Friday, 13 February 2015

HAPPY VALENTINE……
 गजल का हुस्न हो तुम ,नज्म का शबाब हो तुम |
सदायें साज हो तुम नगमाये ख़्वाब हो तुम !
हुस्न को गजल नाजुकी बख्शने के लिए वसंत का अंदाज जरुरी है ; ---
मौसिम है निकले साखों से पत्ते हरे हरे ,
पौधे चमन में फूलों से देखे भरे भरे |
बसंतोत्सव  ही है वैलेंटाइनडे।   सरसों  के खेत ,शनई के फूल ,टेसू की जवाँ होती कलियाँ  गेहूं का मदभरा  यौवन ,और साथ ही अमराई में महकती बौर से बौराई कोयल की कूक ,सर्दी के आगोश से स्वतंत्र हुई नरम नाजुक सी धूप की गुनगुनाहट ,बांस के पेड़ों के टकराके  फागुनी  हवा की सरगम सी बजती मधुर तान,  ऐसे में मन प्यार का सागर न बने ये कैसे हो सकता है --''तू प्यार का सागर है तेरी इक बूँद के प्यासे हम '' जब परमात्मा भी उल्लसित होके  झूम रहा है ,स्नेह प्यार अनुराग उड़ेल रहा है प्रकृति में , तो उसकी संतान क्यूँ  वंचित हों प्यार से। नेति- नेति करके सबकुछ तो छोड़ दिया जाता है ब्रह्म को समझने में ,फिर वो है क्या? शायद  -- आनंद की उच्चावस्था ,जिसने उसे पा लिया वो भाव में चला जाता है ''आँखें न सकतीं बोल जाता है न वाणी से कहा '',आनंद की प्राप्ति के लिए भाव का होना और भाव के लिए- हृदय, प्यार- स्नेह का सागर हो ,तो बस  हो गया बसंतोत्सव् या वैलेंटाइनडे । प्यार करिये अनुराग रखिये प्रकृति से मानवतासे ,सर्दी की अकड़ाहट को अंगड़ाई लेके दूर करिये ,मौसम को पीना शुरू करिये ,धीरे-धीरे आम की मिठास आ ही जायेगी।
कोई भी हो आपका वैलेंटाइन -- दोस्त , भाई बहिन ,संतान ,माता-पिता ,गुरु या प्रियतम ,उसे भरपूर ख़ुशी देने का त्यौहर है ये दिन। ख़ुशी --जो आपके भीतर है ---रामजी वन जा रहे है -महलों में रहने वाली सीता भी साथ हैं ,दुःख के क्षण पर प्रिय का संग और मन में स्नेह ही खुश होने के लिए काफी है --
यद् यत् फलं प्रार्थयते पुष्पं वा जनकात्मजा।
तत्-तत् प्रयच्छ वैदेहयां  यत्रस्या रमते मन।.
पादपं गुल्मं लतां वा पुष्पशालिनीम्
रूपां पश्यन्ती रामं पप्रच्छ साबला।
रमणीयान् बहुविधान् पादपान कुसुमोतकरान्
सीतावचनसंरब्ध आनयामास  लक्ष्मण: ।
 रामजी- सीता और लक्ष्मण दुखी न हों तो उनसे कहते हैं ,लक्ष्मण मैं तुम्हारे पीछे धनुष बाण लेके रक्षा करता हुआ चल रहा हूँ ,तुम सीता जो भी वो मांगे देते रहो  ताकि उसका दुःख कम हो , और सीता दोनों भाइयों का ध्यान  बंटाने को- वन को देख के खुश हो रही हैं ,हर पुष्प ,पादप लता फल के विषय में पूछ रही है उत्साहित होके , लक्ष्मण  भाग -भाग के फूलों के गुच्छे और फल उन्हें ला के दे रहे हैं ---यही है प्रेम और समर्पण की पराकाष्ठा।  जीवन में भागदौड़ के कारण हम जिन रिश्तों को चाह  के भी समय नहीं दे पाते है ,उन्हें समय देने के लिए यदि किसी दूसरी सभ्यता के त्यौहर को अपना लिया जाय तो क्या बुराई है , नीर-क्षीर विवेकी होके  यदि अच्छाई को ग्रहण किया जाय तो आनंद ही फैलेगा। यही आनंद प्रेम की सरिता बन बहेगा  समाज में।  अपने तो इतनेसारे त्यौहर हैं ही इसे भी अपनालो कुछ दिन प्यार बांटते चलो ,वंचितों के नौनिहालों को चॉकलेट बांटो , विरोधी को गले लगाओ ,अनाथों को  टैडी दो और उनके चेहरों की मुसक्यान  से आनंदित होओ।
राशि-राशि बिखर पड़ा है शांत संचित प्यार ,
रख रहा है उसे ढोकर दीन विश्व उधार।
