नवरात्री स्पेशियल .................
....गर्ज-गर्ज क्षणं मूढ़ मधु यावत्पिबाम्यहम् |
देवी की गर्जना और फिर महिषासुर का वध ,देवी का स्तवन |
प्रत्येक अध्याय में देवी का ध्यान --उनके रूप श्रृंगार का वर्णन ,,,यहाँ तक कि सप्तम , एकादश अध्याय और मूर्ति रहस्य में तो शरीर शौष्ठव का भी वर्णन | रूप,रंग गुण ,शक्ति ,विद्या बुद्धि ,करुणा- ममता की स्वामिनी जिसका आज भी वर्ष में दो बार स्तवन किया जाता है और उसको पाने के लिये उपवास यज्ञ ,तप पूजा का सहारा लिया जाता है , माँ -जिसके स्वरूप को जानने के लिए देव, दानव,मनुष्य गन्धर्व सभी लालायित रहे ,पर, ;'यस्या:स्वरूपं ब्रह्मादयो न जानन्ति तस्मादुच्यते अज्ञेंया ' किसी से भी नहीं जानी जा सकी ,यहाँ तक कि आज भी स्त्री के मन को जानने की कोशिश ही हो रही है | वो लक्ष्य भी है पर अलक्ष्य है .वो सामने है पर अनन्त है ,उसका पार पाना मुश्किल है ,वो सीता राधा ,दुर्गा ,काली , और दुर्गा के नौ के नौ रूपों में अजा है | वो एक स्त्री एक ही वक्त में पूरे परिवार के लिए उपलब्ध है कई रिश्तों और कई नामों में सजी हुई ,बंधी हुई समर्पित एक होती हुई भी नैका इसीलिए दुर्गा सप्तशती में उसे --''अज्ञेयानन्तालक्ष्याजैका नैकेती'' कहा गया | वो दुर्गा जो ''मंत्राणाम् मात्रिका देवी शब्दानां ज्ञान रूपिणी ,ज्ञानानां चिन्मयातीता शून्यानां शून्य साक्षिणी '' है | सभी शक्ति -रूप- गुण -और जय के चाहने वाले जिसका स्तवन कर रहे हैं, वो माँ दुर्गा , सभी स्त्रियों में व्याप्त है --बस हम उसे मन्दिरों और ऊँचे पर्वतों में ढूंढते हैं | वहां भी है वो ,पर विग्रह रूप में ; असल में तो वो घर- घर में व्याप्त है |गरीब के घर में भी और अमीर के घर में भी ,प्यार बरसाती हुई ,माँ ,प्रेयसी ,पत्नी ,भगिनी ,पुत्री के रूप में |
घर में रहने वाली भगवती को यदि पैदा होने दें ,कन्या भ्रूण हत्या को देवी वध ही मानें , कन्या को अष्टमी नवमी में हलवा खिलाने की जगह उसे पढ़ायें .प्यार दें , दूसरे दर्जे का नागरिक न मानें , दहेज न लेने, न देने का प्रण लें , और ससुराल उसके लिए पती का घर नहीं उसका घर है ,जिसकी वो ही स्वामिनी है ऐसा अहसास करवाएं ,तो माँ दुर्गा स्वयं ही प्रसन्न हो जायेंगी |
यजुर्वेद में कन्या पालन का उतना ही महत्व बताया गया है जितना पुत्र का है ---
''अर्थ ते योनिऋर्त्वियोयतो जातोSरोचथा: |
तं ज्ञानन्नग्नSआ रोहाथा नो वधया रयीम् ||''....भावार्थ ...हे माता- पिताऔर आचार्यों तुम लोग पुत्र और कन्याओं को ,ब्रह्मचर्य और अच्छी शिक्षा से युक्त करो ताकि वे सुखदायक ,सत्यनिष्ठ ,सदाचारी संतान बने और समाज को सुखी करें |
''चिदंसि तया देवतया अंगीरस्वद्द ध्रुवा सीद |
परिचिदसि तया देवतया अन्गिरस्वद्द ध्रुवा सीद ||'' भावार्थ .. सभी माता पिता और पढाने वाली विदुषी स्त्रियों को चाहिये की कन्याओं को सम्यक बुद्धि मती करें और अखंडित ब्रह्मचर्य और विद्या से युक्त कन्याएं अपने तुल्य वरों के साथ स्वयम्बर विवाह करके गृहस्थ आश्रम का सेवन करें | साथ ही कन्याओं को भी सीख है -
''सविता ते शरीराणी मातु रुपस्थ आ वपतु |
तस्मै पृथिवि शं भव ||----भावार्थ ---हे कन्या तेरे लिए उचित है की जिन माता पिता ने तुम्हें और तुम्हारे वर को जन्म दिया है तुम उन्हें न भूलो और उनके सुख का कारक बनो |
