Sunday, 17 June 2018

ठाली बैठे -सुधियों के जलधि में गोता लगाना -
'समय '
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पग- समय के,
छाया की मानिंद
पथ में ,चलते हैं साथ -
 सृष्टि के।
न आवाज ,
न आकृति
 पारदर्शी -
समय की पदचाप ,
सुनाई नहीं देती -
न आपको न मुझे।
पर हैं सभी -
इसी पथ पे,
फना होना - नियति।
जग से बंधन
कुछ निष्ठुर क्षणों के ,
मन की परतें खोलते -
बोलते -लिखते
पर ----
मज्जा से परत दर परत
अस्थि होती देह  -
 विषाद में जाएगा मन ,
सो न ----
देखने की जिद्द -
 उपेक्षा
या फिर प्रकृति की
अवहेलना !
छीजती देह -
समय संग -
करती कदमताल ,
कब होजाती
कंकाल ?
अब  सभी एक से !
न रूप न रंग
समय के पारदर्शी
रंग में रंगे।
देख कुछ कंकालों को
सुधियाँ करने लगीं
अट्टहास -----
सदियां कौंध गयी
 मन में----
बोल  !शब्द  ! सब
खामोश -आभा -












Wednesday, 13 June 2018


'' शब्द -शब्द ''

अक्षरों की बूंदाबांदी
उजलापन शब्दों का
झरा वाक्यों का झरना
जो हम हैं
वही तो झरेंगे
मन आसमान !
तो
शब्दों का झरना ,
रंग बिखेरेगा
" इंद्रधनुषी "

नदी भावों की
बन बहेगा
कलकल छलछल
छू जिसे शीतल मलय
झंकृत कर प्राण
आलिंगन कर अंबर का
बन शीतल फुहारें
सृजेगा हरियाली
"शब्दों के ओले "
गंदला बरसाती दरिया
वेग से उमड़ा ,
बह चला,दिशा हीन
तोड़ता तट-बंध
लट्ठों -पत्थरों संग
कठोर !शब्दों का वेग
सब बहाने को आतुर
दूरी बढ़ाता किनारों की
तोड़ दे दृढ सेतु को भी
एक उजाड़े दहशत दे
एक मन प्रांगण
अंतर भिगो
पुलकावलि भरे
हरियाली दे आनंद दे
अक्षरों की बूंदा-बांदी
मेघ नभ सी चंचल
शब्द हमें चुनने हैं
वाक्य हमें बनाने हैं
बनाएंगे तो वही न
जो अंतर में होगा
मन के जंगल को
उपवन बनाना ?
दुरूह होता है स्वयं को पाना।।आभा।।