Tuesday, 23 October 2018

दशहरे के बहाने ----
हा हा हा हा हा हा ---जला आये मुझको ,बेटे भुलावे में हो। बच्चू मैं तो पुतलों से निकल तुम्हारे सर पे आ बैठा था ,ढोल नगाड़े डीजे के शोर से तुम सभी का सर भारी था तो मैंने तुम्हें अहसास ही न होने दिया- की ये भार मेरा भी है--। अरे मेरे ग्रेट -ग्रेट -ग्रेट -ग्रेट ---ग्रैंड सनों [मैं तुम्हारा पूर्वज ही तो हूँ न ] तुम्हें पता है---रामजी कौन हैं -नहीं न मैं बताता हूँ -------रामजी हमारी आत्मा हैं ,और उस आत्मा का हृदय है जगद्जननी माँ सीता ,स्नेह करुणा और ममता की मूर्ति।और मैं रावण हूँ अहंकार ! जब ये सर चढ़के बोलता है न तो आत्मा से हृदय को छीन लेता है मानव हृदयहीन हो जाता है।
ये जो आजकल तुम सबने लिखना शुरू किया है न ,रावण विद्वान था ,चरित्रवान था ---राम तेरे राज्य का रावण आज के आदमी से अच्छा था ,बेटेजी ; मुझे बताओ तो 125 करोड़ के देश में एक करोड़ ने भी रामायण पढ़ी हैं ? पढ़ते तो मालूम चलता न, कि मैं अहंकारी था ,लंगोट का कच्चा था ,अपनी पुत्रवधू रम्भा पे कुदृष्टि डाली थी ,उसी का श्राप था जिससे डर के मैंने किसी स्त्री को उसकी आज्ञा के बिना अपने महल में लाना और उसे छूना बंद कर दिया था [सो मैं कायर और डरपोक भी था ] वो अलग बात है कि अधिकाँश स्त्रियों को मैं डरा धमका के बस में कर लेता था ,पर सीता तो शक्ति थीं ,उन्हें कौन डरा सकता था।
विद्वान की जहां तक बात है तो जो व्यक्ति अपने आराध्य देवाधिदेव शिव के भी आराध्य प्रभु राम को न पहचान पाया वो क्या विद्वान ! और विडंबना देखो तुम सब की ,जिस विभीषण ने आत्मसाक्षात्कार से रामजी को पहचान लिया और कुल की रक्षा की उसे तुम सब घरका भेदी कहते हो ,अरे मेरे अहंकार ने तो कुल के विनाश की तैयारी कर दी थी ,वोतो विभीषण के कारण कुछ बंधु-बांधव बच गए और कुल की स्त्रियों की भी रक्षा हो सकी।
मैं देख रहा हूँ , आजकल राम तो केवल वाल्मीकि या तुलसी के द्वारा रचा गया एक चरित्र मात्र रह गया है ,जिसके जन्म स्थान को भी प्रमाण की दरकार है और रावण सजीव होके अपने दस ही नहीं सहस्त्र सिरों के साथ समाज में घूम रहा है ,उसपर भी तुम लोग बड़े जोर शोर से कहते हो ,रावण दहन --बुराई पर अच्छाई की जीत ,बेटे है कहां अच्छाई ?