वैदिक काल में स्त्रियों का बराबरी का स्थान था ,पर ऋचाओं में संतान न कहके कन्या और पुत्र कहा जाना ये दिखाता है की मूल्यों का क्षरण ,सभ्य होने के साथ-साथ ही होना प्रारम्भ हो गया था तथा उन्हें स्थापित करने की आवश्यकता भी तभी से महसूस होने लगी थी |
स्त्री जाति का जननी होना उसकी सबसे बड़ी शक्ति थी लेकिन यही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी भी बन गयी ,अपनी संतानों के लिए त्याग करते- करते वो अपने अस्तित्व को ही भुला बैठी और अपनी कन्या को भी अपने जैसा ही बना बैठी ,वो भूल गयी ,वो केवल जननी या पालन करने वाली ही नहीं है उसका एक स्वतंत्र अस्तित्व भी है , वो गृहस्थी को चलाने के लिए एक औजार बन के रह गयी एक ऐसा औजार जिसको देखभाल की भी आवश्यकता नहीं होती है ,और यहीं से क्षरण प्रारम्भ हुआ ,उसके अस्तित्व पे जंग लगना शुरू हो गया |वो स्त्री जो दुर्गा भी है जिसके श्रृंगार और रूप के स्तवन के मन्त्रों से शास्त्र भरे पड़े हैं --यथा ---''कनकोत्तमकान्ति: सा सुकान्तिकनकाम्बरा |देवी कनक वर्णाभा कनकोत्तमभूषणा || और एक कदम आगे श्रृंगार में केश भी लाल ही होगये ..." रक्ताम्बरा रक्तवर्णा रक्तसर्वांगभूषणा | रक्तायुधा रक्तनेत्रा रक्तकेशाति भीषणा || " वो स्त्री मिर्च -मसालों और बच्चों की गंध से भरी हुई एक चलती फिरती मशीन हो के रह गयी जिसके कार्य की ,जिसकी कर्तव्य निष्ठा की ,जिसके संस्कारों की तारीफ़ तो होती है ,पर उसकी ओर देखने का समय किसी के पास नहीं है | हमारी जननी को संतानों को पालते ,घर बाहर के कार्य निबटाते अपने पे ध्यान देने का समय ही न मिलता और वो जननी हो के ही संतुष्ट हो गयी , घर में भी उसकी देखभाल करने वाला या उसके अस्तित्व की याद दिलाने वाला कोई न रहा , शायद स्त्री का यही रूप उपयोगी भी था , रूप - श्रृंगार उसे अपने लिए सोचने का समय देता और परिवार के लिए ये स्थिति असहज हो जाती | बस ऐसे ही धीरे -धीरे कुचालें रची गयीं ,देवी के रूप का स्तवन करने वाली आर्यों की संताने अपने घर की स्त्रियों के श्रृंगार को अर्थ और समय का दुरूपयोग प्रचारित करने लगीं , देवों के मध्य उच्च सिंहासन पे बैठी जग जननी को कालान्तर में घूंघट और फिर पर्दे में कर दिया गया, फिर स्त्री शिक्षा को अनुपयोगी कहा जाने लगा ,ऐसा भी दौर आया कि -रामायण बांच ले, खाना पका ले और क्या चाहिये | सती प्रथा ,भ्रूण हत्या ,यानि जब हम चाहें तो स्त्री हो और हम न चाहें तो मर जाये | आज भी इस सूचना-प्रसारण के युग में जब संचार माध्यमों का बोलबाला है - (स्त्री शिक्षा पे ध्यान देना प्रारम्भ भी हुआ है )स्त्रियाँ अपने अस्तित्व के प्रति कुछ तो जागरूक हुई भी हैं अपना वर्चस्व स्थापित भी कर रही है और सदियों का विद्रोह कहीं कहीं तो लावा बनके भी बह रहा है- ,कई गाँव कई जातियां कई इलाके ऐसे हैं जहाँ कन्या को नवरात्री में ढूँढ के हलवा पूरी तो खिलाई जाती है पर अपने घर में उसका पैदा होना सहन नहीं है ,कन्या भ्रूण हत्या बदस्तूर जारी है , कन्या को खुलके सांस लेने की आजादी नहीं है ,वो बंधुआ जीव है |
