'नगर ढिंढोरा पीटती ,प्रीत न करियो कोय ''
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25 नवंबर, 1978 से 2011 -शादी की वर्षगांठ ----और अब 25 नवंबर ,2011 -से हर वर्ष ,बिछोह की पुण्यतिथि जो अंतिम सांस तक मनाई जायेगी।
मन को स्थिर करने के प्रयत्न में मैं बदलती जा रही हूँ। पर शायद बो बेतकलुफ्फी वाला चोला ,वो मैं थी ही नही। या अब जो हूँ वो एक डिग्री के लिए फोटो खिंचवाने वाला चोला ओढ़ा है। जो भी हो इन दोनों के बीच कहीं खुद को ढूंढती सी ,तेरे जाने के बाद और कोई काम भी तो नही--यादों के जंगलों में खोना ,कुछ रास्ते बनाना ,कुछ मिटाना ताकि कोई और उस रास्ते से न आ पाये।
पहुँचूंगी जब तुम तक ,तो क्या मिलोगे मुझे ? मुझे मालूम है मिलोगे ,और आज इस रास्ते पे पहला कदम बढ़ाया। शादी तय होने के बाद -साल भर का वक्त --और १०० चिट्ठियां तुम्हारी ,१०० मेरी। आज लिखा कुछ अतुकांत --क्यूँ ? क्यूंकि ये है -लीक से बाहर की ,बस से बाहर की ,हिम्मत ,दुःसाहस और बहादुरी वाली बात जो आज मैंने की ---
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और ख़ाक कर दीं ये निशानियाँ मैंने।
१०० खत तुम्हारे १०० मेरे ,
नाजुक अहसासों में लिपटे।
इतना आसां था क्या ?
हवा में आती सर्द आहटें
पीले पत्ते और नवंबर का महीना
तिनका -तिनका बिखरती साँसें ;
लिखी है तन्हाई नसीब में
तो ;
ये खत भी क्यूँ ?
क्या करूँ ? एक किताब छपवा दूँ !
कितना कुछ तो है इन खतों में।
नाजुकी ख्यालों की ,रेश्मी अहसास ,
वो अनगढ़ ,अनछुये सपने ,
जीवन को लिखने की बराखडी ,
फूलों की सुगंध ,तितली की रंगीनी ,
भंवरे का गुंजार , रूठना मनाना
परिवारों से पहचान ,भविष्य का खाका
कभी प्यार कभी तकरार
वादे इरादे --
कुछ जो पूरे हुए ,कुछ यूँ ही रह गये --अधूरे ख़्वाब -
शायद ! दूसरे जन्म में मिलने के कर्ज के रूप में।
आज तैयारी की ,एक कदम बढ़ाया अंतिम यात्रा की ओर
न जाने जीवन कितना है ?
कैसा है?
आगत को किसने जाना ,
समय साथ रहने वाला अतिथि है ,
उसकी पोटली में क्या है ?
उसे भी नहीं पता।
सफर की ओर कदम बढ़ाना ही था
आज बढ़ाया एक कदम
अनन्त की यात्रा की ओर।
मिलोगे तुम फिर मुझे ,
ये आस तो है मुझे ,
बेटे की संतान का रूप धर के आओगे :
या ऊपर ही मिलोगे कहीं ,
एक आस ही तो है।
आस पे ही तो जीते आये हैं हम
पर ,''आस '' तो ब्याही बेटी है
दूसरे के घर की होती है न
टकटकी लगाये राह तकते रहो ,बस।
हाँ ! मैं तुम्हारे लोक तो आउंगी ही
तुम मिलोगे ?
पहुंचने पे ही पता चलेगा।
तब तक आस ही है।
पैरों में पड़े घुंघरू
कौन सा आवाज कर रहा है ,कौन सा शांत है ,
किसे पता ?
औ होम कर दीं आज मैंने ये अनमोल पोटली ,
घी और कपूर की समिधा के साथ ,एक -एक शब्द से हवन किया।
उड़ गया था चेहरे का रंग !
दिल निकलेगा तो चेहरा जर्द होगा ही ,
इन खतों की इबारत अब न दिखेगी मुझे
तुम्हारे होने का अहसास थे ये खत ,
पर क्या करती ,बच्चों के लिए छोड़ जाती ?
