हसीन तस्सवुर सामने हो ,ख्यालों में चढ़ ही जाता है कल्पना का जादू
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ये कौन चित्रकार है ? क्या मानव की कूची इतने सुंदर रंगों को उकेर सकती है ? समुद्र की सम्पदा_______ सौन्दर्य ,चटकीले रंग ,अल्हड़ चाल ,नटखट अंदाज ,भोलापन और शातिर जिजीविषा सभी कुछ तो है यहाँ | कुदरत के इस हुस्नों- इश्क के बागीचे में सैर करने निकलने पे अक्सर अक्ल बारीक हो जाती है ,दृश्यों की शाब्दिक आहट कान पहचानने लगते हैं बेजुबान आँखें ,बेजुबान कान प्रकृति के हर रूप का ,हर बार , पहले प्यार की पहली छुवन सा अहसास करवाते है |बहुत मुश्किल होता है अपने अंतर्जगत के भावों को कैनवास पे उकेरना | कहीं न कहीं कुछ छोड़ना ही पड़ता है पर कुदरत ने इसमें कहीं कोई कमी ही नहीं छोड़ी ,जल ,जंगल ,आसमान सभी तरफ उस नटवरनागर की तूलिका से हुई रंगों की बौछार को हम प्राची में सूर्योदय से सायं दिवस के अवसान तक अनुभव करते हैं |
इंसान उस चित्रकार की सबसे अद्भुत कलाकृति | बस ऐसे ही बैठे-बिठाये यादों के झरोखों में अपनी कुछ यात्राओं में कुदरत के हसीन नजारों में टहल रही थी तो विचारों ने उछल कूद शुरू की | सोचने लगी ये वादियाँ ,ये सुबह ,ये शाम ,ये बेइंतहा खुबसूरत कुदरत के नजारे इन्हें देखने ,समझने और सराहने की सही शुरुआत उम्र के किस पडाव से शुरू होकर यहाँ तक पहुँचती है | हर उम्र के अपने अहसास होते है ,आज जो मैं इस कुदरत के समक्ष बेजुबान ,नतमस्तक हूँ, क्या ? बचपन में भी ऐसा ही था ; शायद नहीं |
इस हसीन तस्सवुर की रूमानियत का अहसास होता है कब ! शायद सोलहवें साल की बंदिशों वाली उम्र आने को होती है तब ,जब खुद की शख्शियत , खुद से ज्यादा हसीन और किसी को नहीं देखना चाहती | जब बिना किसी कारण ही , पढते -लिखते ,खेलते -कूदते और माँ का हाथबटाते हुए एक नशा सा रहता है हर बढ़ते बच्चे पे |,बंदिशें ,लड़कों पे कम लड़कियों पे ज्यादा | और इसी बहाने यादों के जुगनू टिमटिमाने लगे मन के जंगल में जो शायद कमोबेश सबकी यादों में एक से ही जगमगाते होंगे |
सोलहवें साल का वो नाजुक सा दौर ,जो सबसे ज्यादा अपना होते हुए भी अपना नहीं होता | दरवाजों और खिडकियों के पीछे से चुगली करने वालों जैसा , चुपके से सुनना और मुहं फेर लेना लापरवाही से हर आहट पे बेवजह ही चौंकने और अनजान आने वाले का इन्तजार करता जैसा ,बस ऐसा ही चोरी छिपे का रिश्ता होता है अपने साथ | पिता से सहमा हुआ ,माँ से छुपता हुआ ,बेख़ौफ़ पर सहमा हुआ; मन में उठता हुआ काव्य संसार ,सृजन की उत्कंठा | ये उम्र भी तो प्रकृति के सब रंगों में सबसे जुदा ,सबसे चटकीला ,सबसे खूबसूरत रंग है , तभी तो कुदरत के साथ तार इसी उम्र में जुड़ते है | कहानियाँ ,कविताएँ लिखी जाती हैं और फाड़ी जाती है ,ताकि कोई देख न ले और पढाई के वक्त उटपटांग करने के आरोप में डांट न पड़े | हाँ ! कभी प्रतियोगिता हो तो आप कुछ अच्छा सा लिखने के लिय फ्री होते है --जैसे ''पंछी मुझको भाते हैं ,चूं चूं चूं चूं करते हैं ,मंगल गाना गाते हैं "" ये उम्र होती है जब चाँद -सितारों को जल चढाने का नहीं छूने का मन होता है आंगन में जगमगाते जुगनुओं को अनायास ही झोली में भरने का मन होता है | और मेरे जैसे कुछ जन्मजात कलाकार ( अब तक का सबसे बड़ा जोक ठीक स्टैंडिंग कॉमेडी जैसा ) जो पहाड़ों , नदी झरनों , या समुद्र के किनारे रिहायश पा जाएँ इस उम्र में तो समझिये प्रकृति और कलाकार में अंतर करना ही मुश्किल हो जाता है दोनों का एक दूसरे में निरूपण हो जाता है महादेवी की इन पंक्तियों की मानिंद _____
सिन्धु का उच्छ्वास घन है ,
तड़ित तम का विकल मन है ,
भीति क्या नभ है व्यथा का ,
आंसुओं से सिक्त आंचल !
स्वर प्रकम्पित कर दिशाएँ ,
मीड,सब भू की शिराएँ ,
गा रहे आंधी प्रलय ,
तेरे लिये ही आज मंगल !
