='' RIP -एक लेखिका के पैदा होते ही मौत की कहानी ''===[कल्पना ]
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----व्यंग लेखन ; वो भी कहानी -सोचा अपने प्रादुर्भाव की ही कहानी लिखी जाय । व्यंग भी फर्स्टहैण्ड होगा ,अनुभूत व् झेला -झिलाया हुआ।
---- वो एक समय था -जब मैं छोटी थी ,हालांकि बुद्धि का खजाना आज भी छोटा ही है पर तब कुछ कमसिन सी भी थी और ऐसी उम्र में कोई काम बुद्धि से नही होता। उस वक्त शौक चर्राया लिखने पढने का ,किताबी ज्ञान से इतर कुछ सार्थक । सर्व सुलभ -भक्ति , श्रृंगार ,वीर रस ,की कविताएँ चाटने की हद्द तक पढ़ डालीं ,जायसी बिहारी और अन्य रीतिकालीन कवियों को भी घोट डाला ,पर मन के खेत में भावों की फसल न उगी। भक्तिकाल तो समझने की उम्र थी ही नही ,रीतिकाल के कवि लेखक स्त्री सौन्दर्य में ही अटके थे। नख-शिख से लेकर स्त्री के हर अंग का ऐसा वर्णन --रहीम की एक बानगी इस कहानी का हिस्सा बनने को आतुर है ----
'' बर बांके माटी भरे ,कौरी बैस कुम्हारि।
द्वै उलटे सखा मनौ , दीसत कुच उनहारी।।''======ये रहीम ने कुम्हारिन के सौन्दर्य का वर्णन किया है कि उसका रूप बेमिसाल है और जब वो मूर्ति बनाने के लिए सांचों में मिट्टी भरती है तो उसके स्तन सुंदर सकोरों जैसे दीखते है।
अब ऐसा साहित्य और कमसिन उम्र ,कलम उठाई और श्रृंगार रस की कविता लिखने का मूड बनाने लगी ,इतने में ही माँ की आहट हुई और रहिमन उनके हाथ लग गये --गुस्से में लाल चेहरा -मुहं से गारियों का झरना अंतिम पंक्ति ''क्या जमाना आ गया है रहीम के इतने सारे दोहों में तुम्हें यही दोहे मिले पढने को --और जनाब रीतिकाल की एक आधुनिक कवियत्री पैदा होने से पहले ही फना हो गयी। रहीम तो उपर जा चुके थे वरना पूछती बाबा तुम तो लिख के चले गये पर क्यूँ लिखा ये भी बता दो।
--. -खैर मैंने अपनी सोच को वीर रस की ओर डाइवर्ट किया --भूषण पढ़ के मन हुआ वीर रस की कविताएँ ही ठीक रहेंगी ,तब लोंगोवाल की लड़ाई भी हुई थी और चहूँ और जोश ही जोश था पर ''मेरा रंग दे बसंती चोला '' , ''कहो माओं से दें बेटे ,कहो बहनों से भाई '' ,''ऐ वतन ऐवतन '' से इतर कोई सोच ही न बनती , दो चार तुक्के जड़े तो उनमे फ़िल्मी गानों की ही खुशबू आती ,माँ को खुश करने को उन्हें सुनाया तो फ़िल्मी है कहके नकार दिया --फिर एक घटना हुई , हम दो सखियाँ मन्दिर जा रही थीं , पीछे से एक मनचले ने फब्ती कस दी। माना कि साधारण सी बात थी और वो जमाना जब लड़की ने कोई रियकशन दिया तो उसके साथ-साथ माँ-बाप -खानदान और पुरखों तक की बदनामी हो जायेगी ,पर मेरे भीतर तो भूषण कुलाचें भर रहे थे -आनन-फानन में दिमाग की बत्ती -----
''तारा सो तरणी धूरी ,धारा मे लगत जिमि |