यही तो मौसम है प्यार का , मनुहार का ,उपहार का , Happy Valentine ! कहने का इसका विरोध क्यूँ ? विगत से ही वसंतोत्सव तो हमारी संस्कृति का एक अभिन्न अंग रहा है वसंत पंचमी से होली तक उत्सव ही उत्सव .प्रकृति के रंग में रंग जाने का मौसम .और प्रकृति तो प्यार का ही स्वरूप है | अब बच्चे वैश्विक सभ्यताओं में जीवन यापन कर रहे हैं ; कुछ नया अपना रहे हैं , इसमें बुराई क्या है ?ये, है तो ; प्यार का ही त्यौहार ! एक यूरोपीय संत , शादी , परिवार ,समर्पण और उस पे भी अंत तक प्यार बना रहने की रीति से इतना प्रभावित हुआ कि उसने अपने समाज को भी ये उपहार देना चाहा |वो अपने यहाँ भी शादियाँ करवाने लगा और एक पत्नी व्रत का वादा लेने लगा बच्चों से .ये हमारे लिए हर्ष का विषय है | हमारी परम्परा का ही विस्तार हो रहा था .|हाँ ! प्यार को चंद पलों या चंद दिनों में समेटने की प्रवृति और प्यार के सरेआम दिखावे की प्रथा की फूहड़ता को सहन नहीं किया जा सकता ,वरना तो प्यार मीरा है ,प्यार राधा है ,प्यार गोपी-ग्वाले हैं ,प्यार शकुन्तला की मासूमियत है ,प्यार यक्ष का संताप है ,प्यार श्रद्धा और इड़ा का अनुराग है प्यार उर्मिला का त्याग है और सीता का दृढ विश्वास है ,प्यार प्राची में फैला मधुर राग है , फूलों का पराग है भंवरे का गुंजन है ,तितली की शोखी है ,कल -कल करती नदी का मधुनाद है ,बिखरी अलकों का तर्क जाल है और अभिलाषाओं का शैल श्रृंग है |प्यार प्रकृति की हंसी है --------
उच्च शैल शिखरों पर हंसती प्रकृति चंचला बाला |
धवल हंसी बिखराती ,अपना फैला मधुर उजाला ||
क्या ये दृश्य प्यार में डूबने को मजबूर करने को काफी नहीं है | इसका तो उत्सव होना ही चाहिए ! जो नकारे उसके लिए तो यही कहा जा सकता है ---
तुमने देखी नहीं है साहब आँख कोई शरमाई हुई ;
अगरचे देखते तो कहते ---------
अब तो नकाब मुहं पे ले जालिम कि शब हुई |
शर्मिंदा सारे दिन तो किया आफ़ताब को ||
वादा लीजिये ,वादा दीजिये ,फूलों से ,चाकलेट से टैडी से या रसगुल्ले से ,अकेले या माँ-बाप के साथ मिलके ! बात पक्की कीजिये , इश्क दस्तक दे रहा है दिल पे! आँखों से इजहारे मुहब्बत करिये और पूरी जिन्दगी इश्क की बारिशों में भीगिए | शुक्र है कहीं तो इश्क पनप रहा है इस बेगैरत दुनिया में ,गर डर गये तो ; दुनिया तो इसे मिटाने को ही बेताब दिखती है और फिर कहना पड़ेगा ----
तुम्हें दूर से ही देखें ,हरगिज न पास आयें ,
आँखों में जिन्दगी भर तेरा इंतजार डोले |
प्यार की हर मौज सागर को समेटे होती है ,जब बिछड़ भी जाओ तो बिछड़ने का अहसास नहीं होता ,जो पल गुजारे थे अपने वैलन्टाइन के संग उन्हीं पलों के सहारे सागर में भी चहलकदमी कर सकते हैं |---
हर सुबह उठ के तुझसे मांगूं हूँ मैं तुझी को ,
तेरे सिवाय मेरा कुछ मुद्दआ नहीं |
जिनकी शादी तय हुई है ,जिनकी अभी शादी हुई है ,जिनकी शादी की सालगिरह है ,और जो दशकों से प्यार के हिंडोले में झूल रहे हैं सभी को Happy Valentine .खूब प्यार- मनुहार से ये दिन मनाएं अच्छा सा उपहार दें .क्यूँ कि -------
ये वो नगमा है जो बनाया नहीं जाता ,
रेखतों से जिसको सजाया नहीं जाता , ----इश्क बस दुनिया के बाशिंदों को ही हासिल होता है तभी तो भगवान् को भी प्यार करने को धरा पे आना पड़ता है ----
दिल के तारों की छुवन से ,बजता है ये साज ,
इश्क खुदा को भी बन्दा बना देता है |आभा

Tuesday, 3 February 2015

'' बर्तन मांजते हुए आत्मा का माँजना '
            बैठे ठाले की बकवास
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सपने में देखा इक सपना ,गीता उतरी  मन मंदिर  में
