Wednesday, 5 December 2018


---यादों के समुद्र में डूबती -उछलती ,यादों के जंगल को खंगालती ,अंधेरों को देखने की कोशिश में अंतर्मन को सूर्य की किरन बनाती ,घने जंगल में फैले झंखाड़ों को साफ़ करती -- ---पुराने से स्नेह लेने की बारी ----
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" बैठे ठाले का फितूर ,बेमतलब की बकवास "
(जिन्दगी की बाराखड़ी)
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इश्क पुराने रेख्तों से ------
दिन प्रति दिन ,साल दर साल शरीर का क्षरण होता ही रहता है। प्रकृति की अपनी बराखडी है अपना रूप बदलती है वो ऋतुचक्र के साथ नयी पुरानी हो जाती है पर शरीर एक बार बूढ़ा हुआ तो सोच के माध्यम से ही पीछे जा सकता है और जाता भी है! तरो -ताजा होने को - सुहानी यादों में डुबकी ले - सद्ध्य: स्नाता की मानिंद तरो -ताजा हो जाता है। लम्बी यात्राओं के बाद जब थकान मन मस्तिष्क को शिथिल कर देती है तो पुरानी रचनाओं से स्नेह लेना उनके निकट जाना पुन: सृजन सा ही सुखद अहसास देता है ,उस वक्त के अहसासों का मानसिक मंचन और परिचालन, लिखने की भूख को शांत करने का मेरा प्रिय शगल होता है।तख्ती में लिखी बचपन की बराखडी की तरह अक्षर-अक्षर संग वो ही अहसास वो ही संवेदनाएं उछलकूद करने लगती हैं और कहने लगती है 'योग क्षेम वहाम्यहम् ' तू आ तो मेरे पास। शब्द शाखों के कानों में झूमर से डोलने लगते हैं और मैं खो जाती हूँ यादों में। …
बरसों ये सूरज चाँद सितारे जुगनू मेरे साथ जले ,चमके जगमगाये टिमटिमाये आज भी सबकुछ वैसा ही है प्रकृति उतनी ही हसीन है ,बस सांझ ढलने पे अपनी पोटली बांधने और चलने की तैयारी मैंने शुरू कर दी है | कितना कुछ है इस पोटली में शायद कुछ व्यक्त से अव्यक्त में भी साथ जाए अनन्त की यात्रा में |नदी, पहाड़, झरने ,जंगल, बाग़, बगीचे तितली, फूल, भंवरे, परिंदे और सागर; आज भी मन में वही तरंग जगाते हैं ,ताली बजाके उछलने का मन आज भी होता है कोई पागल समझे तो ये उसकी समझ का दोष है शायद हर उम्र में एक बच्चा तो इन्सान के भीतर रहता ही है जो बंधन में नहीं रहना चाहता है मन के किसी कोने से बाहर आने की कोशिश में रहता है और नकारने पे हमें खींच के बचपन की यादों के बागीचे में सैर करने को मजबूर कर देता है | 'ॐ नम: सिद्धम् ' के साथ स्लेट या पुती हुई तख्ती पे आड़ी तिरछी रेखायें खींचते हुये कब बच्चा बाराखड़ी और पहाड़ों के फेर में पड़ जाता है उसे पता भी नहीं चलता |और बस यहीं से ९९ के फेर में पड़ने का सिलसिला प्रारम्भ |
हाँ ! ये जिन्दगी भी तो बाराखड़ी की तरह ही है ;अ से प्रारम्भ होके सभी स्वरों को साथ लेते हुए व्यंजन और व्यंजनाओं में डूबती उतरती नैया की मानिंद ज्ञ तक का लम्बा रास्ता तय करती है | फुर्सत के क्षणों में चिंतन जब बीते हुए पलों में गोता लगाता है तो सारी यादें ,सारे बीते पल स्वरों और व्यंजनों की तरह उछल-कूद करने लगते हैं मन की कापी के पन्ने पे, कभी सपाट और कभी करीने से खींची गयी लाइनों पे चलते से -अलग -अलग रंगों की स्याही से लिखी इबारत , हर पल ,हर घटना ,हर मूड का अपना सुलेख ! कहीं मोती से उकेरे गये अक्षर हैं मानो मानसरोवर में राजहंस तैर रहे हों और कहीं लिखाई आकाश में बिखरे बादलों की मानिंद -जहाँ किसी भी अक्षर का कोई आकार ही नहीं है -अपना ही लेख पढना समझना कुछ दिनों बाद मुश्किल |
