स्तुतिजपार्चनचिंतनवर्जिता
न खलु काचन कालकलास्ति में।।
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वासंतिक नव रात्रि देवी की पूजा अर्चना और चैत्र में रामजी का जन्म भी। तप और उत्सव एक साथ। चार नवरात्रि दो गुप्त और दो में उत्सव --दोनों में कर्मकांड ,पूजा अर्चना कुछ बंधन कुछ वर्जनायें। क्यों होती देवी की अर्चना इन त्यौहारों में ही ? देवी पूजा के पर्व संक्रमण काल में ही होते हैं। इस समय ब्रह्माण्ड में सूक्ष्म हलचल होती हैं , शरद और ग्रीष्म का मिलन काल। मिलन की हर बेला उमंग भरी होती है ,आत्मा का परमात्मा से मिलन , और इस मिलन पर्व में सौंदर्य का ही महत्व सबसे अधिक होता है फिर यहां तो साक्षात माँ ही है सामने ,तो उसकी आराधना में कुछ भी कमी न रहे ,जप तप मंत्र ,आराधना। ऋतू चक्र बदलता है ,प्रकृति में नव धान्य ,विभिन्न पुष्प ,फल , यानी सृजन का काल ,तम से सत की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर और सबसे अधिक शांत चित्त की आवश्यकता इसी समय होती है। देवी पूजन अपनी समस्त चेष्टाओ को जागृत ,चैत्यन करने का और चंचल प्रकृति को स्थिर करने का तप है। ''तारिणी दुर्ग संसार '' जननी में ही ये शक्ति है ,वो शिव की शक्ति है ,शिव ने गरल को कंठ में रोका वो कुक्षी में धारण करती है ,फिर सृजन के समय उसकी ही अर्चना होगी न। तम अर्थात जड़ और सत अर्थात चैतन्य। जड़ और चेतन का संगम होगा तो रज उतपन्न होगा ,,इच्छा ,आकांक्षा ,लोभ ,मोह माया के बंधन ,इन्ही उद्वेगों को साधने के लिये पर्व और उनमे माँ की अर्चना। माँ का रूप अप्रतिम है -
-'' ॐ उदयद्याभानुसहस्रकान्तिमरुणक्षौमां शिरोमालिकां रक्तालिप्तपयोधरां जपवटीं विद्यामभीतिं वरम्। हस्ताब्जैर्दधतीं त्रिनेत्रविलसद्वक्त्रारविन्दश्रियं देवीं बद्धहिमांशुरत्नमुकुटां वन्देरविन्दस्थिताम्।।'' --
-- वो मनोहारी है , करुणा की मूर्ति हैं पर केवल ममता करुणा से युक्त सौंदर्य ही तो पर्याप्त नहीं है सृष्टि को सुचारू रूप से चलाने के लिए ,साथ में शक्ति भी चाहिये ---
'' सिर्फ ताल सुर लय से आता जीवन नहीं तराने में।
निरा सांस का खेल कहो यदि आग नहीं है गाने में।
है सौंदर्य शक्ति का अनुचर जो है बलि वही सुंदर।
सुंदरता नि:सार वस्तु है हो न साथ में शक्ति अगर ''----
बस इसी लिए माँ शक्ति भी है ,वो राक्षसों का सामूहिक विनाश करते हुए सृष्टि से मालिन्य मिटाती है और अपनी संतानों को निरापद करती है। देवी की आराधना के साथ ही मर्यादा पुरुषोत्तम का जन्म --शक्ति भी और मर्यादा भी , वो बच्चे के लिए रातों रात जागती है ,ममतामयी है तो कठोर भी है चाबुक या सोटी भी हाथ में ले लेती है बच्चे को सुधारने के लिए। ,संसार में रहते हुए नव द्वार जो अशुद्ध हो कर हमें शिथिल और अस्वस्थ कर देते हैं उन्हें माँ का चाबुक ही सुधार सकता है ,सो हमारे परिमार्जन के लिए ही ये नौ दिन हैं , कुछ तप ,कुछ जप कुछ वर्जनाएं ,आडंबर रहित शुद्ध -सात्विक नौ दिन ,सृजन में हरियाली ,तरंग और कम्पन --घंटा मृदंग और शंख ध्वनि ,जो सारे रोग-शोक कष्ट ,डिप्रेशन दूर करके वातावरण को उमंगित तरंगित कर दे। सात्विक आहार शरीर के विष को दूर करके ,निर्मल ऊर्जावान कर दे और विषाणुओं को मारने के लिए --सरसों के तेल का दीपक ,शुद्ध घी ,कपूर ,गूगल की आरती अंतिम दिन हवन जो सर्वांग शुद्ध करे।
बस शुद्धि ,निर्माल्य ,चेतना ,मर्यादा का ही नाम है नवरात्रि यानी देवी पूजन ,जो प्रति दिन तो हो ही
पर कुछ समय ऐसा हो जब सर्वांग शुद्धि हो तो दो नवरात्रि। ---बस यूँ ही उनींदी आँखों का देवी चिंतन ---मेरे लिए खास पर सब के लिए बेमतलब की बकवास। आभा।।
