Tuesday, 24 March 2015

स्तुतिजपार्चनचिंतनवर्जिता
                             न खलु काचन कालकलास्ति  में।।
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वासंतिक  नव रात्रि  देवी की पूजा अर्चना और  चैत्र में रामजी का  जन्म  भी। तप और उत्सव एक साथ।  चार नवरात्रि दो गुप्त और दो में उत्सव --दोनों में कर्मकांड ,पूजा अर्चना कुछ बंधन कुछ वर्जनायें। क्यों होती देवी की अर्चना   इन त्यौहारों में ही ? देवी पूजा के पर्व संक्रमण काल में ही होते हैं। इस समय ब्रह्माण्ड में सूक्ष्म हलचल होती हैं , शरद और ग्रीष्म का मिलन काल। मिलन की हर बेला उमंग भरी होती है ,आत्मा का परमात्मा से मिलन , और इस मिलन पर्व में सौंदर्य का ही महत्व सबसे अधिक होता है फिर  यहां तो साक्षात माँ ही है सामने ,तो उसकी आराधना में कुछ भी कमी न रहे ,जप तप मंत्र ,आराधना।  ऋतू चक्र बदलता है ,प्रकृति में नव धान्य  ,विभिन्न  पुष्प ,फल , यानी सृजन का काल ,तम से सत  की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर और सबसे अधिक शांत चित्त की आवश्यकता इसी समय होती है। देवी पूजन अपनी समस्त चेष्टाओ को जागृत ,चैत्यन  करने का और चंचल प्रकृति को स्थिर करने का तप है। ''तारिणी दुर्ग संसार '' जननी में ही ये शक्ति है ,वो शिव की शक्ति है ,शिव ने गरल  को कंठ में रोका  वो कुक्षी में धारण करती है ,फिर सृजन के समय उसकी ही अर्चना होगी न। तम अर्थात जड़ और सत  अर्थात चैतन्य।  जड़ और चेतन का संगम होगा तो रज उतपन्न होगा ,,इच्छा ,आकांक्षा ,लोभ ,मोह माया के बंधन ,इन्ही उद्वेगों को साधने के लिये  पर्व और उनमे माँ की अर्चना। माँ का रूप अप्रतिम है -
-'' ॐ  उदयद्याभानुसहस्रकान्तिमरुणक्षौमां  शिरोमालिकां  रक्तालिप्तपयोधरां  जपवटीं विद्यामभीतिं वरम्। हस्ताब्जैर्दधतीं त्रिनेत्रविलसद्वक्त्रारविन्दश्रियं  देवीं बद्धहिमांशुरत्नमुकुटां वन्देरविन्दस्थिताम्।।'' --
-- वो मनोहारी है , करुणा की मूर्ति हैं पर केवल ममता करुणा से युक्त सौंदर्य ही तो पर्याप्त नहीं है सृष्टि को सुचारू रूप से चलाने के लिए ,साथ में शक्ति भी चाहिये  ---
'' सिर्फ ताल सुर लय से आता जीवन नहीं तराने में।
निरा सांस का खेल कहो  यदि आग नहीं है गाने में।
है सौंदर्य शक्ति का अनुचर जो है बलि वही सुंदर।
सुंदरता नि:सार वस्तु  है हो न साथ में शक्ति अगर ''----
बस इसी लिए माँ शक्ति भी है ,वो राक्षसों का सामूहिक विनाश करते हुए सृष्टि से  मालिन्य  मिटाती है और अपनी संतानों को निरापद करती है।  