थारा पर पारा पारा वारा यो हलत है ||''----- जैसी जल बुझ होने लगी। तुरंत ही मियां मजनू का ---'ऐल फैल खैल भैल खलक मे गैल गैल , गजन की ठैल पैल ''--जैसा हाल करदिया , शब्द बाणों से और क्रुद्ध नजरों से। छोटा शहर -जाने पहचाने लोग तो जनाब पहाड़ी बरसाती गदेरे की तरह खबर घर तक बहती हुई पहुंच गई हमारे साथ -साथ ! (मोबाइल नहीं थे वरना साक्षात भूषण की कल्पना बनी लड़की ही घर पहुंचती ) सराहना तो हुई साहस के लिये पर कुछ उपदेशों के साथ तथा वीररस का भूत आज ही उतार फेंको --तो जनाब एक होनहार वीररस की कवियत्री का एक मजनू की क्लास लेने के कारण असामयिक निधन हो गया।
--- साहित्यकार बनने की लगन , क्या लिखूं कैसे लिखूं ,कहां से शुरू करूं।वर्षों पहले माँ से पूछ-पूछ के एक कविता लिखी थी ----
''पंछी मुझको भाते हैं ,
चूं -चूं -चीं -चीं करते हैं ''---कुछ दस पंक्तियों की लिखी थी ,और उसपे अपने स्कूल का साहित्य अकादमी पुरूस्कार भी मिला था ( और शायद वहीं से गफलत हुई थी अपने रचनाकार होने की )--पर उसकी हर लाइन माँ की ही थी ,और अब विषयान्तर का भी समय था ,गया बचपन अर आई जवानी वाला --
रचनाधर्मिता ने कहा ,उम्र का तकाजा है ,कुछ प्यार-व्यार पे लिख ,प्रसिद्ध हो जायेगी। वैसे भी ये विषय कभी पुराना नहीं होता ,नवजवानों की महफ़िल हो या अधेड़ों या बुजुर्गों की ,प्यार की गजल गाने को सभी बेताब रहते हैं, फिर यदि किसी कमसिन सुंदरी के भाव हों तो बूढ़े भी उछलने लगते हैं मुकर्रर कहते हुए।
तो निश्चित हुआ शेरो शायरी लिखेंगे , मियां ग़ालिब घर में आ गए ,मीर ,फैज ,साहिर सभी दबे छिपे तकिया के नीचे आ बैठे ,मधुशाला तो घर में थी ही ,मधुबाला भी आ गई --और --''तीर पे कैसे रुकूँ मैं आज लहरों में निमंत्रण ''--वाला हाल हो गया।
पता चला पढ़ने और लिखने में जमीन-आसमान का अंतर् होता है। क्या कभी जमीं आसमां भी एक हुए --जी होते हैं। वो उम्र ही ऐसी थी जहां असम्भव कुछ नहीं दीखता। क्या कहा ? ये गुगली न फेंको ; व्यंग को व्यंग ही रहने दो ,मिलन का झूठ पका के थाली में मत परोसो। नहीं जी ; खाना पकाना तो मेरा शौक रहा है ,वो क्या कहते हैं हॉबी। लड़की वाली ! जो होने से लड़की सुशील और होनहार कहलाती है --आलू को छिलके सहित अंगारों में भूना --ऊपर से थोड़ा सा छीला और एक चम्मच आइसक्रीम की टोपी रख चमचमाती प्लेट में छुरी कांटे के साथ पेश कर दिया --हो गई रचनाधर्मिता --पर साहित्य ; खाना है, बुद्धि का ,यहां जमीन आसमान कैसे एक करूं -सोच ही रही थी कि झमाझम बारिश हो गई ,लो जी हो गया जमीन आसमान एक-- रिमझिम करके बदरा बरसे ,बालमवा घर आ , भावनायें भीगने लगीं ,लेखनी कुलबुलाने लगी ,शब्द अक्षरों का सहारा ले उछल-कूद करने लगे - कागद रंगने के लिये ,जैसे मछलियां पानी की सतह पे आती हैं बार-बार सांस लेने को। मधुबाला ,रेखा सिम्मी ,हेमा ,नंदा ,वैजयंतीमाला न जाने कितनी हीरोइनों को आत्मसाध करने की कोशिश करने लगा बावरा मन। मोहिनी सूरत और कमसिन उम्र ,एक प्यार भरी कहानी जिसमे, शेरो शायरी का तड़का भी होगा , लिखने को मन मचलने लगा , पर अहसास कहां से आयें ,केवल बारिश से ! प्यार तो अभी जीवन में आया ही न था। अभी तो केवल वो स्टेज थी जब किसी को छुपके पर्दे के पीछे से देखने का मन होता है ,मासूम अल्हड़ पर सहमा बचपन। मन में सावन की घटाएं घुमड़ तो रही थीं पर , बरसें कहां!
