मजदूर ======
म ====ओष्ठ्य
ज ====तालव्य
द =====दंत्य
ऊ ====कंठस्थ
र =====मूर्धन्य
म ====ओष्ठ्य
ज ====तालव्य
द =====दंत्य
ऊ ====कंठस्थ
र =====मूर्धन्य
-------- जिव्हा ,तालु ,मूर्द्धा ,कंठ ,दंत ,ओष्ठ के संयोग से निकलने वाली ध्वनियों के अनुसार ही व्यंजनों का वर्गीकरण किया गया है। मजदूर एक ऐसा शब्द है जिसमे हर वर्ग के व्यंजन हैं --तो जो सबको लेकर बना वो समष्टि ही होगा और समष्टी में संघर्षो की कहानियां न हों ये तो हो ही नहीं सकता --व्यष्टि समष्टि के गर्भ से उपजती है और बड़े गर्व से मजदूर को मजदूर कहने का हक हथिया लेती है। पर उसे नहीं मालूम ये शब्द अपने आप में ही पूर्ण है कैसे देखिये ---
मजदूर -सर्वनाम तो है ही पर यदि हम व्यक्ति विशेष को नाम से नहीं ''मजदूर'' के नाम से ही पहचानते हैं तो उसे संज्ञा भी कह सकते है [ व्याकरणाचार्य मुझे माफ़ करें ]
मजदूर आ रहा है--एकवचन
मजदूर आ रहे हैं --बहुवचन --स्थितप्रज्ञ -जैसे का तैसा रहा सदियों से और ऐसा ही रहेगा सदियों तक ,एक वचन में भी और बहुवचन में भी - चाहे कितने ही मजदूर दिवस मना लो ,कितनी ही कॉन्फ्रेंस कर लो ,कितने ही नारे ''दुनिया के मजदूरों एक हो '' टाइप लगा लो --अरे मजदूर की नियति में तो व्याकरण ने ही रलेमिले हालात लिख दिए हैं मित्रों --आप उसके हाल क्या सुधारेंगे ? हाँ ! उसकी आड़ में दोचार जगह समोसे गुलाबजामुन की प्लेटें डकार आएंगे और हो सके तो अपने झोले में चम्मच भी चुरा लाएंगे।
अब देखिये मजदूर शब्द में जाती -लिंग का भी फर्क नहीं है --मजदूर स्त्रीलिंग ,पुल्लिंग दोनों है --तो क्या बदलेंगे आप ? यहां तो सब मिलीजुली संस्कृति है जनाब --सुबह सब अपने बच्चों को छोड़ काम पे चले जाते है --पीछे सभी के बच्चे खेलते कूदते ,मिटटी में लोटते कूड़े के ढेरों या आलिशान अट्टालिकाओं से निकले मलबे के पहाड़ों पे फिसलते चढ़ते ,एवरेस्ट पे चढ़ने उतरने का आनंद लेते हैं ,अपने जीने के लिए खुशियां ढूंढते इन बच्चों में अधिकतर बच्चे सायं माबाप के आने तक रोते हुए सो चुके होते है ,भूख से बिलखते बच्चों की भूख की गवाही ---उनके मिटटी सने चेहरे पे आंसू की लकीर देती है। क्या बदलसकेंगे इन हालातों को ?--नहीं ! बदलने को नीयत चाहिए होती है --न कि खुद को झोला छाप दिखा इन गरीबों को विद्रोही बनाने की कुचेष्टा।
मजदूर ---सर्वनाम है पर इस शब्द से ही निर्धनता ,गरीबी लाचारी और शोषित का बोध होता है तो इसे भाववाचक संज्ञा भी कह सकते हैं ---अब सोचने की बात ये है की जिस शब्द में ही करुणा है --वहां करुणा के दोनों पक्ष संयोग वियोग होंगे ही और ये जिसकी जिंदगी के हिस्से होंगे उसे वो अपनी स्तिथि के अनुसार ही परिभाषित करेगा सो कोई भी इनकी स्थिति कैसे बदल सकता है।
