हा हा हा हा हा हा ---जला आये मुझको ,बेटे भुलावे में हो। बच्चू मैं तो पुतलों से निकल तुम्हारे सर पे आ बैठा था ,ढोल नगाड़े डीजे के शोर से तुम सभी का सर भारी था तो मैंने तुम्हें अहसास ही न होने दिया- की ये भार मेरा भी है--। अरे मेरे ग्रेट -ग्रेट -ग्रेट -ग्रेट ---ग्रैंड सनों [मैं तुम्हारा पूर्वज ही तो हूँ न ] तुम्हें पता है---रामजी कौन हैं -नहीं न मैं बताता हूँ -------रामजी हमारी आत्मा हैं ,और उस आत्मा का हृदय है जगद्जननी माँ सीता ,स्नेह करुणा और ममता की मूर्ति।और मैं रावण हूँ अहंकार ! जब ये सर चढ़के बोलता है न तो आत्मा से हृदय को छीन लेता है मानव हृदयहीन हो जाता है।
ये जो आजकल तुम सबने लिखना शुरू किया है न ,रावण विद्वान था ,चरित्रवान था ---राम तेरे राज्य का रावण आज के आदमी से अच्छा था ,बेटेजी ; मुझे बताओ तो 125 करोड़ के देश में एक करोड़ ने भी रामायण पढ़ी हैं ? पढ़ते तो मालूम चलता न, कि मैं अहंकारी था ,लंगोट का कच्चा था ,अपनी पुत्रवधू रम्भा पे कुदृष्टि डाली थी ,उसी का श्राप था जिससे डर के मैंने किसी स्त्री को उसकी आज्ञा के बिना अपने महल में लाना और उसे छूना बंद कर दिया था [सो मैं कायर और डरपोक भी था ] वो अलग बात है कि अधिकाँश स्त्रियों को मैं डरा धमका के बस में कर लेता था ,पर सीता तो शक्ति थीं ,उन्हें कौन डरा सकता था।
विद्वान की जहां तक बात है तो जो व्यक्ति अपने आराध्य देवाधिदेव शिव के भी आराध्य प्रभु राम को न पहचान पाया वो क्या विद्वान ! और विडंबना देखो तुम सब की ,जिस विभीषण ने आत्मसाक्षात्कार से रामजी को पहचान लिया और कुल की रक्षा की उसे तुम सब घरका भेदी कहते हो ,अरे मेरे अहंकार ने तो कुल के विनाश की तैयारी कर दी थी ,वोतो विभीषण के कारण कुछ बंधु-बांधव बच गए और कुल की स्त्रियों की भी रक्षा हो सकी।
मैं देख रहा हूँ , आजकल राम तो केवल वाल्मीकि या तुलसी के द्वारा रचा गया एक चरित्र मात्र रह गया है ,जिसके जन्म स्थान को भी प्रमाण की दरकार है और रावण सजीव होके अपने दस ही नहीं सहस्त्र सिरों के साथ समाज में घूम रहा है ,उसपर भी तुम लोग बड़े जोर शोर से कहते हो ,रावण दहन --बुराई पर अच्छाई की जीत ,बेटे है कहां अच्छाई ?
मुझे अपने विषय में बहुत कुछ कहना है ,पर आज नहीं ,आज राम लखन सीता की बात।
तो मैं कह रहा था -राम हमारी आत्मा है चेतनतत्व ;जिसके होने से हम हैं। सिया हमारा हृदय है ,स्नेह ,करुणा ममता की नदी जो हमें ये अनुभव करवाती हैं कि हम चेतन हैं। रावण अहंकार है जो जो हमारी आत्मा से हृदय को चुरा के उसे जड़ बना देता है। लक्ष्मण हमारी सजगता है ,जो अहंकार को दूर रखती है ,हमें विनम्र और गतिशील बनाये रखती है। हनुमान हमारी बुद्धि हैं जो हमें ,शक्ति ,साहस ,शौर्य सुमति ,सिद्धि और निधियां देते हैं। भरत धर्म हैं ,धैर्य हैं ,विनय हैं ,प्रेमी हैं और मानव की चेतनता की रीढ़ हैं ,जिनको सहारा देने को शत्रुहंता शत्रुघ्न सदैव ततपर रहते है।
तो आज मैं रावण ,दशानन ये घोषणा करता हूँ कि ---''इस ब्रह्माण्ड में जब तक सीताराम रहेंगे ,लाख पुतले फूँको ,रावण भी रहेगा। ----मैं राम के होने से हूँ पर राम में नहीं हूँ ; यही मेरा दुर्भाग्य है ''-----रामदरबार हमारा ये शरीर ही है ,इसमें हम रावण को सर पे बिठा दें और राम की चेतना को जड़ के दें यही समझ बुद्धि है ---तो बेटे रावणी प्रवृतियों को जलाओ ,न की मेरा पुतला फूँको ---पुतला तो तुम अपने विरोधियों का भी फूँकते हो जुलूस निकालके और ट्रैफिक जाम करके ---तो क्या विरोधी जल जाता है।
