*********** श्राद्ध पक्ष ---------- मार्जन तर्पण ***********
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बचपन की यादों में पूज्य पिताजी के नहाने का हडकम्प भी ज्यूँ का त्यूं ताजा है ....जोर जोर से गंगे -यमुनेश्चैव गोदावरी ,सरस्वती से शुरू करके नंदिनी नलिनी सीता मालती च महापगा........स्नानोध्य्त: स्मरेन्नित्यम तत्र -तत्र वसाम्यहम ,,और फिर स्नानके पश्चात कभी पूर्व की और कभी पश्चिम, कभी उत्तर और कभी दक्षिण जनेऊउँगलियों में फंसा के देव तर्पण ,ऋषि तर्पण ,पितृ तर्पण, ...........एकपूरा संस्कार होता था स्नान .....प्रतिदिन ही अपने पूर्वजों को तर्पण देना भी सनातन संस्कारों में शामिल था .....श्राद्ध पक्ष में तो मुझे लगता है सारे ही पितृ हमारे घर आ जाते थे .तर्पण हवन पूजा .....पता नहीं कहाँ -कहाँ से पिताजी की बहने [ध्यानते]आ जाती थीं , गंगी दीदी ,बुद्धि दीदी .गाँव की दूर धार की ..सबको प्यार से मनुहार से खिलाना ,दक्षिणा .....बचपन से ही मैं सोचती थी , जो चले जाते हैं इस दुनिया से वो कैसे तृप्त होते होंगे इस तिल और दूध मिले जल से .......क्यूँ पूर्वज पितृ पक्ष में ही आते हैं . पिता से ,माँ से तर्क भी करती थी पर तर्क का अर्थ क्या होता है ?तर्क का अर्थ होता है ;मनुष्य के सोचने -विचारने की प्रक्रिया ...लेकिन क्या सत्य को सोचने विचारने से जाना गया है कभी ?जिसे हम जानते ही नहीं हैं ,उसे सोचेंगे कैसे ,विचारेंगेकैसे ? सोच विचार तो ज्ञात की परिधि में ही घूमते हैं .और सत्य तो अज्ञात ही नहीं अज्ञेय भी है .........
...विज्ञान की दो सीमायें हैं अज्ञात और ज्ञात |..अज्ञात की सीमा सिकुड़ति जा रही है ...और इसी को विज्ञान विकास कहता है ...जिस दिन सबकुछ का ज्ञान हो जाएगा वो दिन विज्ञान का चरमोत्कर्ष का दिन होगा ,सभ्यता की पराकाष्ठा..और जो कुछ बचेगा वो शिखर होगा गौरी शंकर का ...शून्य ...
लेकिन धर्म की नजरों में एकतीसरी श्रेणी भी है अज्ञेय की .......जिसे कितना भी जानते जाओ तो भी अनजाना रह जाता है .आप दावा कर ही नहीं सकते किआप जान गए हैं ,उस अज्ञेय को ही ईश्वर कहते हैं ....जिसकी बूंद भी हाथ आ गयी तो जीवन रसमय हो जाएगा ...जानकर भी, जान -जान कर भी जो जानने को रह जाता है वही धर्म का रहस्यवाद है .....और इसी में आता है ये पर्व महालया......पूर्वज कहाँ रहते है ?......,कहाँ से आते हैं ? ,वो ऊर्जा रूप में होते हैं या सूक्ष्म शरीर होते है ? ,ये सूक्ष्म शरीर क्या होता है ?......ये सब विषयों पे शास्त्रों में वृहद रूप से आलेख हैं .......और अब तो विज्ञान भी आत्मा को मानने की और अग्रसित है ...पर मेरा मानना तो है की कई बार तर्क और बुद्धि को परे रख के जो बुजुर्गों ने राह दिखाई है उस पे चलने में अंतर्मन उत्साहित होता है ......ये तर्क करने की जगह की पूर्वज कहाँ हैं ....कैसे ग्रहण करेंगे हमारी श्रधा --अंजली .....हम बस श्राद्ध पक्ष को मनाएं ...पूर्वजों का आवाहन करें उन्हें तिलांजलि,जलांजलि समर्पित करें ....गाय,..कौवे ,चींटी ,श्वान को हो सके तो ब्राह्मण या ध्यान्तोंको जिमायें...सच में आनंद आयेगा ....यूँ लगता है की पितरों का आशीष मिल रहा है ....जीवन क्या है सोच ही तो है ....क्या पता इतने बड़े ब्रह्मांड में कोई दूसरा लोक हो .......और कुछ भी नहीं तो होली ,दीवाली भी तो मनाते हैं ..महालय भी उसी ख़ुशी और श्रधा से मनाएं ........सचमुच में ही घर महा -आलय बन जाता है ....यदि हमारे मन में श्रधा है अपने पूर्वजों के प्रति ...हम चाहते है उनका ऋण चुकाना ,उन्हें केवल जलांजलि की आवश्यकता है ..अधिक जो कुछ भी करना चाहें हमारी श्रधा और इच्छा .....धर्म तो अपनी निजी वस्तु है ,जीने का तरीका ,अपने को जानने की प्रक्रिया ...अनन्त के रहस्यों का और उस अज्ञेय को जानने का मार्ग .....मेरी नजरों में मेरा धर्म गीता है और रामायण है ....यदि इन दो ग्रंथों में ही डुबकी लगायें ,तो उसकी सुरभि से हम महकने लगते हैं ........