काश उस नटवर नागर ने मुझे भी थोड़ी सी कलाकारों वाली नाजुकी अंदाज दिया होता |शायद उसको जान पाती अधिक और अधिक ,पर जो भी उसने दिया खूब दिया और कह दिया बाकी बचा हुआ प्रकृति में तलाश |आभा |
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ये कौन चित्रकार है ? क्या मानव की कूची इतने सुंदर रंगों को उकेर सकती है ? समुद्र की सम्पदा_______ सौन्दर्य ,चटकीले रंग ,अल्हड़ चाल ,नटखट अंदाज ,भोलापन और शातिर जिजीविषा सभी कुछ तो है यहाँ | कुदरत के इस हुस्नों- इश्क के बागीचे में सैर करने निकलने पे अक्सर अक्ल बारीक हो जाती है ,दृश्यों की शाब्दिक आहट कान पहचानने लगते हैं बेजुबान आँखें ,बेजुबान कान प्रकृति के हर रूप का ,हर बार , पहले प्यार की पहली छुवन सा अहसास करवाते है |बहुत मुश्किल होता है अपने अंतर्जगत के भावों को कैनवास पे उकेरना | कहीं न कहीं कुछ छोड़ना ही पड़ता है पर कुदरत ने इसमें कहीं कोई कमी ही नहीं छोड़ी ,जल ,जंगल ,आसमान सभी तरफ उस नटवरनागर की तूलिका से हुई रंगों की बौछार को हम प्राची में सूर्योदय से सायं दिवस के अवसान तक अनुभव करते हैं |
इंसान उस चित्रकार की सबसे अद्भुत कलाकृति | बस ऐसे ही बैठे-बिठाये यादों के झरोखों में अपनी कुछ यात्राओं में कुदरत के हसीन नजारों में टहल रही थी तो विचारों ने उछल कूद शुरू की | सोचने लगी ये वादियाँ ,ये सुबह ,ये शाम ,ये बेइंतहा खुबसूरत कुदरत के नजारे इन्हें देखने ,समझने और सराहने की सही शुरुआत उम्र के किस पडाव से शुरू होकर यहाँ तक पहुँचती है | हर उम्र के अपने अहसास होते है ,आज जो मैं इस कुदरत के समक्ष बेजुबान ,नतमस्तक हूँ, क्या ? बचपन में भी ऐसा ही था ; शायद नहीं |
इस हसीन तस्सवुर की रूमानियत का अहसास होता है कब ! शायद सोलहवें साल की बंदिशों वाली उम्र आने को होती है तब ,जब खुद की शख्शियत , खुद से ज्यादा हसीन और किसी को नहीं देखना चाहती | जब बिना किसी कारण ही , पढते -लिखते ,खेलते -कूदते और माँ का हाथबटाते हुए एक नशा सा रहता है हर बढ़ते बच्चे पे |,बंदिशें ,लड़कों पे कम लड़कियों पे ज्यादा | और इसी बहाने यादों के जुगनू टिमटिमाने लगे मन के जंगल में जो शायद कमोबेश सबकी यादों में एक से ही जगमगाते होंगे |
सोलहवें साल का वो नाजुक सा दौर ,जो सबसे ज्यादा अपना होते हुए भी अपना नहीं होता | दरवाजों और खिडकियों के पीछे से चुगली करने वालों जैसा , चुपके से सुनना और मुहं फेर लेना लापरवाही से हर आहट पे बेवजह ही चौंकने और अनजान आने वाले का इन्तजार करता जैसा ,बस ऐसा ही चोरी छिपे का रिश्ता होता है अपने साथ | पिता से सहमा हुआ ,माँ से छुपता हुआ ,बेख़ौफ़ पर सहमा हुआ; मन में उठता हुआ काव्य संसार ,सृजन की उत्कंठा | ये उम्र भी तो प्रकृति के सब रंगों में सबसे जुदा ,सबसे चटकीला ,सबसे खूबसूरत रंग है , तभी तो कुदरत के साथ तार इसी उम्र में जुड़ते है | कहानियाँ ,कविताएँ लिखी जाती हैं और फाड़ी जाती है ,ताकि कोई देख न ले और पढाई के वक्त उटपटांग करने के आरोप में डांट न पड़े | हाँ ! कभी प्रतियोगिता हो तो आप कुछ अच्छा सा लिखने के लिय फ्री होते है --जैसे ''पंछी मुझको भाते हैं ,चूं चूं चूं चूं करते हैं ,मंगल गाना गाते हैं "" ये उम्र होती है जब चाँद -सितारों को जल चढाने का नहीं छूने का मन होता है आंगन में जगमगाते जुगनुओं को अनायास ही झोली में भरने का मन होता है | और मेरे जैसे कुछ जन्मजात कलाकार ( अब तक का सबसे बड़ा जोक ठीक स्टैंडिंग कॉमेडी जैसा ) जो पहाड़ों , नदी झरनों , या समुद्र के किनारे रिहायश पा जाएँ इस उम्र में तो समझिये प्रकृति और कलाकार में अंतर करना ही मुश्किल हो जाता है दोनों का एक दूसरे में निरूपण हो जाता है महादेवी की इन पंक्तियों की मानिंद _____
सिन्धु का उच्छ्वास घन है ,
तड़ित तम का विकल मन है ,
भीति क्या नभ है व्यथा का ,
आंसुओं से सिक्त आंचल !
स्वर प्रकम्पित कर दिशाएँ ,
मीड,सब भू की शिराएँ ,
गा रहे आंधी प्रलय ,
तेरे लिये ही आज मंगल !
काश उस नटवर नागर ने मुझे भी थोड़ी सी कलाकारों वाली नाजुकी अंदाज दिया होता |शायद उसको जान पाती अधिक और अधिक ,पर जो भी उसने दिया खूब दिया और कह दिया बाकी बचा हुआ प्रकृति में तलाश |आभा |