चमत्कार था  द्वार खड़ा ,आज चलाआया  भीतर।
गीता का है  ज्ञान मिला ,मन प्रांगण में है धान खिला,
आत्म- दर्पण साफ़  हुआ देगची था कड़ाह हुआ।
चम -चम-चमक रही आत्मा; ज्ञान  नदी -
                झाग बन बहती है ,
स्कॉच ब्राइट और लिक्विड सोप की-
           करामात सी लगती है।
दिव्य दृष्टि सी मिली हमें ,अर  चाय सा देश प्रेम उबला ,
आत्मा को बना ग्लास ,झट छन्नी से छान लिया ,
अर्पण कर गरमा -गर्म चाय, तन को,  तृप्ति का अभिमान  दिया।
निर्लिप्त जीव की भूमण्डल पर ,कितनी सख्त जरूरत है ,
चाय से तृप्त जीव को रसगुल्ले चमचम का वरदान दिया ,
अब चले जरा गीता बाँचें ,जो ज्ञान मिला सब में बाँटें ,
अभी नहीं तो कभी नहीं ,ये सोच व्रत उपवास किया।
चल पड़े कदम दो डगमग में ,द्वारे  नेताजी खड़े मिले ,
झट लपक लिया हमको, बोले -क्या खूब मिले क्या खूब मिले।
  झाग  भरा था   सिंक हमारा   ,  बांटूं  ज्ञान   , लालायित मन ,
चल पड़े साथ हम नेता संग ,निर्लिप्त भाव से छेड़ी जंग।
मेरा मन था मंजा हुआ ,दर्पण चम-चम था चमक  रहा ,
 कैसे हो देश सेवा ?झूठा   संकल्प  था उछल रहा।
जनता पिस  रही है भाई ,ना राशन न कोई कमाई ,
ठंड में पास नहीं रजाई ,बीमार को नहीं दवाई।
हमने अपना ज्ञान बघारा ,बोले क्यों चिंता करते हो ,
कुछ भी पास नहीं है तो, प्राणायाम करो न भाई ,
खाली पड़ी जमीन पे तुम सब ,अपना अधिकार जमालो ,
कोई कुछ भी बोल न पाये ,शकरकंद आलू उगालो ,
       व्रत - उपवास  संस्कृति की आत्मा --
आटा दाल चावल दवाई , सब मायाहै ,सब छल है भाई।
बिजली नहीं न हो भाई ,सूरज छिपने से पहले  ही ,
शकरकंद का हलुवा बनाओ ,खुद भी खाओ मुझे  खिलाओ।
अन्न यदि न मिल पाये तो ,सब खाओ रसगुल्ला चमचम ,
आज सभा बस इतनी ही थी , बादल लगे बरसने झम -झम।
कर्म करो और फल मत खाओ ,करो इकट्ठे घर ले जाओ ,
आज चली है आंधी जम के ,आम के बाग़ से बटोर के  लाओ।
सदाचार का मतलब भइया ,सदा एक के चार बनाओ ,
सबके प्यारे बन जाओगे ,टोली के दादा कहलाओगे।
अरे गरीब है  क्यों रोता है , कर्मों का फल है  तू ढोता है
पेट  हमारा भरा हुआ था ,साथ नेता तना  हुआ था ,
हमसा  ग्यानी मिला था उसको , कुर्सी ही उसका मकसद था।
बोला सब को दो तुम ज्ञान ,वोट मिलें मैं बनू  महान।
मेरा मन भी मजा हुआ था , कोरे  ज्ञान से भरा हुआ था।
                  भूखों को दे डाला ज्ञान
भोग सारे पाप युक्त हैं ,त्याग तपस्या ही अनित्य है ,
भीड़ ये नाटक देख रही थी ,हमको अब तक झेल रही थी।
जाने क्या फिर  मन में आया ,ले डंडा हमको दौड़ाया ,
आगे आगे नेता भागे -पीछे हम ज्ञान के मांजे।
डर  के मारे आँख खुली , सपना जान के तबियत खिली।
एक चोर था गली में पहले ,सदा-चार अब साथ में रहते ,
                 फुदक-फुदक मेंढक से टर्राते ,
              मैं हूँ न ;कह सबको मूर्ख बनाते ,
मेरा मन तो मंजा हुआ था ,दर्पण चम-चम चमक रहा था ,
लबालब झाग   भरा   सिंक था   ,बांटू ज्ञान , लालायित मन  था ,
भूखे को क्या ज्ञान सिखाऊँ , वंचित को क्यों राम बनाऊं ,
उसको भी चोरी करने दो ,अपना उदर उसे भरने दो ,
ज्ञान जो उसको सिखलाओगे ,खुद की नजरों में गिर जाओगे।
जीवन जीने का नाम नहीं है ,मरने को हम जग में आते ,
पर सदा एक को  चार बनाके ,सदाचार का पाठ पढ़ाते ,
 करने दो वंचित को दो के चार ,उसको भी दे दो व्यापार ,
वंचित जब कुछ पा जाएगा ,तो न बहकावे में आएगा
ये सपना क्या सच हो पायेगा ,सदाचार क्या आ पायेगा ? आभा।।