Saturday, 12 October 2013

*आज राम ने रावण मारा तभी दशहरा आया प्यारा*
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     विजयादशमी मेला ,विजय पर्व |देवी द्वारा  दस भयंकर दैत्यों यथा -मधु-कैटभ ,महिषासुर ,चंड -मुंड ,रक्तबीज ,धूम्रलोचन ,चिक्षुर,और शुम्भ -निशुम्भ के साथ अन्य सैकड़ों असुरो से  धरा को भय मुक्त करने के उपलक्ष में देवी के विजय स्तवन का पर्व | मर्यादा पुरुषोतम श्री राम की दशानन रावण पे विजय , असुरों का संहार ,सीता -राम का मिलन , और वनवास की अवधि समाप्त होने पे राजा राम के राज्याभिषेक की तैयारियों के लिए व्यस्त होने का  पर्व |.हवाओं में उत्साह तिर रहा है  |ऊर्जा का अजस्त्र प्रवाह बह रहा है जगह -जगह |एक पखवाड़े से  कई स्थानों पे मंचित होने वाली  रामलीलाओं के समापन का पर्व भी है दशहरा | रामलीलायें जो हमारी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक चेतना का प्रतीक हैं  और सदियों से हमारी पीढ़ियों  को रामचरित की भक्ति गंगा में अवगाहन करवा रही हैं |
   यह जग विदित है  की रावण परम शिव-भक्त ,महा तपस्वी ,तन्त्र -मन्त्र का ज्ञाता था  | मानस में  बालकाण्ड से ही राम के साथ -साथ रावण का भी नाम आ जाता है -
''-द्वार पाल हरी के प्रिय दोउ ,जय अरु विजय जान सब कोऊ''
इन दोनों को ही सनकादिक मुनि के शाप के कारण तीन कल्पों में राक्षस बनना पड़ा और हर कल्प में प्रभु ने इनका उद्धार करने को अवतार लिया |  रावण और कुम्भकर्ण के रूप में इन्होने त्रेता युग में जन्म लिया | सीता साक्षात् श्रीजी हैं जिन्हें रावणसंहिता में उसने अपनी ईष्टदेवी बताया है | पर राक्षसी बुद्धि के कारण प्रभु से बैर लेना पड़ा -अरन्यकांड  में इसका प्रमाण मिलता है जब खर -दूषणके मरण पे रावण सोच रहा है -
   खर दूषण मोहि सम बलवन्ता | तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता ||
    सुर रंजन भंजन महि भारा | जौ भगवंत लीन्ह अवतारा ||
   तौं मैं जाई बैरु हठी करऊं | प्रभु सर  बान तजें भव तरहूँ ||
  होइहिं भजन न तामस देहा |मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा ||
         सो स्पष्ट है की अपने और अपनी राक्षस जाति के उद्धार हेतु ही रावण ने प्रभु से बैर लिया | और सबसे निकृष्ट कोटि का कार्य किया जिसकी सजा मृत्यु ही थी  | रावण के हृदय में श्रीजी का वास है ये लंका कांड के इस दोहे से प्रमाण होता है -
 कह त्रिजटा सुनु राजकुमारी |उर सर लागत मरही सुरारी ||
 प्रभु तातें उर हतइ न तेही|एहि के हृदय बसत वैदेही  ||
क्या कोई व्यभिचारी किसी स्त्री को इस तरह हृदय में धारण कर सकता है कि अपनी मृत्यु  को सामने देख भी  उसके ध्यान से विचलित न हो ,कदापि नहीं | सो रामायण में तुलसी ने इस बात का सत्यापन किया है कि सीताहरण में  रावण का   हेतु  अपने और अपनी जाति के उद्धार का था  | रामचन्द्रजी ने भी सभी राक्षसों को मुक्ति दी और परमपद दिया वो पद जो देवताओं को भी दुर्लभ है | इसका भी प्रमाण गोस्वामीजी देते हैं लंकाकांड में --युद्ध समाप्ति के पश्चात जब इंद्र प्रभु से प्रार्थना कर रहा है की उसे भी कोई काम दें तो प्रभु कहते हैं की सब वानर, रीछ और  सेना के लोगों पर अमृत वर्षा करो क्यूंकि उन्होंने मेरे हेतु प्राण त्यागे हैं  राक्षसों को मैंने अपनी शरण में लेलिया है और मोक्षदे दिया है-
