आज राम ने रावण मारा तभी दशहरा आया प्यारा*
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विजयादशमी मेला ,विजय पर्व |देवी द्वारा दस भयंकर दैत्यों यथा -मधु-कैटभ ,महिषासुर ,चंड -मुंड ,रक्तबीज ,धूम्रलोचन ,चिक्षुर,और शुम्भ -निशुम्भ के साथ अन्य सैकड़ों असुरो से धरा को भय मुक्त करने के उपलक्ष में देवी के विजय स्तवन का पर्व | मर्यादा पुरुषोतम श्री राम की दशानन रावण पे विजय , असुरों का संहार ,सीता -राम का मिलन , और वनवास की अवधि समाप्त होने पे राजा राम के राज्याभिषेक की तैयारियों के लिए व्यस्त होने का पर्व |.हवाओं में उत्साह तिर रहा है |ऊर्जा का अजस्त्र प्रवाह बह रहा है जगह -जगह |एक पखवाड़े से कई स्थानों पे मंचित होने वाली रामलीलाओं के समापन का पर्व भी है दशहरा | रामलीलायें जो हमारी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक चेतना का प्रतीक हैं और सदियों से हमारी पीढ़ियों को रामचरित की भक्ति गंगा में अवगाहन करवा रही हैं |
यह जग विदित है की रावण परम शिव-भक्त ,महा तपस्वी ,तन्त्र -मन्त्र का ज्ञाता था | मानस में बालकाण्ड से ही राम के साथ -साथ रावण का भी नाम आ जाता है -
''-द्वार पाल हरी के प्रिय दोउ ,जय अरु विजय जान सब कोऊ''
इन दोनों को ही सनकादिक मुनि के शाप के कारण तीन कल्पों में राक्षस बनना पड़ा और हर कल्प में प्रभु ने इनका उद्धार करने को अवतार लिया | रावण और कुम्भकर्ण के रूप में इन्होने त्रेता युग में जन्म लिया | सीता साक्षात् श्रीजी हैं जिन्हें रावणसंहिता में उसने अपनी ईष्टदेवी बताया है | पर राक्षसी बुद्धि के कारण प्रभु से बैर लेना पड़ा -अरन्यकांड में इसका प्रमाण मिलता है जब खर -दूषणके मरण पे रावण सोच रहा है -
खर दूषण मोहि सम बलवन्ता | तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता ||
सुर रंजन भंजन महि भारा | जौ भगवंत लीन्ह अवतारा ||
तौं मैं जाई बैरु हठी करऊं | प्रभु सर बान तजें भव तरहूँ ||
होइहिं भजन न तामस देहा |मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा ||
सो स्पष्ट है की अपने और अपनी राक्षस जाति के उद्धार हेतु ही रावण ने प्रभु से बैर लिया | और सबसे निकृष्ट कोटि का कार्य किया जिसकी सजा मृत्यु ही थी | रावण के हृदय में श्रीजी का वास है ये लंका कांड के इस दोहे से प्रमाण होता है -
कह त्रिजटा सुनु राजकुमारी |उर सर लागत मरही सुरारी ||
प्रभु तातें उर हतइ न तेही|एहि के हृदय बसत वैदेही ||
क्या कोई व्यभिचारी किसी स्त्री को इस तरह हृदय में धारण कर सकता है कि अपनी मृत्यु को सामने देख भी उसके ध्यान से विचलित न हो ,कदापि नहीं | सो रामायण में तुलसी ने इस बात का सत्यापन किया है कि सीताहरण में रावण का हेतु अपने और अपनी जाति के उद्धार का था | रामचन्द्रजी ने भी सभी राक्षसों को मुक्ति दी और परमपद दिया वो पद जो देवताओं को भी दुर्लभ है | इसका भी प्रमाण गोस्वामीजी देते हैं लंकाकांड में --युद्ध समाप्ति के पश्चात जब इंद्र प्रभु से प्रार्थना कर रहा है की उसे भी कोई काम दें तो प्रभु कहते हैं की सब वानर, रीछ और सेना के लोगों पर अमृत वर्षा करो क्यूंकि उन्होंने मेरे हेतु प्राण त्यागे हैं राक्षसों को मैंने अपनी शरण में लेलिया है और मोक्षदे दिया है-