देवी की आराधना के साथ  ही मर्यादा  पुरुषोत्तम का जन्म --शक्ति भी और मर्यादा भी , वो बच्चे के लिए रातों रात जागती है ,ममतामयी   है तो कठोर भी है चाबुक या सोटी भी हाथ में ले लेती है बच्चे को सुधारने  के लिए। ,संसार में रहते हुए नव द्वार जो अशुद्ध हो कर हमें शिथिल और अस्वस्थ कर देते हैं उन्हें माँ का चाबुक ही सुधार  सकता है ,सो हमारे परिमार्जन के लिए ही ये नौ दिन हैं , कुछ तप ,कुछ जप कुछ वर्जनाएं ,आडंबर रहित शुद्ध -सात्विक नौ दिन ,सृजन में हरियाली ,तरंग और कम्पन --घंटा मृदंग और शंख ध्वनि ,जो सारे रोग-शोक कष्ट ,डिप्रेशन दूर करके वातावरण को उमंगित तरंगित कर दे। सात्विक  आहार शरीर के विष को दूर करके ,निर्मल ऊर्जावान कर दे और विषाणुओं को मारने के लिए --सरसों के तेल का दीपक ,शुद्ध घी ,कपूर ,गूगल की आरती अंतिम दिन हवन जो सर्वांग शुद्ध करे।
बस शुद्धि ,निर्माल्य ,चेतना ,मर्यादा का ही नाम है नवरात्रि यानी देवी पूजन ,जो  प्रति  दिन तो हो ही
पर कुछ समय ऐसा हो जब सर्वांग शुद्धि हो तो दो नवरात्रि। ---बस यूँ ही उनींदी आँखों का देवी चिंतन ---मेरे लिए खास पर सब के लिए बेमतलब की बकवास। आभा।।








Wednesday, 4 March 2015

''थी कभी अपनी भी होली ''
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फागुन तो बौराने की ही ऋतू है ,आम का बौर ,नीम के फूल ,आडू ,सेब खुबानी ,नीम्बू के फूलों की मादकता भरी सुरभि हवाओं में तैरती रहती है ,अपनी पूरी नजाकत और कमनीयता के साथ पहाड़ों में फ्यूली फूल जाती है ,नव- नवीन पल्लव ,सरसों के पीले फूलों से सजी धरती ,और साथ ही सुनहरी होती गेहूं की फसल् . टेसू ,गुलाब ,गेंदा ,चमेली ,रातकी रानी ,हरसिंगार ,चंपा .मोगरा के सौरभ से पवन देव भी अनंग के रूप का ही विस्तार प्रतीत होते हैं .और इस सब से इतर महुआ और पलाश भी अंगड़ाई लेने लगते हैं .मानव को बहकाने का पूरा -पूरा सामान होता है फागुन में प्रकृति के पास ....
प्रकृतिके इन रंगों से रंग और खुशबू उधार ले कर हमारी संस्कृति में होली का पर्व रचा गया ,टेसू ,केतकी ,चमेली गुलाब ,गेंदा गुडहल ,इन सब फूलों से रंग और इत्र तैयार कर होली का त्यौहार मनाया जाता था ,राधा कृष्ण ,गोप ग्वाले ,प्रेम के रंग में रंगे हुए ,प्रकृति के साथ एकाकार हो जाते थे पारिजात और कदम्ब की डाल के नीचे यमुना किनारे सुमन और सुरभि की होली और यमुना जल से अठखेली ,होली मानो जायसी की नायिका का रूप धर आई हो . होली है ही सामाजिक समरसता और बराबरी का त्यौहार .
पर होली केवल रंगों और अठखेलियों का ही नाम नहीं है ,पकवानों और खुशबुओं का ही नाम नहीं है ,पिया के रंग में रंगने का ही नाम नहीं है -----------------यह तो एक क्रांति कारी विचार धारा है , बन्धनों में जकड़े समाज को आजाद करने की सहज सरल ,स्वीकारोक्ति ,,वर्ष भर बुर्जुआ समाज के नियम कायदों में पलने वाली घूँघट में रहने वाली स्त्री के लिए उन्मुक्त ,उल्लास ,और आनन्द का त्यौहार और बरसाने की लट्ठमार होली ,यानि सत्ता का हस्तान्तरण ,बरजोरी की, तो !खैर नहीं ,.,और तारीफ ये की पूरी मस्ती और आनन्द के साथ छूट होती है रंग खेलने की ,दुश्मन को भी गले लगाने का त्यौहार कोयल की कुहुक के साथ -साथ पंचम सुर में आंगन में गाना गाने का त्यौहार ,...
