Friday, 11 August 2017


यादों में आज भी वो दिन जब दिल्ली शिफ्ट हुई ,पहली बार तुम्हारे बिना -बस अहसासों की कलम से बह चली थी स्याही और भीग गया सामने रखी कॉपी का पन्ना आज फिर फड़फड़ा के सामने आ गया -भीगा हुआ नम ,गीला पर उदास नहीं -तुम ----,तुम जो नहीं रह सकते थे पल भर भी मेरे बिना चले गये अनंत की यात्रा में --आज भी पदचाप की आहट गूंजती है ,अब तो रोम रोम श्रवण इंद्री बन गये हैं ,तुम हो न मुझमें ,बस मैं ही सुन पाती हूँ ''आभा '' की वो आवाज जो पोर पोर में बह रही है हवा बनके अदृश्य पर जागृत --सागर की लहर बनी मैं यादों के समुन्दर में उछलती हूँ और मिट जाती हूँ कब मिलेगा किनारा पता नहीं पर हर उत्साहित लहर की मानिंद मैं भी नए सिरे से हर सवेरे जीने की तैयारी करती हूँ-(तुमने भी तो उषा का दामन ही थामा था मुझे छोड़ने के लिए ) मर मिटने के लिये -----
"मैं लहर सागर की "
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हाँ तुम हो मुझमें 
सदियों से सदियों के लिये
पहले भी थे
 जब,हम मिले न थे ,
हो आज भी -
जब तुम नहीं हो !
हो- शामिल; मुझमे ,
मेरे हर हिस्से में -
अपने कुछ न कुछ हिस्से के साथ।
देखा था तुमने पहली बार
रख दी थी ,
"अपने हिस्से की शर्म" -
मेरी पलकों में ;
आज भी पलकें झुकी हैं 
"उसी भार से" ,
मेरी शर्म में ,हिस्सा है तुम्हारा।
सर्दियों में तुम्हें लगती थी जब ठंड -
धूप सेकते हुए ; 
अपने हिस्से की धूप -
दे दी थी मैंने तुम्हें ;
आज भी ! मैं ,धूप में नहीं बैठ पाती हूँ।
सारा प्यार अपने हिस्से का -
दे दिया मुझे -भर दी मेरी झोली ;
रीते ही चले गए 'तुम '
मेरे हिस्से आ गया -
सारा प्यार तुम्हारे हिस्से का।
वो सुर तुम्हारे -
जब भी गाते थे तुम ,
मैं चुरा लेती थी आवाज का रस -
अपने हिस्से का ,
आज मेरी मिठास में
है वही चोरी वाला हिस्सा।
हर नैया का सागर में हिस्सा ,
हर सपने  का नींदों  में हिस्सा ,
लहर ढूंढती अपना साहिल ,
राही का मंजिल में हिस्सा ,
चमन में बुलबुल का हिस्सा ,
फूल में सुगन्धि का हिस्सा -
आसमां में हर तारे का हिस्सा।
मेरा हिस्सा आसमान में -
तुम ही तय करके रखना ,
जब मैं आऊँ तुम से मिलने
बाजू वाला हिस्सा देना।
तुम मेरे ही हिस्से हो
तब भी जब तुम पास थे मेरे
अब भी जब तुम पास नहीं हो।
हां मेरे जीवन का हिस्सा
छूट  गया - खो गया जो
 फिर मैं क्यूँ नहीं  अधूरी ?
शायद !
हम दोनों ही  इक दूजे का हिस्सा।<><><>आभा <>
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रोज सुबह की संध्या तुम्हारी तस्वीर के आगे माथे पे रोली कुमकुम लगाने का बहाना और फिर कुमकुम का कण बालों में छिपा लेना --मेरे लिए तो तुम गए ही नहीं बस बाहर से भीतर हो गए हो -समय का लुकाछिपी का खेल देखो कब धप्पा लगा के तुम्हें ढूँढ पाती हूँ ,तब तक छलक रही हूँ लहरों की तरह ----
आत्मा कब दूर है हमसे उषा को प्राची में दिखती है तो संध्या समय पश्चिम में लाल नारंगी सुनहरा कुमकुम उड़ाती हुई आभा ----
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