लगाये अपने मायके न दे कुछ भी।  पत्नी सुबह उठ के चाय बनाये,पती देवता को प्यार से दे ,बच्चों को प्यार से उठाये ,तैयार करे ,नाश्ता करवाये लंच पैक करे ,स्कूल छोड़ के आये ,घर आके सैर करके आये ससुर को चाय और नाश्ता --अब दो पत्नियां हैं काम करने के लिए।  आफिस जाते पति को फ़्लाइंग किस देती पत्नी --मन में सोचती हुई जाओ बाबा ये चोंचले करने का वक्तकहाँ है मेरे पास।  घर समेट फिर  आफिस जाती पत्नी। तेज गाडी चलाते हुए ''आंटी क्या फुल  चलारी ,अपना नी  तो दूसरे का तो ध्यान कर '' और धीमी चलाये तो जाम में फंसी पत्नी ''ओय मैडमजी जब चलाना  नी आता तो गाड़ी निकालती क्यों हो ''.
जो पत्नियाँ नौकरी नहीं करतीं वो पती  के ड्यूटी जाने के बाद घर में छूट जाती हैं ,अब इनकी कई कैटेगरी होती हैं उम्र और हैसियत के हिसाब से --कोई घर का काम संगवाती है ,कोई सैलून जाके अपनी झाड़ पोंछ करती है -'निगोड़ा पती न जाने कितनी सुंदरियों को घूरता हुआ आएगा ,मैं उन्नीस न लगूं  उसे ' कोई किट्टी में जाती हैं ,कोई समाजसेवा के लिए निकल जाती हैं सैलून के रास्ते से ,और कुछ तो निखट्टू द्वार पे खड़े होक इसकी उसकी करने वाली। कुछ मेड  नाम की पत्नी से ,धोबन से भिड़ने वाली, वो बेचारी पत्नी जो अपने घर का काम निबटाके और मुहल्ले में चार दिन बाद आये पानी के टैंकर से लड़-भिड़ के ,पानी भर के आई है साथ ही शराबी पती को भी सबक सिखा के और खुद पिट के आई है।
खैर साहब ये पत्नी जो होती है उससे ये एक उम्मीद अक्सर होती है ,वो जुगाड़ू हो ,रिश्ते निभाये ,घर को बाँध के रखे ,जिद्दी और बद्तमीज नन्द को प्यार दे ,बिगड़े देवर के सौ  खून माफ़ करे ,अड़ियल पती को सर आँखों पे बिठाए ---और साथ ही कम -खर्च बालानशी  हो।  सब्जी लेती जो पत्नी एक एक रूपये के लिए सब्जी और फल वाले भइया से लड़ के पैसे बचाती है ,जो  बुद्ध औरबेफे या जुमे के बाजार जाके सस्ती और ताज़ी सब्जी के थैले उठाये पैदल चलती आती है --वो यदि एक साड़ी  की डिमांड करे तो पती नाम के जीव का मूड बिगड़ जाता है।
पत्नी जो दुनिया भर का प्यार उड़ेल दिन भर में नयी डिश तैयार करती है  या मोमोज ट्राय करती है --ईनाम में सिकुड़ा हुआ मुहं --हुंह  --इससे तो बाजार से मंगवा लेते --और बाजार से मंगवाने को कहे तो पैसे का रोना।
    कुछ पत्नियां विदुषी होती हैं अपने विचार रखना चाहती हैं ,पर 'अरे फिर की न वही  औरतों वाली बात ' चाहे वो पत्नी अपनी कम्पनी में सी ई ओ ही क्यों न हो --घर में है वो सिर्फ पत्नी। और असहमति पे पतिदेवता के मुहँ  फुलाने पे उस को मनाने का भार भी पत्नी पे ही आता है न चाहने पे भी घर की सुख शांति के लिए उसे ये कठिन कार्य करना ही होगा।
अक्सर पड़ोस में आई नई खूबसूरत पड़ोसन को घूरते  और उससे घंटों  बतियाते  पती को इग्नोर करती पत्नी को  जब बाजार में कोई पुराना  क्लास-मेट  मिले तो -- उसके कहने पे ''तुमपे तो सारी  क्लास फ़िदा थी ,दीवाने थे हम तुम्हारे ,वो तो सर इसी ने घास नहीं डाली ,आप तो बहुत लकी हो जो ये मैडम आपको मिलीं ''   जल -भुन  के राख हो जाता है पती और पत्नी को आदेश ये बेशर्म आदमी मेरे घर नहीं आना चाहिए , और उसी  पत्नी को यदि   पती अपने  दोस्तों के बीच ले जाए तो  गर्व से   हाथ थामे  हुए घूमते हुए  पती के दोस्तों को चेहरे में  प्लास्टिक की मुस्कान लिए  खुश  दिखती पत्नी।
  पर ऐसा भी नहीं है की हर घर में यही किस्से है।  कई घरों में खूब खुश हैं पत्नियाँ।  करवाचौथ ,वटसावित्री ,शादी की सालगिरह ,जैसे अवसरों पे उसे खूब सजने संवरने का मौका दिया जाता है --ताकि फिर साल भर वो उलाहना न देती।  इतने से ही खुश हो न्यौछावर होती भोली भाली पत्नी। कभी- कभी गाहे -बगाहे पती नाम का ये जीव उसे बाहर डिनर के लिए या लॉन्ग ड्राइव के लिए भी ले जाता है ,और फ़िदा हो जाती है पत्नी।
सस्ती सुंदर टिकाऊ ईमानदार ,हो पत्नी ये तो एक जरूरी शर्त है साथ में झगड़ालू न हो ,दब के रहे।  सेहत का भी ध्या रखे ताकि समय और पैसे की बचत हो।  बच्चों को खुद ही पढ़ाये पत्नी चाहे, बगल में बैठे लोग टी वी  का शोर ही क्यों न कर रहे हों।
आधुनिकता का लबादा ओढ़े समाज में कुछ तो बदलाव की बयार चली है।  पत्नी अब काम के साथ-साथ जिम भी जाने लगी है ,डिस्को भी जाती है। शॉपिंग भी अपनी मर्जी से कर ही लेती है ,सास ससुर के सामने पती से फ्लर्ट भी कर लेती है ,अपने दोस्तों को घर में बुलाती पत्नी भी दिखाई देने लगी है अब। पती के सामने कलीग से सेकहैंड भी कर रही है पत्नी अब ,अपनी मन पसंद के कपड़े भी पहन लेती है पत्नी अब --पर फिर भी ये सब बातें अभी भी ऊपरी है --समाज में मॉडर्न दिखने के लिए --घर में तो आज भी उसका दर्जा वही  एक अदद पत्नी जो ऊपर वाले ने उस घर के लड़के के लिए अलाट की है।
बेचारी ये कन्यायें --पढ़ती-लिखती खेलती कूदती माँ -बाप के घर में धमाचौकड़ी मचाती ,अपनी चहचहाट से जब सारा घर गुञ्जा  के रहती थीं तो इन्हें गुमान भी नहीं था कि  इन्हें एक अदद पत्नी बनने के लिए उतारा गया है आसमान से ,ये अलॉटेड हैं पहले से ही किसी के नाम ,और उस पे ये नासमझ कभी-कभी प्यार भी कर बैठती है --यदि ऊपर  से मुहर लगा बंदा न हो तो दिल टूटना पक्का ---बाबुल के घर की चहकती  चिड़िया ---ससुराल के पिंजरे में बंद पत्नी ----चाहे किसी भी रोल में हो घर में आफिस में ,पहली शर्त एक अदद अच्छी पत्नी हो ताकि सनद रहे।।आभा।।