सुधा वृष्टि भै दुहु दल ऊपर |जिए भालू कपि नहीं रजनीचर | |
रामाकार भये तिन्ह के मन | मुक्त भये छूटे भव बंधन ||
आज हम रावण का पुतला जला के खुश होलेते हैं की हमने बुराई पे विजय प्राप्त करली |
पहले रावण मरण के साथ -साथ रामलीला का समापन मंच पे ही हो जाता था और दूसरे दिन राज्याभिषेक हो जाता था | पर अब रावण का पुतला किसी बड़े मैदान में फूंका जाता है | बड़ी -बड़ी शख्शियत ,नेता और उद्योगपतियों के हाथों से करवाया जाता है शर संधान ,बड़े गर्व के साथ अग्निबाण छोड़े जाते हैं भ्रष्टाचारी ,चोर लुटेरों ,बहुरूपियों और दुराचारियों द्वारा बुराई के मर जाने का उद्घोष होता है | जाहिर है उपभोगतावाद और बाजारवाद हावी हो गया है पर्व में | और ये अपना रूतबा दिखने का भी जरिया बन गया है |जो कलाकार पूरी रामलीला में राम के चरित को साकार करता हुआ लोगों को रोने हंसने और आनन्दित करने का कार्य करता है ,उससे पुतला दहन न करवाके समिति वाले किसी पैसे,पद और प्रतिष्ठा वाले से शर संधान करवाते हैं ताकि अगले साल भी समिति के लिए ,जगह और धन का जुगाड़ हो जाए ,''सर्वे गुणाकांचनमाश्रीयंति ''
अब समय आ गया है ये सोचने का कि रावण के पुतले को जलानेका अधिकार है क्या हमको ? पद प्रतिष्ठा और पैसे के बल पे क्या हम राम बन गये? क्यूंकि रावण जैसे शिवभक्त ,परमज्ञानी और अपनी मृत्यु के हेतु परम दुराचारी का कुकृत्य करने वाले को तो कोई राम ही मार सकता है | और अब तो रावण की राक्षसी प्रवृतियों वाले ही लोग हैं चहुँ ओर तो फिर रावण ही रावण को मार रहा है | साल दर साल हम पुतला दहन करते हैं और समाज में भ्रष्टाचार रूपी दानव अपने पाँव फैलाता ही जा रहा है | एक और सोचने की बात है -रावण की राक्षसी बुद्धि थी पर वो ब्राह्मण कुल का था ,
ऋषि पुलत्स्य और भारद्वाज के कुल का -ऋषि विश्श्र्वा का पुत्र----
रावण के राक्षस बनने की एक और कहानी भी है ---
इसीलिये - राम ने भी ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त होने को अग्नि होत्र किया था -----जबकि हम लोग हर वर्ष ये पाप देश के ऊपर चढ़ा देते हैं और देश को सूतक में छोड़ देते हैं |
दशहरे के त्यौहार को हम हर्ष उल्लास के साथ मनाएं | पूजा करें झांकियां निकालें ,आतिश बजी करें ,मेले लगायें पर पुतला दहन न करें | आज राम तो कोई हो ही नहीं सकता है ,रावण बनना भी संभव नहीं है | बस राम चरित को समझने और आत्मसाध करने का प्रयत्न करें | भरत से भाई बनने की कोशिश करे | लक्ष्मण से सेवक बनें और शत्रुघ्न से आज्ञाकारी बनें | रामलीला के हरेक पात्र को समझें
|'' होगा वही जो राम रचि राखा | को करी तर्क बढ़ा वहीं साखा''
से मतलब कर्महीन होने का न लगायें वरन उसे ''कर्मण्ये वाधिकारस्ते माँ फलेषुकदाचिन '
'के अर्थ में ले के सुफल के लिए कर्म करें पर फल ईश्वर आधीन है ये मान के चिंता न करें |अस्तेय-अपरिग्रह को अपनाएँ तभी सच्चे अर्थों में दशहरा होगा ,खुशियाँ आयेंगी दीपावली के रूप में ....