छोटा सा शहर ,सभी पहचाने चेहरे , कभी कोई अच्छा भी लगा तो क्या ? मन की बात मेरे मन से न निकली और अहसास पैदा होते ही दफ़न हो जाते। सोचा चल कोई कमसिन साथी नहीं है तो कोई बात नहीं इतने सारे गाने हैं सुनो और प्यार का रिहरसल करो ,कुछ तो अहसास बनेंगे --कहानी बनेगी तो जब प्यार मिलेगा उसे सुनाना अपना ये रोमांस का अनुभव--- और ''चाँद आँहें भरेगा ,फूल दिल थाम लेंगे ,हुस्न की बात चली तो सब तेरा नाम लेंगे '' या गुलाबी आँखें जो तेरी देखीं ,शराबी ये दिल हो गया '' या ''तुम बहारों में अकेले न फिरो ,आजकल फूल भी दिल वाले हुआ करते हैं ,कोई कदमों से लिपट बैठा तो फिर क्या होगा '' जैसे गानों पे दिल आ गया ,बार बार सुनना -- सुहाना अहसास मानो धर्मेंद्र ,शम्मी ,देव सब मेरे लिये ही गा रहे हों --चल पड़ी कहानी ; बरखा बहार ,भीगती गाती जन्मों की प्यासी दो कमसिन आत्मायें , अपने में मग्न दुनियाँ से दूर --तभी माँ की आहट --पढ़ाई के समय ये क्या ? नाम खराब करना है क्या पिताजी का ,वो फलां का लड़का कितना पढ़ता है ,हटाओ ये सारी वाहियात किताबें --लो जी फिर हुई मौत एक रोमांटिक साहित्यकार की ; क्या है माँ ! तुम क्यों नहीं समझतीं ,पढ़ाई के साथ मन में कुलबुलाते विचारों को भी तो सहारा देना चाहिये। तुम कहती हो लिखो पर वाहियात विषयों पे नहीं . साहित्य समाज का दर्पण है तो मैं उसमे अपने मन को क्यों न देखूं ?
और बैठे बिठाए एक नाजुक सा दिल टूट गया --बाहर पिताजी गुनगुना रहे थे सहगल को '' इस दिल के टुकड़े हजार हुए कोई यहां गिर कोई वहां गिरा '' भीतर मैं उभरती हुई लेखिका ,शायरा ,कवियत्री --रेडिओ पे सुन रही थी --''शामें गम की कसम आज ग़मगीं हैं हम ,आ भी जा आ भी जा आज मेरे सनम '' पर कोई सनम कहीं होता तो आता , गलती माँ की भी नहीं थी -झूठ और कल्पना में प्यार करती लड़की भी रास नहीं आती थी उस वक्त समाज को ,संस्कारों का क्षरण दीखने लगता था ,तो साहेबान '; मैं कमसिन उम्र में ही विरहिणी हो गई। लिखने की आस मरी नहीं ,अब कारवां गुजर गया ,गुबार देखते रहे वाली स्थिति हो गई ,और दिलीप कुमार पसंद आने लगे ,ट्रेजडी किंग।
गोपियों का विरह पढ़ने लगी ,उद्धव के उपदेशात्मक पदों के अर्थ माँ -पिताजी से पूछती तो वो बड़े गर्व से समझाते ,उन्हें क्या मालूम ,ये बिटिया उस अनदेखे ,अनजाने श्याम के विरह में उद्धव को दुश्मन समझती है ,ये उम्र और इतनी शुष्क बातें ! ---
कहते हैं होनहार होके ही रहती है और एक दिन लाइब्रेरी में परसाई जी को पढ़ा। मन बल्लियों उछल गया। अब मिली सही राह। फिर तो परसाई ,शरद जोशी ,श्री लाल जी ,काका ,शैल जी --सभी के साहित्य से गुजरने लगी। ये विधा सभी को स्वीकार्य थी ,लड़की के भटकने का भी डर नही था और आश्चर्य देखिये कबीर भी समझ आने लगे --
जो तू बामन-बमनी जाया। आन द्वार काहे नहिं आया’।,
