स्त्री-"भ्रान्ति रूपेण संस्थिता "
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पानी पे लिखी लिखाई
घास , जो तूफानों में उगी
श्रृंगार करने को स्वयं का
चाहे जो दर्पण सूर्य का।
.चाँद को माथे की बिंदिया
जो बनाना चाहती है।
अंबुद सी स्थिर गहराई
लहरों की चंचलता समेटे
जानती - इस सत्य को -
चाँद की माथे की बिंदिया-
सुबह तक मिट जायेगी,
पानी में लिखी ,लिखाई-
पल भर में धुल जायेगी,
सूरज जला देगा उसे -
आंधी करेगी साजिशें ।
लहर बन सागर किनारे
रेत नियति है मेरी -
पर जानती वो ये भी ,
कि -
बीज हौसलों के कुछ ,
संतति को देने के लिए -
अपने ,पंखों को जलाना
दर्द को पी - मुस्कुराना
रेत बन भी चमचमाना
पिघले हिमालय के बदन पर
घास की चादर सजाना
मातृ रूपेण संस्थिता से
भ्रान्ति रूपेण तक,
हो आना
उसका प्रसंग संदर्भ है -
वो सनातन वो अनंत
वो सृष्टि वो ही स्त्री है।। आभा।।
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पानी पे लिखी लिखाई
घास , जो तूफानों में उगी
श्रृंगार करने को स्वयं का
चाहे जो दर्पण सूर्य का।
.चाँद को माथे की बिंदिया
जो बनाना चाहती है।
अंबुद सी स्थिर गहराई
लहरों की चंचलता समेटे
जानती - इस सत्य को -
चाँद की माथे की बिंदिया-
सुबह तक मिट जायेगी,
पानी में लिखी ,लिखाई-
पल भर में धुल जायेगी,
सूरज जला देगा उसे -
आंधी करेगी साजिशें ।
लहर बन सागर किनारे
रेत नियति है मेरी -
पर जानती वो ये भी ,
कि -
बीज हौसलों के कुछ ,
संतति को देने के लिए -
अपने ,पंखों को जलाना
दर्द को पी - मुस्कुराना
रेत बन भी चमचमाना
पिघले हिमालय के बदन पर
घास की चादर सजाना
मातृ रूपेण संस्थिता से
भ्रान्ति रूपेण तक,
हो आना
उसका प्रसंग संदर्भ है -
वो सनातन वो अनंत
वो सृष्टि वो ही स्त्री है।। आभा।।
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