बैठेठाले
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कहाँ का ईंट कहाँ का रोड़ा ,भानमती ने कुनबा जोड़ा --मस्तिष्क में चलती विचारों की आँधियों में धूल धक्क्ड़ जैसे विचारों को सहेजना --सही में भानमती का कुनबा ही बन जाता है।
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कलपुर्जों का युग ,तकनिकी का युग ,और तकनिकी में आविष्कारों एवं नवीनता का युग। ये भी तो पहले से ही निश्चित था न- एक ऐसा ही युग होगा जिसे कलयुग कहेंगे। ' गतानुगति को लोको ' जहां मानवीय संवेदनायें भी कलपुर्जा ही बन जाएंगी। संस्कृति ,साहित्य -वही सब पुराना , लीक पे चलना। मुट्ठी भर क्रांतिकारी , साहित्यकार --और आज तो वो भी तारा बन के आकाशमंडल में जगमगा रहे हैं। कलयुग की एक रीती -बुद्धिजीवी वही ,जो नकारना और संदेह करना जानता हो बस यही मौलिक अन्यथा सब उधारी का पिछले युगों से।
आज गीता पे चर्चा ?-जी नहीं आज कान्हा का गायन -वो कन्हैया जो मक्खन से भी कोमल वज्र से भी कठोर है , जो कण -कण में व्याप्त है ,विराट है पर सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है ----
'' सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि माँ शुच।।---------की विराट एवं वात्सल्यमयी पुकार से -हमें आज भी कर्तव्यों के बोझ से मुक्त करने की चिंता में रहता है ,माँ की तरह -जैसे वह अपने बच्चे के कीचड़ में गिरने पे उसकी गंदगी साफ़ करने को आतुर रहती है वैसे ही कोमल मन कृष्णा , शोक-संतप्त मानवता के लिए दिव्य-आह्वान करता है -'' माशुच '' का आह्वान--तू कर्म कर बस -उतार फेंक आडंबर और आ मेरे पास।
कलपुर्जों का युग ,तकनिकी का युग ,और तकनिकी में आविष्कारों एवं नवीनता का युग। ये भी तो पहले से ही निश्चित था न- एक ऐसा ही युग होगा जिसे कलयुग कहेंगे। ' गतानुगति को लोको ' जहां मानवीय संवेदनायें भी कलपुर्जा ही बन जाएंगी। संस्कृति ,साहित्य -वही सब पुराना , लीक पे चलना। मुट्ठी भर क्रांतिकारी , साहित्यकार --और आज तो वो भी तारा बन के आकाशमंडल में जगमगा रहे हैं। कलयुग की एक रीती -बुद्धिजीवी वही ,जो नकारना और संदेह करना जानता हो बस यही मौलिक अन्यथा सब उधारी का पिछले युगों से।
आज गीता पे चर्चा ?-जी नहीं आज कान्हा का गायन -वो कन्हैया जो मक्खन से भी कोमल वज्र से भी कठोर है , जो कण -कण में व्याप्त है ,विराट है पर सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है ----
'' सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि माँ शुच।।---------की विराट एवं वात्सल्यमयी पुकार से -हमें आज भी कर्तव्यों के बोझ से मुक्त करने की चिंता में रहता है ,माँ की तरह -जैसे वह अपने बच्चे के कीचड़ में गिरने पे उसकी गंदगी साफ़ करने को आतुर रहती है वैसे ही कोमल मन कृष्णा , शोक-संतप्त मानवता के लिए दिव्य-आह्वान करता है -'' माशुच '' का आह्वान--तू कर्म कर बस -उतार फेंक आडंबर और आ मेरे पास।
आज इस कलयुग में ,हम उस गीता को कान्हा की नहीं व्यासजी की रचना कहके --कान्हा के अस्तित्व को ही नकार देते हैं। जबकि गीता में ही विभूति योग में कान्हा ने व्यासमुनि को अपना ही अवतार बताया है ---''मुनिनामप्यहं व्यास:'' .
