''गाँवदी संस्कार ''---[ भोगा हुआ सच --पात्रों के बदले हुए नामों के साथ ]----------
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प्रकर्ष ,यही नाम था उसका ,इस वर्ष बारहवीं में आया था। अभी एक सप्ताह पूर्व ही शिफ्ट हुआ है उसका परिवार ऐन मेरे सामने वाले फ़्लैट में। महानगरीय सभ्यता में चार फुट की गैलरी में दो घरों का मुख्य द्वार होता है एकदम आमने-सामने, पर शायद ही किसी को किसी से कोई सरोकार होता है। क्या कहूँ ! मेरे अंदर अभी भी गाँवदी सभ्यता के जीवाश्म हैं शायद कुरेदने पे धूल मिटटी में दबे संस्कार उछल के बाहर आ जाते हैं।
आस-पास कोई परिवार शिफ्ट हो या कोई शोर हो तो मैं निकल के देख लेती हूँ कुछ मदद के लिए शायद कुछ करने लायक हो। ये छोटा सा परिवार था माँ -पिता और दो बेटे -प्रकर्ष ,हर्ष। महानगरीय सभ्यता से अनजान अलीगढ़ से आये थे ये लोग ,तो मेरे पूछने में उन्हें आत्मीयता महसूस हुई।
रेनू हाँ यही नाम है इस लड़की का चालीस वर्ष की संस्कारी महिला। बड़ा बेटा तो फिर भी ठीक पर छोटा इतना गोल-मटोल कि गलफड़ों में चढ़े मांस के कारण क्या बोल रहा है समझ में ही न आये।
बड़े बेटे को नौवीं कक्षा में ही दिल्ली के एक नामी गिरामी स्कूल में डाल दिया था ,कुछ दिन अपनी बुआ के घर रहने के बाद वो बच्चा पी जी में रहने लगा। अब छोटे के एडमिशन के लिए परेशान थे उसे भी आस-पास किसी बड़े स्कूल में डालना था ,पिता सरकारी महकमे -ओनजीसी -में एकाउंटेंट हैं सो पैसे की कोई कमी नही है। हाँ अभी उनकी पोस्टिंग अलीगढ़ ही है ,शीघ्र ही दिल्ली स्थानांतरण हो जाएगा। दिल्ली में दो बच्चों के साथ अकेले घर का प्रबन्ध कुछ मुश्किल ही होता है। ऐसे में मेरी आदत इस परिवार के काम आने लगी ,अक्सर माबाप छोटे के स्कूल के चक्कर में बाहर रहते थे तो प्रकर्ष स्कूल से आके मेरे पास ही बैठ जाता। बातें करने पे मैंने पाया बच्चा बहुत दबाव में है।
ऊपर उठने की चाहत,महत्वाकांक्षा ,अव्वल रहने की जिद , प्रतिस्पर्धा के इस दौर में मध्यम वर्ग के माता-पिता बच्चों की प्रगति को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेते हैं और स्वयं भी उसमे पिसते है एवं बच्चे को भी अपने सपनों की कठपुतली बना देते हैं।
प्रकर्ष दिल्ली में आके अस्वस्थ रहने लगा था । जैसे आम घरों में होता है सीधे तौर पे ये निष्कर्ष निकलता है बच्चा सामंजस्य नही बिठा पा रहा , घर का खाना चाहिये ,माँ ने बिगाड़ रखा है आदि -आदि और बच्चे को हिदायतें ,बरखुदार पढ़ने में ध्यान लगाओ ,इतने सारे बच्चे रह रहे हैं तुम अकेले नही हो ,कहीं के लाट साहब हो जो बार-बार बीमार पड़ जाते हो ,अबकी बार नम्बरों का प्रतिशत गिरा तो खैर नही। और अब तो बच्चों की पढ़ाई के लिये पिता दिल्ली ही आ गए तो पिता के मानदण्डों पर खरा उतरना जीने की शर्त हो गयी थी।