मुझे अपने विषय में बहुत कुछ कहना है ,पर आज नहीं ,आज राम लखन सीता की बात।
तो मैं कह रहा था -राम हमारी आत्मा है चेतनतत्व ;जिसके होने से हम हैं। सिया हमारा हृदय है ,स्नेह ,करुणा ममता की नदी जो हमें ये अनुभव करवाती हैं कि हम चेतन हैं। रावण अहंकार है जो जो हमारी आत्मा से हृदय को चुरा के उसे जड़ बना देता है। लक्ष्मण हमारी सजगता है ,जो अहंकार को दूर रखती है ,हमें विनम्र और गतिशील बनाये रखती है। हनुमान हमारी बुद्धि हैं जो हमें ,शक्ति ,साहस ,शौर्य सुमति ,सिद्धि और निधियां देते हैं। भरत धर्म हैं ,धैर्य हैं ,विनय हैं ,प्रेमी हैं और मानव की चेतनता की रीढ़ हैं ,जिनको सहारा देने को शत्रुहंता शत्रुघ्न सदैव ततपर रहते है।
तो आज मैं रावण ,दशानन ये घोषणा करता हूँ कि ---''इस ब्रह्माण्ड में जब तक सीताराम रहेंगे ,लाख पुतले फूँको ,रावण भी रहेगा। ----मैं राम के होने से हूँ पर राम में नहीं हूँ ; यही मेरा दुर्भाग्य है ''-----रामदरबार हमारा ये शरीर ही है ,इसमें हम रावण को सर पे बिठा दें और राम की चेतना को जड़ के दें यही समझ बुद्धि है ---तो बेटे रावणी प्रवृतियों को जलाओ ,न की मेरा पुतला फूँको ---पुतला तो तुम अपने विरोधियों का भी फूँकते हो जुलूस निकालके और ट्रैफिक जाम करके ---तो क्या विरोधी जल जाता है।
रावण को महिमामंडित मत करो , तो अब मैं चलता हूँ ,अगले वर्ष फिर आऊंगा मुझे पूरा विशवास है तुम मुझे यहीं पे मिलोगे मेरा पुतला फूँकते हुए --जयश्री राम --हैप्पी दशहरा। और अभी दशानन पटाखों की आवाज से उड़ते कबूतरों संग मेरे घर में घुस आया ,आज भी वैसा ही था जिसे देख रामजी भी कह उठे आह कितना सुंदर व्यक्तित्व ,इसे देख तो इसे मारने की इच्छा ही न हो। हैं शायद अहंकार इतना ही प्यारा होता है जब सर चढ़ जाता है --बस कुछ गप्पें मारी हमने ,रावण ने हलुवा खाया और चलता बना दूसे वर्ष आने को कह के ------
-----पिछले वर्ष आया था  दशानन   चलते फिरते -इस वर्ष भी आया    पर जरा देर से --मैं खड़ी थी बालकनी में --राम-राम के बाद मैंने पूछा इतने दिनों बाद कैसे दशानन --वो बोले अरे पुत्री अमृतसर में अटक गया था -इतने लोगों को मरते देखा तो बहुत दुःख हुआ वहीं बैठ गया --अट्टहास करना भी भूल गया --सभी पुतला जला रहे थे और मैं  अट्टहास कर घूम रहा था इधर उधर शहर में गाँवों में गलियों में -पर  अमृतसर की ट्रेजडी  देखी तो  -बहुत दुःख हुआ  --साथ ही रामजी की अपने से तुलना से भी बहुत क्रोधित हूँ  -
--मैंने थोड़ा शांत करने को दही लड्डू खिलाया -दशहरे में पूजन का गन्ने का प्रसाद  भी रखा था पूजा में उसकी गँडेरियों का खूब स्वाद लिया रावण ने --- बोलने लगा  पुत्री मुझे तो रामजी ने सद्गति दे दी थी मैं तो अब उन्ही के लोक में रहता हूँ बस दशहरे पे ही घूमने यहां चला आता हूँ --हर युग में धोबी होते हैं पर  कलयुग में तो बहुत से  हो गए हैं --अपने को --अलग सा दिखाने के लिए राम जी को न मानने का