सुधा वृष्टि भै दुहु दल ऊपर |जिए भालू कपि नहीं रजनीचर | |
रामाकार भये तिन्ह के मन | मुक्त भये छूटे भव बंधन ||
      आज हम रावण का पुतला जला के खुश होलेते हैं की हमने बुराई पे विजय प्राप्त करली |
 पहले  रावण मरण के साथ -साथ  रामलीला  का समापन मंच पे ही हो जाता था और दूसरे दिन राज्याभिषेक हो जाता था | पर अब रावण का पुतला किसी बड़े मैदान में फूंका जाता है | बड़ी -बड़ी शख्शियत ,नेता और उद्योगपतियों के हाथों से करवाया जाता है शर संधान ,बड़े गर्व के साथ अग्निबाण छोड़े जाते हैं भ्रष्टाचारी ,चोर लुटेरों ,बहुरूपियों और दुराचारियों द्वारा    बुराई के मर जाने  का उद्घोष होता है | जाहिर है उपभोगतावाद और बाजारवाद हावी हो गया है पर्व में | और ये अपना रूतबा दिखने का भी जरिया बन गया है |जो कलाकार पूरी रामलीला में राम के चरित को साकार करता हुआ लोगों को रोने हंसने और आनन्दित करने का कार्य  करता है ,उससे पुतला दहन न करवाके समिति वाले किसी पैसे,पद और प्रतिष्ठा वाले से शर संधान करवाते हैं ताकि अगले साल भी समिति के लिए ,जगह और धन का जुगाड़ हो जाए ,''सर्वे गुणाकांचनमाश्रीयंति ''
     अब समय आ गया है ये सोचने का कि  रावण के पुतले को जलानेका अधिकार  है क्या हमको ? पद प्रतिष्ठा और पैसे के बल पे क्या हम राम बन गये? क्यूंकि रावण जैसे  शिवभक्त ,परमज्ञानी और अपनी मृत्यु के हेतु परम दुराचारी का कुकृत्य करने वाले को तो  कोई राम ही मार सकता है | और अब तो   रावण  की राक्षसी प्रवृतियों वाले ही लोग हैं चहुँ ओर तो फिर रावण ही रावण को मार रहा है | साल दर साल हम पुतला दहन करते हैं और समाज में भ्रष्टाचार रूपी दानव अपने पाँव फैलाता ही जा रहा है |  एक और सोचने की बात है -रावण राक्षस अवश्य था पर ब्राह्मण कुल का था ,सो राम ने भी ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त होने को अग्नि होत्र किया था जबकि हम लोग हर वर्ष ये पाप देश के ऊपर चढ़ा देते हैं और देश को सूतक में छोड़ देते हैं |
  दशहरे के त्यौहार को हम हर्ष उल्लास के साथ मनाएं | पूजा करें झांकियां निकालें ,आतिश बजी करें ,मेले लगायें पर पुतला दहन न करें | आज राम तो कोई हो ही नहीं सकता है ,रावण बनना भी संभव नहीं है |  बस राम चरित को समझने और आत्मसाध करने का प्रयत्न करें |  भरत से भाई बनने की कोशिश करे | लक्ष्मण से सेवक बनें और शत्रुघ्न से आज्ञाकारी बनें | रामलीला के हरेक पात्र को समझें |'' होगा वही जो राम रचि राखा | को करी तर्क बढ़ा वहीं साखा'' से मतलब कर्महीन होने का न  लगायें  वरन  उसे ''कर्मण्ये वाधिकारस्ते माँ फलेषुकदाचिन ''के अर्थ में ले के   सुफल के लिए कर्म करें पर फल ईश्वर आधीन है ये मान के चिंता न करें |अस्तेय-अपरिग्रह को अपनाएँ तभी सच्चे अर्थों में दशहरा होगा ,खुशियाँ आयेंगी दीपावली के रूप में ....आप सब को दशहरे ,विजयादशमी की शुभकामनायें 'देश समृद्ध हो भ्रष्टाचार,दुराचार ,झूठ फरेब ,और भय मुक्त होकर  मेरा देशरामराज्य की ओर  अग्रसित हो यही माँ दुर्गा और सीता-रामजी से प्रार्थना है ---------------आभा ------  

Wednesday, 9 October 2013

       [  उप मा पेपि शत्तम: कृष्णं व्यक्तमस्थित |उषऋणऐव् यातय || ]
