Monday, 26 December 2016

दुःख सुख का  ताना बाना जीवन का
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फूलों संग काँटों से परिचय
उपवन में यूँ ही हो जाता
खिलना झड़ना रीत जगत की 
दुःख दर्द ; विरह-मिलन संग आता
ये क्षर की उत्सव बेला है
-क्यूँ ?

खिलने पे झरजाने का भय !
पात झरा - कोंपल आई
झरा सुमन मधु ऋतू लहराई
संध्या है  आरती स्वयं की
आत्म -हवन ! 
समिधा भी मैं ही
स्नेह के दीपक में बाती
निज नाम की मैंने जला दी
संकल्प यदि निज आहुति का -
हर सांस में लपटें उठेंगी
कंटकों को रख हृदय में
क्षार को मधु रूप देंगी
धूम्र बन लहरा  उठूँ ,
औ ----
-सुरभितमलय सी मुस्कुराऊँ
हवि बन माथे लगे जो
राख से भस्मी बनूँ मैं
आज क्षर - उत्सव मनाऊं
रीत जब ये ही जगत की
अक्षर-अक्षर बिखर जाऊँ।
क्षर का उत्सव मैं मनाऊं ,।।आभा।।।

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