सरेआम उद्घोष भी कर रहे हैं --कुछ तो विभीषण को भी राक्षस बता रहे है -पर हम राक्षस कुल के नहीं थे -हमारे कृत्य राक्षसों वाले थे --मैंने अपने जैसी लोगों की भीड़ इकट्ठी कर ली थी -कुछ ख़ुशी से कुछ डर  से मेरे साथ जुड़े थे और लोग हमें राक्षस कहने लगे -मेरी माँ भी दैत्य कुल की थीं न कि राक्षसी --वरना तो हम ब्राह्मण ही थे सिंहली ब्राह्मण --पर --चलो जिसकी जैसी परवरिश उसकी वैसी सोच --सभी का राम जी भला  करें --तुम सभी को दीपावली की सहस्त्रों शुभकामनायें -चलो अब दीपावली की तैयारियां करो ------------------------------------------------------ ये कह के रावण आशीषें बरसता चला गया दूसरे वर्ष फिर से आने का  ,और अपने विषय में ढेर सी जानकारियां देने का वादा करके -
बताया तो इस वर्ष भी बहुत कुछ लिखूंगी किसी दूसरे दिन।।आभा।।

Friday, 19 October 2018

आज राम ने रावण मारा तभी दशहरा आया प्यारा*
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     विजयादशमी मेला ,विजय पर्व |देवी द्वारा  दस भयंकर दैत्यों यथा -मधु-कैटभ ,महिषासुर ,चंड -मुंड ,रक्तबीज ,धूम्रलोचन ,चिक्षुर,और शुम्भ -निशुम्भ के साथ अन्य सैकड़ों असुरो से  धरा को भय मुक्त करने के उपलक्ष में देवी के विजय स्तवन का पर्व | मर्यादा पुरुषोतम श्री राम की दशानन रावण पे विजय , असुरों का संहार ,सीता -राम का मिलन , और वनवास की अवधि समाप्त होने पे राजा राम के राज्याभिषेक की तैयारियों के लिए व्यस्त होने का  पर्व |.हवाओं में उत्साह तिर रहा है  |ऊर्जा का अजस्त्र प्रवाह बह रहा है जगह -जगह |एक पखवाड़े से  कई स्थानों पे मंचित होने वाली  रामलीलाओं के समापन का पर्व भी है दशहरा | रामलीलायें जो हमारी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक चेतना का प्रतीक हैं  और सदियों से हमारी पीढ़ियों  को रामचरित की भक्ति गंगा में अवगाहन करवा रही हैं |
   यह जग विदित है  की रावण परम शिव-भक्त ,महा तपस्वी ,तन्त्र -मन्त्र का ज्ञाता था  | मानस में  बालकाण्ड से ही राम के साथ -साथ रावण का भी नाम आ जाता है -
''-द्वार पाल हरी के प्रिय दोउ ,जय अरु विजय जान सब कोऊ''
इन दोनों को ही सनकादिक मुनि के शाप के कारण तीन कल्पों में राक्षस बनना पड़ा और हर कल्प में प्रभु ने इनका उद्धार करने को अवतार लिया |  रावण और कुम्भकर्ण के रूप में इन्होने त्रेता युग में जन्म लिया | सीता साक्षात् श्रीजी हैं जिन्हें रावणसंहिता में उसने अपनी ईष्टदेवी बताया है | पर राक्षसी बुद्धि के कारण प्रभु से बैर लेना पड़ा -अरन्यकांड  में इसका प्रमाण मिलता है जब खर -दूषणके मरण पे रावण सोच रहा है -
   खर दूषण मोहि सम बलवन्ता | तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता ||
    सुर रंजन भंजन महि भारा | जौ भगवंत लीन्ह अवतारा ||
   तौं मैं जाई बैरु हठी करऊं | प्रभु सर  बान तजें भव तरहूँ ||