आज रेनू ने सुबह ११ बजे डोरबैल बजाई ,बदहवास सी बोली --बोली दीदी ; हर्ष का आज पहला दिन है स्कूल में, वो कभी भी आ जाएगा आप उसे अपने घर ही बिठा लेना ,प्रकर्ष के पापा ने फोन किया है कि स्कूल वालों ने फोन किया है उसे कुछ हो गया है आप आके ले जाओ।
[यहां ये बताती चलूं कि मुझे चाबी देने के बाद भी बच्चे को अपने घर में रहने को क्यों नही कहा --एक बार पिछले सप्ताह भी और अभी कल शाम सात बजे की ही बात है बेटे को घर में छोड़ के किसी रिश्ते में चले गए थे आये तो दरवाजा पीटते रह गए पर लड़का सो चुका था ,जब काफी समय हो गया और आस-पास के घरों से भी लोग झाँकने लगे तो रेनू भी परेशान हो गयी ,पति अलीगढ़ जा चुके थे। फिर किसी तरह द्वार के ऊपर का कांच मेरे बेटे ने निकाला और हाथ भीतर डाल के चटखनी खोल के लकड़ी का दरवाजा खोला -- जाली वाले दरवाजे को जोर -जोर से बजाया और तब साहबजादे उठ के आये ।]
पता चला बेटा बेहोश हो गया था , रक्तचाप बढ़ गया था ----माँ बोली ये स्कूल में एडजस्ट नही कर पा रहा है इसलिए ऐसा हुआ आराम करेगा तो ठीक हो जाएगा । फिर दूसरे दिन बच्चे को ज्वर हो गया ,मुझसे दवाई पूछी तो मैंने हॉस्पिटल ले जाने की राय दी पर उन्होंने यूँ ही क्रोसिन दे दी । बच्चा कुछ दिनों बाद फिर बीमार हुआ अब ज्वर उतर नही रहा था ,माँ का वही कहना ये स्कूल से कतरा रहा है ,असल में पापा बहुत गुस्से वाले हैं ,इसके मन में डर बैठ गया है कहीं सलैक्ट नही हुआ तो क्या होगा।
जब बार -बार बच्चा बीमार होने लगा तो स्कूल ने छुट्टी लेकर आराम करने को कहा। बच्चा मेरे पास आने लगा ,उससे बात करके पता चला कि लड़का तीक्ष्ण बुद्धि का स्वामी है ,शार्प है ,उसे अपना लक्ष्य मालूम है आत्मविश्वासी है कहीं पे भी संशय नही है उसे अपने पे। पिछले दो वर्ष से अवसाद [डिप्रेशन ] का इलाज चल रहा था उसका ,माता-पिता ने डाक्टर को बताया कि होमसिक है इसलिए घर से दूर रहने पे अवसाद ग्रस्त हो गया है --डिप्रेशन की दवाइयां चल रही थीं -अब मम्मा पापा आ गए हैं तो दवाई छोड़ दी है ,पर आंटी ये रोज-रोज की बीमारी मेरे और मेरे पापा के सारे सपने लील लेगी ,मैं स्कूल से घबराता नही हूँ ,मेरे नम्बर भी अच्छे हैं आप देखिये ,पर कोई मुझे समझता ही नही डाक्टर भी नही ,मुझे बहुत कमजोरी महसूस होती है ,ऐसे ही चला तो मैं आत्महत्या कर लूंगा।
मैंने उसकी माँ की क्लास ली ,वो कैमेस्ट्री से स्नातक थी ,पर अपने बच्चे को न जाने क्यूँ नही समझ पा रही थी।