तो क्या स्त्री को अपना पुन:संस्थापन ,स्वयं ही नहीं करना चाहिये | वो श्रृजना है ,शक्ति है ,वो विष्णु को भी सुला देती है ,ऐसी वो निद्रा देवी जो विष्णु के सोने पे जगत की रक्षा हेतु शक्ति ,दुर्गा ,काली सब बन सकती है .वही शक्ति समस्त जगत की स्त्रियों में व्याप्त है | अपने अस्तित्व को झंझोड़ने की आवश्यकता है |स्त्री ममता की मूरत माँ - भगिनी - पुत्री ,प्रेयसी है तो विदुषी सरस्वती भी है , शक्ति भी है , दुर्गा भी है जो शेर पे भी सवार है ,यानि साहस और वीरता में उसका कोई सानी नहीं है ,प्यार देने वाली भार्या है तो स्नेहिल सखी भी है ,वो घर और संसार दोनों को सम्यक रूप से चला सकती है |आज आवश्यकता इस ही बात की है कि स्त्री अपने अंदर बैठी नवदुर्गा की शक्ति को पहचाने ,संस्कार और आडम्बर में अंतर को समझे और नए मूल्यों का प्रतिष्ठापन करे | सम्यक ,सोच ,सम्यक दृष्टि और सम्यक इरादा | यदि कन्या भ्रूण हत्या ,दहेज , कन्या शिक्षा ,और कन्या व्यक्तित्व विकास के लिए माँ संकल्पित हो जाये तो समाज में निश्चित ही सुधार आएगा |
शुम्भ-निशुम्भ आज भी समाज में मौजूद हैं , किसी भी युवती को देख के जिनकी लार टपकने लगती है और उसे हासिल करने की कुचालें रचने लगते हैं | हमको ही अपने को इस योग्य बनाना होगा ताकि इन राक्षसों का मर्दन कर सकें |अपनी संतानों को संस्कार देने होंगे ताकि पुत्र और कन्या दोनों के लिए सामान अधिकार और सामान मौके हों | नवरात्री में देवी पूजा ,कलश स्थापना हरियाली के साथ चंडीपाठ और नौ पारायण रामायण का सही उद्येश्य ,अपने पुत्रों को संस्कारी बनाना और कन्या को अधिकारी बनाना हो तबही पूजा सफल होगी | नवरात्री की शुभकामनायें सभी को | माँ दुर्गा कल्याण करें ,घर में मंगल हो ,देश में मंगल हो ,शुरुवात मुझसे हो -जय माता की |आभा |..
....गर्ज-गर्ज क्षणं मूढ़ मधु यावत्पिबाम्यहम् |
देवी की गर्जना और फिर महिषासुर का वध ,देवी का स्तवन |
प्रत्येक अध्याय में देवी का ध्यान --उनके रूप श्रृंगार का वर्णन ,,,यहाँ तक कि सप्तम , एकादश अध्याय और मूर्ति रहस्य में तो शरीर शौष्ठव का भी वर्णन | रूप,रंग गुण ,शक्ति ,विद्या बुद्धि ,करुणा- ममता की स्वामिनी जिसका आज भी वर्ष में दो बार स्तवन किया जाता है और उसको पाने के लिये उपवास यज्ञ ,तप पूजा का सहारा लिया जाता है , माँ -जिसके स्वरूप को जानने के लिए देव, दानव,मनुष्य गन्धर्व सभी लालायित रहे ,पर, ;'यस्या:स्वरूपं ब्रह्मादयो न जानन्ति तस्मादुच्यते अज्ञेंया ' किसी से भी नहीं जानी जा सकी ,यहाँ तक कि आज भी स्त्री के मन को जानने की कोशिश ही हो रही है | वो लक्ष्य भी है पर अलक्ष्य है .वो सामने है पर अनन्त है ,उसका पार पाना मुश्किल है ,वो सीता राधा ,दुर्गा ,काली , और दुर्गा के नौ के नौ रूपों में अजा है | वो एक स्त्री एक ही वक्त में पूरे परिवार के लिए उपलब्ध है कई रिश्तों और कई नामों में सजी हुई ,बंधी हुई समर्पित एक होती हुई भी नैका इसीलिए दुर्गा सप्तशती में उसे --''अज्ञेयानन्तालक्ष्याजैका नैकेती'' कहा गया | वो दुर्गा जो ''मंत्राणाम् मात्रिका देवी शब्दानां ज्ञान रूपिणी ,ज्ञानानां चिन्मयातीता शून्यानां शून्य साक्षिणी '' है | सभी शक्ति -रूप- गुण -और जय के चाहने वाले जिसका स्तवन कर रहे हैं, वो माँ दुर्गा , सभी स्त्रियों में व्याप्त है --बस हम उसे मन्दिरों और ऊँचे पर्वतों में ढूंढते हैं | वहां भी है वो ,पर विग्रह रूप में ; असल में तो वो घर- घर में व्याप्त है |गरीब के घर में भी और अमीर के घर में भी ,प्यार बरसाती हुई ,माँ ,प्रेयसी ,पत्नी ,भगिनी ,पुत्री के रूप में |