मजदूर --तो बस इतना हो जाये --ये जहां काम करते हैं वहां इन्हें मूलभूत सुविधाएं मिल जायें ,इनके बच्चों को भी राष्ट्र का भविष्य माना जाये --बच्चों के स्वास्थ्य और शिक्षा का दायित्व उस सेठ का हो जहां वो काम करता है ---सरकारें यदि सख्ती दिखायें तो मजदूर भी मुख्य धारा में आ सकता है ---और यकीन जानिये वो अपना काम और अच्छी तरह से करेगा ---दिवस मनाने में खर्च करोड़ों रुपयों को भी इनके बच्चों को दिया जा सकता है ---पर बिल्ली के गलेमे घंटी कौन बांधेगा ? यहां तो रस्में रस्मअदायगी ही होती हैं बस -----मजदूर दिवस ----
मजदूर -सर्वनाम तो है ही पर यदि हम व्यक्ति विशेष को नाम से नहीं ''मजदूर'' के नाम से ही पहचानते हैं तो उसे संज्ञा भी कह सकते है [ व्याकरणाचार्य मुझे माफ़ करें ]
मजदूर आ रहा है--एकवचन
मजदूर आ रहे हैं --बहुवचन --स्थितप्रज्ञ -जैसे का तैसा रहा सदियों से और ऐसा ही रहेगा सदियों तक ,एक वचन में भी और बहुवचन में भी - चाहे कितने ही मजदूर दिवस मना लो ,कितनी ही कॉन्फ्रेंस कर लो ,कितने ही नारे ''दुनिया के मजदूरों एक हो '' टाइप लगा लो --अरे मजदूर की नियति में तो व्याकरण ने ही रलेमिले हालात लिख दिए हैं मित्रों --आप उसके हाल क्या सुधारेंगे ? हाँ ! उसकी आड़ में दोचार जगह समोसे गुलाबजामुन की प्लेटें डकार आएंगे और हो सके तो अपने झोले में चम्मच भी चुरा लाएंगे।
अब देखिये मजदूर शब्द में जाती -लिंग का भी फर्क नहीं है --मजदूर स्त्रीलिंग ,पुल्लिंग दोनों है --तो क्या बदलेंगे आप ? यहां तो सब मिलीजुली संस्कृति है जनाब --सुबह सब अपने बच्चों को छोड़ काम पे चले जाते है --पीछे सभी के बच्चे खेलते कूदते ,मिटटी में लोटते कूड़े के ढेरों या आलिशान अट्टालिकाओं से निकले मलबे के पहाड़ों पे फिसलते चढ़ते ,एवरेस्ट पे चढ़ने उतरने का आनंद लेते हैं ,अपने जीने के लिए खुशियां ढूंढते इन बच्चों में अधिकतर बच्चे सायं माबाप के आने तक रोते हुए सो चुके होते है ,भूख से बिलखते बच्चों की भूख की गवाही ---उनके मिटटी सने चेहरे पे आंसू की लकीर देती है। क्या बदलसकेंगे इन हालातों को ?--नहीं ! बदलने को नीयत चाहिए होती है --न कि खुद को झोला छाप दिखा इन गरीबों को विद्रोही बनाने की कुचेष्टा।
मजदूर ---सर्वनाम है पर इस शब्द से ही निर्धनता ,गरीबी लाचारी और शोषित का बोध होता है तो इसे भाववाचक संज्ञा भी कह सकते हैं ---अब सोचने की बात ये है की जिस शब्द में ही करुणा है --वहां करुणा के दोनों पक्ष संयोग वियोग होंगे ही और ये जिसकी जिंदगी के हिस्से होंगे उसे वो अपनी स्तिथि के अनुसार ही परिभाषित करेगा सो कोई भी इनकी स्थिति कैसे बदल सकता है।
मजदूर --तो बस इतना हो जाये --ये जहां काम करते हैं वहां इन्हें मूलभूत सुविधाएं मिल जायें ,इनके बच्चों को भी राष्ट्र का भविष्य माना जाये --बच्चों के स्वास्थ्य और शिक्षा का दायित्व उस सेठ का हो जहां वो काम करता है ---सरकारें यदि सख्ती दिखायें तो मजदूर भी मुख्य धारा में आ सकता है ---और यकीन जानिये वो अपना काम और अच्छी तरह से करेगा ---दिवस मनाने में खर्च करोड़ों रुपयों को भी इनके बच्चों को दिया जा सकता है ---पर बिल्ली के गलेमे घंटी कौन बांधेगा ? यहां तो रस्में रस्मअदायगी ही होती हैं बस -----मजदूर दिवस ----