आज सुबह छःबजे ही डोरबैल बजी तो मैंने देखा रेनू और प्रकर्ष हैं बोली ,आंटी कल आपकी डांट के बाद मैं इसे डाक्टर के पास ले गयी थी इसका ब्लडप्रेशर बहुत ज्यादा था ,डाक्टर ने कहा है दिन में तीन बार चेक करो --आपके घर में बीपी मॉनिटर है ? मैंने चेक करा बीपी ठीक था। फिर आठ बजे बैल बजी ,अब ये तैयार हो गया है स्कूल के लिए प्लीज एक बार बीपी और देख लो --अब बीपी बढा हुआ निकला ,बोली देखा मैंने कहा था ये स्कूल से कतरा रहा है -चलो आराम करो घर पे ही। -पर मैं जाने क्यों सोचने लगी बच्चे के शरीर में हल्का सा कम्पन था और उसे पसीना भी आ रहा था --अब अगले दो तीन दिन यही कार्यक्रम चला। मेरे घर में मुझे हिदायत मिलने लगी आप क्यों परेशान हो ,उसके माबाप हैं न --पर ''ऐसा ही रहा तो मैं आत्महत्या कर लूंगा'' --मैं इसे पचा नही पा रही थी। माना मेरा कोई लेना देना नही है कोई दोस्ती नही अभी महीने भर की जान-पहचान --पर फिर इंसानियत भी कुछ है ,या मेरे भीतर की माँ परेशान है पर माँ तो रेनू भी है।
मैंने निर्णय लिया , अबकी बार बीपी देखने के बाद रेनू को रोक लिया और उसे कड़े होके कहा देखो --इसका चैक अप करवाओ ,ये लक्षण कह रहे हैं कि बेटे का हार्ट कमजोरी मान रहा है ,वो कोई मक्कारी नही कर रहा --अब वो घबराई पिता के आने पे एस्कॉर्ट में पूरा चेकअप करवाया। पर फिर मुझको कुछ नही बताया ,कुछ दिनों में घर में दादा-दादी आ गए ,पूजा थी बहुत बड़ी दस दिनों की ,मुझसे काम वाली की मांग हुई ,फिर पता चला बच्चे के दिल में छेद है ,आपरेशन होगा पर दादा दादी पहले पूजा करने को कह रहे हैं। दो पण्डित जी लगातार छोटे से घर में घण्टे घड़ियाल के साथ पूजा करते , खूब शोर होता ,हवन का धुंवां , पर अब मैं कुछ नही कह सकती थी ,मेरे बेटे की त्यौरियां भी चढ़ गयी थीं --मम्मा ये पढ़े लिखे अनपढ़ लोग हैं ,इस वक्त बच्चे को आराम की जरूरत है और उसे इतना शोर में रख रहे है। सुबह बाहर निकली तो प्रकर्ष खड़ा था --बोला थैंक्यू आंटी --आप न होतीं तो मेरी बीमारी का पता ही न चलता और मुझे गलत कदम उठाना पड़ता , वो बिलकुल भी नही घबरा रहा था मानो उसे मालूम था वो अब ठीक हो जाएगा ----
आज प्रतिस्पर्धा के इस युग में बचपन तो गुम ही गया है ,कैशोर्य भी तनाव ग्रस्त है ,अव्वल रहने की दौड़ में मातापिता बच्चों को समझना नही चाहते ,और बच्चे अवसाद ग्रस्त होके आत्महत्या जैसा जघन्य अपराध कर बैठते हैं। ये कर्तव्य अभिवावकों का ही है कि वो बच्चों को समझें , अपनी अतृप्त इच्छाओं को पूरा करने वाली मशीन न समझें बच्चों को। बाकी डॉक्टर्स का तो क्या कहें तीन वर्ष तक यदि कोई दिल के मरीज की अवसाद के लिए चिकित्सा कर रहा है तो स्थिति शोचनीय ही है।
कहीं किसानों की आत्महत्या ,कहीं बलात्कार की शिकार महिलाओं बच्चियों की आत्महत्या ,कहीं लोन न चुकाने पे आत्महत्या ---सभी को रोका जा सकता है यदि हम सजग हो ,आत्मकेंद्रित न हो, इंसान - इंसानियत को अनमोल समझते हों साथ ही संवेदनहीन सोसाइटी संस्कृति में भी संवाद के लिए तत्पर रहते हों ।।--- .......