न खलु काचन कालकलास्ति में।।
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वासंतिक नव रात्रि देवी की पूजा अर्चना और चैत्र में रामजी का जन्म भी। तप और उत्सव एक साथ। चार नवरात्रि दो गुप्त और दो में उत्सव --दोनों में कर्मकांड ,पूजा अर्चना कुछ बंधन कुछ वर्जनायें। क्यों होती देवी की अर्चना इन त्यौहारों में ही ? देवी पूजा के पर्व संक्रमण काल में ही होते हैं। इस समय ब्रह्माण्ड में सूक्ष्म हलचल होती हैं , शरद और ग्रीष्म का मिलन काल। मिलन की हर बेला उमंग भरी होती है ,आत्मा का परमात्मा से मिलन , और इस मिलन पर्व में सौंदर्य का ही महत्व सबसे अधिक होता है फिर यहां तो साक्षात माँ ही है सामने ,तो उसकी आराधना में कुछ भी कमी न रहे ,जप तप मंत्र ,आराधना। ऋतू चक्र बदलता है ,प्रकृति में नव धान्य ,विभिन्न पुष्प ,फल , यानी सृजन का काल ,तम से सत की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर और सबसे अधिक शांत चित्त की आवश्यकता इसी समय होती है। देवी पूजन अपनी समस्त चेष्टाओ को जागृत ,चैत्यन करने का और चंचल प्रकृति को स्थिर करने का तप है। ''तारिणी दुर्ग संसार '' जननी में ही ये शक्ति है ,वो शिव की शक्ति है ,शिव ने गरल को कंठ में रोका वो कुक्षी में धारण करती है ,फिर सृजन के समय उसकी ही अर्चना होगी न। तम अर्थात जड़ और सत अर्थात चैतन्य। जड़ और चेतन का संगम होगा तो रज उतपन्न होगा ,,इच्छा ,आकांक्षा ,लोभ ,मोह माया के बंधन ,इन्ही उद्वेगों को साधने के लिये पर्व और उनमे माँ की अर्चना। माँ का रूप अप्रतिम है -
-'' ॐ उदयद्याभानुसहस्रकान्तिमरुणक्षौमां शिरोमालिकां रक्तालिप्तपयोधरां जपवटीं विद्यामभीतिं वरम्। हस्ताब्जैर्दधतीं त्रिनेत्रविलसद्वक्त्रारविन्दश्रियं देवीं बद्धहिमांशुरत्नमुकुटां वन्देरविन्दस्थिताम्।।'' --
-- वो मनोहारी है , करुणा की मूर्ति हैं पर केवल ममता करुणा से युक्त सौंदर्य ही तो पर्याप्त नहीं है सृष्टि को सुचारू रूप से चलाने के लिए ,साथ में शक्ति भी चाहिये ---
'' सिर्फ ताल सुर लय से आता जीवन नहीं तराने में।
निरा सांस का खेल कहो यदि आग नहीं है गाने में।
है सौंदर्य शक्ति का अनुचर जो है बलि वही सुंदर।
सुंदरता नि:सार वस्तु है हो न साथ में शक्ति अगर ''----
बस इसी लिए माँ शक्ति भी है ,वो राक्षसों का सामूहिक विनाश करते हुए सृष्टि से मालिन्य मिटाती है और अपनी संतानों को निरापद करती है। देवी की आराधना के साथ ही मर्यादा पुरुषोत्तम का जन्म --शक्ति भी और मर्यादा भी , वो बच्चे के लिए रातों रात जागती है ,ममतामयी है तो कठोर भी है चाबुक या सोटी भी हाथ में ले लेती है बच्चे को सुधारने के लिए। ,संसार में रहते हुए नव द्वार जो अशुद्ध हो कर हमें शिथिल और अस्वस्थ कर देते हैं उन्हें माँ का चाबुक ही सुधार सकता है ,सो हमारे परिमार्जन के लिए ही ये नौ दिन हैं , कुछ तप ,कुछ जप कुछ वर्जनाएं ,आडंबर रहित शुद्ध -सात्विक नौ दिन ,सृजन में हरियाली ,तरंग और कम्पन --घंटा मृदंग और शंख ध्वनि ,जो सारे रोग-शोक कष्ट ,डिप्रेशन दूर करके वातावरण को उमंगित तरंगित कर दे। सात्विक आहार शरीर के विष को दूर करके ,निर्मल ऊर्जावान कर दे और विषाणुओं को मारने के लिए --सरसों के तेल का दीपक ,शुद्ध घी ,कपूर ,गूगल की आरती अंतिम दिन हवन जो सर्वांग शुद्ध करे।
बस शुद्धि ,निर्माल्य ,चेतना ,मर्यादा का ही नाम है नवरात्रि यानी देवी पूजन ,जो प्रति दिन तो हो ही
पर कुछ समय ऐसा हो जब सर्वांग शुद्धि हो तो दो नवरात्रि। ---बस यूँ ही उनींदी आँखों का देवी चिंतन ---मेरे लिए खास पर सब के लिए बेमतलब की बकवास। आभा।।