कुछ लोगों का ये भी कहना होता है की जीतेजी तो माता पिता को पूछा नहीं ,तो मरने पे ये दिखावा क्यूँ ....तो उसपे पहले तो शास्त्रों में यदि लिखा है ,तो श्राद्ध करे अवश्य ...क्या पता गुनाह माफ़ ही हो जाय ,कोई आडम्बर नहीं ,कोई दिखावा नहीं ,केवल ...ॐ आग्छ्न्तु में पितर इमं गृहणन्तु जलांजलिम ......कहके जल तिल ,मधु ,दुग्ध किसी से भी तर्पण करिए ..जो उपलब्ध हो ....जिन माता पिता को जीते जी नहीं पूछा वो बेचारे क्या मरने के बाद भी हमारी श्रधा के हकदार नहीं हैं ........और दूसरे यह की श्राद्ध पक्ष पे पूर्वज हमारे घर आते हैं ,ये सोच और ये मान्यता जीवित पितरों को भी सम्मान देने में सहायक हो सकती है ....भय और डर ....के मनोविज्ञान को हमारे ऋषियों ने बहुत पहले समझ लिया था ......और इसी के कारण वृक्ष ,जल जंगल ,प्रकृति गाय आदि आदि इतनी सदियों तक संरक्षित रह सके ........माता पिता को न पूछने वाली संतान रौरव नर्क में जाती है ...ये डर तो होना ही चाहिए ....चाहे धर्म के नाम पे हो ,,अंध विश्वास के नाम पे हो ...या पोंगापंथी ही कहे जाएँ ....जो भी हो महालय मनाये ...कोई तर्क नहीं ,,,बस विश्वास ,,,,
आभा ,
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बचपन की यादों में पूज्य पिताजी के नहाने का हडकम्प भी ज्यूँ का त्यूं ताजा है ....जोर जोर से गंगे -यमुनेश्चैव गोदावरी ,सरस्वती से शुरू करके नंदिनी नलिनी सीता मालती च महापगा........स्नानोध्य्त: स्मरेन्नित्यम तत्र -तत्र वसाम्यहम ,,और फिर स्नानके पश्चात कभी पूर्व की और कभी पश्चिम, कभी उत्तर और कभी दक्षिण जनेऊउँगलियों में फंसा के देव तर्पण ,ऋषि तर्पण ,पितृ तर्पण, ...........एकपूरा संस्कार होता था स्नान .....प्रतिदिन ही अपने पूर्वजों को तर्पण देना भी सनातन संस्कारों में शामिल था .....श्राद्ध पक्ष में तो मुझे लगता है सारे ही पितृ हमारे घर आ जाते थे .तर्पण हवन पूजा .....पता नहीं कहाँ -कहाँ से पिताजी की बहने [ध्यानते]आ जाती थीं , गंगी दीदी ,बुद्धि दीदी .गाँव की दूर धार की ..सबको प्यार से मनुहार से खिलाना ,दक्षिणा .....बचपन से ही मैं सोचती थी , जो चले जाते हैं इस दुनिया से वो कैसे तृप्त होते होंगे इस तिल और दूध मिले जल से .......क्यूँ पूर्वज पितृ पक्ष में ही आते हैं . पिता से ,माँ से तर्क भी करती थी पर तर्क का अर्थ क्या होता है ?तर्क का अर्थ होता है ;मनुष्य के सोचने -विचारने की प्रक्रिया ...लेकिन क्या सत्य को सोचने विचारने से जाना गया है कभी ?जिसे हम जानते ही नहीं हैं ,उसे सोचेंगे कैसे ,विचारेंगेकैसे ? सोच विचार तो ज्ञात की परिधि में ही घूमते हैं .और सत्य तो अज्ञात ही नहीं अज्ञेय भी है .........
...विज्ञान की दो सीमायें हैं अज्ञात और ज्ञात |..अज्ञात की सीमा सिकुड़ति जा रही है ...और इसी को विज्ञान विकास कहता है ...जिस दिन सबकुछ का ज्ञान हो जाएगा वो दिन विज्ञान का चरमोत्कर्ष का दिन होगा ,सभ्यता की पराकाष्ठा..और जो कुछ बचेगा वो शिखर होगा गौरी शंकर का ...शून्य ...