‘क्या तेरा साहिब बहरा है’,
‘कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई चुनाय। ता चढ़ि मुल्ला बांगि दे क्या बहरा हुआ खुदाय’---सभी व्यंग मन के फाटक खोलने लगे ! --
पर क्या व्यंग लिखना आसान है , आँख कान हर वक्त खुले रखने पड़ते है ,चौकन्ना रहना पड़ता है ,कब कोई विषय मिल जाये ? हमें लेखिका बनने की छूट थोड़े ही थी ,ये तो केवल सांस्कृतिक कार्यक्रमों में वाहवाही लेने तक लिखने की छूट थी ,वरना तो पढ़ लिख के आफिसर बनो और अच्छे घर में शादी हो जाये ---- फिर व्यंग लेखन में यदि तर्क करने लगो तो बच्चों को कुतर्की कहके चुप करवादो ,कोई नाराज न होजाए तो ऐसा लिखना जो समाज में गलत अर्थ न जाये और इतनी बंदिशें इस उभरती लेखिका का नाजुक मन न सहन कर पाया और इस बार मैंने अपने भीतर की होनहार व्यंग लेखिका को स्वयं ही मार दिया ,किसी पे इल्जाम न आये ,अपनी आकांक्षाओं का गला घोट दो ,यही आम स्त्री है ,जो माँ-पिता ,पती ,बच्चों ,मायके ,ससुराल के लिए अक्सर अपने को भूल जाती है --यही है कहानी अधिकाँश स्न्नारियों की सदियों से सदियों तक।। आभा।।
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----व्यंग लेखन ; वो भी कहानी -सोचा अपने प्रादुर्भाव की ही कहानी लिखी जाय । व्यंग भी फर्स्टहैण्ड होगा ,अनुभूत व् झेला -झिलाया हुआ।
---- वो एक समय था -जब मैं छोटी थी ,हालांकि बुद्धि का खजाना आज भी छोटा ही है पर तब कुछ कमसिन सी भी थी और ऐसी उम्र में कोई काम बुद्धि से नही होता। उस वक्त शौक चर्राया लिखने पढने का ,किताबी ज्ञान से इतर कुछ सार्थक । सर्व सुलभ -भक्ति , श्रृंगार ,वीर रस ,की कविताएँ चाटने की हद्द तक पढ़ डालीं ,जायसी बिहारी और अन्य रीतिकालीन कवियों को भी घोट डाला ,पर मन के खेत में भावों की फसल न उगी। भक्तिकाल तो समझने की उम्र थी ही नही ,रीतिकाल के कवि लेखक स्त्री सौन्दर्य में ही अटके थे। नख-शिख से लेकर स्त्री के हर अंग का ऐसा वर्णन --रहीम की एक बानगी इस कहानी का हिस्सा बनने को आतुर है ----
'' बर बांके माटी भरे ,कौरी बैस कुम्हारि।
द्वै उलटे सखा मनौ , दीसत कुच उनहारी।।''======ये रहीम ने कुम्हारिन के सौन्दर्य का वर्णन किया है कि उसका रूप बेमिसाल है और जब वो मूर्ति बनाने के लिए सांचों में मिट्टी भरती है तो उसके स्तन सुंदर सकोरों जैसे दीखते है।
अब ऐसा साहित्य और कमसिन उम्र ,कलम उठाई और श्रृंगार रस की कविता लिखने का मूड बनाने लगी ,इतने में ही माँ की आहट हुई और रहिमन उनके हाथ लग गये --गुस्से में लाल चेहरा -मुहं से गारियों का झरना अंतिम पंक्ति ''क्या जमाना आ गया है रहीम के इतने सारे दोहों में तुम्हें यही दोहे मिले पढने को --और जनाब रीतिकाल की एक आधुनिक कवियत्री पैदा होने से पहले ही फना हो गयी। रहीम तो उपर जा चुके थे वरना पूछती बाबा तुम तो लिख के चले गये पर क्यूँ लिखा ये भी बता दो।
