Saturday, 25 November 2017


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 मन सागर की गहन गुहा ?
मूँगे की बस्ती सी यादें 
लाल सुर्ख ! टिमटिम करतीं  
 यादों से  आलोकित जीवन
हों ध्वनित जहाँ पे बीते क्षण
औ वर्तमान संभाव्य बने 
स्मृतियों के चल- चित्र सजा
मानस मेरा वह  काव्य रचे
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घट भरा मिला था साँसों का 
जीने का मूल्य चुकाने को
साँसें उलीचता यह तन मन
रीता रह अश्रु बहाये क्यों ?
तंम  सागर में   जीवन नैया ?
 आदेश लेखनी को दो दो  !
संसृति की तपती धरती को
ये राम-कृष्ण संभाव्य बने |
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दो आशीष  मुझे प्रिय तुम 
शून्य मन की मुखर चाहत 
अश्रु बिन सूखे नयन ले
आर्द्र चितवन छंद बनकर
बादलों की तड़ित सी
स्वर्ण ढुरकाती गगन से
गाने को गान प्रभाती का
 राम कृष्ण संभाव्य बनूं  
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सागर की उठती- गिरती लहरें
 मेरी  साँसों   का   होवें ----नर्तन 
हिमगिरि के मस्तक की  किरणें 
मेरे आखर से दीपित हों
धूलि व्यथा संग उड़ते सपने
नभ में तड़ित बनें चमकें
स्वर्ण रश्मि बन के बिखरें
 संतानों को उपहार बनें
गाने को गान प्रभाती का
ये राम -कृष्ण संभाव्य बने |
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झर चुके पात पीले तरु के 
 चर-मर ,चर गान सुनाते हैं 
औ राह भविष्य को दिखलाने
मिल मिट्टी में  खाद बनाते है
यादों के  पावस निर्झर बन
आगत को पोषित करनेको 
झर चुके सुमनों के वैभव से 
उर  के छाले वरदान बनें 
गाने को गान प्रभाती का
राम कृष्ण संभाव्य  बनें 
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दो आशीष  मुझे प्रिय तुम 
 वर्तमान के कोरे कागज पे
भूतकाल का गान सजे, 
गोधूली की स्वर्णिम बेला में
प्राची के नीलम अंगने में
प्रेम पाग की पाती  के
तारों से अक्षर बिखरा दूँ
दिन की अंतिम हंसी उलीच 
गाने को गान प्रभाती का
 राम-कृष्ण संभाव्य बनूं 
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वरदान लेखनी को दे दो
निविड़ निशा से तपते  उर को 
प्राची की इंगुरी ''आभा''
दूँ -
सरिता की अल्हड गति औ
नव सुमनों-विहगों का गान मधुर
भर- भर अंजुरी  उलीच चलूं 
 फिर भी न उऋण मैं  हो पाऊं
जो प्रेम दिया तूने मुझको
निर्बल का संबल बन कर मै
प्राणों में अंगारे भर दूँ
जब गाऊं गान प्रभाती का
तो वो भविष्य का गान बने
तीनों काल ध्वनित होवें
औ राम कृष्ण संभाव्य बने || आभा || ...25 नवंबर -जीवन की अमिट कहानी। 

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