Monday, 30 May 2016

                                                  ''  अपनी  बीती  ''
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कैम्पस स्लैकशन  आज  का  ट्रेंड  है | सैंतीस -अड़तीस वर्ष पूर्व  डिग्री  लेने के  पश्चात अखबारों से  या जान-पहचान से  ही मालूम होता था कहाँ मिलेगी नौकरी ,''अपने पैरों पर खड़े होना'' तब भी ''टेढ़ी खीर''  ही  था |MSc के बाद  एक  महीना  घर में  बैठना इतना असहज होगा कभी सोचा भी न था ,ये वही तो घर है जहाँ पंछी  बनी उड़ती रही बचपन से अब तक ,फिर अब क्या हो गया ? शायद सभी को ऐसा ही कुछ अनुभव होता हो |ऐसे में टिहरी कन्या विद्यालय से राजमाता का बुलावा आया ,मैं टीचर बनना नही चाहती थी पर एक महीने में ही सारे  सपने ''गूलर का फूल  ''हो गये थे ,फिर पंतनगर में होमसाइंस  के डिप्लोमा को ठुकरा चुकी थी साइंस पढने के चक्कर में ,इसलिये कोई ''अटकल पच्चू '' नही चलाया और माँ के साथ  आ गयी उत्तरकाशी  से  टिहरी  TGMO की बस में सवार होके | हाय  री किस्मत ;  - महल में इन्टरव्यू होना था  पर  बाहर  ही  एक  आदमी  मिलगया राजमाता का फरमान लिये कि उनकी तबियत अचानक  खराब होने से उन्हें दिल्ली जाना पड़ा ,आज  बिटिया को विद्यालय घुमाया जाये |विद्यालय देखने की जिज्ञासा तो थी ही क्यूंकि कभी मेरी माँ भी यहाँ पढ़ी थीं और शिक्षिका भी रह चुकी थीं ,पर माँ से कहा हम आज ही लौट चलेंगे | बस में तब गेट सिस्ट्म था ,समय से ही बसें  छूटती थीं | इस बीच माँ ने अपने एक रिश्ते के भाई से मुलाकात करवाई ,वो बैंक मैनेजर थे ,लंच का समय था ,जब हम पहुंचे तो खाना खा रहे थे ,केवल एक दाल और रोटी ,बोले मैं कम से कम में गुजारा करता हूँ और जितना भी मेरे पास है  उससे  गरीब बच्चों को पढ़ाता हूँ ,परिवार में भी यही संस्कार हैं  ---वो मेरे जीवन का शुरूआती सबक था जो आज भी फ़ालतू खर्च नही करने देता ,मन पे अंकुश हम स्वयं ही लगा सकते हैं ,खुद खाया तो क्या खाया ,किसी के काम आये यही जिन्दगी ,कहना नही चाहिये पर अपनी कमाई  होने पे एक बच्चे की फीस तो देनी ही है --ये सीख लेकर मैं उठी वहां से और ईश्वर ने साथ  भी दिया संकल्प पूरा करने में |पहाड़ों का जुलाई का महिना --कब  झड़ी लग जाये  -और लो झड़ी लग गयी ,डुंडा तक आते आते  घना अँधेरा घिर आया और स्वाद में सुगंध  की तरह ये खबर कि सड़के बंद हो गयी है ,पहाड़ तीन जगहों पे टूट  चुके है मलबा आ गया  है | यदि आपने कभी पहाड़ी रास्तों में सफर किया हो तो आपको मालूम होगा यहाँ आपको सुविधा के नाम पे सड़क किनारे  चाय की दुकानें  ही  मिलेंगी  वो  भी  अँधेरा घिरते ही बंद हो जाती हैं --अब रात  भर कहाँ रुकें ,कई सारी  बसे  पर महिला यात्री  केवल  हम दो  | हमने निश्चय किया अठारह  मील  जाना  है  --पैदल  चलते  है  | कुछ दूर  तक  सह  यात्री  चले  पर  फिर  बारिश ,अँधेरे और ठंड  ने सभी के  हौसले  पस्त कर दिये | सभी  दुकानों की  बैंच पे बैठ गये | हम दोनों माँ बेटी चलती रहीं ,रात्री  का  अन्धकार  ,सड़क के एक ओर विशालकाय  काला पहाड़ ,दूसरी ओर खाई - नीचे बहती गंगा की सांय-सांय -वो भी बरसात की चढ़ी हुई गंगा ,झींगुरों का शोर ,बारिश की बौछार और  गिरते पत्त्थर --पिछले वर्ष तांबाखानी में पत्थर गिरने से मरे किस्णु की याद  आ रही थी  रह -रह के --लोग कहते हैं वो यहीं घूम रहा है  भूत  बनके ! रात का पक्षी  भी बोल रहा था ,और सड़क पे पड़ा मलबा दिखाई भी नही दे रहा था ,पैर गलत पड़ा तो सीधे गंगा शरण ! पर कहीं कहीं जुगनू भी थे जगमग करते ,जो मन को ढाढस  बंधा रहे थे हम हैं न साथ तुम्हारे --यूँ ही खतरों से खेलते हम ब्रह्ममुहूर्त में सवेरे चार बजे घर के किवाड़ खटखटा रहे थे | पिताजी को लगा इस वक्त  कैसे  आ  सकती  हैं  ये  ,कोई साधन  भी  नही ,बरखा भी तेज ,सड़क भी टूटी हुई ,जरुर बस'' ढंगार '' [खाई ] में  गिर  गयी  होगी ,जरुर  कोई  हादसा  हो गया है  --ये  उन  दोनों का  भूत  आवाज  दे रहा  है  ! और  हमें   देख  वो  अचंभित  रह  गये  खूब  डांट  भी  पड़ी  दुस्साहस के  लिये  पर  ''अंत भला तो  सब  भला ''| कई दिनों तक अस्थि पंजर ढीले  रहे ,हड्डियाँ कीर्तन  करती  रहीं ,पर  मन  प्रसन्न था  मनो  कोई  किला  फतह  किया  था |
जी ये मेरी ही ''आप  बीती '' | हाँ  ! माँ के साथ का  पहला  रोमांचक  अनुभव ,जिसने जीवन के आरम्भ में ही मुझे जीवट दिया ,विजय   ? जी  भूत ,भविष्य वर्तमान तो सब समय ही है ,उसपे और खुद पे भरोसा हो तो विजय ही विजय है ,विजय अपने को पाना ही तो है --हाँ  भूत  मुझे  तब  भी  नही  मिला  और  आज  भी  खोज ही रही  हूँ  --शायद  कभी  मिले  ||आभा||