--. -खैर मैंने अपनी सोच को वीर रस की ओर डाइवर्ट किया --भूषण पढ़ के मन हुआ वीर रस की कविताएँ ही ठीक रहेंगी ,तब लोंगोवाल की लड़ाई भी हुई थी और चहूँ और जोश ही जोश था पर ''मेरा रंग दे बसंती चोला '' , ''कहो माओं से दें बेटे ,कहो बहनों से भाई '' ,''ऐ वतन ऐवतन '' से इतर कोई सोच ही न बनती , दो चार तुक्के जड़े तो उनमे फ़िल्मी गानों की ही खुशबू आती ,माँ को खुश करने को उन्हें सुनाया तो फ़िल्मी है कहके नकार दिया --फिर एक घटना हुई , हम दो सखियाँ मन्दिर जा रही थीं , पीछे से एक मनचले ने फब्ती कस दी। माना कि साधारण सी बात थी और वो जमाना जब लड़की ने कोई रियकशन दिया तो उसके साथ-साथ माँ-बाप -खानदान और पुरखों तक की बदनामी हो जायेगी ,पर मेरे भीतर तो भूषण कुलाचें भर रहे थे -आनन-फानन में दिमाग की बत्ती -----
''तारा सो तरणी धूरी ,धारा मे लगत जिमि |
थारा पर पारा पारा वारा यो हलत है ||''----- जैसी जल बुझ होने लगी। तुरंत ही मियां मजनू का ---'ऐल फैल खैल भैल खलक मे गैल गैल , गजन की ठैल पैल ''--जैसा हाल करदिया , शब्द बाणों से और क्रुद्ध नजरों से। छोटा शहर -जाने पहचाने लोग तो जनाब पहाड़ी बरसाती गदेरे की तरह खबर घर तक बहती हुई पहुंच गई हमारे साथ -साथ ! (मोबाइल नहीं थे वरना साक्षात भूषण की कल्पना बनी लड़की ही घर पहुंचती ) सराहना तो हुई साहस के लिये पर कुछ उपदेशों के साथ तथा वीररस का भूत आज ही उतार फेंको --तो जनाब एक होनहार वीररस की कवियत्री का एक मजनू की क्लास लेने के कारण असामयिक निधन हो गया।
--- साहित्यकार बनने की लगन , क्या लिखूं कैसे लिखूं ,कहां से शुरू करूं।वर्षों पहले माँ से पूछ-पूछ के एक कविता लिखी थी ----
''पंछी मुझको भाते हैं ,
चूं -चूं -चीं -चीं करते हैं ''---कुछ दस पंक्तियों की लिखी थी ,और उसपे अपने स्कूल का साहित्य अकादमी पुरूस्कार भी मिला था ( और शायद वहीं से गफलत हुई थी अपने रचनाकार होने की )--पर उसकी हर लाइन माँ की ही थी ,और अब विषयान्तर का भी समय था ,गया बचपन अर आई जवानी वाला --
रचनाधर्मिता ने कहा ,उम्र का तकाजा है ,कुछ प्यार-व्यार पे लिख ,प्रसिद्ध हो जायेगी। वैसे भी ये विषय कभी पुराना नहीं होता ,नवजवानों की महफ़िल हो या अधेड़ों या बुजुर्गों की ,प्यार की गजल गाने को सभी बेताब रहते हैं, फिर यदि किसी कमसिन सुंदरी के भाव हों तो बूढ़े भी उछलने लगते हैं मुकर्रर कहते हुए।
तो निश्चित हुआ शेरो शायरी लिखेंगे , मियां ग़ालिब घर में आ गए ,मीर ,फैज ,साहिर सभी दबे छिपे तकिया के नीचे आ बैठे ,मधुशाला तो घर में थी ही ,मधुबाला भी आ गई --और --''तीर पे कैसे रुकूँ मैं आज लहरों में निमंत्रण ''--वाला हाल हो गया।
