Tuesday, 3 February 2015

'' बर्तन मांजते हुए आत्मा का माँजना '
            बैठे ठाले की बकवास
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सपने में देखा इक सपना ,गीता उतरी  मन मंदिर  में
चमत्कार था  द्वार खड़ा ,आज चलाआया  भीतर।
गीता का है  ज्ञान मिला ,मन प्रांगण में है धान खिला,
आत्म- दर्पण साफ़  हुआ देगची था कड़ाह हुआ।
चम -चम-चमक रही आत्मा; ज्ञान  नदी -
                झाग बन बहती है ,
स्कॉच ब्राइट और लिक्विड सोप की-
           करामात सी लगती है।
दिव्य दृष्टि सी मिली हमें ,अर  चाय सा देश प्रेम उबला ,
आत्मा को बना ग्लास ,झट छन्नी से छान लिया ,
अर्पण कर गरमा -गर्म चाय, तन को,  तृप्ति का अभिमान  दिया।
निर्लिप्त जीव की भूमण्डल पर ,कितनी सख्त जरूरत है ,
चाय से तृप्त जीव को रसगुल्ले चमचम का वरदान दिया ,
अब चले जरा गीता बाँचें ,जो ज्ञान मिला सब में बाँटें ,
अभी नहीं तो कभी नहीं ,ये सोच व्रत उपवास किया।
चल पड़े कदम दो डगमग में ,द्वारे  नेताजी खड़े मिले ,
झट लपक लिया हमको, बोले -क्या खूब मिले क्या खूब मिले।
  झाग  भरा था   सिंक हमारा   ,  बांटूं  ज्ञान   , लालायित मन ,
चल पड़े साथ हम नेता संग ,निर्लिप्त भाव से छेड़ी जंग।
मेरा मन था मंजा हुआ ,दर्पण चम-चम था चमक  रहा ,
 कैसे हो देश सेवा ?झूठा   संकल्प  था उछल रहा।
जनता पिस  रही है भाई ,ना राशन न कोई कमाई ,
ठंड में पास नहीं रजाई ,बीमार को नहीं दवाई।
हमने अपना ज्ञान बघारा ,बोले क्यों चिंता करते हो ,
कुछ भी पास नहीं है तो, प्राणायाम करो न भाई ,
खाली पड़ी जमीन पे तुम सब ,अपना अधिकार जमालो ,
कोई कुछ भी बोल न पाये ,शकरकंद आलू उगालो ,
       व्रत - उपवास  संस्कृति की आत्मा --
आटा दाल चावल दवाई , सब मायाहै ,सब छल है भाई।
बिजली नहीं न हो भाई ,सूरज छिपने से पहले  ही ,
शकरकंद का हलुवा बनाओ ,खुद भी खाओ मुझे  खिलाओ।
अन्न यदि न मिल पाये तो ,सब खाओ रसगुल्ला चमचम ,
आज सभा बस इतनी ही थी , बादल लगे बरसने झम -झम।
कर्म करो और फल मत खाओ ,करो इकट्ठे घर ले जाओ ,
आज चली है आंधी जम के ,आम के बाग़ से बटोर के  लाओ।
सदाचार का मतलब भइया ,सदा एक के चार बनाओ ,
सबके प्यारे बन जाओगे ,टोली के दादा कहलाओगे।
अरे गरीब है  क्यों रोता है , कर्मों का फल है  तू ढोता है
पेट  हमारा भरा हुआ था ,साथ नेता तना  हुआ था ,
हमसा  ग्यानी मिला था उसको , कुर्सी ही उसका मकसद था।
बोला सब को दो तुम ज्ञान ,वोट मिलें मैं बनू  महान।
मेरा मन भी मजा हुआ था , कोरे  ज्ञान से भरा हुआ था।
                  भूखों को दे डाला ज्ञान
भोग सारे पाप युक्त हैं ,त्याग तपस्या ही अनित्य है ,
भीड़ ये नाटक देख रही थी ,हमको अब तक झेल रही थी।
जाने क्या फिर  मन में आया ,ले डंडा हमको दौड़ाया ,
आगे आगे नेता भागे -पीछे हम ज्ञान के मांजे।
डर  के मारे आँख खुली , सपना जान के तबियत खिली।
एक चोर था गली में पहले ,सदा-चार अब साथ में रहते ,
                 फुदक-फुदक मेंढक से टर्राते ,
              मैं हूँ न ;कह सबको मूर्ख बनाते ,
मेरा मन तो मंजा हुआ था ,दर्पण चम-चम चमक रहा था ,
लबालब झाग   भरा   सिंक था   ,बांटू ज्ञान , लालायित मन  था ,
भूखे को क्या ज्ञान सिखाऊँ , वंचित को क्यों राम बनाऊं ,
उसको भी चोरी करने दो ,अपना उदर उसे भरने दो ,
ज्ञान जो उसको सिखलाओगे ,खुद की नजरों में गिर जाओगे।
जीवन जीने का नाम नहीं है ,मरने को हम जग में आते ,
पर सदा एक को  चार बनाके ,सदाचार का पाठ पढ़ाते ,
 करने दो वंचित को दो के चार ,उसको भी दे दो व्यापार ,
वंचित जब कुछ पा जाएगा ,तो न बहकावे में आएगा
ये सपना क्या सच हो पायेगा ,सदाचार क्या आ पायेगा ? आभा।।












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