Thursday, 25 February 2021

बाट निहारूं (बैठे-ठाले )
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मिलें जहां अवनि- अम्बर
क्या ! वहीं रहते हो मुरारी ?
अवनि-अम्बर मिल रहे हैं
निशब्द मेरे मन- गगन में
राह तेरी तक रही हूँ !
अब तो आ जाओ मुरारी
सामने अम्बुद ये गहरा
सुप्त सुधियों की ये लहरें
आ तीर पर , कानों में कहतीं
ज्वाल मैं , तू अम्बु शीतल
मन गुहा -गहरी बहुत है
मूंगे के पर्वत सी है पीड़ा
प्यास तेरी प्रति शिरा में
दौड़ती है सांस बन कर
कर्म -भूमि ,पुण्य -भूमि
उसपार ही तो मिल सकेगी
तैर कर जाना है मुझको
बिन डांड और पतवार के ही .
अक्षि का निक्षेप ही है
तू कूल में देता दिखाई
कर्म के इस व्योम पर
नक्षत्र यों बिखरे पड़े हैं ,
रोकने मुझको खड़े हैं
मोह के बंधन ये सारे
आज अर्जुन मैं बनी हूँ
कृष्ण बन जाओ मुरारी
आज थामो बांह मेरी
संग हो लूँ मैं तुम्हारे
किस तरह सूनी हैं राहें
मेघ बन कर मैं खड़ी हूँ
राह कोई सूझती ना
मन मरुत भी पथ न पाता
घिर गयी हूँ मैं तिमिर में
हारना ना चाहती हूँ
मरूकणों के तप्त पथ पर
वेदना बन गल रही हूँ
चेतना थकने लगी अब
ये भेद भी मैं जानती हूँ
अवनि अम्बर के मिलन पर
सज चुका है रथ तुम्हारा
स्वर्ण दिखता है गगन में !
क्या ! आ रहे हो तुम मुरारी ?
नील अम्बर में पीताम्बर
अब सुशोभित हो रहा है
गूंजने तो अब लगी है
कानो में बंसीधुन तुम्हारी
उषा, निशा बन कर खड़ी है
मुखर मन को करो प्रिय तुम
तक रही हूँ राह प्रियतम
लय ताल वाला नृत्य दे दो
मन गगन में गूंजती धुन
अब तो आ जाओ मुरारी ।।आभा।।
......


   


बैठे -ठाले

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अंतर्मन में प्रीति का दाग
बस यही तो चाहत अपनी !
कुछ दाग अच्छे होते हैं
न धुलते न धोने की इच्छा !
गुजरते लम्हों संग-
वेदना की गर्म स्याही
भाप बन उठ- इठलाती -
मन नभ को छलकाती,
आर्त दृगों की दवात में डुबा
पसीजते प्राणो की कूची को-
उकेर देती है
इंद्रधनुषी रंगों की--
बाटिक पेंटिंग,
मन के कोरे कैनवास में ;
पगला मन उतर आता है, पलकों में !
प्रीति सुनाती हुई ,पतंगे की कहानी-
कहती है ;
सुकमार हैं पलकें तुम्हारी ,
मन का भार न सह पायेंगी;
इस चिलमन को बंद कर लो.
मन में पड़े रंगबिरंगे-
बाटिक से दाग
बतकहियाँ ना बनें !
कुछ दाग मन के लिए ही होते हैं ! ।।आभा।
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Tuesday, 30 April 2019