आप सब को दशहरे ,विजयादशमी की शुभकामनायें 'देश समृद्ध हो भ्रष्टाचार,दुराचार ,झूठ फरेब ,और भय मुक्त होकर मेरा देशरामराज्य की ओर अग्रसित हो यही माँ दुर्गा और सीता-रामजी से प्रार्थना है ---------------आभा ------
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विजयादशमी मेला ,विजय पर्व |देवी द्वारा दस भयंकर दैत्यों यथा -मधु-कैटभ ,महिषासुर ,चंड -मुंड ,रक्तबीज ,धूम्रलोचन ,चिक्षुर,और शुम्भ -निशुम्भ के साथ अन्य सैकड़ों असुरो से धरा को भय मुक्त करने के उपलक्ष में देवी के विजय स्तवन का पर्व | मर्यादा पुरुषोतम श्री राम की दशानन रावण पे विजय , असुरों का संहार ,सीता -राम का मिलन , और वनवास की अवधि समाप्त होने पे राजा राम के राज्याभिषेक की तैयारियों के लिए व्यस्त होने का पर्व |.हवाओं में उत्साह तिर रहा है |ऊर्जा का अजस्त्र प्रवाह बह रहा है जगह -जगह |एक पखवाड़े से कई स्थानों पे मंचित होने वाली रामलीलाओं के समापन का पर्व भी है दशहरा | रामलीलायें जो हमारी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक चेतना का प्रतीक हैं और सदियों से हमारी पीढ़ियों को रामचरित की भक्ति गंगा में अवगाहन करवा रही हैं |
यह जग विदित है की रावण परम शिव-भक्त ,महा तपस्वी ,तन्त्र -मन्त्र का ज्ञाता था | मानस में बालकाण्ड से ही राम के साथ -साथ रावण का भी नाम आ जाता है -
''-द्वार पाल हरी के प्रिय दोउ ,जय अरु विजय जान सब कोऊ''
इन दोनों को ही सनकादिक मुनि के शाप के कारण तीन कल्पों में राक्षस बनना पड़ा और हर कल्प में प्रभु ने इनका उद्धार करने को अवतार लिया | रावण और कुम्भकर्ण के रूप में इन्होने त्रेता युग में जन्म लिया | सीता साक्षात् श्रीजी हैं जिन्हें रावणसंहिता में उसने अपनी ईष्टदेवी बताया है | पर राक्षसी बुद्धि के कारण प्रभु से बैर लेना पड़ा -अरन्यकांड में इसका प्रमाण मिलता है जब खर -दूषणके मरण पे रावण सोच रहा है -
खर दूषण मोहि सम बलवन्ता | तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता ||
सुर रंजन भंजन महि भारा | जौ भगवंत लीन्ह अवतारा ||
तौं मैं जाई बैरु हठी करऊं | प्रभु सर बान तजें भव तरहूँ ||
होइहिं भजन न तामस देहा |मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा ||
सो स्पष्ट है की अपने और अपनी राक्षस जाति के उद्धार हेतु ही रावण ने प्रभु से बैर लिया | और सबसे निकृष्ट कोटि का कार्य किया जिसकी सजा मृत्यु ही थी | रावण के हृदय में श्रीजी का वास है ये लंका कांड के इस दोहे से प्रमाण होता है -
कह त्रिजटा सुनु राजकुमारी |उर सर लागत मरही सुरारी ||
प्रभु तातें उर हतइ न तेही|एहि के हृदय बसत वैदेही ||
क्या कोई व्यभिचारी किसी स्त्री को इस तरह हृदय में धारण कर सकता है कि अपनी मृत्यु को सामने देख भी उसके ध्यान से विचलित न हो ,कदापि नहीं | सो रामायण में तुलसी ने इस बात का सत्यापन किया है कि सीताहरण में रावण का हेतु अपने और अपनी जाति के उद्धार का था | रामचन्द्रजी ने भी सभी राक्षसों को मुक्ति दी और परमपद दिया वो पद जो देवताओं को भी दुर्लभ है | इसका भी प्रमाण गोस्वामीजी देते हैं लंकाकांड में --युद्ध समाप्ति के पश्चात जब इंद्र प्रभु से प्रार्थना कर रहा है की उसे भी कोई काम दें तो प्रभु कहते हैं की सब वानर, रीछ और सेना के लोगों पर अमृत वर्षा करो क्यूंकि उन्होंने मेरे हेतु प्राण त्यागे हैं राक्षसों को मैंने अपनी शरण में लेलिया है और मोक्षदे दिया है-
सुधा वृष्टि भै दुहु दल ऊपर |जिए भालू कपि नहीं रजनीचर | |
रामाकार भये तिन्ह के मन | मुक्त भये छूटे भव बंधन ||