जिन्दगी की बाराखड़ी के रस्ते में शायद पूर्ण विराम नहीं है अव्यक्त से व्यक्त और अनन्त की यात्रा कभी प्रकाश तो कभी अंधकार -चरेवेति-चरेवेति एक राह से दूसरी राह एक चोले से दूसरा चोला --
'' वासांसि जीर्णानि यथा विहाय ,नवानि गृह्णाति नरोपराणी '' की निरंतरता | हाँ ! हलन्त् तो हम इसे बना ही लेते हैं ,जहाँ से आगे न बढ़ना हो ,किसी का साथ छोड़ना हो ,कहीं से मोड़ मुड़ना हो तो हलन्त् हमें खूबसूरत अंत सिखाता है ठीक वैसे ही जैसे सृज् धातु से सृष्टि बनी पर वहां भी अव्यक्त से व्यक्त की यात्रा है, निरंतर; पूर्ण विराम के स्थान पे हलन्त् ही है और मेरे जीवन को तो हलन्त् ने ही पकड़ रखा है ,आधी-अधूरी ख़ुशी ,पूर्ण निष्ठा और समर्पण के पश्चात भी कार्य न होना, सफल असफलताओं का अम्बार , ढेरों पूर्ण विराम थे जीवन के जो मैंने हलन्त् की खूबसूरती के साथ स्वीकार कर लिए ;जीवन का ककहरा सीखते हुए कैसे जिन्दगी कभी मूर्ध्यन्य हो गयी कभी तालव्य की तरह गोल-गोल घूमने लगी पर "ॐ तत्सत् " के साथ अपनाने से किसी भी परिस्थिति में मिठास कम नहीं हुई |आधे को हलन्त् की खूबसूरती देके पूरे का अहसास और फिर चल पड़ना दूसरी राह् ठीक वैसे ही जैसे अनजाने में तत्सम -तदभव् शब्दों में य र ल व् श स ष ह के साथ अनुस्वार के स्थान पर चन्द्रबिन्दु का प्रयोग वर्तनी की अशुद्धि है पर अर्थ स्पष्ट है | ऐसा नहीं है कि जीवन में हमेशा अनुस्वार की खूबसूरत सी बिंदी या चन्द्रबिन्दु का ताज नहीं रहा ( माँ होने पे तो ये साथ -साथ ही चलता है ) अपितु असंख्यों बार तो विसर्ग ने भी जीवन के सुलेख में जुडके उसे खूबसूरत अर्थ दिया है पर इसका आभास होने में समय लग गया | दुःख में विसर्ग : ने जुड़ के उसे कितने सुन्दर शब्द में ढाल दिया यदि दुःख में विसर्ग न होता तो दुख नग्नता का आभास देता | ये विसर्ग यदि समझ में आ जाए तो दुःख के पल सिमट जाते हैं मन के किसी कोने में विसर्ग की खूबसूरती लिए हुए वरना तो अनुस्वार कब खिसक के नीचे आ जाए और नुक्ता . बनके तालव्य को गले में जाने को मजबूर कर दे भान ही न हो |
बच्चे को बाराखड़ी और वो भी ॐ नम: सिद्धम् के साथ सिखाना ,सुलेख लिखना ,स्लेट पे बाराखड़ी लिखना फिर मिटाना फिर लिखना ,फिर तख्ती पे अभ्यास वो भी तख्ती की रंगाई पूताई के साथ फिर कलम की कत बना के सुंदर अक्षरों को उकेरने की प्रेरणा शायद जीवन रूपी रंगमंच की घटनाओं का रिहर्सल ही होता है |संयम ,,धैर्य ख़ुशी ,खोना- पाना ,दुःख -सुख सारे रसों से बालपन में ही परिचय ताकि सनद रहे |
यूँ ही बैठे ठाले अ से ज्ञ तक घूम आयी और एक बार बाराखड़ी फिर से लिख ली फिर से तख्ती पोती ,कलम में कत बनाई ,होल्डर की निब घिसी और सुलेख के बाद अब बाग़ में तितली के पीछे या सुंदर पक्षियों का कलरव - सागर किनारे दिल ये पुकारे ,आज भी अहसास वही हैं बस बड़प्पन का मुल्लमा उतारने की देर है और फिर तो --- दिल तो बच्चा है जी || ....आभा ...