बैठेठाले 
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कहाँ का ईंट कहाँ का रोड़ा ,भानमती ने कुनबा जोड़ा --मस्तिष्क में चलती विचारों की आँधियों में धूल धक्क्ड़ जैसे विचारों को सहेजना --सही में भानमती का कुनबा ही बन जाता है। 
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कलपुर्जों का युग ,तकनिकी का युग ,और तकनिकी में आविष्कारों एवं  नवीनता का युग। ये भी तो पहले से ही निश्चित था न- एक ऐसा ही युग होगा जिसे कलयुग कहेंगे। ' गतानुगति को लोको ' जहां मानवीय संवेदनायें भी कलपुर्जा ही बन जाएंगी। संस्कृति ,साहित्य -वही सब पुराना , लीक पे चलना। मुट्ठी भर क्रांतिकारी , साहित्यकार --और आज तो वो भी तारा बन के आकाशमंडल में जगमगा रहे हैं। कलयुग की एक रीती -बुद्धिजीवी वही ,जो नकारना और संदेह करना जानता हो बस यही मौलिक अन्यथा सब उधारी का पिछले युगों से।
                आज गीता पे चर्चा ?-जी नहीं आज कान्हा का गायन -वो कन्हैया जो मक्खन से भी कोमल वज्र से भी कठोर है , जो कण -कण में व्याप्त है ,विराट है पर सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है ----
'' सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि माँ शुच।।---------की विराट एवं वात्सल्यमयी पुकार से -हमें आज भी कर्तव्यों के  बोझ से मुक्त करने की चिंता में रहता है  ,माँ की तरह -जैसे वह अपने बच्चे के कीचड़ में गिरने पे उसकी गंदगी साफ़ करने को आतुर रहती है वैसे ही कोमल मन कृष्णा , शोक-संतप्त मानवता के लिए दिव्य-आह्वान करता है -'' माशुच '' का आह्वान--तू कर्म कर बस -उतार फेंक आडंबर और आ मेरे पास। 
              आज इस कलयुग में ,हम उस गीता को कान्हा की नहीं व्यासजी की रचना कहके --कान्हा के अस्तित्व को ही नकार देते हैं। जबकि गीता में ही विभूति योग में कान्हा ने व्यासमुनि  को अपना ही अवतार बताया है ---''मुनिनामप्यहं व्यास:'' .
पर आज गीता का गायन नहीं बस कान्हा का गायन। 
              कितना आकर्षक मनभावन रहा होगा  नटखट बंसी बजैया ,रास रचैया -जो गंवई गाँव में धमाल मचाता है --सारा गांव माँ यशोदा और नंदबाबा के पास उलाहने लेके जाता है ,माखनचोर ,नटवरनागर ,गोपियों को सतानेवाला। मैं सोचने लगती हूँ --आज कोई गाँव ,मुहल्ले ,सोसाइटी का बच्चा रोज आये -हमारे फ्रिज से चुराके खाये और अपने संगियों को भी खिलाये , राह चलती लड़कियों को छेड़े तो उसके माता-पिता तो समाज में मुहं दिखाने के काबिल नहीं रहेंगे। बालक को भी बाल सुधार -गृह में डाल दिया जाएगा। और बाल -सुधार गृह में क्या होता है ये तो सर्व -विदित ही है। 
        क्यों लिया होगा कन्हैया ने कारगर में जन्म ? शायद इसलिए कि हमें संदेश दे कि  जन्म तो बंधन का ही नाम है  मानव वही जो बंधनों से लड़े बंधनों में रहकर  -  तोड़ो सारे बंधन ,मुक्त होओ पर मुक्ति सायुज्य मुक्ति हो।