आज हम रावण का पुतला जला के खुश होलेते हैं की हमने बुराई पे विजय प्राप्त करली |
पहले रावण मरण के साथ -साथ रामलीला का समापन मंच पे ही हो जाता था और दूसरे दिन राज्याभिषेक हो जाता था | पर अब रावण का पुतला किसी बड़े मैदान में फूंका जाता है | बड़ी -बड़ी शख्शियत ,नेता और उद्योगपतियों के हाथों से करवाया जाता है शर संधान ,बड़े गर्व के साथ अग्निबाण छोड़े जाते हैं भ्रष्टाचारी ,चोर लुटेरों ,बहुरूपियों और दुराचारियों द्वारा बुराई के मर जाने का उद्घोष होता है | जाहिर है उपभोगतावाद और बाजारवाद हावी हो गया है पर्व में | और ये अपना रूतबा दिखने का भी जरिया बन गया है |जो कलाकार पूरी रामलीला में राम के चरित को साकार करता हुआ लोगों को रोने हंसने और आनन्दित करने का कार्य करता है ,उससे पुतला दहन न करवाके समिति वाले किसी पैसे,पद और प्रतिष्ठा वाले से शर संधान करवाते हैं ताकि अगले साल भी समिति के लिए ,जगह और धन का जुगाड़ हो जाए ,''सर्वे गुणाकांचनमाश्रीयंति ''
अब समय आ गया है ये सोचने का कि रावण के पुतले को जलानेका अधिकार है क्या हमको ? पद प्रतिष्ठा और पैसे के बल पे क्या हम राम बन गये? क्यूंकि रावण जैसे शिवभक्त ,परमज्ञानी और अपनी मृत्यु के हेतु परम दुराचारी का कुकृत्य करने वाले को तो कोई राम ही मार सकता है | और अब तो रावण की राक्षसी प्रवृतियों वाले ही लोग हैं चहुँ ओर तो फिर रावण ही रावण को मार रहा है | साल दर साल हम पुतला दहन करते हैं और समाज में भ्रष्टाचार रूपी दानव अपने पाँव फैलाता ही जा रहा है | एक और सोचने की बात है -रावण की राक्षसी बुद्धि थी पर वो ब्राह्मण कुल का था ,
ऋषि पुलत्स्य और भारद्वाज के कुल का -ऋषि विश्श्र्वा का पुत्र----
रावण के राक्षस बनने की एक और कहानी भी है ---
ब्राह्मण पिता और दैत्य माँ का पुत्र -ऋषि भारद्वाज ,पुलत्स्य का नाती पोता -
महर्षि विश्रवा का पुत्र --
महर्षि विश्रवा की दो पत्नियां थीं देववर्णी और कैकसी
जब दूसरी माँ के पुत्र ब्राह्मण ही थे तो कैकसी के पुत्र राक्षस कैसे हो गए -कथा यूँ है ----
एक बार नारद मुनि रावण के पास आये ,रावण ने उनका बहुत सत्कार किया ,नारद बहुत प्रसन्न हुए और रावण से बोले -तुम तो विश्व के सबसे शक्तिशाली योद्धा हो न रावण ने कहा हाँ ऋषिवर इसने कोई शक नहीं है
नारद जी बोले ---मैंने सुना है शिवशंकर महादेव जी से बलवान होने का वरदान मिला हुआ है --
रावण बोला -- हाँ आपने सही सुना है ---
नारद ने पूछा --कितना बल है ?
रावण बोला ---- यह तो नहीं कह सकता पर गर मैं चाहूँ तो पृथ्वी को हिला सकता हूँ----
नारद जी बोले ---रावण तब तो तुम्हें समय - समय पे अपने बल की परीक्षा लेनी चाहिए , अपने बल का पता तो होना ही चाहिये।
रावण को नारद जी की बात ठीक लगी वो बोला महर्षि मैं शंकरजी को माँ पार्वती संग कैलाश पर्वत सहित उठा के लंका में ही ले आता हूँ ये परीक्षा कैसी रहेगी --- मुझे पता चला जायेगा कि मेरे अंदर कितना बल है-----
नारद जी ने कहा वाह ! ये तो बहुत सही रहेगा तुम ये ही करो फिर नारद जी रावण को छुसका के चले गये ----
बस फिर क्या था --रावण ने बल और भक्ति के अहंकार में कैलाश समेत महादेवजी को लंका ले जाने का प्रयास किया। --जैसे ही उसने कैलाश पर्वत को अपने हाथों में ऊठाया तो वो हिलने लगा और माँ पार्वती अपनी जगह से फिसलने लगीं -- साथ ही नंदी सहित सभी पर्वत वासियों में हाहाकार मच गया -गौरा चिल्लायीं ओह शंकर ये कैसा आतप है --- प्रभु ये कैलाश क्यों हिल रहा है ---
शंकर बोले --- रावण हमें लंका ले जाने की कोशिश कर रहा है ।
