Tuesday, 27 August 2013

              कृष्ण  मय हो जाऊं
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मैं बापुरी डूबन डरी रही किनारे बैठ।
    निकट कृष्ण के जब भी जाऊं
     उसके रंग में रंग जाने को ,
     जाने क्यूँ  अकुला  जाती हूँ,
     क्या? कान्हा बनना आसां  होगा !
     क्या ? वो फूल खिलेगा अंतर में !
    क्या ? वो दीप जला मैं पाऊँगी !
    प्रेम प्यार में पगी सुरभि का
    क्या मैं विस्तार पाऊँगी ?
     अहो !मन्त्र कान्हा बनने का ,
    मुझको देने आये हो। ……।
    मैं ! निष्ठा से सुनती हूँ,तुम को !
    बोलो तुम मेरे भगवन !
    अपनी गीता की वाणी में,
     कान्हा फिर मुझसे बोले------
     बीज वृक्ष से कह सकता तो ,
     वो भी ये सब ही कहता ,
    कहाँ क्षुद्र सा बीजऔ   तीर्थंकर तुम ,  मेरे। -
    फूलों  की करने से पूजा ,
    नए बीज बन पायेंगे ?
   सागर को पूजे नदि ,
     तो,  क्या? सागर  बन जायेगी !
     मैं तो तेरी जीवन धारा ,
    तेरे अंतर में रहता हूँ,
   बस! बीज सम खो जा मिटटी में ,
   नदी सी मिल जा सागर में ,
   कर्म प्यार की धारा बन जा,
   अपने स्व को मिटने दे.
  बंधन तोड़ स्वतंत्र जो होगी
 श्वासों को अपनी परखेगी ,
 तो घटना घट जायेगी ,
 और अनंत की यात्रा में तू-
 कान्हा संग ही जाएगी।।
कान्हा ,कृष्णा मुरली मनोहर,
राधाके तुम सांवरिया हो,
मेरे मन को मधुर बनाकर ,
  रूप दिखा गये नटवर का.।
मन मेरा कान्हा- कान्हा है
तन में भी मधुरिम कान्हा ,
मीरा सी मैं बावरिया हूँ,
 बोध हुआ तेरा कान्हा
……………………
    कृष्ण का बोध होना
  अस्तित्व का तिरोहित हो जाना ,
फूल का खिलना ,------------
सुगंधी देकर ,बिखर जाना।
लहर-लहर,
सागर तट आना।
बालू को, गीला कर  जाना।
असमान पे, बदरा  बन छाना,
  बिखर धरती की प्यास बुझाना।
  कृष्णा ,कान्हा,बनने का सुख ,
  कण -कण में बिखरने का सुख 
 मिटने का आह्लाद ,
  कारा से आजादी ,
 परम स्वतन्त्रता ,
 असीम आनन्द,
 स्व का विस्तार। .
और बन जाना इक प्यार का पारावार,
अब मैं भी कान्हा बनने  को ,
 उतरूँ  गहरे सागर में।
 और बावरी मीरा बन कर,
डूबन से नहीं डरती हूँ।
 नमन हे कान्ह तुम्हें शत बार ,
नमन हे कृष्ण तुम्हें शत बार। …………. आभा

   
 

   

     

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