             आज पनघट तो हैं नहीं ,न ही कुँए -बावड़ी -तालाब का जमाना है। हम विकसित समाज हैं। बोतल बंद या आर. ओ का पानी पीते हैं खरीद के। न वो समाज, न उसकी मासूमियत। मासूम तो खैर बचपन भी नहीं रहा। कान्हा के साथ कंदुक क्रीड़ा ( यहां ये बताती चलूँ -जिस फुटबाल को यूरोप से आयातीत माना  जाता है वो हमारे कान्हा की कंदुक क्रीड़ा ही है )करने वाली उम्र के  बच्चों की भी अब टीवी सोसियल मीडिया से भावनाएं कुत्सित और विकृत होती जा रही हैं। अब मधुर छेड़खानी और जीवंत चुहलबाजी का स्थान- विकृत  छलछद्म मनोभावों ,केवल प्रभाव डाल अपने वश में करने वाली प्रवृत्तियों और बलात्कारों ने ले लिया है। आज कन्हैया की प्रासंगिकता और भी अधिक है --समाज का मन उसी संवेदना ,मासूमियत और सहजावस्था को लौटना तो चाहता है पर परिस्थियाँ आड़े आती हैं। 
               आज सुबह ब्रह्ममुहूर्त के झुटपुटे में -बालकॉनी में खड़ी कृष्ण -कृष्ण बोल रही हूँ --सोच रही हूँ कैसे एक नटखट ,बिगड़ैल गाँव का बालक --जो कभी पूतना को मारता है ,कभी वासुकि के फन पे नाचता है , इंद्र के प्रकोप से बचाते हुए ,राधा -गोपियों से अठखेलियाँ करते हुए --समाज को जीवन का पाठ पढ़ा गया --गीता दे गया --युगों युगों के लिए।
             आश्चर्य ! देखती हूँ मेरी कल्पना साकार होने लगी --मेरे समक्ष कृष्णा ! अरे हाँ ! ये तो कन्हैया ही है -----वही रूप जो सदियों से मेरे मन में बसा है ,छोटा सा नटखट -हाथ में बंसी ,माथे पे मोर मुकुट, गले मैं वैजयंती माला। मैं हतप्रभ क्या ये हेल्युसिनेशन ( मतिभ्रम -माया  ) है। अभी एक माह पहले ही तो सठियाते हुए   एक कदम और आगे बढ़ाया है --हाँ बुढ़ापा भी आ ही गया है ! ---तभी कान्हा ने बंसी में टेर लगाई- मधुर संगीत -और बोला --
दादी  !--- 
              मैं तो देवकी सी  बावरी हुई  ! पधारो म्हारे देश भी न बोल पायी। बड़ी मुश्किल से भावनाओं को चाबुक लगाई और कान्हा को भीतर लायी --बलैयां ली निछावर किया मन प्राण। लल्ला को दूध मलाई दिया। मीठा परोसा और पूछा --कान्हा तू दोग्धागोपाल -मथुरा ,वृन्दावन ,बरसाने में उद्धम मचाता हुआ कैसे आने वाली सदियों के लिए गीता दे गया रे। एक ऐसी विरासत जो हमारी चेतना की अमूल्य थाती है। हमारी सांस्कृतिक ,आध्यात्मिक विरासत है --कैसे ? कैसे कान्हा ?
           नटवर नागर ने स्मित हास्य ,कुटिल दृष्टि और तंज से कहा --क्या दादी ; तू भी भावनाओं में ही जीती है ,बुद्धिजीवी तो है ही नहीं? आज का बुद्धिजीवी वर्ग तो गीता को व्यास मुनि के द्वारा लिखी हुई मानता है ,मुझे तो केवल एक पात्र बना के रख दिया है कुरुक्षेत्र के मंच का। 
जिसके मुहं से गीता बुलवाई गयी है। --पर चलो गीता तो है न --
             तू तो मानती है न गीता में मैं ही हूँ और तेरी तरह न जाने कितने हैं जो मुझे मानते हैं ,प्यार करते हैं, गीता मेरी वाणी है ऐसा मानते हैं। दादी मैंने भी तो सुख -दुःख दोनों झेले --चाहे राम रूप में चाहे श्याम रूप में या फिर शंकर बन के और साथ ही सीता ,राधा ,गौरी ने भी दुःख झेले। दादी अब जन्म लिया तो प्रारब्ध भी होगा ही न। शायद गीता व्यास ऋषिवर की ही हो जाएगी ,तेरा कान्हा गौण हो जाएगा। तू तो जानती है न ये गतानुगति का लोक है ,यहां गीता समझने के लिए पहले दूसरों के अनुवादों और समालोचनाओं को पढ़ना आवश्यक सा है। जो विद्वानों ने प्रतिष्ठापित कर दिया वही सच ,ये तकनीकी का युग है न। 