  होइहिं भजन न तामस देहा |मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा ||
         सो स्पष्ट है की अपने और अपनी राक्षस जाति के उद्धार हेतु ही रावण ने प्रभु से बैर लिया | और सबसे निकृष्ट कोटि का कार्य किया जिसकी सजा मृत्यु ही थी  | रावण के हृदय में श्रीजी का वास है ये लंका कांड के इस दोहे से प्रमाण होता है -
 कह त्रिजटा सुनु राजकुमारी |उर सर लागत मरही सुरारी ||
 प्रभु तातें उर हतइ न तेही|एहि के हृदय बसत वैदेही  ||
क्या कोई व्यभिचारी किसी स्त्री को इस तरह हृदय में धारण कर सकता है कि अपनी मृत्यु  को सामने देख भी  उसके ध्यान से विचलित न हो ,कदापि नहीं | सो रामायण में तुलसी ने इस बात का सत्यापन किया है कि सीताहरण में  रावण का   हेतु  अपने और अपनी जाति के उद्धार का था  | रामचन्द्रजी ने भी सभी राक्षसों को मुक्ति दी और परमपद दिया वो पद जो देवताओं को भी दुर्लभ है | इसका भी प्रमाण गोस्वामीजी देते हैं लंकाकांड में --युद्ध समाप्ति के पश्चात जब इंद्र प्रभु से प्रार्थना कर रहा है की उसे भी कोई काम दें तो प्रभु कहते हैं की सब वानर, रीछ और  सेना के लोगों पर अमृत वर्षा करो क्यूंकि उन्होंने मेरे हेतु प्राण त्यागे हैं  राक्षसों को मैंने अपनी शरण में लेलिया है और मोक्षदे दिया है-
सुधा वृष्टि भै दुहु दल ऊपर |जिए भालू कपि नहीं रजनीचर | |
रामाकार भये तिन्ह के मन | मुक्त भये छूटे भव बंधन ||
      आज हम रावण का पुतला जला के खुश होलेते हैं की हमने बुराई पे विजय प्राप्त करली |
 पहले  रावण मरण के साथ -साथ  रामलीला  का समापन मंच पे ही हो जाता था और दूसरे दिन राज्याभिषेक हो जाता था | पर अब रावण का पुतला किसी बड़े मैदान में फूंका जाता है | बड़ी -बड़ी शख्शियत ,नेता और उद्योगपतियों के हाथों से करवाया जाता है शर संधान ,बड़े गर्व के साथ अग्निबाण छोड़े जाते हैं भ्रष्टाचारी ,चोर लुटेरों ,बहुरूपियों और दुराचारियों द्वारा    बुराई के मर जाने  का उद्घोष होता है | जाहिर है उपभोगतावाद और बाजारवाद हावी हो गया है पर्व में | और ये अपना रूतबा दिखने का भी जरिया बन गया है |जो कलाकार पूरी रामलीला में राम के चरित को साकार करता हुआ लोगों को रोने हंसने और आनन्दित करने का कार्य  करता है ,उससे पुतला दहन न करवाके समिति वाले किसी पैसे,पद और प्रतिष्ठा वाले से शर संधान करवाते हैं ताकि अगले साल भी समिति के लिए ,जगह और धन का जुगाड़ हो जाए ,''सर्वे गुणाकांचनमाश्रीयंति ''
     अब समय आ गया है ये सोचने का कि  रावण के पुतले को जलानेका अधिकार  है क्या हमको ? पद प्रतिष्ठा और पैसे के बल पे क्या हम राम बन गये? क्यूंकि रावण जैसे  शिवभक्त ,परमज्ञानी और अपनी मृत्यु के हेतु परम दुराचारी का कुकृत्य करने वाले को तो  कोई राम ही मार सकता है | और अब तो   रावण  की राक्षसी प्रवृतियों वाले ही लोग हैं चहुँ ओर तो फिर रावण ही रावण को मार रहा है | साल दर साल हम पुतला दहन करते हैं और समाज में भ्रष्टाचार रूपी दानव अपने पाँव फैलाता ही जा रहा है |  एक और सोचने की बात है -रावण की राक्षसी बुद्धि थी पर वो   ब्राह्मण कुल का था ,