लेकिन धर्म की नजरों में एकतीसरी श्रेणी भी है अज्ञेय की .......जिसे कितना भी जानते जाओ तो भी अनजाना रह जाता है .आप दावा कर ही नहीं सकते किआप जान गए हैं ,उस अज्ञेय को ही ईश्वर कहते हैं ....जिसकी बूंद भी हाथ आ गयी तो जीवन रसमय हो जाएगा ...जानकर भी, जान -जान कर भी जो जानने को रह जाता है वही धर्म का रहस्यवाद है .....और इसी में आता है ये पर्व महालया......पूर्वज कहाँ रहते है ?......,कहाँ से आते हैं ? ,वो ऊर्जा रूप में होते हैं या सूक्ष्म शरीर होते है ? ,ये सूक्ष्म शरीर क्या होता है ?......ये सब विषयों पे शास्त्रों में वृहद रूप से आलेख हैं .......और अब तो विज्ञान भी आत्मा को मानने की और अग्रसित है ...पर मेरा मानना तो है की कई बार तर्क और बुद्धि को परे रख के जो बुजुर्गों ने राह दिखाई है उस पे चलने में अंतर्मन उत्साहित होता है ......ये तर्क करने की जगह की पूर्वज कहाँ हैं ....कैसे ग्रहण करेंगे हमारी श्रधा --अंजली .....हम बस श्राद्ध पक्ष को मनाएं ...पूर्वजों का आवाहन करें उन्हें तिलांजलि,जलांजलि समर्पित करें ....गाय,..कौवे ,चींटी ,श्वान को हो सके तो ब्राह्मण या ध्यान्तोंको जिमायें...सच में आनंद आयेगा ....यूँ लगता है की पितरों का आशीष मिल रहा है ....जीवन क्या है सोच ही तो है ....क्या पता इतने बड़े ब्रह्मांड में कोई दूसरा लोक हो .......और कुछ भी नहीं तो होली ,दीवाली भी तो मनाते हैं ..महालय भी उसी ख़ुशी और श्रधा से मनाएं ........सचमुच में ही घर महा -आलय बन जाता है ....यदि हमारे मन में श्रधा है अपने पूर्वजों के प्रति ...हम चाहते है उनका ऋण चुकाना ,उन्हें केवल जलांजलि की आवश्यकता है ..अधिक जो कुछ भी करना चाहें हमारी श्रधा और इच्छा .....धर्म तो अपनी निजी वस्तु है ,जीने का तरीका ,अपने को जानने की प्रक्रिया ...अनन्त के रहस्यों का और उस अज्ञेय को जानने का मार्ग .....मेरी नजरों में मेरा धर्म गीता है और रामायण है ....यदि इन दो ग्रंथों में ही डुबकी लगायें ,तो उसकी सुरभि से हम महकने लगते हैं ........
कुछ लोगों का ये भी कहना होता है की जीतेजी तो माता पिता को पूछा नहीं ,तो मरने पे ये दिखावा क्यूँ ....तो उसपे पहले तो शास्त्रों में यदि लिखा है ,तो श्राद्ध करे अवश्य ...क्या पता गुनाह माफ़ ही हो जाय ,कोई आडम्बर नहीं ,कोई दिखावा नहीं ,केवल ...ॐ आग्छ्न्तु में पितर इमं गृहणन्तु जलांजलिम ......कहके जल तिल ,मधु ,दुग्ध किसी से भी तर्पण करिए ..जो उपलब्ध हो ....जिन माता पिता को जीते जी नहीं पूछा वो बेचारे क्या मरने के बाद भी हमारी श्रधा के हकदार नहीं हैं ........और दूसरे यह की श्राद्ध पक्ष पे पूर्वज हमारे घर आते हैं ,ये सोच और ये मान्यता जीवित पितरों को भी सम्मान देने में सहायक हो सकती है ....भय और डर ....के मनोविज्ञान को हमारे ऋषियों ने बहुत पहले समझ लिया था ......और इसी के कारण वृक्ष ,जल जंगल ,प्रकृति गाय आदि आदि इतनी सदियों तक संरक्षित रह सके ........माता पिता को न पूछने वाली संतान रौरव नर्क में जाती है ...ये डर तो होना ही चाहिए ....चाहे धर्म के नाम पे हो ,,अंध विश्वास के नाम पे हो ...या पोंगापंथी ही कहे जाएँ ....जो भी हो महालय मनाये ...कोई तर्क नहीं ,,,बस विश्वास ,,,,
आभा ,
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