''आज  मैं  दुःख को वरूँगी '''
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सुख दुःख दोनों मेरे अपने
सुख दुःख की निशा दिवा में
पनपे मेरा यह जीवन
झूम के नाचूं मै मयूर सी
और कभी आंसू  झम झम
हंसी रूदन मेरे संग  यूँ ही
 छाया साथ  ज्यूँ कदम - कदम
पूर्ण  कहाऊं तब  ही  जब
हंसती  रोती सी  दिखती  हूँ
कभी  बादलों  से ओझल चंदा
फिर चंदा से ओझल बादल
  हंसी रुदन मेरे  आंचल में
मैं इनको जीती  प्रति पल
बाबुल  के  आंगन की चिड़िया
नाचे  गाये  ,धूम मचाये
सौरभ  से  भर दे  अंगने  को
उषा  सांझ  की  लाली  बिखराये
प्रिय के नेह पगे आमन्त्रण ने
तारों सी जगमग चूनर पहना दी
कुमकुम   चूर्ण  उड़ा कर पी ने
केसर सा जीवन  महकाया
कैसा  कोमल मृदु स्पंदन
मेरे उर में धड़क रहा यह
मृदुल और हुई कुछ मैं
उदर में नन्ही  परी है ; सुनकर !
पर तुमने ये क्या कुचक्र रचाया
नन्ही  कली सांस न ले पावे
मुझको  ही  बंधक  बनाया ?
तोड़ती  हूँ  मैं  ये  बंधन ,
आज  मैं  दुःख को वरूँगी
 ये सृजन  अब  हक  है  मेरा
राह  कितनी  कंटकित  हों
मैं आज अभिशापों  को  वरूँगी
आज  मैं  विद्रोहिणी -
रो लिया  जितना  था  रोना
पोंछ  आंसू  धारणा की ,
जन्म लेगी बिटिया मेरी
मेरे सर का ताज  होगी ,
मेरे अंगने  के  हिंडोले
पे इसी का राज होगा
नाचती अर खिलखिलाती
जब वो  मुझे अम्मा  कहेगी
दुःख सभी  कपूर  होगें
अश्रु दुःख ज्वाला  हरेंगे  ||आभा ||
टिप्पणी ---हाल  ही  में   दिल्ली  में  दो  दिन  की  बच्ची  को  कोई  फेंक  गया सड़क पे   ,उसी वेदना का स्वर !

















Sunday, 8 May 2016

              ''माँ ''
सुनहरा  अक्षर
तेरी माँ -मेरी माँ -
मेरी माँ की माँ ,मेरे  पिता की माँ -
मैं  भी माँ -वो  भी  माँ--
  शहद  तो  कभी  नीम  सी  माँ  -
हमारे  जैसे  घरों  की  ,घर संभालती माँ -
रिश्तों की  माला  का  धागा -माँ -
आफिस जाती  माँ  --
दूसरे  के  घरों  में  काम  करती  माँ  --
जूठे  बर्तन मांजती -झाड़ू-पोछा  करती माँ -
मजदूरी  करती  माँ ,पत्थर  तोड़ती माँ -
सब्जी-फल ,चाय-पकौड़े  का ठेला लगाती माँ .
खेतों  में काम करती  माँ -
कारखानों ,खदानों  में  काम  करती  माँ -
घर में कोई  भूखा न  रहे - भूख नही है -
कहती माँ -
बच्चों के लिए -अपने को  भूलती माँ -
पिता को संभालती माँ -
लाल बत्ती  ,चौराहों  ,मन्दिरों  में  --
भीख  मांगती  माँ  --
ऐसी  माँ  वैसी  माँ  --
माँ ,आई  ,मम्मी ,मदर ,बई ,ईजा  -
न जाने  कितने  संबोधन  वाली  माँ -
राम की माँ , कृष्ण की माँ -
शहीदों  की  माँ  -
क्या  कहूँ  --
चकलों -जेलों  में   बच्चों  को  -
पढ़ाती  संस्कार  देती  माँ  ---
-माँ माआआआआआआआआआआ--
ॐ  की  भांति  ही  सृजन का  नाद  माँआआआआआआआआआअ
  शत-शत  नमन  -चरण वन्दन  --
या देवी  सर्व भूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता ,
नमस्तस्ये नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम: ||