ऋषि पुलत्स्य और  भारद्वाज के कुल का -ऋषि विश्श्र्वा का पुत्र----
रावण के राक्षस बनने की एक और कहानी  भी है ---
ब्राह्मण पिता और दैत्य माँ का पुत्र -ऋषि भारद्वाज ,पुलत्स्य का नाती पोता -
महर्षि विश्रवा  का पुत्र --
महर्षि विश्रवा की दो पत्नियां थीं देववर्णी और कैकसी
जब दूसरी माँ के पुत्र ब्राह्मण ही थे तो कैकसी के पुत्र राक्षस कैसे हो गए -कथा यूँ है ----
एक बार नारद मुनि रावण के पास आये ,रावण ने उनका बहुत सत्कार किया ,नारद बहुत प्रसन्न हुए और रावण से बोले -तुम तो विश्व के सबसे  शक्तिशाली योद्धा हो न   रावण ने कहा हाँ ऋषिवर इसने कोई शक नहीं है 
नारद जी बोले ---मैंने सुना है शिवशंकर महादेव जी  से बलवान  होने का वरदान मिला हुआ है  --
 रावण बोला --  हाँ आपने सही सुना   है ---
 नारद ने पूछा  --कितना बल है ?  
रावण बोला ---- यह तो नहीं कह सकता पर गर   मैं चाहूँ तो पृथ्वी को हिला  सकता हूँ----
नारद जी बोले ---रावण तब तो तुम्हें समय - समय पे अपने बल की परीक्षा लेनी चाहिए   , अपने बल का पता तो होना ही चाहिये। 
रावण को नारद जी की बात  ठीक लगी वो  बोला महर्षि मैं  शंकरजी  को माँ पार्वती संग  कैलाश पर्वत सहित उठा  के लंका में ही ले आता हूँ ये परीक्षा कैसी रहेगी --- मुझे पता चला जायेगा कि मेरे अंदर कितना बल है----- 
नारद जी ने कहा वाह ! ये तो बहुत सही रहेगा तुम ये ही करो  फिर नारद जी रावण को छुसका के  चले गये ----
बस फिर क्या था  --रावण ने  बल और भक्ति  के अहंकार में   कैलाश समेत महादेवजी को लंका  ले जाने का प्रयास किया। --जैसे ही उसने कैलाश पर्वत को अपने हाथों में ऊठाया तो वो हिलने लगा और माँ पार्वती  अपनी जगह से फिसलने लगीं -- साथ ही नंदी सहित सभी पर्वत वासियों में हाहाकार मच गया -गौरा  चिल्लायीं  ओह शंकर ये कैसा आतप है  --- प्रभु  ये कैलाश क्यों हिल  रहा है ---
शंकर बोले --- रावण हमें लंका ले जाने की कोशिश कर रहा है  । 
 रावण ने  कैलाश पर्वत को अपने हाथों में उठाया तो उसे  अभिमान हो   गया कि अगर वो देवाधिदेव महादेव  सहित कैलाश पर्वत को ऊठा सकता है तो  उसके लिये कुछ भी  असम्भव  नहीं -
अब रावण ने कदम बढ़ाया -वो डगमगाया और गौरा   एक बार फिर गिर  गई ----नंदी और शिवजी के गण भी गिर गए ---माँ जगद्जननी पार्वती को क्रोध आ गया उन्होंने रावण को श्राप दे दिया कि  