---कहानी---- आसपास घटित होने वाली घटनाएं ही कहानी बन जाती हैं वो घटना जो मुझे कहनी है तुमसे --जो कुछ सन्देश देगी मेरे बच्चों को --वही कहानी है मेरे लिए।।आभा।।
आस-पास कोई परिवार शिफ्ट हो या कोई शोर हो तो मैं निकल के देख लेती हूँ कुछ मदद के लिए शायद कुछ करने लायक हो। ये छोटा सा परिवार था माँ -पिता और दो बेटे -प्रकर्ष ,हर्ष। महानगरीय सभ्यता से अनजान अलीगढ़ से आये थे ये लोग ,तो मेरे पूछने में उन्हें आत्मीयता महसूस हुई।
रेनू हाँ यही नाम है इस लड़की का चालीस वर्ष की संस्कारी महिला। बड़ा बेटा तो फिर भी ठीक पर छोटा इतना गोल-मटोल कि गलफड़ों में चढ़े मांस के कारण क्या बोल रहा है समझ में ही न आये।
बड़े बेटे को नौवीं कक्षा में ही दिल्ली के एक नामी गिरामी स्कूल में डाल दिया था ,कुछ दिन अपनी बुआ के घर रहने के बाद वो बच्चा पी जी में रहने लगा। अब छोटे के एडमिशन के लिए परेशान थे उसे भी आस-पास किसी बड़े स्कूल में डालना था ,पिता सरकारी महकमे -ओनजीसी -में एकाउंटेंट हैं सो पैसे की कोई कमी नही है। हाँ अभी उनकी पोस्टिंग अलीगढ़ ही है ,शीघ्र ही दिल्ली स्थानांतरण हो जाएगा। दिल्ली में दो बच्चों के साथ अकेले घर का प्रबन्ध कुछ मुश्किल ही होता है। ऐसे में मेरी आदत इस परिवार के काम आने लगी ,अक्सर माबाप छोटे के स्कूल के चक्कर में बाहर रहते थे तो प्रकर्ष स्कूल से आके मेरे पास ही बैठ जाता। बातें करने पे मैंने पाया बच्चा बहुत दबाव में है।
ऊपर उठने की चाहत,महत्वाकांक्षा ,अव्वल रहने की जिद , प्रतिस्पर्धा के इस दौर में मध्यम वर्ग के माता-पिता बच्चों की प्रगति को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेते हैं और स्वयं भी उसमे पिसते है एवं बच्चे को भी अपने सपनों की कठपुतली बना देते हैं।
प्रकर्ष दिल्ली में आके अस्वस्थ रहने लगा था । जैसे आम घरों में होता है सीधे तौर पे ये निष्कर्ष निकलता है बच्चा सामंजस्य नही बिठा पा रहा , घर का खाना चाहिये ,माँ ने बिगाड़ रखा है आदि -आदि और बच्चे को हिदायतें ,बरखुदार पढ़ने में ध्यान लगाओ ,इतने सारे बच्चे रह रहे हैं तुम अकेले नही हो ,कहीं के लाट साहब हो जो बार-बार बीमार पड़ जाते हो ,अबकी बार नम्बरों का प्रतिशत गिरा तो खैर नही। और अब तो बच्चों की पढ़ाई के लिये पिता दिल्ली ही आ गए तो पिता के मानदण्डों पर खरा उतरना जीने की शर्त हो गयी थी।
आज रेनू ने सुबह ११ बजे डोरबैल बजाई ,बदहवास सी बोली --बोली दीदी ; हर्ष का आज पहला दिन है स्कूल में, वो कभी भी आ जाएगा आप उसे अपने घर ही बिठा लेना ,प्रकर्ष के पापा ने फोन किया है कि स्कूल वालों ने फोन किया है उसे कुछ हो गया है आप आके ले जाओ।
