{ पिता को समर्पित }
अपने जीवन में सब दो पिताओं को बहुत नजदीक से देख ते हैं।एक अपने पिताको और एक अपने बच्चों के पिता को दोनों की जिजीविषा और कर्मठता ही हमारे परिवार का अधार होती है। यह कविता मेरे इन्ही कुछ भावो को प्रकट करती है ........................................................................................................................................
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जीवन के इस महा समर में ,घिर जाते हैं जब हम तम में ,
राहू -केतु बन विपदायें दावानल सी दहलाती हैं ,
कर्मयोगि बन पथ को साधो ,निर्माणों का मार्ग दिखाता है .
वह पिता हमारा! पथ-प्रदर्शक, ब्रह्म-प्रेम, रस-धाराहै ......................
माँ के कोमल सुरभित भावों को ,जीवन पथ पर दृढ़ता देता है ,
अटल विश्वास ,ध्रुव चेतना संग -असी- धारा पे चलना सिखलाता है ,
अपने विवेक ,मर्यादा औ अनुपम व्यवहारों से ---------------
बाधाओं के गिरि शिखरों पर जो, हमको ,चलना सिखलाता है ,
वह पिता हमारा पथ-प्रदर्शक ,ब्रह्म-प्रेम ,रस-धारा है ........................
तोड़ कर श्रृंगों का सीना ,सरिता बन बह जाओ तुम ,
कोटि दावानलों की लौ में, शलभ बन जल जाओ तुम ,
दृढ हृदय के सामने यातनायें भी थकेंगी
जीवन की वैतरणी तरने को -स्थिति -प्रज्ञ बन जाओ तुम ,
कटु प्रहारों को सह कर जो ,दृढ रहना सिखलाता है ,
लक्ष्यपर चलते रहो ,उद्यम का मार्ग दिखाता है ,
वह पिता हमारा ,पथ -प्रदर्शक ,ब्रह्म -प्रेम ,रस -धारा है .................
संतानों के लिये पिता -चिंता-दावानल में जलता है ,
पर दृढ-प्रतिज्ञ सा धीर- वीर वह,तरुण तपस्वी लगता है ,
ध्येय-निष्ठा से कर्म-वीर वह ,गरल पान करता रहता ,
अपमानों या स्नेहों की कभी नहीं नहीं चिंता करता।
कर्मयोग के पथिक पिता तुम मुझको सम्बल देते हो
चल उठ कर फिर शक्ति साधना ,उल्लासों से भर देते हो .
अनुलेपन सा मधु-स्पर्श तुम्हारा ,नव जीवन भर देता है ,
श्रम-सागर मथने को उधत होऊं ,कर्तव्य दीक्षा देते हो ,
वह मुस्कान अनोखी है जो ,शिव का भाव जगाती है .
मधुर हास्य वह पिता तुम्हारा ,मेरा सम्बल बन जाता है .
आज मैं नैवेद्य बनकर ,
श्रधा सुमन की लेखनी ले ,
दृढ़ता की घंटियां बजाकर ,
अर्चना के थाल में ,
दीप पिता की सीखों के जलाये ,
पद वन्दना करने हूँ आयी ,
नमन पिता को करने हूँ आई
.
अपने जीवन में सब दो पिताओं को बहुत नजदीक से देख ते हैं।एक अपने पिताको और एक अपने बच्चों के पिता को दोनों की जिजीविषा और कर्मठता ही हमारे परिवार का अधार होती है। यह कविता मेरे इन्ही कुछ भावो को प्रकट करती है ........................................................................................................................................
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जीवन के इस महा समर में ,घिर जाते हैं जब हम तम में ,
राहू -केतु बन विपदायें दावानल सी दहलाती हैं ,
कर्मयोगि बन पथ को साधो ,निर्माणों का मार्ग दिखाता है .
वह पिता हमारा! पथ-प्रदर्शक, ब्रह्म-प्रेम, रस-धाराहै ......................
माँ के कोमल सुरभित भावों को ,जीवन पथ पर दृढ़ता देता है ,
अटल विश्वास ,ध्रुव चेतना संग -असी- धारा पे चलना सिखलाता है ,
अपने विवेक ,मर्यादा औ अनुपम व्यवहारों से ---------------
बाधाओं के गिरि शिखरों पर जो, हमको ,चलना सिखलाता है ,
वह पिता हमारा पथ-प्रदर्शक ,ब्रह्म-प्रेम ,रस-धारा है ........................
तोड़ कर श्रृंगों का सीना ,सरिता बन बह जाओ तुम ,
कोटि दावानलों की लौ में, शलभ बन जल जाओ तुम ,
दृढ हृदय के सामने यातनायें भी थकेंगी
जीवन की वैतरणी तरने को -स्थिति -प्रज्ञ बन जाओ तुम ,
कटु प्रहारों को सह कर जो ,दृढ रहना सिखलाता है ,
लक्ष्यपर चलते रहो ,उद्यम का मार्ग दिखाता है ,
वह पिता हमारा ,पथ -प्रदर्शक ,ब्रह्म -प्रेम ,रस -धारा है .................
संतानों के लिये पिता -चिंता-दावानल में जलता है ,
पर दृढ-प्रतिज्ञ सा धीर- वीर वह,तरुण तपस्वी लगता है ,
ध्येय-निष्ठा से कर्म-वीर वह ,गरल पान करता रहता ,
अपमानों या स्नेहों की कभी नहीं नहीं चिंता करता।
कर्मयोग के पथिक पिता तुम मुझको सम्बल देते हो
चल उठ कर फिर शक्ति साधना ,उल्लासों से भर देते हो .
अनुलेपन सा मधु-स्पर्श तुम्हारा ,नव जीवन भर देता है ,
श्रम-सागर मथने को उधत होऊं ,कर्तव्य दीक्षा देते हो ,
वह मुस्कान अनोखी है जो ,शिव का भाव जगाती है .
मधुर हास्य वह पिता तुम्हारा ,मेरा सम्बल बन जाता है .
आज मैं नैवेद्य बनकर ,
श्रधा सुमन की लेखनी ले ,
दृढ़ता की घंटियां बजाकर ,
अर्चना के थाल में ,
दीप पिता की सीखों के जलाये ,
पद वन्दना करने हूँ आयी ,
नमन पिता को करने हूँ आई
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