Thursday, 25 October 2012

                        {  आज 11 महीने हो गए हैं अजय। लगता है अभी कहीं से सामने आ जाओग।  }
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   कल तक साथ चली मैं जिसके ,आज वही है इक सपना .
   ये सपना ही संबल मेरा है , मेरे जीवन की अभिलाषा है   .
   सपनों का मोल भाव न होता ,सुख -दुःख में न तोले जाते   हैं .
   धरती में ज्यों पावन गंगा ,नयन- व्योम में ये मधु -रस हैं .
   गंगा की लचकीली लहरों में ,तिरते सपनों को देख रही मैं ,
   कुछ धवल कुछ नारंगी सा-रोमांचित करता प्रकाश वह ,
   स्वर्णिम रेशम सी किरणों संग नीलम से नील व्योम सेआकर
   गंगा की लहरों पर पड़ता ,झिलमिल स्वर्ण रजत सा मोहक --
   लहरों को ज्यों पहनाया हो ,इंगूरी स्वर्णिम आभूषण .
   स्वर्णिम लहंगा पहने लहरें -यूं इठलाती गोता खाती ,
   ज्यूँ नखरीली दुल्हन कोई -पी के आने की आहट पाती .
  क्या ही स्वर्णिम दृश्य बना है ,झिलमिल लहरें जगमग-जगमग .
   कितने रूप -कितने रंगों में -लहरों पर जब पडती किरणे ,
   रोम-रोम पुलकित होता है -सपनीली दुनियां ही है यह ,
    आज साँझ की इस बेला में -भुवन-भास्कर क्रोधित से हैं ,
    कुमकुम रंगीं स्वर्णिम किरणे जन-जन को अकुलाती हैं .
   पर जब गंगा की लहरों पर आतप ,स्वर्णिम रेशम निर्झर सा झरता ,
   ऊष्मा उस भुवन -भास्कर की पल में शीतल हो जाती है .
    गंगा की लहर- लहरपर छवि मैंने अपनी देखी है ,
    लहर -लहर में छवि पडती है ,हर-एक लहर में बिखर जाती है .
   पर गहरे पानी में देखी ,स्थिर छवि वहीँ खड़ी है !,
   गति विराम हों एक जगह गंगा की धारा में मैंने देखा ,
   जीवन के दो सपने ऊष्मा और शीतलता संग संग ,
   गति विराम हों एक ही तल परगंगा में ही सच होते हैं
   समाधिस्थ सी यह गंगा सदियों से यूँ ही बहती है ,
    तुम ही मेरी सिद्धि बनों माँ ,तुम जैसी ही मैं बन जाऊं ,
   गति-विराम परस्पर जी लूँ प्रेम पगा हो मेरा जीवन ,
   साधक बन कर रहूँ जगत में ,मुझे नहीं विश्राम चाहिए ,
   गतिशीलता निरन्तरता ,इस जीवन का प्रवाह चाहिए .
   गति ही मेरा मानदंड हो ,पथ ही लक्ष्य रहे मेरा
   मेरे नयनों के सपनों को तेरा ही वरदान मिले .
   सूरज के आतप की शीतलता का दान मिले ,
   मेरे जीवन की आभा को ,तेरा अमृत -गान मिले
   सुर संगीत मिले लहरों सा ,गति हो लहरों सी चंचल .
  मन की गहराई में प्रियतम की स्थिर छवि का अभिमान मिले .
  स्वप्न अजय हो मेरा लहर -लहर में छवि वही
   ज्वालाओं के पार खड़ा जो तू उस पथ की खेवनहार बने ,
   एक यही जीवन अभिलाषा पथ ही मेरा लक्ष्य बने .........................
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  कितना आसाँ है कहना भूल जाओ ,
  कितना मुश्किल है पर भूल जाना .................................................
........................................................................श्रधान्जली अजय ............आभा


 












