आचमन -----------
किसी भी पूजा या धार्मिक अनुष्ठान में बैठने पे सर्व -प्रथम हम आचमन करते हैं। कहते हैं आचमन अनिवार्य है कर्मकांड या पूजा की शुद्धता और पवित्रता के लिए। पहले तो सभी को ज्ञात होता था इसके पीछे क्या धरणा है पर कालांतर में इंस्टेंट पूजा ,पंडितजी जल्दी करो ने इस क्रिया के महत्व को ही कम कर दिया। मेरे पिता नित्य संध्या वंदन आचमन से ही शुरू करते थे ,कुतूहल वश हम उनसे पूछते थे तो जो उन्होंने बताया वो ही महाभारत में भी पढ़ने को मिला। पितरों का नित्य स्मरण सांस्कृतिक विरासत के प्रति श्रद्धा और प्रकृति की शुद्धता के प्रति प्रतिबद्धता ; एक आचमन से , साथ ही जल की शुद्धता के महत्व का भान।
ॐ अपवित्रो पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोsपिवा।
य: स्मरेतपुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर:शुचिः।।
आचमन के समय मौन रह के तीन बार जल पियें ,उसमें कोई आवाज न हो ,अंगूठे के मूल भाग से दो बार मुहं पोंछे ,इसके बाद चक्षु ,नासिक ,कर्ण और मस्तक का स्पर्श।
अब क्या कहता है महाभारत --प्रथम बार जल के पीने से ऋग्वेद ,द्वितीय बार से यजुर्वेद और तृतीय बार से सामवेद तृप्त होता है ,प्रथम बार के मुख-मार्जन से अथर्वेद और द्वितीय बार के मार्जन से इतिहास,पुराण व् स्मृतियों के अधिष्ठाता देवताओं को तृप्त किया जाता है। नेत्रों के स्पर्श से सूर्य को ,नासिका से वायु और कर्ण के स्पर्श से दिशाओं को संतुष्टि मिलती है।
मस्तक का स्पर्श ब्रह्माजी को संतुष्ट करता है व् मार्जन के पश्चात जो उपर की ओर चारों ओर जल फेंका जाता है वो आकाश के अधिष्ठाता देवता को संतुष्ट करता है। --अब जल को शुद्ध होना तो अनिवार्य ही हो गया न ,तभी तो सदियों पुरानी नदियाँ हमारी पीढ़ी की युवावस्था तक शुद्ध और स्वच्छ थीं।
यह तो रही संध्या पूजा के कर्म-काण्ड में सम्पन्न होने वाली क्रिया पर हिन्दू संस्कृति संस्कारों की सुंदरता देखिये ,''मन में ही गंगा मन में ही यमुना ''---चारों वेद ,इतिहास,स्मृति ,पुराण उपनिषद ,दशों दिशाएँ ,एवं ब्रह्माण्ड के सभी तत्व आपके भीतर ही हैं अत: अपने को शुद्ध करो पहले ,केवल बाह्य ही नहीं ''बाह्याभ्यन्तर:शुचिः'' आंतरिक शुद्धता होनी भी आवश्यक है ,तभी वेद पुराण ,सभी आपको प्राप्य होंगे और अंतिम लक्ष्य तो पुण्डरीकाक्ष ही है --वो मैले मन को कैसे मिलेगा ;
किसी भी पूजा या धार्मिक अनुष्ठान में बैठने पे सर्व -प्रथम हम आचमन करते हैं। कहते हैं आचमन अनिवार्य है कर्मकांड या पूजा की शुद्धता और पवित्रता के लिए। पहले तो सभी को ज्ञात होता था इसके पीछे क्या धरणा है पर कालांतर में इंस्टेंट पूजा ,पंडितजी जल्दी करो ने इस क्रिया के महत्व को ही कम कर दिया। मेरे पिता नित्य संध्या वंदन आचमन से ही शुरू करते थे ,कुतूहल वश हम उनसे पूछते थे तो जो उन्होंने बताया वो ही महाभारत में भी पढ़ने को मिला। पितरों का नित्य स्मरण सांस्कृतिक विरासत के प्रति श्रद्धा और प्रकृति की शुद्धता के प्रति प्रतिबद्धता ; एक आचमन से , साथ ही जल की शुद्धता के महत्व का भान।