रावण को महिमामंडित मत करो , तो अब मैं चलता हूँ ,अगले वर्ष फिर आऊंगा मुझे पूरा विशवास है तुम मुझे यहीं पे मिलोगे मेरा पुतला फूँकते हुए --जयश्री राम --हैप्पी दशहरा। और अभी दशानन पटाखों की आवाज से उड़ते कबूतरों संग मेरे घर में घुस आया ,आज भी वैसा ही था जिसे देख रामजी भी कह उठे आह कितना सुंदर व्यक्तित्व ,इसे देख तो इसे मारने की इच्छा ही न हो। हैं शायद अहंकार इतना ही प्यारा होता है जब सर चढ़ जाता है --बस कुछ गप्पें मारी हमने ,रावण ने हलुवा खाया और चलता बना दूसे वर्ष आने को कह के ------
ये जो आजकल तुम सबने लिखना शुरू किया है न ,रावण विद्वान था ,चरित्रवान था ---राम तेरे राज्य का रावण आज के आदमी से अच्छा था ,बेटेजी ; मुझे बताओ तो 125 करोड़ के देश में एक करोड़ ने भी रामायण पढ़ी हैं ? पढ़ते तो मालूम चलता न, कि मैं अहंकारी था ,लंगोट का कच्चा था ,अपनी पुत्रवधू रम्भा पे कुदृष्टि डाली थी ,उसी का श्राप था जिससे डर के मैंने किसी स्त्री को उसकी आज्ञा के बिना अपने महल में लाना और उसे छूना बंद कर दिया था [सो मैं कायर और डरपोक भी था ] वो अलग बात है कि अधिकाँश स्त्रियों को मैं डरा धमका के बस में कर लेता था ,पर सीता तो शक्ति थीं ,उन्हें कौन डरा सकता था।
विद्वान की जहां तक बात है तो जो व्यक्ति अपने आराध्य देवाधिदेव शिव के भी आराध्य प्रभु राम को न पहचान पाया वो क्या विद्वान ! और विडंबना देखो तुम सब की ,जिस विभीषण ने आत्मसाक्षात्कार से रामजी को पहचान लिया और कुल की रक्षा की उसे तुम सब घरका भेदी कहते हो ,अरे मेरे अहंकार ने तो कुल के विनाश की तैयारी कर दी थी ,वोतो विभीषण के कारण कुछ बंधु-बांधव बच गए और कुल की स्त्रियों की भी रक्षा हो सकी।
मैं देख रहा हूँ , आजकल राम तो केवल वाल्मीकि या तुलसी के द्वारा रचा गया एक चरित्र मात्र रह गया है ,जिसके जन्म स्थान को भी प्रमाण की दरकार है और रावण सजीव होके अपने दस ही नहीं सहस्त्र सिरों के साथ समाज में घूम रहा है ,उसपर भी तुम लोग बड़े जोर शोर से कहते हो ,रावण दहन --बुराई पर अच्छाई की जीत ,बेटे है कहां अच्छाई ?
मुझे अपने विषय में बहुत कुछ कहना है ,पर आज नहीं ,आज राम लखन सीता की बात।
तो मैं कह रहा था -राम हमारी आत्मा है चेतनतत्व ;जिसके होने से हम हैं। सिया हमारा हृदय है ,स्नेह ,करुणा ममता की नदी जो हमें ये अनुभव करवाती हैं कि हम चेतन हैं। रावण अहंकार है जो जो हमारी आत्मा से हृदय को चुरा के उसे जड़ बना देता है। लक्ष्मण हमारी सजगता है ,जो अहंकार को दूर रखती है ,हमें विनम्र और गतिशील बनाये रखती है। हनुमान हमारी बुद्धि हैं जो हमें ,शक्ति ,साहस ,शौर्य सुमति ,सिद्धि और निधियां देते हैं। भरत धर्म हैं ,धैर्य हैं ,विनय हैं ,प्रेमी हैं और मानव की चेतनता की रीढ़ हैं ,जिनको सहारा देने को शत्रुहंता शत्रुघ्न सदैव ततपर रहते है।
तो आज मैं रावण ,दशानन ये घोषणा करता हूँ कि ---''इस ब्रह्माण्ड में जब तक सीताराम रहेंगे ,लाख पुतले फूँको ,रावण भी रहेगा। ----मैं राम के होने से हूँ पर राम में नहीं हूँ ; यही मेरा दुर्भाग्य है ''-----रामदरबार हमारा ये शरीर ही है ,इसमें हम रावण को सर पे बिठा दें और राम की चेतना को जड़ के दें यही समझ बुद्धि है ---तो बेटे रावणी प्रवृतियों को जलाओ ,न की मेरा पुतला फूँको ---पुतला तो तुम अपने विरोधियों का भी फूँकते हो जुलूस निकालके और ट्रैफिक जाम करके ---तो क्या विरोधी जल जाता है।