[यहां ये बताती चलूं कि मुझे चाबी देने के बाद भी बच्चे को अपने घर में रहने को क्यों नही कहा --एक बार पिछले सप्ताह भी और अभी कल शाम सात बजे की ही बात है बेटे को घर में छोड़ के किसी रिश्ते में चले गए थे आये तो दरवाजा पीटते रह गए पर लड़का सो चुका था ,जब काफी समय हो गया और आस-पास के घरों से भी लोग झाँकने लगे तो रेनू भी परेशान हो गयी ,पति अलीगढ़ जा चुके थे। फिर किसी तरह द्वार के ऊपर का कांच मेरे बेटे ने निकाला और हाथ भीतर डाल के चटखनी खोल के लकड़ी का दरवाजा खोला -- जाली वाले दरवाजे को जोर -जोर से बजाया और तब साहबजादे उठ के आये ।]
पता चला बेटा बेहोश हो गया था , रक्तचाप बढ़ गया था ----माँ बोली ये स्कूल में एडजस्ट नही कर पा रहा है इसलिए ऐसा हुआ आराम करेगा तो ठीक हो जाएगा । फिर दूसरे दिन बच्चे को ज्वर हो गया ,मुझसे दवाई पूछी तो मैंने हॉस्पिटल ले जाने की राय दी पर उन्होंने यूँ ही क्रोसिन दे दी । बच्चा कुछ दिनों बाद फिर बीमार हुआ अब ज्वर उतर नही रहा था ,माँ का वही कहना ये स्कूल से कतरा रहा है ,असल में पापा बहुत गुस्से वाले हैं ,इसके मन में डर बैठ गया है कहीं सलैक्ट नही हुआ तो क्या होगा।
जब बार -बार बच्चा बीमार होने लगा तो स्कूल ने छुट्टी लेकर आराम करने को कहा। बच्चा मेरे पास आने लगा ,उससे बात करके पता चला कि लड़का तीक्ष्ण बुद्धि का स्वामी है ,शार्प है ,उसे अपना लक्ष्य मालूम है आत्मविश्वासी है कहीं पे भी संशय नही है उसे अपने पे। पिछले दो वर्ष से अवसाद [डिप्रेशन ] का इलाज चल रहा था उसका ,माता-पिता ने डाक्टर को बताया कि होमसिक है इसलिए घर से दूर रहने पे अवसाद ग्रस्त हो गया है --डिप्रेशन की दवाइयां चल रही थीं -अब मम्मा पापा आ गए हैं तो दवाई छोड़ दी है ,पर आंटी ये रोज-रोज की बीमारी मेरे और मेरे पापा के सारे सपने लील लेगी ,मैं स्कूल से घबराता नही हूँ ,मेरे नम्बर भी अच्छे हैं आप देखिये ,पर कोई मुझे समझता ही नही डाक्टर भी नही ,मुझे बहुत कमजोरी महसूस होती है ,ऐसे ही चला तो मैं आत्महत्या कर लूंगा।
मैंने उसकी माँ की क्लास ली ,वो कैमेस्ट्री से स्नातक थी ,पर अपने बच्चे को न जाने क्यूँ नही समझ पा रही थी।
आज सुबह छःबजे ही डोरबैल बजी तो मैंने देखा रेनू और प्रकर्ष हैं बोली ,आंटी कल आपकी डांट के बाद मैं इसे डाक्टर के पास ले गयी थी इसका ब्लडप्रेशर बहुत ज्यादा था ,डाक्टर ने कहा है दिन में तीन बार चेक करो --आपके घर में बीपी मॉनिटर है ? मैंने चेक करा बीपी ठीक था। फिर आठ बजे बैल बजी ,अब ये तैयार हो गया है स्कूल के लिए प्लीज एक बार बीपी और देख लो --अब बीपी बढा हुआ निकला ,बोली देखा मैंने कहा था ये स्कूल से कतरा रहा है -चलो आराम करो घर पे ही। -पर मैं जाने क्यों