Monday, 1 October 2012

Buddhaa hogaa teraa baap ...budhaape ki trunaayi

                                                                  {  बुढापे की तरुणाई }
                                                                   ...............................
भ्रर्तहरी जी कह गये वे नर पशू समान ,काव्य कला संगीत का जिन्हें नहीं है ज्ञान .              
जिन्हें नहीं है ज्ञान समझलो उनको ऐसे ,पूंछ -सींग से रहित जानवर होता जैसे .
आज आस पास बिखरे मेरे ऐसे ही कुछ पशु मायावी ,
हास्य रस का घोट गला बुद्धिमानों पर हावी .
इसीलिये हम हो गये आज मंच आसीन ,
हंसें हंसाये व्यंग करें अपने सुर में लीन .
अपने सुर में लीं सुनायें कविता ऐसी ,
चहके महफिल पढने सुनने वाले पीटें  ताली ,
कहें वाह-वाह कवियत्री क्या ही मृदुल ,मोहक ?भाषा वाली .
    तो मेरे बुद्धिमान कद्रदान ,अकलमान दोस्तों ,----
तरुणाई जब बुढापे की तरफ बढती है ,
कैसे-कैसे गुल खिलाती है ;-----------
क्या कहते हैं ?बच्चों को ही जवानी आती है ,
जी नहीं बुढापे भी तरुणाई छाती है .
बुढापे की तरुणाई ,पूरी तरह से खेली -खायी ,
बालों पे आई है चांदी उतर ,
दांत भी छोड़ रहे हैं साथ ,
चलें चार कदम तो फूलती है साँस ,
रह -रह कर उठता है दिल में दर्द .....
    शायद बूढा लगा है होने तन !!!तो क्या गम ???
मन में तो मेरे आज भी उठती है उमंग .
रूपसी कन्या हो या हो प्रौढा युवती ,
देख मन में आज भी हिलोरें उठती ,.
नाचने लगताहै मन का मोर ,मन गुनगुनाये ,
आज फिर जीने की तमन्ना है ,
मधुबन में राधिका नाचिरे ...
    अक्ल से लबालब है बुद्धिमान बुजुर्ग ,
पर क्या नाजुक मिजाज इश्क उठा पायेगा --
                    अक्ल का बोझ ?
60 साल के बूढ़े पर छाया कैसा रंग ,
मन में कैसी उठ रही तरुणाई की उमंग ,
जब अगल -बगल हों सुमुखि -सयानी ,नाजुक मुग्धा ,
छोड़ इन्हें कैसे कर लूँ मैं भज -गोविंदा .
नहीं -नहीं अभी नहीं अभी उम्र नहीं है होई ????
अब तो आई अक्ल है इश्क करन की मोहि .
आगे पीछे अब रहे मृग-नयनियों का अम्बार ,
गयी जवानी अब चढ़ा बुढउ को इश्क बुखार .
   जवानी में जो झिझकती थी हमसे ,---
अब तो वह भी करें ठिठोली ,,,,,,,
मन करता है इश्क से भरलू अपनी झोली ,
बूढा और बच्चा एक सा होता है लल्ला ,
बुढापे में अक्ल का हो जाता दिवाला .
बूढा जब सठियाय समझले यही समय है ,
इश्क के लिये बची बस कुछ ही उम्र है ,
उम्र रह गयी थोड़ी अब तो जोश दिखा दे ,
गयी जवानी को समेट ले चंग बजादे .
   देख किसी मुग्धा को जब तार दिल के झन्नायें ,
तुझे छूट  है जाकर तू उससे गपियाले
करते हुये तारीफ़ उससे हाथ मिलाले
अपनी नीरस जिन्दगी का रोना यदि तू रोय ,
खुद ही बात करेगी वो बेचारा जान के तोय .
तू छक के कर रसपान आखों से प्यारे ,
इससे ज्यादा आयेगा ना कुछ हाथ तुम्हारे .
यदि दिल आया कमसिन पर तो बेटी उसे बनाले ,
जन्म दिन पे गिफ्ट दे फिर घर में उसे बुलाले .
            श्रीमतीजी को साथ देख कर फंस जायेगी बेचारी ,
फिर तो सरे  आम तू उस को गले लगाले .
हैप्पी -बर्थ डे कह कर उसकी पप्पी ले प्यारे .
मन में ग्लानी भाव न तेरे आने पाये ,
इसके लिये हम तुम्हें बतायें एक उपाय,
अपनी सभ्यता संस्कृति को तू याद किये जा
पौराणिक आख्यानो में ऐसे प्रसंग हैं आये ,
तू शिक्षक है इसका तू अफ़सोस न करना ,
याद कर अपने अतीत को कभी न डरना ,
यह कमबख्त उम्र ही कुछ ऐसी होती है ,
बड़े-बड़े ज्ञानी को विज्ञानी कर देती है .
नारद -मुनी की घटना याद है ना तुझको ,
विश्व-मोहिनी के सौन्दर्य में जो वो ना आते ,
ना होते राम न हम रामायण गाते ,
ऋषि पराशर जो न केवट कन्या को पाते
तो कैसे वीत- वैराग्य के गीत बनाते
विश्वामित्र जैसे तपस्वी भी देख रह गये दंग ,
ऐसी रूपसी मेनका तुझमे भी जगाये तरंग .
जो जागी है तरंग तो क्या है बुराई ,
संस्कृति का पोषक है तू इसे अपनाले भाई .
और यदि होना चाहता है फेमस तू भइया
मटुकनाथ जुली से ले गुरु मन्त्र ता -ता थैया ..
इस कलयुग के तो वही विश्वामित्र मेनका ,
मचा दिया दोनों ने मगध यूनिवर्सिटी में तहलका .
तरह- तरह की एस-एम-एस, ई -मेल्स बूढों को आयें ,
रूपवान कमसिन कन्याएं एम,एम एस .भिजवायें ,
तरुण युवक सब यूनिवर्सिटी छोड़ कर भागे ,
बूढ़े ही बूढ़े रह गये अब क्या आगे .
और आज इस बूढों के दिन पे ,
घरवाली ने दी है सब को छूट
अपनी ढलती तरुणाई को 'फुल टाइम कर लो यूस
क्यूंकि ............................................
खूँटे की गाय है ,खूंटे पर ही आय ,
सुबह  दोपहर कहीं रहे सांझ घर में ही रम्भाय .
युवा जनों को प्रवचन अब न तुम पिलाओ ,
बूढों की बुद्धि भी शुद्धि ना करवाओ .
जीवन का संधि काल है इसका पर्व मनाओ।।।।।।
.......................................................................आभा


      ....................................................................................
.............................................................................................जूली मटुकनाथ के काल की एक कविता जो मैने आइ .आइ टी  रूडकी में संस्कृति लेडीस क्लब के मंच से पढ़ी थी।.आज सीनियर सिटीजन दे पर उन्हें अर्पित शायद कुछ हंसा सके।

काका से प्रेरणा लेकर




.









 

No comments:

Post a Comment