रावण को महिमामंडित मत करो , तो अब मैं चलता हूँ ,अगले वर्ष फिर आऊंगा मुझे पूरा विशवास है तुम मुझे यहीं पे मिलोगे मेरा पुतला फूँकते हुए --जयश्री राम --हैप्पी दशहरा। और अभी दशानन पटाखों की आवाज से उड़ते कबूतरों संग मेरे घर में घुस आया ,आज भी वैसा ही था जिसे देख रामजी भी कह उठे आह कितना सुंदर व्यक्तित्व ,इसे देख तो इसे मारने की इच्छा ही न हो। हैं शायद अहंकार इतना ही प्यारा होता है जब सर चढ़ जाता है --बस कुछ गप्पें मारी हमने ,रावण ने हलुवा खाया और चलता बना दूसे वर्ष आने को कह के ------
-----पिछले वर्ष आया था दशानन चलते फिरते -इस वर्ष भी आया पर जरा देर से --मैं खड़ी थी बालकनी में --राम-राम के बाद मैंने पूछा इतने दिनों बाद कैसे दशानन --वो बोले अरे पुत्री अमृतसर में अटक गया था -इतने लोगों को मरते देखा तो बहुत दुःख हुआ वहीं बैठ गया --अट्टहास करना भी भूल गया --सभी पुतला जला रहे थे और मैं अट्टहास कर घूम रहा था इधर उधर शहर में गाँवों में गलियों में -पर अमृतसर की ट्रेजडी देखी तो -बहुत दुःख हुआ --साथ ही रामजी की अपने से तुलना से भी बहुत क्रोधित हूँ -
--मैंने थोड़ा शांत करने को दही लड्डू खिलाया -दशहरे में पूजन का गन्ने का प्रसाद भी रखा था पूजा में उसकी गँडेरियों का खूब स्वाद लिया रावण ने --- बोलने लगा पुत्री मुझे तो रामजी ने सद्गति दे दी थी मैं तो अब उन्ही के लोक में रहता हूँ बस दशहरे पे ही घूमने यहां चला आता हूँ --हर युग में धोबी होते हैं पर कलयुग में तो बहुत से हो गए हैं --अपने को --अलग सा दिखाने के लिए राम जी को न मानने का सरेआम उद्घोष भी कर रहे हैं --कुछ तो विभीषण को भी राक्षस बता रहे है -पर हम राक्षस कुल के नहीं थे -हमारे कृत्य राक्षसों वाले थे --मैंने अपने जैसी लोगों की भीड़ इकट्ठी कर ली थी -कुछ ख़ुशी से कुछ डर से मेरे साथ जुड़े थे और लोग हमें राक्षस कहने लगे -मेरी माँ भी दैत्य कुल की थीं न कि राक्षसी --वरना तो हम ब्राह्मण ही थे सिंहली ब्राह्मण --पर --चलो जिसकी जैसी परवरिश उसकी वैसी सोच --सभी का राम जी भला करें --तुम सभी को दीपावली की सहस्त्रों शुभकामनायें -चलो अब दीपावली की तैयारियां करो ------------------------------------------------------ ये कह के रावण आशीषें बरसता चला गया दूसरे वर्ष फिर से आने का ,और अपने विषय में ढेर सी जानकारियां देने का वादा करके -
--मैंने थोड़ा शांत करने को दही लड्डू खिलाया -दशहरे में पूजन का गन्ने का प्रसाद भी रखा था पूजा में उसकी गँडेरियों का खूब स्वाद लिया रावण ने --- बोलने लगा पुत्री मुझे तो रामजी ने सद्गति दे दी थी मैं तो अब उन्ही के लोक में रहता हूँ बस दशहरे पे ही घूमने यहां चला आता हूँ --हर युग में धोबी होते हैं पर कलयुग में तो बहुत से हो गए हैं --अपने को --अलग सा दिखाने के लिए राम जी को न मानने का सरेआम उद्घोष भी कर रहे हैं --कुछ तो विभीषण को भी राक्षस बता रहे है -पर हम राक्षस कुल के नहीं थे -हमारे कृत्य राक्षसों वाले थे --मैंने अपने जैसी लोगों की भीड़ इकट्ठी कर ली थी -कुछ ख़ुशी से कुछ डर से मेरे साथ जुड़े थे और लोग हमें राक्षस कहने लगे -मेरी माँ भी दैत्य कुल की थीं न कि राक्षसी --वरना तो हम ब्राह्मण ही थे सिंहली ब्राह्मण --पर --चलो जिसकी जैसी परवरिश उसकी वैसी सोच --सभी का राम जी भला करें --तुम सभी को दीपावली की सहस्त्रों शुभकामनायें -चलो अब दीपावली की तैयारियां करो ------------------------------------------------------ ये कह के रावण आशीषें बरसता चला गया दूसरे वर्ष फिर से आने का ,और अपने विषय में ढेर सी जानकारियां देने का वादा करके -
बताया तो इस वर्ष भी बहुत कुछ लिखूंगी किसी दूसरे दिन।।आभा।।