घर में रहने वाली भगवती को यदि पैदा होने दें ,कन्या भ्रूण हत्या को देवी वध ही मानें , कन्या को अष्टमी नवमी में हलवा खिलाने की जगह उसे पढ़ायें .प्यार दें , दूसरे दर्जे का नागरिक न मानें , दहेज न लेने, न देने का प्रण लें , और ससुराल उसके लिए पती का घर नहीं उसका घर है ,जिसकी वो ही स्वामिनी है ऐसा अहसास करवाएं ,तो माँ दुर्गा स्वयं ही प्रसन्न हो जायेंगी |
यजुर्वेद में कन्या पालन का उतना ही महत्व बताया गया है जितना पुत्र का है ---
''अर्थ ते योनिऋर्त्वियोयतो जातोSरोचथा: |
तं ज्ञानन्नग्नSआ रोहाथा नो वधया रयीम् ||''....भावार्थ ...हे माता- पिताऔर आचार्यों तुम लोग पुत्र और कन्याओं को ,ब्रह्मचर्य और अच्छी शिक्षा से युक्त करो ताकि वे सुखदायक ,सत्यनिष्ठ ,सदाचारी संतान बने और समाज को सुखी करें |
''चिदंसि तया देवतया अंगीरस्वद्द ध्रुवा सीद |
परिचिदसि तया देवतया अन्गिरस्वद्द ध्रुवा सीद ||'' भावार्थ .. सभी माता पिता और पढाने वाली विदुषी स्त्रियों को चाहिये की कन्याओं को सम्यक बुद्धि मती करें और अखंडित ब्रह्मचर्य और विद्या से युक्त कन्याएं अपने तुल्य वरों के साथ स्वयम्बर विवाह करके गृहस्थ आश्रम का सेवन करें | साथ ही कन्याओं को भी सीख है -
''सविता ते शरीराणी मातु रुपस्थ आ वपतु |
तस्मै पृथिवि शं भव ||----भावार्थ ---हे कन्या तेरे लिए उचित है की जिन माता पिता ने तुम्हें और तुम्हारे वर को जन्म दिया है तुम उन्हें न भूलो और उनके सुख का कारक बनो |
वैदिक काल में स्त्रियों का बराबरी का स्थान था ,पर ऋचाओं में संतान न कहके कन्या और पुत्र कहा जाना ये दिखाता है की मूल्यों का क्षरण ,सभ्य होने के साथ-साथ ही होना प्रारम्भ हो गया था तथा उन्हें स्थापित करने की आवश्यकता भी तभी से महसूस होने लगी थी |
स्त्री जाति का जननी होना उसकी सबसे बड़ी शक्ति थी लेकिन यही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी भी बन गयी ,अपनी संतानों के लिए त्याग करते- करते वो अपने अस्तित्व को ही भुला बैठी और अपनी कन्या को भी अपने जैसा ही बना बैठी ,वो भूल गयी ,वो केवल जननी या पालन करने वाली ही नहीं है उसका एक स्वतंत्र अस्तित्व भी है , वो गृहस्थी को चलाने के लिए एक औजार बन के रह गयी एक ऐसा औजार जिसको देखभाल की भी आवश्यकता नहीं होती है ,और यहीं से क्षरण प्रारम्भ हुआ ,उसके अस्तित्व पे जंग लगना शुरू हो गया |वो स्त्री जो दुर्गा भी है जिसके श्रृंगार और रूप के स्तवन के मन्त्रों से शास्त्र भरे पड़े हैं --यथा ---''कनकोत्तमकान्ति: सा सुकान्तिकनकाम्बरा |देवी कनक वर्णाभा कनकोत्तमभूषणा || और एक कदम आगे श्रृंगार में केश भी लाल ही होगये ..." रक्ताम्बरा रक्तवर्णा रक्तसर्वांगभूषणा | रक्तायुधा रक्तनेत्रा रक्तकेशाति भीषणा || " वो स्त्री मिर्च -मसालों और बच्चों की गंध से भरी हुई एक चलती फिरती मशीन हो के रह गयी जिसके कार्य की ,जिसकी कर्तव्य निष्ठा की ,जिसके संस्कारों की तारीफ़ तो होती है ,पर उसकी ओर देखने का समय किसी के पास नहीं है | हमारी जननी को संतानों को पालते ,घर बाहर के कार्य निबटाते अपने पे ध्यान देने का समय ही न मिलता और वो जननी हो के ही संतुष्ट हो गयी , घर