ये ऋतु सर्दी से गर्मी में संचार की है अत: गर्म पानी से ठन्डे की ओर जाने को एक पूरे दिन हलकी हलकी धूप में होली के रंगों की फुहारें ,,,जिन में टेसू गुलाब ,नीम गुडहल गेंदाऔर मेहंदी के रंग हों ,इत्र हों,,,, त्वचा को कमनीय बनाती हैं और चर्म रोगों से बचा के ठन्डे पानी के प्रयोग के लिए तैयार करती हैं ,,,,
भंग के पकोड़े ,और ठंडाई ,पुदीना की चटनी ये सब संतुलित मात्रा में लेना होली की एक परम्परा है अब ये साबित होने लगा है कि भांग में कितने गुण हैं ये कैंसर से तक बचाव करती है गुझिया और पकवान को होली में खाकर फिर काले लाल गाजर की कांजी से पचाने का जुगाड़ ,,,इस संक्रमण काल में जब शरीर की रोग प्रतिरोधी क्षमता कम हो तो ,ये खान पान चमत्कारिक असर करता है ,.........इस तरह से मेरे विचार से होली पूर्णत: एक वैज्ञानिक सूझबूझ वाला त्यौहार है ,...बस हम केमिकल रंगों ,अति नशे ,से बचें ,,होली की आत्मा को पहचानें उसे कुरीतियों से बचा के प्यार और रंगों के द्वारा ताजगी भरे उल्लास और आनन्द के त्यौहार की तरह ही मनाएं ................********************.......आप सभीको होली की ढेरों शुभकामनाएं ,*******************....आभा ************..
ईश वंदना( एक बच्चे की शिकायत )
''बैठे ठाले  की बकवास ''
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प्रभु तुम आये  राम रूप में ,
अवतार लिया दशरथ  घर में  .
बचपन बीता महलों में औ  -शिक्षा  विश्वामित्र संग में। 
फ्यूचर का टेंशन नहीं था  ,नौकरी की तुमको  चिंता 
कैरियर बनाना क्या होता है ,कोई ऐसी बात नहीं थी .
वन -वन घूमे राक्षस मारे ,ऋषि -मुनिओं से विद्या पाई
मुनिवर के लाड -प्यार में फिर आई कमसिन  तरुणाई। .
धनुष यज्ञ में धनुष को तोडा सीताजी से नाता जोड़ा
दोनों ही घर सम्राटों के ,प्यार और ठाठ-बाटों  के। 
 नयन मिले   पुष्प-वाटिका में ,झटपट स्वयंबर तक पहुंचे 
जगत -जननी को वर कर  तुमने  पर्भु  पाई वाह-वाही
हे! प्रभु हमे है कैरियर  की चिंता 
 फ्यूचर  का रहता है टेंशन 
बचपन बीता पढने में ,सफल नही तो दो डोनेशन
प्रभु तुमने   पिता के  खातिर सब सुख ठुकराये थे ,
वन -वन भटके ,भूखे रह कर १४ वर्ष बिताये थे .
राज -रानी सीता माता लक्ष्मण  सदृश भाई था
हैंड -मैड थी छोटी कुटिया ,कंद -मूल फल खाना था .
 कंदमूल और ताज़ी  सब्जी पंचवटी में छोटी सी कुटिया 
ख़ुशी ख़ुशी हम निकल पड़ेंगे ,सारा  जीवन  वहीं  रहेंगे 
पर अब कहाँ ये जंगल के नजारे ,तरसें हम सब शहरी सारे। 
लाखों रूपये खर्च करके ,दो दिन एक रात मिलते है 
 किस पथ किस राह चलना है वो भी टूर वाले  पे  निर्भर ,
हे !प्रभु हम भी मात-पिता की आज्ञां का पालन करते हैं
उनके कहने से हम डोनेशन से  पढते -लिखते हैं .
हे ! प्रभु मात -पिता हमको जब डोनेशन से पढवाते  हैं
कर्तव्य हमारा भी बनता है  मात -पिता की संसृति को !
ऊपर तक ले जाएँ .हम
हे प्रभु दे वरदान  ,घर  हमको भी बनवाना  है
पैदा करें एक ही बच्चा ,डोनेशन से पढ़वाना है
हे  ! प्रभु दे वरदान हमें  की  हम सच्ची संतान बनें
मात -पिता की इस संसृति को आगे तक ले जायें हम
ई एम  आई , डोनेशन  संसृति  पे आगे बढ़ते जाएँ हम 
कई युगों में इस कलयुग को आज अमर कर जाएँ हम। आभा 
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