पता चला पढ़ने और लिखने में जमीन-आसमान का अंतर् होता है। क्या कभी जमीं आसमां भी एक हुए --जी होते हैं। वो उम्र ही ऐसी थी जहां असम्भव कुछ नहीं दीखता। क्या कहा ? ये गुगली न फेंको ; व्यंग को व्यंग ही रहने दो ,मिलन का झूठ पका के थाली में मत परोसो। नहीं जी ; खाना पकाना तो मेरा शौक रहा है ,वो क्या कहते हैं हॉबी। लड़की वाली ! जो होने से लड़की सुशील और होनहार कहलाती है --आलू को छिलके सहित अंगारों में भूना --ऊपर से थोड़ा सा छीला और एक चम्मच आइसक्रीम की टोपी रख चमचमाती प्लेट में छुरी कांटे के साथ पेश कर दिया --हो गई रचनाधर्मिता --पर साहित्य ; खाना है, बुद्धि का ,यहां जमीन आसमान कैसे एक करूं -सोच ही रही थी कि झमाझम बारिश हो गई ,लो जी हो गया जमीन आसमान एक-- रिमझिम करके बदरा बरसे ,बालमवा घर आ , भावनायें भीगने लगीं ,लेखनी कुलबुलाने लगी ,शब्द अक्षरों का सहारा ले उछल-कूद करने लगे - कागद रंगने के लिये ,जैसे मछलियां पानी की सतह पे आती हैं बार-बार सांस लेने को। मधुबाला ,रेखा सिम्मी ,हेमा ,नंदा ,वैजयंतीमाला न जाने कितनी हीरोइनों को आत्मसाध करने की कोशिश करने लगा बावरा मन। मोहिनी सूरत और कमसिन उम्र ,एक प्यार भरी कहानी जिसमे, शेरो शायरी का तड़का भी होगा , लिखने को मन मचलने लगा , पर अहसास कहां से आयें ,केवल बारिश से ! प्यार तो अभी जीवन में आया ही न था। अभी तो केवल वो स्टेज थी जब किसी को छुपके पर्दे के पीछे से देखने का मन होता है ,मासूम अल्हड़ पर सहमा बचपन। मन में सावन की घटाएं घुमड़ तो रही थीं पर , बरसें कहां!
छोटा सा शहर ,सभी पहचाने चेहरे , कभी कोई अच्छा भी लगा तो क्या ? मन की बात मेरे मन से न निकली और अहसास पैदा होते ही दफ़न हो जाते। सोचा चल कोई कमसिन साथी नहीं है तो कोई बात नहीं इतने सारे गाने हैं सुनो और प्यार का रिहरसल करो ,कुछ तो अहसास बनेंगे --कहानी बनेगी तो जब प्यार मिलेगा उसे सुनाना अपना ये रोमांस का अनुभव--- और ''चाँद आँहें भरेगा ,फूल दिल थाम लेंगे ,हुस्न की बात चली तो सब तेरा नाम लेंगे '' या गुलाबी आँखें जो तेरी देखीं ,शराबी ये दिल हो गया '' या ''तुम बहारों में अकेले न फिरो ,आजकल फूल भी दिल वाले हुआ करते हैं ,कोई कदमों से लिपट बैठा तो फिर क्या होगा '' जैसे गानों पे दिल आ गया ,बार बार सुनना -- सुहाना अहसास मानो धर्मेंद्र ,शम्मी ,देव सब मेरे लिये ही गा रहे हों --चल पड़ी कहानी ; बरखा बहार ,भीगती गाती जन्मों की प्यासी दो कमसिन आत्मायें , अपने में मग्न दुनियाँ से दूर --तभी माँ की आहट --पढ़ाई के समय ये क्या ? नाम खराब करना है क्या पिताजी का ,वो फलां का लड़का कितना पढ़ता है ,हटाओ ये सारी वाहियात किताबें --लो जी फिर हुई मौत एक रोमांटिक साहित्यकार की ; क्या है माँ ! तुम क्यों नहीं समझतीं ,पढ़ाई के साथ मन में कुलबुलाते विचारों को भी तो सहारा देना चाहिये। तुम कहती हो लिखो पर वाहियात विषयों पे नहीं . साहित्य समाज का दर्पण है तो मैं उसमे अपने मन को क्यों न देखूं ?