तो वो न कर पाते इन्हें अपनी जिंदगी से अलग
ये विधि तो मुझे ही निबाहनी थी।
खतों की ये पोटली तुम्हारे होने का अहसास थी
पर आज मैंने हवन किया इन चिट्ठियों का
बहुत समय से सोच रही थी ,
अलमारी से निकाल पलंग पे रही कई दिनों ये चिट्ठियां
सिरहाने रख के सोई कई दिनों
और आज ,आज २५ नवंबर का दिन
तुम्हें भी तो ज्वाल रथ पे चढ़ाया था
वही रथ मैंने इस सुनहरी बराखडी को भी दिया
दुःख ,आंसू -सब वही
पर जब तुम ही नही तो ये क्या ?
ये संस्कार मेरे ही जिम्मे था।
तुम्हारी विरासत तो बच्चे हैं
ये चिट्ठियां तो उनके लिये भी बोझ बन जातीं।
वो न कर पाते इन्हें रफा दफा ,
मैंने ही स्वाहा कर दिये अपने अहसास।
कितना मुश्किल था ?
तुम होते तो न कर पाते ;
पर मैं ,तुम्हारे मुहं में तुलसी दल गंगाजल डालके
बच्चों को फोन कर सकती हूँ ,
बेहोशी को रोक सकती हूँ ,
मैं ये भी कर गयी आज।
क्या कहा ? गंगा में बहा देती ;
हाँ बहा तो सकती थी ,पर
नहीं ,यदि कोई चिट्ठी किनारे लग जाती तो ?
ये फ़क़त खत नहीं ,हमारी आत्मा हैं
मुक्ति के लिये,जलना ही पड़ा इन्हें।
कितने दिन काटे इनके सहारे
तब भी जब हम मिले नहीं थे ,
और अब भी जब तुम चले गए।
अब मैं भी तन्हा तुम भी तन्हा ,
पर हाँ ,शादी की सालगिरह की बधाई तुम्हें ,और मुझे भी ,
यही दिन जब मैंने तुम्हें पाया भी और खोया भी ,
मैं रोती नहीं वारती मानस मोती हूँ ,
सारे मोती तुम पे निछावर ,
जब दोगे आवाज चली आउंगी।
नियति तो होती ही कठोर है ,
कोमल तो बस हम हैं या हमारे अहसास।। -----------
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जिंदगी एक अतुकांत कविता ही तो है ,जिसे लय में गाना पड़ता है ,कई बेमेल छंदों और स्वरों के साथ।
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25 नवंबर, 1978 से 2011 -शादी की वर्षगांठ ----और अब 25 नवंबर ,2011 -से हर वर्ष ,बिछोह की पुण्यतिथि जो अंतिम सांस तक मनाई जायेगी।
मन को स्थिर करने के प्रयत्न में मैं बदलती जा रही हूँ। पर शायद बो बेतकलुफ्फी वाला चोला ,वो मैं थी ही नही। या अब जो हूँ वो एक डिग्री के लिए फोटो खिंचवाने वाला चोला ओढ़ा है। जो भी हो इन दोनों के बीच कहीं खुद को ढूंढती सी ,तेरे जाने के बाद और कोई काम भी तो नही--यादों के जंगलों में खोना ,कुछ रास्ते बनाना ,कुछ मिटाना ताकि कोई और उस रास्ते से न आ पाये।
पहुँचूंगी जब तुम तक ,तो क्या मिलोगे मुझे ? मुझे मालूम है मिलोगे ,और आज इस रास्ते पे पहला कदम बढ़ाया। शादी तय होने के बाद -साल भर का वक्त --और १०० चिट्ठियां तुम्हारी ,१०० मेरी। आज लिखा कुछ अतुकांत --क्यूँ ? क्यूंकि ये है -लीक से बाहर की ,बस से बाहर की ,हिम्मत ,दुःसाहस और बहादुरी वाली बात जो आज मैंने की ---
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और ख़ाक कर दीं ये निशानियाँ मैंने।
१०० खत तुम्हारे १०० मेरे ,
नाजुक अहसासों में लिपटे।
इतना आसां था क्या ?
हवा में आती सर्द आहटें
पीले पत्ते और नवंबर का महीना
तिनका -तिनका बिखरती साँसें ;
लिखी है तन्हाई नसीब में
तो ;
ये खत भी क्यूँ ?
क्या करूँ ? एक किताब छपवा दूँ !