में भी उसकी देखभाल करने वाला या उसके अस्तित्व की याद दिलाने वाला कोई न रहा , शायद स्त्री का यही रूप उपयोगी भी था , रूप - श्रृंगार उसे अपने लिए सोचने का समय देता और परिवार के लिए ये स्थिति असहज हो जाती | बस ऐसे ही धीरे -धीरे कुचालें रची गयीं ,देवी के रूप का स्तवन करने वाली आर्यों की संताने अपने घर की स्त्रियों के श्रृंगार को अर्थ और समय का दुरूपयोग प्रचारित करने लगीं , देवों के मध्य उच्च सिंहासन पे बैठी जग जननी को कालान्तर में घूंघट और फिर पर्दे में कर दिया गया, फिर स्त्री शिक्षा को अनुपयोगी कहा जाने लगा ,ऐसा भी दौर आया कि -रामायण बांच ले, खाना पका ले और क्या चाहिये | सती प्रथा ,भ्रूण हत्या ,यानि जब हम चाहें तो स्त्री हो और हम न चाहें तो मर जाये | आज भी इस सूचना-प्रसारण के युग में जब संचार माध्यमों का बोलबाला है - (स्त्री शिक्षा पे ध्यान देना प्रारम्भ भी हुआ है )स्त्रियाँ अपने अस्तित्व के प्रति कुछ तो जागरूक हुई भी हैं अपना वर्चस्व स्थापित भी कर रही है और सदियों का विद्रोह कहीं कहीं तो लावा बनके भी बह रहा है- ,कई गाँव कई जातियां कई इलाके ऐसे हैं जहाँ कन्या को नवरात्री में ढूँढ के हलवा पूरी तो खिलाई जाती है पर अपने घर में उसका पैदा होना सहन नहीं है ,कन्या भ्रूण हत्या बदस्तूर जारी है , कन्या को खुलके सांस लेने की आजादी नहीं है ,वो बंधुआ जीव है |
तो क्या स्त्री को अपना पुन:संस्थापन ,स्वयं ही नहीं करना चाहिये | वो श्रृजना है ,शक्ति है ,वो विष्णु को भी सुला देती है ,ऐसी वो निद्रा देवी जो विष्णु के सोने पे जगत की रक्षा हेतु शक्ति ,दुर्गा ,काली सब बन सकती है .वही शक्ति समस्त जगत की स्त्रियों में व्याप्त है | अपने अस्तित्व को झंझोड़ने की आवश्यकता है |स्त्री ममता की मूरत माँ - भगिनी - पुत्री ,प्रेयसी है तो विदुषी सरस्वती भी है , शक्ति भी है , दुर्गा भी है जो शेर पे भी सवार है ,यानि साहस और वीरता में उसका कोई सानी नहीं है ,प्यार देने वाली भार्या है तो स्नेहिल सखी भी है ,वो घर और संसार दोनों को सम्यक रूप से चला सकती है |आज आवश्यकता इस ही बात की है कि स्त्री अपने अंदर बैठी नवदुर्गा की शक्ति को पहचाने ,संस्कार और आडम्बर में अंतर को समझे और नए मूल्यों का प्रतिष्ठापन करे | सम्यक ,सोच ,सम्यक दृष्टि और सम्यक इरादा | यदि कन्या भ्रूण हत्या ,दहेज , कन्या शिक्षा ,और कन्या व्यक्तित्व विकास के लिए माँ संकल्पित हो जाये तो समाज में निश्चित ही सुधार आएगा |
शुम्भ-निशुम्भ आज भी समाज में मौजूद हैं , किसी भी युवती को देख के जिनकी लार टपकने लगती है और उसे हासिल करने की कुचालें रचने लगते हैं | हमको ही अपने को इस योग्य बनाना होगा ताकि इन राक्षसों का मर्दन कर सकें |अपनी संतानों को संस्कार देने होंगे ताकि पुत्र और कन्या दोनों के लिए सामान अधिकार और सामान मौके हों | नवरात्री में देवी पूजा ,कलश स्थापना हरियाली के साथ चंडीपाठ और नौ पारायण रामायण का सही उद्येश्य ,अपने पुत्रों को संस्कारी बनाना और कन्या को अधिकारी बनाना हो तबही पूजा सफल होगी | नवरात्री की शुभकामनायें सभी को | माँ दुर्गा कल्याण करें ,घर में मंगल हो ,देश में मंगल हो ,शुरुवात मुझसे हो -जय माता की |आभा |..
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