और बैठे बिठाए एक नाजुक सा दिल टूट गया --बाहर पिताजी गुनगुना रहे थे सहगल को '' इस दिल के टुकड़े हजार हुए कोई यहां गिर कोई वहां गिरा '' भीतर मैं उभरती हुई लेखिका ,शायरा ,कवियत्री --रेडिओ पे सुन रही थी --''शामें गम की कसम आज ग़मगीं हैं हम ,आ भी जा आ भी जा आज मेरे सनम '' पर कोई सनम कहीं होता तो आता , गलती माँ की भी नहीं थी -झूठ और कल्पना में प्यार करती लड़की भी रास नहीं आती थी उस वक्त समाज को ,संस्कारों का क्षरण दीखने लगता था ,तो साहेबान '; मैं कमसिन उम्र में ही विरहिणी हो गई। लिखने की आस मरी नहीं ,अब कारवां गुजर गया ,गुबार देखते रहे वाली स्थिति हो गई ,और दिलीप कुमार पसंद आने लगे ,ट्रेजडी किंग।
गोपियों का विरह पढ़ने लगी ,उद्धव के उपदेशात्मक पदों के अर्थ माँ -पिताजी से पूछती तो वो बड़े गर्व से समझाते ,उन्हें क्या मालूम ,ये बिटिया उस अनदेखे ,अनजाने श्याम के विरह में उद्धव को दुश्मन समझती है ,ये उम्र और इतनी शुष्क बातें ! ---
कहते हैं होनहार होके ही रहती है और एक दिन लाइब्रेरी में परसाई जी को पढ़ा। मन बल्लियों उछल गया। अब मिली सही राह। फिर तो परसाई ,शरद जोशी ,श्री लाल जी ,काका ,शैल जी --सभी के साहित्य से गुजरने लगी। ये विधा सभी को स्वीकार्य थी ,लड़की के भटकने का भी डर नही था और आश्चर्य देखिये कबीर भी समझ आने लगे --
जो तू बामन-बमनी जाया। आन द्वार काहे नहिं आया’।,
‘क्या तेरा साहिब बहरा है’,
‘कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई चुनाय। ता चढ़ि मुल्ला बांगि दे क्या बहरा हुआ खुदाय’---सभी व्यंग मन के फाटक खोलने लगे ! --
पर क्या व्यंग लिखना आसान है , आँख कान हर वक्त खुले रखने पड़ते है ,चौकन्ना रहना पड़ता है ,कब कोई विषय मिल जाये ? हमें लेखिका बनने की छूट थोड़े ही थी ,ये तो केवल सांस्कृतिक कार्यक्रमों में वाहवाही लेने तक लिखने की छूट थी ,वरना तो पढ़ लिख के आफिसर बनो और अच्छे घर में शादी हो जाये ---- फिर व्यंग लेखन में यदि तर्क करने लगो तो बच्चों को कुतर्की कहके चुप करवादो ,कोई नाराज न होजाए तो ऐसा लिखना जो समाज में गलत अर्थ न जाये और इतनी बंदिशें इस उभरती लेखिका का नाजुक मन न सहन कर पाया और इस बार मैंने अपने भीतर की होनहार व्यंग लेखिका को स्वयं ही मार दिया ,किसी पे इल्जाम न आये ,अपनी आकांक्षाओं का गला घोट दो ,यही आम स्त्री है ,जो माँ-पिता ,पती ,बच्चों ,मायके ,ससुराल के लिए अक्सर अपने को भूल जाती है --यही है कहानी अधिकाँश स्न्नारियों की सदियों से सदियों तक।। आभा।।