सोचने लगी बच्चे के शरीर में हल्का सा कम्पन था और उसे पसीना भी आ रहा था --अब अगले दो तीन दिन यही कार्यक्रम चला। मेरे घर में मुझे हिदायत मिलने लगी आप क्यों परेशान हो ,उसके माबाप हैं न --पर ''ऐसा ही रहा तो मैं आत्महत्या कर लूंगा'' --मैं इसे पचा नही पा रही थी। माना मेरा कोई लेना देना नही है कोई दोस्ती नही अभी महीने भर की जान-पहचान --पर फिर इंसानियत भी कुछ है ,या मेरे भीतर की माँ परेशान है पर माँ तो रेनू भी है।
मैंने निर्णय लिया , अबकी बार बीपी देखने के बाद रेनू को रोक लिया और उसे कड़े होके कहा देखो --इसका चैक अप करवाओ ,ये लक्षण कह रहे हैं कि बेटे का हार्ट कमजोरी मान रहा है ,वो कोई मक्कारी नही कर रहा --अब वो घबराई पिता के आने पे एस्कॉर्ट में पूरा चेकअप करवाया। पर फिर मुझको कुछ नही बताया ,कुछ दिनों में घर में दादा-दादी आ गए ,पूजा थी बहुत बड़ी दस दिनों की ,मुझसे काम वाली की मांग हुई ,फिर पता चला बच्चे के दिल में छेद है ,आपरेशन होगा पर दादा दादी पहले पूजा करने को कह रहे हैं। दो पण्डित जी लगातार छोटे से घर में घण्टे घड़ियाल के साथ पूजा करते , खूब शोर होता ,हवन का धुंवां , पर अब मैं कुछ नही कह सकती थी ,मेरे बेटे की त्यौरियां भी चढ़ गयी थीं --मम्मा ये पढ़े लिखे अनपढ़ लोग हैं ,इस वक्त बच्चे को आराम की जरूरत है और उसे इतना शोर में रख रहे है। सुबह बाहर निकली तो प्रकर्ष खड़ा था --बोला थैंक्यू आंटी --आप न होतीं तो मेरी बीमारी का पता ही न चलता और मुझे गलत कदम उठाना पड़ता , वो बिलकुल भी नही घबरा रहा था मानो उसे मालूम था वो अब ठीक हो जाएगा ----
आज प्रतिस्पर्धा के इस युग में बचपन तो गुम ही गया है ,कैशोर्य भी तनाव ग्रस्त है ,अव्वल रहने की दौड़ में मातापिता बच्चों को समझना नही चाहते ,और बच्चे अवसाद ग्रस्त होके आत्महत्या जैसा जघन्य अपराध कर बैठते हैं। ये कर्तव्य अभिवावकों का ही है कि वो बच्चों को समझें , अपनी अतृप्त इच्छाओं को पूरा करने वाली मशीन न समझें बच्चों को। बाकी डॉक्टर्स का तो क्या कहें तीन वर्ष तक यदि कोई दिल के मरीज की अवसाद के लिए चिकित्सा कर रहा है तो स्थिति शोचनीय ही है।
कहीं किसानों की आत्महत्या ,कहीं बलात्कार की शिकार महिलाओं बच्चियों की आत्महत्या ,कहीं लोन न चुकाने पे आत्महत्या ---सभी को रोका जा सकता है यदि हम सजग हो ,आत्मकेंद्रित न हो, इंसान - इंसानियत को अनमोल समझते हों साथ ही संवेदनहीन सोसाइटी संस्कृति में भी संवाद के लिए तत्पर रहते हों ।।--- .......
---कहानी---- आसपास घटित होने वाली घटनाएं ही कहानी बन जाती हैं वो घटना जो मुझे कहनी है तुमसे --जो कुछ सन्देश देगी मेरे बच्चों को --वही कहानी है मेरे लिए।।आभा।।