ॐ अपवित्रो पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोsपिवा।
य: स्मरेतपुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर:शुचिः।।
आचमन के समय मौन रह के तीन बार जल पियें ,उसमें कोई आवाज न हो ,अंगूठे के मूल भाग से दो बार मुहं पोंछे ,इसके बाद चक्षु ,नासिक ,कर्ण और मस्तक का स्पर्श।
अब क्या कहता है महाभारत --प्रथम बार जल के पीने से ऋग्वेद ,द्वितीय बार से यजुर्वेद और तृतीय बार से सामवेद तृप्त होता है ,प्रथम बार के मुख-मार्जन से अथर्वेद और द्वितीय बार के मार्जन से इतिहास,पुराण व् स्मृतियों के अधिष्ठाता देवताओं को तृप्त किया जाता है। नेत्रों के स्पर्श से सूर्य को ,नासिका से वायु और कर्ण के स्पर्श से दिशाओं को संतुष्टि मिलती है।
मस्तक का स्पर्श ब्रह्माजी को संतुष्ट करता है व् मार्जन के पश्चात जो उपर की ओर चारों ओर जल फेंका जाता है वो आकाश के अधिष्ठाता देवता को संतुष्ट करता है। --अब जल को शुद्ध होना तो अनिवार्य ही हो गया न ,तभी तो सदियों पुरानी नदियाँ हमारी पीढ़ी की युवावस्था तक शुद्ध और स्वच्छ थीं।
यह तो रही संध्या पूजा के कर्म-काण्ड में सम्पन्न होने वाली क्रिया पर हिन्दू संस्कृति संस्कारों की सुंदरता देखिये ,''मन में ही गंगा मन में ही यमुना ''---चारों वेद ,इतिहास,स्मृति ,पुराण उपनिषद ,दशों दिशाएँ ,एवं ब्रह्माण्ड के सभी तत्व आपके भीतर ही हैं अत: अपने को शुद्ध करो पहले ,केवल बाह्य ही नहीं ''बाह्याभ्यन्तर:शुचिः'' आंतरिक शुद्धता होनी भी आवश्यक है ,तभी वेद पुराण ,सभी आपको प्राप्य होंगे और अंतिम लक्ष्य तो पुण्डरीकाक्ष ही है --वो मैले मन को कैसे मिलेगा ;
आचमन के समय मौन रह अपने मन की शुद्धता और पवित्रता से हम सभी को पा सकते हैं --साथ
ही प्रकृति को शुद्ध और स्वच्छ रखना भी हमारा ही कर्तव्य है ये नित्य ही आचमन के द्वारा सिखाया जाता है। सदियों तक गुरुकुल में संततियों को पीढ़ी दर पीढ़ी यही शिक्षा मिली तब ही आज भी हम इस धरा को भोग पा रहे हैं। आधुनिक शिक्षा में संस्कारों के मायने ही बदल गए ,
इतिहास स्मृति--सब जगह विदेशी आक्रान्ताओं का बोलबाला है इसीलिये बच्चे इन छोटी-छोटी संवेदनाओं से वंचित हो गए हैं ,इन क्रियाओं के पीछे की भावना--प्रकृति से जुड़ाव , श्रद्धा --सब लोप हो गया है --वरना तो नहाते ,खाते पूजा करते सदैव ''अपवित्रो पवित्रो वा '' की ध्वनि कानों में हर घर में सुनाई देती थी और ये कुछ पलों का संस्कार पोंगापंथी नहीं वरन सहज होने की क्रिया है ----