पर आज गीता का गायन नहीं बस कान्हा का गायन।
कितना आकर्षक मनभावन रहा होगा नटखट बंसी बजैया ,रास रचैया -जो गंवई गाँव में धमाल मचाता है --सारा गांव माँ यशोदा और नंदबाबा के पास उलाहने लेके जाता है ,माखनचोर ,नटवरनागर ,गोपियों को सतानेवाला। मैं सोचने लगती हूँ --आज कोई गाँव ,मुहल्ले ,सोसाइटी का बच्चा रोज आये -हमारे फ्रिज से चुराके खाये और अपने संगियों को भी खिलाये , राह चलती लड़कियों को छेड़े तो उसके माता-पिता तो समाज में मुहं दिखाने के काबिल नहीं रहेंगे। बालक को भी बाल सुधार -गृह में डाल दिया जाएगा। और बाल -सुधार गृह में क्या होता है ये तो सर्व -विदित ही है।
पर आज गीता का गायन नहीं बस कान्हा का गायन।
कितना आकर्षक मनभावन रहा होगा नटखट बंसी बजैया ,रास रचैया -जो गंवई गाँव में धमाल मचाता है --सारा गांव माँ यशोदा और नंदबाबा के पास उलाहने लेके जाता है ,माखनचोर ,नटवरनागर ,गोपियों को सतानेवाला। मैं सोचने लगती हूँ --आज कोई गाँव ,मुहल्ले ,सोसाइटी का बच्चा रोज आये -हमारे फ्रिज से चुराके खाये और अपने संगियों को भी खिलाये , राह चलती लड़कियों को छेड़े तो उसके माता-पिता तो समाज में मुहं दिखाने के काबिल नहीं रहेंगे। बालक को भी बाल सुधार -गृह में डाल दिया जाएगा। और बाल -सुधार गृह में क्या होता है ये तो सर्व -विदित ही है।
क्यों लिया होगा कन्हैया ने कारगर में जन्म ? शायद इसलिए कि हमें संदेश दे कि जन्म तो बंधन का ही नाम है मानव वही जो बंधनों से लड़े बंधनों में रहकर - तोड़ो सारे बंधन ,मुक्त होओ पर मुक्ति सायुज्य मुक्ति हो।
आज पनघट तो हैं नहीं ,न ही कुँए -बावड़ी -तालाब का जमाना है। हम विकसित समाज हैं। बोतल बंद या आर. ओ का पानी पीते हैं खरीद के। न वो समाज, न उसकी मासूमियत। मासूम तो खैर बचपन भी नहीं रहा। कान्हा के साथ कंदुक क्रीड़ा ( यहां ये बताती चलूँ -जिस फुटबाल को यूरोप से आयातीत माना जाता है वो हमारे कान्हा की कंदुक क्रीड़ा ही है )करने वाली उम्र के बच्चों की भी अब टीवी सोसियल मीडिया से भावनाएं कुत्सित और विकृत होती जा रही हैं। अब मधुर छेड़खानी और जीवंत चुहलबाजी का स्थान- विकृत छलछद्म मनोभावों ,केवल प्रभाव डाल अपने वश में करने वाली प्रवृत्तियों और बलात्कारों ने ले लिया है। आज कन्हैया की प्रासंगिकता और भी अधिक है --समाज का मन उसी संवेदना ,मासूमियत और सहजावस्था को लौटना तो चाहता है पर परिस्थियाँ आड़े आती हैं।
आज सुबह ब्रह्ममुहूर्त के झुटपुटे में -बालकॉनी में खड़ी कृष्ण -कृष्ण बोल रही हूँ --सोच रही हूँ कैसे एक नटखट ,बिगड़ैल गाँव का बालक --जो कभी पूतना को मारता है ,कभी वासुकि के फन पे नाचता है , इंद्र के प्रकोप से बचाते हुए ,राधा -गोपियों से अठखेलियाँ करते हुए --समाज को जीवन का पाठ पढ़ा गया --गीता दे गया --युगों युगों के लिए।