"अरे अभिमानी रावण तेरा अहंकार पर्वत से भी ऊँचा हो गया है मना करने पे भी नहीं मानता न किसी की असुविधा दुःख को देखता है ,मैं पहले भी तेरे अहंकार और मानवता को दुःखी करने  के किस्से सुन चुकी हूँ --ये तो राक्षसी कृत्य है ---जा  आज से तू राक्षसों में गिना जाएगा क्यूंकि , तेरी प्रकृति राक्षसों की जैसी हो गई है। रावण ने माँ के शब्दों की अवहेलना कर दी  --- तब भगवान शिव ने अपना भार बढाना शुरु किया-- अब रावण थकने लगा वो पर्वत को हिला नहीं पा रहा था -- रावण ने कैलाश पर्वत को धीरे से उसी जगह पर रखना शुरु किया ---- भार से उसका एक हाथ दब गया ----- वो दर्द से व्याकुल हो चीखने लगा -- उसकी चीख तीनों लोकों में  सुनाई दी ,वो  कुछ देर तक मूर्छित  भी हो गया  और समझ गया शिव कुपित हो गए है --------- होश आने पर उसने भगवान महादेव की  स्तुती षिक स्तोत्र से की ---
 ”जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य  लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम् " 
भोलेनाथ  तो भोले ही ठहरे उन्होंने  स्तुति से प्रसन्न होके उससे कहा -----आज मैंने तेरी स्तुति से प्रसन्न होक तांडव को आनंद पूर्वक किया अन्यथा तो मैं क्रोध में ही तांडव करता हूँ  --तुम्हारी स्तुति से मैं प्रसन्न हुआ ---------------
 भगवान शिव ने रावण को प्रसन्न  होके चंद्रहास नामक तलवार दी, जिसके हाथ में रहने पर उसे तीन लोक में कोई भी युद्ध  में नहीं हरा सकता था. 
तो माँ पार्वती के शाप के बाद ही रावण की गिनती राक्षसों  में होने लगी थी -वरना वो ब्राह्मण ही था। 
इसीलिए विभीषण को राक्षस कहना उचित नहीं होगा मेरी दृष्टि में --रावण के बच्चों को राक्षस कह सकते हैं और उसके द्वारा पल्ल्वित पोषित संस्कृति को राक्षसी संस्कृति कह सकते हैं पर उसके भाई  जो सात्विक थे उन्हें राक्षस नहीं कह सकते -
वो तो रावण के राज में ऐसे रहते थे ,
"जिमि दसनन मंह जीभ बिचारी  "-----
अत: मनुष्य की प्रवृतियां ही उसे देव -दानव -मनुष्य या राक्षस बनाती हैं--

इसीलिये - राम ने भी ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त होने को अग्नि होत्र किया था -----जबकि हम लोग हर वर्ष ये पाप देश के ऊपर चढ़ा देते हैं और देश को सूतक में छोड़ देते हैं |
दशहरे के त्यौहार को हम हर्ष उल्लास के साथ मनाएं | पूजा करें झांकियां निकालें ,आतिश बजी करें ,मेले लगायें पर पुतला दहन न करें | आज राम तो कोई हो ही नहीं सकता है ,रावण बनना भी संभव नहीं है |  बस राम चरित को समझने और आत्मसाध करने का प्रयत्न करें |  भरत से भाई बनने की कोशिश करे | लक्ष्मण से सेवक बनें और शत्रुघ्न से आज्ञाकारी बनें | रामलीला के हरेक पात्र को समझें
|'' होगा वही जो राम रचि राखा | को करी तर्क बढ़ा वहीं साखा''
से मतलब कर्महीन होने का न  लगायें  वरन  उसे ''कर्मण्ये वाधिकारस्ते माँ फलेषुकदाचिन '
'के अर्थ में ले के   सुफल के लिए कर्म करें पर फल ईश्वर आधीन है ये मान के चिंता न करें |अस्तेय-अपरिग्रह को अपनाएँ तभी सच्चे अर्थों में दशहरा होगा ,खुशियाँ आयेंगी दीपावली के रूप में ....
आप सब को दशहरे ,विजयादशमी की शुभकामनायें 'देश समृद्ध हो भ्रष्टाचार,दुराचार ,झूठ फरेब ,और भय मुक्त होकर  मेरा देशरामराज्य की ओर  अग्रसित हो यही माँ दुर्गा और सीता-रामजी से प्रार्थना है ---------------आभा ------