कितना कुछ तो है इन खतों में।
नाजुकी ख्यालों की ,रेश्मी अहसास ,
वो अनगढ़ ,अनछुये सपने ,
जीवन को लिखने की बराखडी ,
फूलों की सुगंध ,तितली की रंगीनी ,
भंवरे का गुंजार , रूठना मनाना
परिवारों से पहचान ,भविष्य का खाका
कभी प्यार कभी तकरार
वादे इरादे --
कुछ जो पूरे हुए ,कुछ यूँ ही रह गये --अधूरे ख़्वाब -
शायद ! दूसरे जन्म में मिलने के कर्ज के रूप में।
आज तैयारी की ,एक कदम बढ़ाया अंतिम यात्रा की ओर
न जाने जीवन कितना है ?
कैसा है?
आगत को किसने जाना ,
समय साथ रहने वाला अतिथि है ,
उसकी पोटली में क्या है ?
उसे भी नहीं पता।
सफर की ओर कदम बढ़ाना ही था
आज बढ़ाया एक कदम
अनन्त की यात्रा की ओर।
मिलोगे तुम फिर मुझे ,
ये आस तो है मुझे ,
बेटे की संतान का रूप धर के आओगे :
या ऊपर ही मिलोगे कहीं ,
एक आस ही तो है।
आस पे ही तो जीते आये हैं हम
पर ,''आस '' तो ब्याही बेटी है
दूसरे के घर की होती है न
टकटकी लगाये राह तकते रहो ,बस।
हाँ ! मैं तुम्हारे लोक तो आउंगी ही
तुम मिलोगे ?
पहुंचने पे ही पता चलेगा।
तब तक आस ही है।
पैरों में पड़े घुंघरू
कौन सा आवाज कर रहा है ,कौन सा शांत है ,
किसे पता ?
औ होम कर दीं आज मैंने ये अनमोल पोटली ,
घी और कपूर की समिधा के साथ ,एक -एक शब्द से हवन किया।
उड़ गया था चेहरे का रंग !
दिल निकलेगा तो चेहरा जर्द होगा ही ,
इन खतों की इबारत अब न दिखेगी मुझे
तुम्हारे होने का अहसास थे ये खत ,
पर क्या करती ,बच्चों के लिए छोड़ जाती ?
तो वो न कर पाते इन्हें अपनी जिंदगी से अलग
ये विधि तो मुझे ही निबाहनी थी।
खतों की ये पोटली तुम्हारे होने का अहसास थी
पर आज मैंने हवन किया इन चिट्ठियों का
बहुत समय से सोच रही थी ,
अलमारी से निकाल पलंग पे रही कई दिनों ये चिट्ठियां
सिरहाने रख के सोई कई दिनों
और आज ,आज २५ नवंबर का दिन
तुम्हें भी तो ज्वाल रथ पे चढ़ाया था
वही रथ मैंने इस सुनहरी बराखडी को भी दिया
दुःख ,आंसू -सब वही
पर जब तुम ही नही तो ये क्या ?
ये संस्कार मेरे ही जिम्मे था।
तुम्हारी विरासत तो बच्चे हैं
ये चिट्ठियां तो उनके लिये भी बोझ बन जातीं।
वो न कर पाते इन्हें रफा दफा ,
मैंने ही स्वाहा कर दिये अपने अहसास।
कितना मुश्किल था ?
तुम होते तो न कर पाते ;
पर मैं ,तुम्हारे मुहं में तुलसी दल गंगाजल डालके
बच्चों को फोन कर सकती हूँ ,
बेहोशी को रोक सकती हूँ ,
मैं ये भी कर गयी आज।
क्या कहा ? गंगा में बहा देती ;
हाँ बहा तो सकती थी ,पर
नहीं ,यदि कोई चिट्ठी किनारे लग जाती तो ?
ये फ़क़त खत नहीं ,हमारी आत्मा हैं
मुक्ति के लिये,जलना ही पड़ा इन्हें।
कितने दिन काटे इनके सहारे
तब भी जब हम मिले नहीं थे ,
और अब भी जब तुम चले गए।
अब मैं भी तन्हा तुम भी तन्हा ,
पर हाँ ,शादी की सालगिरह की बधाई तुम्हें ,और मुझे भी ,
यही दिन जब मैंने तुम्हें पाया भी और खोया भी ,
मैं रोती नहीं वारती मानस मोती हूँ ,
सारे मोती तुम पे निछावर ,
जब दोगे आवाज चली आउंगी।
नियति तो होती ही कठोर है ,
कोमल तो बस हम हैं या हमारे अहसास।। -----------
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जिंदगी एक अतुकांत कविता ही तो है ,जिसे लय में गाना पड़ता है ,कई बेमेल छंदों और स्वरों के साथ।
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