कृष्ण मय हो जाऊं
****************
मैं बापुरी डूबन डरी रही किनारे बैठ।
निकट कृष्ण के जब भी जाऊं
उसके रंग में रंग जाने को ,
जाने क्यूँ अकुला जाती हूँ,
क्या? कान्हा बनना आसां होगा !
क्या ? वो फूल खिलेगा अंतर में !
क्या ? वो दीप जला मैं पाऊँगी !
प्रेम प्यार में पगी सुरभि का
क्या मैं विस्तार पाऊँगी ?
अहो !मन्त्र कान्हा बनने का ,
मुझको देने आये हो। ……।
मैं ! निष्ठा से सुनती हूँ,तुम को !
बोलो तुम मेरे भगवन !
अपनी गीता की वाणी में,
कान्हा फिर मुझसे बोले------
बीज वृक्ष से कह सकता तो ,
वो भी ये सब ही कहता ,
कहाँ क्षुद्र सा बीजऔ तीर्थंकर तुम , मेरे। -
फूलों की करने से पूजा ,
नए बीज बन पायेंगे ?
सागर को पूजे नदि ,
तो, क्या? सागर बन जायेगी !
मैं तो तेरी जीवन धारा ,
तेरे अंतर में रहता हूँ,
बस! बीज सम खो जा मिटटी में ,
नदी सी मिल जा सागर में ,
कर्म प्यार की धारा बन जा,
अपने स्व को मिटने दे.
बंधन तोड़ स्वतंत्र जो होगी
श्वासों को अपनी परखेगी ,
तो घटना घट जायेगी ,
और अनंत की यात्रा में तू-
कान्हा संग ही जाएगी।।
कान्हा ,कृष्णा मुरली मनोहर,
राधाके तुम सांवरिया हो,
मेरे मन को मधुर बनाकर ,
रूप दिखा गये नटवर का.।
मन मेरा कान्हा- कान्हा है
तन में भी मधुरिम कान्हा ,
मीरा सी मैं बावरिया हूँ,
बोध हुआ तेरा कान्हा
……………………
कृष्ण का बोध होना
अस्तित्व का तिरोहित हो जाना ,
फूल का खिलना ,------------
सुगंधी देकर ,बिखर जाना।
लहर-लहर,
सागर तट आना।
बालू को, गीला कर जाना।
असमान पे, बदरा बन छाना,
बिखर धरती की प्यास बुझाना।
कृष्णा ,कान्हा,बनने का सुख ,
कण -कण में बिखरने का सुख
मिटने का आह्लाद ,
कारा से आजादी ,
परम स्वतन्त्रता ,
असीम आनन्द,
स्व का विस्तार। .
और बन जाना इक प्यार का पारावार,
अब मैं भी कान्हा बनने को ,
उतरूँ गहरे सागर में।
और बावरी मीरा बन कर,
डूबन से नहीं डरती हूँ।
नमन हे कान्ह तुम्हें शत बार ,
नमन हे कृष्ण तुम्हें शत बार। …………. आभा
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मैं बापुरी डूबन डरी रही किनारे बैठ।
निकट कृष्ण के जब भी जाऊं
उसके रंग में रंग जाने को ,
जाने क्यूँ अकुला जाती हूँ,
क्या? कान्हा बनना आसां होगा !
क्या ? वो फूल खिलेगा अंतर में !
क्या ? वो दीप जला मैं पाऊँगी !
प्रेम प्यार में पगी सुरभि का
क्या मैं विस्तार पाऊँगी ?
अहो !मन्त्र कान्हा बनने का ,
मुझको देने आये हो। ……।
मैं ! निष्ठा से सुनती हूँ,तुम को !
बोलो तुम मेरे भगवन !
अपनी गीता की वाणी में,
कान्हा फिर मुझसे बोले------
बीज वृक्ष से कह सकता तो ,
वो भी ये सब ही कहता ,
कहाँ क्षुद्र सा बीजऔ तीर्थंकर तुम , मेरे। -
फूलों की करने से पूजा ,
नए बीज बन पायेंगे ?
सागर को पूजे नदि ,
तो, क्या? सागर बन जायेगी !
मैं तो तेरी जीवन धारा ,
तेरे अंतर में रहता हूँ,
बस! बीज सम खो जा मिटटी में ,
नदी सी मिल जा सागर में ,
कर्म प्यार की धारा बन जा,
अपने स्व को मिटने दे.
बंधन तोड़ स्वतंत्र जो होगी
श्वासों को अपनी परखेगी ,
तो घटना घट जायेगी ,
और अनंत की यात्रा में तू-
कान्हा संग ही जाएगी।।
कान्हा ,कृष्णा मुरली मनोहर,
राधाके तुम सांवरिया हो,
मेरे मन को मधुर बनाकर ,
रूप दिखा गये नटवर का.।
मन मेरा कान्हा- कान्हा है
तन में भी मधुरिम कान्हा ,
मीरा सी मैं बावरिया हूँ,
बोध हुआ तेरा कान्हा
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कृष्ण का बोध होना
अस्तित्व का तिरोहित हो जाना ,
फूल का खिलना ,------------
सुगंधी देकर ,बिखर जाना।
लहर-लहर,
सागर तट आना।
बालू को, गीला कर जाना।
असमान पे, बदरा बन छाना,
बिखर धरती की प्यास बुझाना।
कृष्णा ,कान्हा,बनने का सुख ,
कण -कण में बिखरने का सुख
मिटने का आह्लाद ,
कारा से आजादी ,
परम स्वतन्त्रता ,
असीम आनन्द,
स्व का विस्तार। .
और बन जाना इक प्यार का पारावार,
अब मैं भी कान्हा बनने को ,
उतरूँ गहरे सागर में।
और बावरी मीरा बन कर,
डूबन से नहीं डरती हूँ।
नमन हे कान्ह तुम्हें शत बार ,
नमन हे कृष्ण तुम्हें शत बार। …………. आभा
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