Wednesday, 3 October 2012

Vah Pitaa Hmara Pthprdrshk Brhm-Prem Ras -Dhara Hai

                                                                   {   पिता को समर्पित }
  

अपने जीवन में सब दो पिताओं को बहुत नजदीक से देख ते हैं।एक अपने पिताको और एक अपने बच्चों के पिता को दोनों की जिजीविषा और  कर्मठता ही हमारे परिवार का अधार  होती है। यह कविता मेरे  इन्ही कुछ भावो को प्रकट करती है ........................................................................................................................................
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        जीवन के इस महा समर में ,घिर जाते हैं जब हम तम में ,
        राहू -केतु  बन विपदायें दावानल सी दहलाती हैं ,
        कर्मयोगि बन पथ को साधो ,निर्माणों का मार्ग दिखाता है .
        वह पिता हमारा! पथ-प्रदर्शक, ब्रह्म-प्रेम, रस-धाराहै ......................
 माँ के कोमल सुरभित भावों को ,जीवन पथ पर दृढ़ता देता है ,
 अटल विश्वास ,ध्रुव चेतना संग -असी- धारा पे चलना सिखलाता है ,
 अपने विवेक ,मर्यादा  औ अनुपम व्यवहारों से ---------------
 बाधाओं के गिरि शिखरों पर जो, हमको ,चलना सिखलाता है ,
           वह   पिता हमारा पथ-प्रदर्शक ,ब्रह्म-प्रेम ,रस-धारा है ........................
 तोड़ कर श्रृंगों का सीना ,सरिता बन बह जाओ तुम ,
  कोटि दावानलों की लौ में, शलभ बन जल जाओ तुम ,
  दृढ हृदय के सामने यातनायें भी थकेंगी
  जीवन की वैतरणी तरने को -स्थिति -प्रज्ञ बन जाओ तुम ,
कटु प्रहारों को सह कर जो ,दृढ रहना सिखलाता है ,
लक्ष्यपर चलते रहो ,उद्यम का मार्ग दिखाता है ,
       वह  पिता हमारा ,पथ -प्रदर्शक ,ब्रह्म -प्रेम ,रस -धारा है .................
  संतानों के लिये पिता -चिंता-दावानल में जलता है ,
  पर दृढ-प्रतिज्ञ सा धीर- वीर वह,तरुण तपस्वी लगता है ,
  ध्येय-निष्ठा से कर्म-वीर वह ,गरल  पान करता रहता ,
अपमानों या स्नेहों  की कभी नहीं नहीं चिंता करता।
   कर्मयोग के पथिक पिता तुम मुझको सम्बल देते हो
   चल उठ कर फिर शक्ति साधना ,उल्लासों से भर देते हो .
   अनुलेपन सा मधु-स्पर्श तुम्हारा ,नव जीवन भर देता है ,
श्रम-सागर मथने को उधत होऊं ,कर्तव्य दीक्षा  देते हो ,
     वह मुस्कान अनोखी है जो ,शिव का भाव जगाती है .
     मधुर हास्य वह पिता तुम्हारा ,मेरा सम्बल बन जाता है .
              आज मैं नैवेद्य बनकर ,
               श्रधा सुमन की लेखनी ले ,
               दृढ़ता की घंटियां बजाकर ,
               अर्चना के थाल में ,
               दीप पिता की सीखों के जलाये ,
               पद वन्दना करने हूँ आयी ,
               नमन पिता को करने हूँ आई


    