              यहाँ संस्कृत और साहित्य में अब कुछ भी नया नहीं है तू जो है न दादी -बस तू यूँ ही खुश रहा कर ,तेरे प्रिय जो तुझ से बिछड़ गए हैं मेरे पास हैं तू उनकी चिंता न करना तुझे भी जल्दी ही अपने पास बुलाऊंगा। अब चलूँगा --उजेरा हो गया तो लोग मुझे बहुरूपिया समझ छेड़ेंगे। 
                  अंत समय तुम मेरे सिरहाने रहना और मेरी रसना पे तेरा ही नाम रहे ---मैं भी ये कह गयी --कलयुग है न लालची मैं भी हो गयी -हृदय में हूक सी उठी पर लाडेसर को विदा किया और सोचने लगी ; इस युग में कृष्ण को नकारा जा रहा है ,राधा को नकारा जा रहा है ,राम के जन्म स्थान पे विवाद खड़े किये जा रहे हैं ,इन्हें केवल राजकुमार या युद्ध का पात्र बना दिया गया है ---केवल इसीलिये कि उन्होंने अवतार लेना स्वीकार किया- किंवा अब हम अधिक बुद्धिमान हो गए हैं ! --तो फिर क्यों नहीं कोई व्यास मुनि ,कोई वाल्मीकि ,कोई शुकदेव ,कोई नारद आता जो इस विकसित समाज के लिए भी कुछ नियम बनाये ? क्यों हमें प्राचीन संस्कृति को ही तकना पड़ता है ? 
                हजारों बाबा और आध्यात्मिक गुरु बैठे हैं अपनी दुकान लगा के ,फिर क्यों नहीं कोई मौलिक साहित्य बन रहा। सत्य यही है कि --वो सहज विश्वास का युग था --मानव को सीख देने का ,राह दिखाने का युग था पर अब कल पुर्जों का युग है --इस युग की बस एकमात्र यही सुंदरता है जो अन्य सभी युगों से भिन्न है कि अब परमात्मा हम सभी के भीतर वास करता है। कुछ समय बाद तो गंगा जमुना भी विलुप्त हो जायेंगीं --वैसे भी कह ही दिया गया है ,मन ही में गंगा मन ही में यमुना मन स्नान करे ,हमारे तीरथ  कौन करे --और शायद तीर्थ भी मन में ही आ जाएंगे --जो होता हुआ लग रहा है। 
              आज जब कि मस्तिष्क बड़ा होता जा रहा है ,सब कुछ एक क्लिक में मिल जाने पे -वो ;अपनी शक्ति खोता जा रहा है। आधी से अधिक आबादी ने तो कुछ भी याद रखना छोड़ ही दिया है इससे मस्तिष्क ने जो शक्तियां अर्जित की थीं वो धीरे -धीरे क्षीण हो रही  हैं --ऐसे में मेरे कान्हा का गीता में कथन कि हे अर्जुन तू और मैं कई जन्मों से साथ-साथ रहे हैं !  मुझे सब याद है पर तुझे नहीं क्यूंकि मैंने अपने मस्तिष्क को विस्तार दिया है --योग प्राणायाम से --क्या आज की पीढ़ी के लिए शोध का विषय नहीं हो सकता ; 
प्रश्न नहीं समाधान है ये -कान्हा का ही दिया हुआ वो भी गीता में --योग -प्राणायाम। 
                    भविष्य में हो सकता है दिमाग में कोई ऐसी चिप फिट हो जाए जो सदियों को समेट ले अपने में --शायद यही कल्कि अवतार हो। आभा।।-----------
-बैठेठाले की बुढ़भस --!