आश्चर्य ! देखती हूँ मेरी कल्पना साकार होने लगी --मेरे समक्ष कृष्णा ! अरे हाँ ! ये तो कन्हैया ही है -----वही रूप जो सदियों से मेरे मन में बसा है ,छोटा सा नटखट -हाथ में बंसी ,माथे पे मोर मुकुट, गले मैं वैजयंती माला। मैं हतप्रभ क्या ये हेल्युसिनेशन ( मतिभ्रम -माया ) है। अभी एक माह पहले ही तो सठियाते हुए एक कदम और आगे बढ़ाया है --हाँ बुढ़ापा भी आ ही गया है ! ---तभी कान्हा ने बंसी में टेर लगाई- मधुर संगीत -और बोला --
आज पनघट तो हैं नहीं ,न ही कुँए -बावड़ी -तालाब का जमाना है। हम विकसित समाज हैं। बोतल बंद या आर. ओ का पानी पीते हैं खरीद के। न वो समाज, न उसकी मासूमियत। मासूम तो खैर बचपन भी नहीं रहा। कान्हा के साथ कंदुक क्रीड़ा ( यहां ये बताती चलूँ -जिस फुटबाल को यूरोप से आयातीत माना जाता है वो हमारे कान्हा की कंदुक क्रीड़ा ही है )करने वाली उम्र के बच्चों की भी अब टीवी सोसियल मीडिया से भावनाएं कुत्सित और विकृत होती जा रही हैं। अब मधुर छेड़खानी और जीवंत चुहलबाजी का स्थान- विकृत छलछद्म मनोभावों ,केवल प्रभाव डाल अपने वश में करने वाली प्रवृत्तियों और बलात्कारों ने ले लिया है। आज कन्हैया की प्रासंगिकता और भी अधिक है --समाज का मन उसी संवेदना ,मासूमियत और सहजावस्था को लौटना तो चाहता है पर परिस्थियाँ आड़े आती हैं।
आज सुबह ब्रह्ममुहूर्त के झुटपुटे में -बालकॉनी में खड़ी कृष्ण -कृष्ण बोल रही हूँ --सोच रही हूँ कैसे एक नटखट ,बिगड़ैल गाँव का बालक --जो कभी पूतना को मारता है ,कभी वासुकि के फन पे नाचता है , इंद्र के प्रकोप से बचाते हुए ,राधा -गोपियों से अठखेलियाँ करते हुए --समाज को जीवन का पाठ पढ़ा गया --गीता दे गया --युगों युगों के लिए।
आश्चर्य ! देखती हूँ मेरी कल्पना साकार होने लगी --मेरे समक्ष कृष्णा ! अरे हाँ ! ये तो कन्हैया ही है -----वही रूप जो सदियों से मेरे मन में बसा है ,छोटा सा नटखट -हाथ में बंसी ,माथे पे मोर मुकुट, गले मैं वैजयंती माला। मैं हतप्रभ क्या ये हेल्युसिनेशन ( मतिभ्रम -माया ) है। अभी एक माह पहले ही तो सठियाते हुए एक कदम और आगे बढ़ाया है --हाँ बुढ़ापा भी आ ही गया है ! ---तभी कान्हा ने बंसी में टेर लगाई- मधुर संगीत -और बोला --
दादी !---
मैं तो देवकी सी बावरी हुई ! पधारो म्हारे देश भी न बोल पायी। बड़ी मुश्किल से भावनाओं को चाबुक लगाई और कान्हा को भीतर लायी --बलैयां ली निछावर किया मन प्राण। लल्ला को दूध मलाई दिया। मीठा परोसा और पूछा --कान्हा तू दोग्धागोपाल -मथुरा ,वृन्दावन ,बरसाने में उद्धम मचाता हुआ कैसे आने वाली सदियों के लिए गीता दे गया रे। एक ऐसी विरासत जो हमारी चेतना की अमूल्य थाती है। हमारी सांस्कृतिक ,आध्यात्मिक विरासत है --कैसे ? कैसे कान्हा ?