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Monday, 1 October 2012

Buddhaa hogaa teraa baap ...budhaape ki trunaayi

                                                                  {  बुढापे की तरुणाई }
                                                                   ...............................
भ्रर्तहरी जी कह गये वे नर पशू समान ,काव्य कला संगीत का जिन्हें नहीं है ज्ञान .              
जिन्हें नहीं है ज्ञान समझलो उनको ऐसे ,पूंछ -सींग से रहित जानवर होता जैसे .
आज आस पास बिखरे मेरे ऐसे ही कुछ पशु मायावी ,
हास्य रस का घोट गला बुद्धिमानों पर हावी .
इसीलिये हम हो गये आज मंच आसीन ,
हंसें हंसाये व्यंग करें अपने सुर में लीन .
अपने सुर में लीं सुनायें कविता ऐसी ,
चहके महफिल पढने सुनने वाले पीटें  ताली ,
कहें वाह-वाह कवियत्री क्या ही मृदुल ,मोहक ?भाषा वाली .
    तो मेरे बुद्धिमान कद्रदान ,अकलमान दोस्तों ,----
तरुणाई जब बुढापे की तरफ बढती है ,
कैसे-कैसे गुल खिलाती है ;-----------
क्या कहते हैं ?बच्चों को ही जवानी आती है ,
जी नहीं बुढापे भी तरुणाई छाती है .
बुढापे की तरुणाई ,पूरी तरह से खेली -खायी ,
बालों पे आई है चांदी उतर ,
दांत भी छोड़ रहे हैं साथ ,
चलें चार कदम तो फूलती है साँस ,
रह -रह कर उठता है दिल में दर्द .....
    शायद बूढा लगा है होने तन !!!तो क्या गम ???
मन में तो मेरे आज भी उठती है उमंग .
रूपसी कन्या हो या हो प्रौढा युवती ,
देख मन में आज भी हिलोरें उठती ,.
नाचने लगताहै मन का मोर ,मन गुनगुनाये ,
आज फिर जीने की तमन्ना है ,
मधुबन में राधिका नाचिरे ...
    अक्ल से लबालब है बुद्धिमान बुजुर्ग ,
पर क्या नाजुक मिजाज इश्क उठा पायेगा --
                    अक्ल का बोझ ?
60 साल के बूढ़े पर छाया कैसा रंग ,
मन में कैसी उठ रही तरुणाई की उमंग ,
जब अगल -बगल हों सुमुखि -सयानी ,नाजुक मुग्धा ,
छोड़ इन्हें कैसे कर लूँ मैं भज -गोविंदा .
नहीं -नहीं अभी नहीं अभी उम्र नहीं है होई ????
अब तो आई अक्ल है इश्क करन की मोहि .
आगे पीछे अब रहे मृग-नयनियों का अम्बार ,
गयी जवानी अब चढ़ा बुढउ को इश्क बुखार .
   जवानी में जो झिझकती थी हमसे ,---
अब तो वह भी करें ठिठोली ,,,,,,,
मन करता है इश्क से भरलू अपनी झोली ,
बूढा और बच्चा एक सा होता है लल्ला ,
बुढापे में अक्ल का हो जाता दिवाला .
बूढा जब सठियाय समझले यही समय है ,
इश्क के लिये बची बस कुछ ही उम्र है ,
उम्र रह गयी थोड़ी अब तो जोश दिखा दे ,
गयी जवानी को समेट ले चंग बजादे .
   देख किसी मुग्धा को जब तार दिल के झन्नायें ,
तुझे छूट  है जाकर तू उससे गपियाले
करते हुये तारीफ़ उससे हाथ मिलाले
अपनी नीरस जिन्दगी का रोना यदि तू रोय ,
खुद ही बात करेगी वो बेचारा जान के तोय .
तू छक के कर रसपान आखों से प्यारे ,
इससे ज्यादा आयेगा ना कुछ हाथ तुम्हारे .
यदि दिल आया कमसिन पर तो बेटी उसे बनाले ,
जन्म दिन पे गिफ्ट दे फिर घर में उसे बुलाले .
            श्रीमतीजी को साथ देख कर फंस जायेगी बेचारी ,
फिर तो सरे  आम तू उस को गले लगाले .
हैप्पी -बर्थ डे कह कर उसकी पप्पी ले प्यारे .
मन में ग्लानी भाव न तेरे आने पाये ,
इसके लिये हम तुम्हें बतायें एक उपाय,
अपनी सभ्यता संस्कृति को तू याद किये जा
पौराणिक आख्यानो में ऐसे प्रसंग हैं आये ,
तू शिक्षक है इसका तू अफ़सोस न करना ,
याद कर अपने अतीत को कभी न डरना ,
यह कमबख्त उम्र ही कुछ ऐसी होती है ,
बड़े-बड़े ज्ञानी को विज्ञानी कर देती है .
नारद -मुनी की घटना याद है ना तुझको ,
विश्व-मोहिनी के सौन्दर्य में जो वो ना आते ,
ना होते राम न हम रामायण गाते ,
ऋषि पराशर जो न केवट कन्या को पाते
तो कैसे वीत- वैराग्य के गीत बनाते
विश्वामित्र जैसे तपस्वी भी देख रह गये दंग ,
ऐसी रूपसी मेनका तुझमे भी जगाये तरंग .
जो जागी है तरंग तो क्या है बुराई ,
संस्कृति का पोषक है तू इसे अपनाले भाई .
और यदि होना चाहता है फेमस तू भइया
मटुकनाथ जुली से ले गुरु मन्त्र ता -ता थैया ..
इस कलयुग के तो वही विश्वामित्र मेनका ,
मचा दिया दोनों ने मगध यूनिवर्सिटी में तहलका .
तरह- तरह की एस-एम-एस, ई -मेल्स बूढों को आयें ,
रूपवान कमसिन कन्याएं एम,एम एस .भिजवायें ,
तरुण युवक सब यूनिवर्सिटी छोड़ कर भागे ,
बूढ़े ही बूढ़े रह गये अब क्या आगे .
और आज इस बूढों के दिन पे ,
घरवाली ने दी है सब को छूट
अपनी ढलती तरुणाई को 'फुल टाइम कर लो यूस
क्यूंकि ............................................
खूँटे की गाय है ,खूंटे पर ही आय ,
सुबह  दोपहर कहीं रहे सांझ घर में ही रम्भाय .
युवा जनों को प्रवचन अब न तुम पिलाओ ,
बूढों की बुद्धि भी शुद्धि ना करवाओ .
जीवन का संधि काल है इसका पर्व मनाओ।।।।।।
.......................................................................आभा


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.............................................................................................जूली मटुकनाथ के काल की एक कविता जो मैने आइ .आइ टी  रूडकी में संस्कृति लेडीस क्लब के मंच से पढ़ी थी।.आज सीनियर सिटीजन दे पर उन्हें अर्पित शायद कुछ हंसा सके।

काका से प्रेरणा लेकर




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