Friday, 12 April 2019



बैठेठाले
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 (Sally Of Mind -(दिमागी कूद या कुलेल )
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यादेवीसर्वभूतेषु --नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:
देवी का आह्वान किया गया उन्हें नमस्कार -कर से नमन करके -
कर से नमन कैसे होगा --केवल हाथ जोड़ के मंदिर में "नमस्तस्यै नमस्तस्यै गाने से नहीं -अपितु अपने अपने कर्मों का सम्यक निर्वहन करने से -
सुबह-सवेरे मंदिर में या देवता की मूर्ति के सामने नमस्तस्यै नमो नम:का गान तो पूरे दिन भर के कोरे पन्ने को भरने की कार्य सूची का स्मरण मात्र है और है चेतन ऊर्जा का संकलन।
नवरात्रि में अधिकाँश लोग  यादेवीसर्वभूतेषु -प्रार्थना पढ़ते ही हैं
 यदि हम इसे ऐसे पढ़ें तो --
विष्णुमायेति संस्थिता --जो विष्णु की माया है या विष्णु को भी मोहित करने में सक्षम है
चेतनेत्यभिधीयते ---जो विष्णु को मोहित कर लेगी वो प्रखर चेतना ही होगी और धीयते - धी -बुद्धि चेतना                                           -- धी का एक अर्थ बेटी भी ---होगी -प्रारम्भ में ही कन्या की धारणा वो देवी --बुद्धि है -
बुद्धिरूपेण संस्थिता
बुद्धि है तो मस्तिष्क चलेगा -चलेगा तो उसे आराम भी चाहिये और मस्तिष्क को आराम ,निद्रा की गोद  में ही मिलेगा -तो वो
 निद्रारूपेण संस्थिता हो गयी -
निद्रा देवी है तो जागने पे हम नव ऊर्जा से युक्त होंगे।
अब निद्रा में चयपचय की क्रिया से मानव की ऊर्जा का क्षय हुआ तो  भूख लगेगी - देवी
क्षुधारूपेण संस्थिता हो गयी -
क्षुधा में देवी का आवाहन -हम भक्ष्य अभक्ष्य न खाएं -सम्यक खाएं पर प्रसाद समझ के खाएं।
या देवी सर्वभूतेषुच्छायारूपेण  संस्थिता ---
अब इसके भी मैं दो अर्थ लगाती हूँ -एक तो क्षुधा पूर्ति के बाद कुछ समय छाया में सुस्ता लो या फिर अपनी छाया में रहने वाले (जिनके पालन पोषण का भार आपके ऊपर है )-या जरूरतमंदों की -यथाशक्ति क्षुधा पूर्ति करो। क्यूंकि क्षुधा भी देवी है तो पूजा जैसा ही लाभ मिलेगा।
 ऐसे ही मैं सम्पूर्ण प्रार्थना को अपने मन में विश्लेषित कर जीने के लिए  अनुशासन बद्ध पाठ मान के ही चलती हूँ -क्षुधा शांत करने को खाना खाया -खाने से शक्ति आयी --
शक्तिरूपेण संस्थिता।
शक्ति आयी तो प्रदर्शन की चाह जगी --
तृष्णारूपेण संस्थिता
शक्ति और तृष्णा के साथ ही क्षमा होना आवश्यक है अन्यथा विध्वंस निश्चित है -तो अब
क्षांतिरूपेण संस्थिता।
अब शक्ति के साथ ही कर्म भी आ गया -प्रत्येक कर्म के लिए कुशल व्यक्तियों की आवश्यकता होगी -तो आवश्यकतानुसार उन्हें समूहों में बाँट दिया जाए --
जातिरूपेण संस्थिता -
समूह के अपने नियम होंगे जहां लज्जा -यानि -प्रदर्शन और दिखावे की अति की मनाही भी होगी --
लज्जारूपेण संस्थिता।
अब जितने कर्म उतने समूह ,उतनी जातियां -फिर संघर्ष का भय तो देवी अब तू इस समाज में शांति बन के प्रतिष्ठापित हो -
शान्तिरूपेण संस्थिता।
कार्य कुशलता ,नियम से चलना ,संघर्ष का न होना -क्षांति का अनुसरण करने वाले समाज में सदैव ही शांति का निवास होगा --
जहां शांती होगी वहां प्राणियों में परस्पर सामंजस्य होगा प्रकृति से प्यार  होगा और होगी सभी के प्रति श्रद्धा -श्रद्धारूपेण संस्थिता।
ऐसे समाज में व्यष्टि -समष्टि कांति से दैदीप्यमान होगा -
-कान्तिरूपेण संस्थिता।
और जहां इतना सब होगा लक्ष्मी वहीं अपना निवास बनाएगी --ल
क्ष्मीरूपेण संस्थिता।
लक्ष्मी प्रचुरमात्रा में होगी तो वृत्तियाँ (व्यापार -उद्योग )भी बढ़ेंगीं -श्री-समृद्धि में वृद्धि होगी -
वृत्तिरूपेण संस्थिता।
स्मृति व्यापार की आवश्यकता -तो
स्मृतिरूपेण संस्थिता।
बढ़ते व्यापार और बढ़ती समृद्धि के साथ ही समाज में --प्राणिमात्र के लिए ममता  की भावना बहुत आवश्यक है -तो अब देवी
दयारूपेण संस्थिता।
समाज के वंचित वर्ग ,पशुपक्षी प्रकृति के लिए मन में दया ममता होना --और कुछ सार्थक करना संतोष और तुष्टि का कारक होगा पर उस करने में अहंकारी न हो जाएँ अत: तुष्टि में भी देवी का आवाहन -
तुष्टिरूपेण संस्थिता।
सृष्टि की रचयिता ,जननी -जिसके होने से संसार है --जो आदि भी है अनंत भी है --उसको नमन-माँ से बड़ी देवी कोई नहीं तो माँ को देवी मानने का संकल्प -
मातृरूपेण संस्थिता।
पर स्त्री माँ के साथ ही और कई रूपों में भी प्रस्तुत होती है -भ्रान्ति न फैले -इसलिएदेवी को भ्रान्ति में भी स्थापित कर दिया गया -
भ्रान्तिरूपेण संस्थिता -
से समस्त इन्द्रियों में देवी की स्थापना -इन्द्रियाणामधिष्ठात्री ---वो अखिल विश्व की चेतना है।  जगत के चित में चेतना रूपी जो तत्व है वो देवी का ही रूप है वही विष्णु की चेतना है ,वही शव को शिव बनाती है --चितिरूपेण ---इस तरह से विष्णु रूप में देवी का आवाहन कर उसे -गुणों में गुणों को बरतते हुए प्रत्येक इंद्री और गुण  की अधिष्ठात्री कहा गया.--इस तरह से ये प्रार्थना  याद भी बहुत शीघ्र हो जाती है --कि किस गुण के बाद कौन सा आएगा तथा  मानवीय संवेदनाओं को भी संरक्षित और संवर्धित करती है। 
शास्त्रोक्त विधानों को परम्परा की लाठी से पीटने की जगह हम तर्कों के आधार पे उनको अपनाएँ तो आनंद की अनुभूति होती है। पूजा प्रार्थना को  विक्रमबेताल की तरह ढोने की मजबूरी नहीं होनी चाहिए ये मेरी सोच। 
---Sally Of Mind -(दिमागी कूद या कुलेल )आभा।।