रावण ने कैलाश पर्वत को अपने हाथों में उठाया तो उसे अभिमान हो गया कि अगर वो देवाधिदेव महादेव सहित कैलाश पर्वत को ऊठा सकता है तो उसके लिये कुछ भी असम्भव नहीं -
अब रावण ने कदम बढ़ाया -वो डगमगाया और गौरा एक बार फिर गिर गई ----नंदी और शिवजी के गण भी गिर गए ---माँ जगद्जननी पार्वती को क्रोध आ गया उन्होंने रावण को श्राप दे दिया कि
"अरे अभिमानी रावण तेरा अहंकार पर्वत से भी ऊँचा हो गया है मना करने पे भी नहीं मानता न किसी की असुविधा दुःख को देखता है ,मैं पहले भी तेरे अहंकार और मानवता को दुःखी करने के किस्से सुन चुकी हूँ --ये तो राक्षसी कृत्य है ---जा आज से तू राक्षसों में गिना जाएगा क्यूंकि , तेरी प्रकृति राक्षसों की जैसी हो गई है। रावण ने माँ के शब्दों की अवहेलना कर दी --- तब भगवान शिव ने अपना भार बढाना शुरु किया-- अब रावण थकने लगा वो पर्वत को हिला नहीं पा रहा था -- रावण ने कैलाश पर्वत को धीरे से उसी जगह पर रखना शुरु किया ---- भार से उसका एक हाथ दब गया ----- वो दर्द से व्याकुल हो चीखने लगा -- उसकी चीख तीनों लोकों में सुनाई दी ,वो कुछ देर तक मूर्छित भी हो गया और समझ गया शिव कुपित हो गए है --------- होश आने पर उसने भगवान महादेव की स्तुती षिक स्तोत्र से की ---
”जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम् "
भोलेनाथ तो भोले ही ठहरे उन्होंने स्तुति से प्रसन्न होके उससे कहा -----आज मैंने तेरी स्तुति से प्रसन्न होक तांडव को आनंद पूर्वक किया अन्यथा तो मैं क्रोध में ही तांडव करता हूँ --तुम्हारी स्तुति से मैं प्रसन्न हुआ ---------------
भगवान शिव ने रावण को प्रसन्न होके चंद्रहास नामक तलवार दी, जिसके हाथ में रहने पर उसे तीन लोक में कोई भी युद्ध में नहीं हरा सकता था.
तो माँ पार्वती के शाप के बाद ही रावण की गिनती राक्षसों में होने लगी थी -वरना वो ब्राह्मण ही था।
इसीलिए विभीषण को राक्षस कहना उचित नहीं होगा मेरी दृष्टि में --रावण के बच्चों को राक्षस कह सकते हैं और उसके द्वारा पल्ल्वित पोषित संस्कृति को राक्षसी संस्कृति कह सकते हैं पर उसके भाई जो सात्विक थे उन्हें राक्षस नहीं कह सकते -
वो तो रावण के राज में ऐसे रहते थे ,
"जिमि दसनन मंह जीभ बिचारी "-----
अत: मनुष्य की प्रवृतियां ही उसे देव -दानव -मनुष्य या राक्षस बनाती हैं--
इसीलिये - राम ने भी ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त होने को अग्नि होत्र किया था -----जबकि हम लोग हर वर्ष ये पाप देश के ऊपर चढ़ा देते हैं और देश को सूतक में छोड़ देते हैं |
दशहरे के त्यौहार को हम हर्ष उल्लास के साथ मनाएं | पूजा करें झांकियां निकालें ,आतिश बजी करें ,मेले लगायें पर पुतला दहन न करें | आज राम तो कोई हो ही नहीं सकता है ,रावण बनना भी संभव नहीं है | बस राम चरित को समझने और आत्मसाध करने का प्रयत्न करें | भरत से भाई बनने की कोशिश करे | लक्ष्मण से सेवक बनें और शत्रुघ्न से आज्ञाकारी बनें | रामलीला के हरेक पात्र को समझें
|'' होगा वही जो राम रचि राखा | को करी तर्क बढ़ा वहीं साखा''
से मतलब कर्महीन होने का न लगायें वरन उसे ''कर्मण्ये वाधिकारस्ते माँ फलेषुकदाचिन '
'के अर्थ में ले के सुफल के लिए कर्म करें पर फल ईश्वर आधीन है ये मान के चिंता न करें |अस्तेय-अपरिग्रह को अपनाएँ तभी सच्चे अर्थों में दशहरा होगा ,खुशियाँ आयेंगी दीपावली के रूप में ....
आप सब को दशहरे ,विजयादशमी की शुभकामनायें 'देश समृद्ध हो भ्रष्टाचार,दुराचार ,झूठ फरेब ,और भय मुक्त होकर मेरा देशरामराज्य की ओर अग्रसित हो यही माँ दुर्गा और सीता-रामजी से प्रार्थना है ---------------आभा ------

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