नटवर नागर ने स्मित हास्य ,कुटिल दृष्टि और तंज से कहा --क्या दादी ; तू भी भावनाओं में ही जीती है ,बुद्धिजीवी तो है ही नहीं? आज का बुद्धिजीवी वर्ग तो गीता को व्यास मुनि के द्वारा लिखी हुई मानता है ,मुझे तो केवल एक पात्र बना के रख दिया है कुरुक्षेत्र के मंच का।
जिसके मुहं से गीता बुलवाई गयी है। --पर चलो गीता तो है न --नटवर नागर ने स्मित हास्य ,कुटिल दृष्टि और तंज से कहा --क्या दादी ; तू भी भावनाओं में ही जीती है ,बुद्धिजीवी तो है ही नहीं? आज का बुद्धिजीवी वर्ग तो गीता को व्यास मुनि के द्वारा लिखी हुई मानता है ,मुझे तो केवल एक पात्र बना के रख दिया है कुरुक्षेत्र के मंच का।
तू तो मानती है न गीता में मैं ही हूँ और तेरी तरह न जाने कितने हैं जो मुझे मानते हैं ,प्यार करते हैं, गीता मेरी वाणी है ऐसा मानते हैं। दादी मैंने भी तो सुख -दुःख दोनों झेले --चाहे राम रूप में चाहे श्याम रूप में या फिर शंकर बन के और साथ ही सीता ,राधा ,गौरी ने भी दुःख झेले। दादी अब जन्म लिया तो प्रारब्ध भी होगा ही न। शायद गीता व्यास ऋषिवर की ही हो जाएगी ,तेरा कान्हा गौण हो जाएगा। तू तो जानती है न ये गतानुगति का लोक है ,यहां गीता समझने के लिए पहले दूसरों के अनुवादों और समालोचनाओं को पढ़ना आवश्यक सा है। जो विद्वानों ने प्रतिष्ठापित कर दिया वही सच ,ये तकनीकी का युग है न।
यहाँ संस्कृत और साहित्य में अब कुछ भी नया नहीं है तू जो है न दादी -बस तू यूँ ही खुश रहा कर ,तेरे प्रिय जो तुझ से बिछड़ गए हैं मेरे पास हैं तू उनकी चिंता न करना तुझे भी जल्दी ही अपने पास बुलाऊंगा। अब चलूँगा --उजेरा हो गया तो लोग मुझे बहुरूपिया समझ छेड़ेंगे।
अंत समय तुम मेरे सिरहाने रहना और मेरी रसना पे तेरा ही नाम रहे ---मैं भी ये कह गयी --कलयुग है न लालची मैं भी हो गयी -हृदय में हूक सी उठी पर लाडेसर को विदा किया और सोचने लगी ; इस युग में कृष्ण को नकारा जा रहा है ,राधा को नकारा जा रहा है ,राम के जन्म स्थान पे विवाद खड़े किये जा रहे हैं ,इन्हें केवल राजकुमार या युद्ध का पात्र बना दिया गया है ---केवल इसीलिये कि उन्होंने अवतार लेना स्वीकार किया- किंवा अब हम अधिक बुद्धिमान हो गए हैं ! --तो फिर क्यों नहीं कोई व्यास मुनि ,कोई वाल्मीकि ,कोई शुकदेव ,कोई नारद आता जो इस विकसित समाज के लिए भी कुछ नियम बनाये ? क्यों हमें प्राचीन संस्कृति को ही तकना पड़ता है ?
हजारों बाबा और आध्यात्मिक गुरु बैठे हैं अपनी दुकान लगा के ,फिर क्यों नहीं कोई मौलिक साहित्य बन रहा। सत्य यही है कि --वो सहज विश्वास का युग था --मानव को सीख देने का ,राह दिखाने का युग था पर अब कल पुर्जों का युग है --इस युग की बस एकमात्र यही सुंदरता है जो अन्य सभी युगों से भिन्न है कि अब परमात्मा हम सभी के भीतर वास करता है। कुछ समय बाद तो गंगा जमुना भी विलुप्त हो जायेंगीं --वैसे भी कह ही दिया गया है ,मन ही में गंगा मन ही में यमुना मन स्नान करे ,हमारे तीरथ कौन करे --और शायद तीर्थ भी मन में ही आ जाएंगे --जो होता हुआ लग रहा है।
आज जब कि मस्तिष्क बड़ा होता जा रहा है ,सब कुछ एक क्लिक में मिल जाने पे -वो ;अपनी शक्ति खोता जा रहा है। आधी से अधिक आबादी ने तो कुछ भी याद रखना छोड़ ही दिया है इससे मस्तिष्क ने जो शक्तियां अर्जित की थीं वो धीरे -धीरे क्षीण हो रही हैं --ऐसे में मेरे कान्हा का गीता में कथन कि हे अर्जुन तू और मैं कई जन्मों से साथ-साथ रहे हैं ! मुझे सब याद है पर तुझे नहीं क्यूंकि मैंने अपने मस्तिष्क को विस्तार दिया है --योग प्राणायाम से --क्या आज की पीढ़ी के लिए शोध का विषय नहीं हो सकता ;
प्रश्न नहीं समाधान है ये -कान्हा का ही दिया हुआ वो भी गीता में --योग -प्राणायाम।
भविष्य में हो सकता है दिमाग में कोई ऐसी चिप फिट हो जाए जो सदियों को समेट ले अपने में --शायद यही कल्कि अवतार हो। आभा।।-----------
-बैठेठाले की बुढ़भस --!