Friday, 1 February 2019

स्त्री-"भ्रान्ति रूपेण संस्थिता "
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पानी पे लिखी लिखाई 
घास , जो तूफानों में उगी
श्रृंगार करने को स्वयं का   
चाहे जो दर्पण सूर्य का। 
.चाँद को माथे की बिंदिया 
जो    बनाना    चाहती है। 
अंबुद सी स्थिर गहराई 
लहरों की चंचलता समेटे 
जानती -  इस सत्य को -
चाँद की माथे की बिंदिया-
सुबह तक मिट जायेगी,
पानी में लिखी ,लिखाई-
पल भर में धुल जायेगी,
सूरज जला देगा उसे -

 आंधी करेगी साजिशें । 
लहर बन सागर किनारे 
रेत नियति है मेरी -
पर जानती  वो ये भी  ,
 कि  -
  बीज हौसलों  के कुछ  , 
संतति को देने के लिए  -
अपने ,पंखों को जलाना 
दर्द को पी - मुस्कुराना 
रेत बन भी चमचमाना 
पिघले हिमालय के बदन पर 
घास की चादर सजाना 
मातृ रूपेण संस्थिता से 
भ्रान्ति रूपेण तक,
 हो आना 
उसका प्रसंग संदर्भ है -
वो  सनातन वो  अनंत 
वो  सृष्टि वो ही स्त्री   है।। आभा।।
.......


" फकत मैं "
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माटी की  काया की ये चाहत
सात रंग मुझमें भी दीखें।
दौड़  अंधी    राह   पे
पाने की भी -खोने की भी.
कुछ बन चलूँ कुछ कर चलूँ "मैं "
इंद्रधनु सा सजे -- जीवन ,
मोह   माया    अनुराग के
इच्छा आकांक्षाओं के जंगल,
शर्म  हया  नैतिकता 
सभ्यता संस्कारों की  जकड़न,
"मैं " मेरा   अभिमान लेके
उड़ चला "मैं " गगन छूने
मानव बना उसने था भेजा
"मैं "बना "मैं "उसे भूला ,
होम कर दी जिंदगानी -
समिधा "मैं" ने स्वयं की  दी।आभा। 






Wednesday, 9 January 2019

आचमन -----------
किसी भी पूजा या धार्मिक अनुष्ठान में बैठने पे सर्व -प्रथम हम आचमन करते हैं। कहते हैं आचमन अनिवार्य है कर्मकांड या पूजा की शुद्धता और पवित्रता के लिए। पहले तो सभी को ज्ञात होता था इसके पीछे क्या धरणा है पर कालांतर में इंस्टेंट पूजा ,पंडितजी जल्दी करो ने इस क्रिया के महत्व को ही कम कर दिया। मेरे पिता नित्य संध्या वंदन आचमन से ही शुरू करते थे ,कुतूहल वश हम उनसे पूछते थे तो जो उन्होंने बताया वो ही महाभारत में भी पढ़ने को मिला। पितरों का नित्य स्मरण सांस्कृतिक विरासत के प्रति श्रद्धा और प्रकृति की शुद्धता के प्रति प्रतिबद्धता  ; एक आचमन से , साथ ही जल की शुद्धता के महत्व का भान।
ॐ अपवित्रो पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोsपिवा।
य: स्मरेतपुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर:शुचिः।।
आचमन के समय मौन रह के तीन बार जल पियें ,उसमें कोई आवाज न हो ,अंगूठे के मूल भाग से दो बार मुहं पोंछे ,इसके बाद चक्षु ,नासिक ,कर्ण और मस्तक का स्पर्श।
अब क्या कहता है महाभारत --प्रथम बार जल के पीने से ऋग्वेद ,द्वितीय बार से यजुर्वेद और तृतीय बार से सामवेद तृप्त होता है ,प्रथम बार के मुख-मार्जन से अथर्वेद और द्वितीय बार के मार्जन से इतिहास,पुराण व् स्मृतियों के अधिष्ठाता देवताओं को तृप्त किया जाता है। नेत्रों के स्पर्श से सूर्य को ,नासिका से वायु और कर्ण के स्पर्श से दिशाओं को संतुष्टि मिलती है।
मस्तक का स्पर्श ब्रह्माजी को संतुष्ट करता है व् मार्जन के पश्चात जो उपर की ओर चारों ओर जल फेंका जाता है वो आकाश के अधिष्ठाता देवता को संतुष्ट करता है। --अब जल को शुद्ध होना तो अनिवार्य ही हो गया न ,तभी तो सदियों पुरानी नदियाँ हमारी पीढ़ी की युवावस्था तक शुद्ध और स्वच्छ थीं।
यह तो रही संध्या पूजा के कर्म-काण्ड में सम्पन्न होने वाली क्रिया पर हिन्दू संस्कृति संस्कारों की सुंदरता देखिये ,''मन में ही गंगा मन में ही यमुना ''---चारों वेद ,इतिहास,स्मृति ,पुराण उपनिषद ,दशों दिशाएँ ,एवं  ब्रह्माण्ड के सभी तत्व आपके भीतर ही हैं अत: अपने को शुद्ध करो पहले ,केवल बाह्य ही नहीं ''बाह्याभ्यन्तर:शुचिः'' आंतरिक शुद्धता होनी भी आवश्यक है ,तभी वेद पुराण ,सभी आपको प्राप्य होंगे और अंतिम लक्ष्य तो पुण्डरीकाक्ष ही है --वो मैले मन को कैसे मिलेगा ;
आचमन के समय मौन रह अपने मन की शुद्धता और पवित्रता से हम सभी को पा सकते हैं --साथ
ही प्रकृति को शुद्ध और स्वच्छ रखना भी हमारा ही कर्तव्य है ये नित्य ही आचमन के द्वारा सिखाया जाता है। सदियों तक गुरुकुल में संततियों को पीढ़ी दर पीढ़ी यही शिक्षा मिली तब ही आज भी हम इस धरा को भोग पा रहे हैं। आधुनिक शिक्षा में संस्कारों के मायने ही बदल गए ,
इतिहास स्मृति--सब जगह विदेशी आक्रान्ताओं का बोलबाला है इसीलिये बच्चे इन छोटी-छोटी संवेदनाओं से वंचित हो गए हैं ,इन क्रियाओं के पीछे की भावना--प्रकृति से जुड़ाव , श्रद्धा --सब लोप हो गया है --वरना तो नहाते ,खाते पूजा करते सदैव ''अपवित्रो पवित्रो वा '' की ध्वनि कानों में हर घर में सुनाई देती थी और ये कुछ पलों का संस्कार पोंगापंथी नहीं वरन सहज होने की क्रिया है ----