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खुली आँखों से वो सच ही होती है |इस जन्म में नहीं तो पूर्व जन्म में
तो घटी ही होगी -------------------
     मौन काली घनी निशा अमावस की | नींद तो आनी  ही न थी | आज पित्रि विसर्जन था और अजय का श्राद्ध भी था  | जो आपके जीवन का संबल हो वो इस संसार रूपी समुद्र मेंबीच में ही  आपको छोड़ कर चला जाए अचानक ,जबकि आपको तैरना भी न आता हो, उसे हम  अपने ही भीतर रख लेते हैं संजोके हर पल बतियाते हुए; उससे जीने की प्रेरणा लेते हैं |यही हाल हमारे परिवार का  भी है पर श्राद्ध-कर्म कठिन होता है और वो भी ख़ुशी-ख़ुशी सम्पन्न करना होता है |मन अशांत था |कई बार" या देवी सर्वभूतेषु निद्रा रूपेण संस्थिता " दोहराने पे भी जब निद्रा देवी के दर्शन नहीं हुए तो सोचा कुछ लिख ही लूँ  पर, लिखना भी एक बीमारी है, एक  वाइरल फीवर की तरह  |एक ऐसा वायरस जो आपके भीतर ही है और वक्त -बेवक्त आपको संक्रमित करता रहता है  और  बीमारी के लिए तापमान का बढ़ना भी तो आवश्यक है पर आज तो तापमान ९७ से भी नीचे था तो भई साधारण तापवाला क्या खा के लिखेगा | शिथिल तन ,विचार शून्य मन | मैं बाहर  आ गई | अमावस की घनी, अंधियारी ,शांत .मौन निशा अपने यौवन के उत्कर्ष पे थी | मखमली अँधेरा और मंद पवन ,धीरे-धीरे ये अंधकार मेरे भीतर उतरने लगा |परत दर परत मन में चढ़ते रेशमी अंधियारे ने कुछ ही देर में मुझे अपने आगोश में ले लिया |निशा सुन्दरी अपनी सम्पूर्ण कलाओं के साथ आँखों में समा  चुकी थी और शनै:-शनै: चक्षु अँधेरे में देखने के अभ्यस्त होने लगे |मौन -मौन गहनतम मौन !रेशमी कोमलता ,अधियारे में उजागर होते अतीत के इन्द्रधनुषी रंग,ठाठें मारता नीरवता का समुद्र ,लहर दर लहर बनता -टूटता अतीत , विस्मृति और ख़ामोशी के जंगल में उलझी मैं   |ये भी क्या उस बाजीगर की कोई बाजीगरी ही है ?मन का पिंजरा खुला , और पंछी कल्पना के पंखों पे सवार हो गया -----किसी ने हौले से छुआ ,ममता भरीप्यारी सी छुवन ; अरे ये तो माँ है ! माँ दुर्गे !तू यहाँ !मैं कैसे भूल गयी कि कल से नवरात्र प्रारम्भ  हैं | माँ ने गले लगाया |अभी ही मैं ये सोच रही थी कि कहीं माँ मिल जाए तो शिकायत करूँ ,अपने दुःख का कारण पूछूं ,पूछूं की माँ क्यूँ न हुई मैं तेरी लाडली .क्यूँ -क्यूँ ?ये दारुण दुःख, मुझे और मेरे परिवार को और मैं देख के माँ को; सब भूल गई ,कोई शिकायत कोई शिकवा कुछ नहीं बस स्तुति में हाथ जुड़ गए -------                                             -ॐ विश्र्वेश्र्वरीं जगद्धात्रीं   स्थितिसंहारकारिणीम|
निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजस: प्रभु: ||
     हडबडाहट में माँ से बोली माँ बैठो ! आसन ग्रहण करो| माँ अपने नौ रूपों सहित पधारी थीं |मुझे कुछ न सूझातो चाय बना लायी मारी के डाईट बिस्किट के साथ (अब आज कल कहीं जाओ तो ये मैन्यू स्टैट्स सिम्बल है ,और दिन भर अपने को ऊंचा दिखाने के चक्कर में हमारे रिफ्लैक्स में स्टेटस समागयाहै )माँ ने आश्चर्य से देखा तो मैं बोली माँ !अब इससे अधिक तो मैं मानसपूजा ही कर पाऊँगी |ये ठीक है कि हम आज भी अतिथि देवो भव: की संस्कृति को ही संवर्धित कर रहेहैं पर आज साधारण मनुष्य की औकात ही ये है ,और एकबात किआज स्त्री खाना  तभी पकातीहै जब किसी टीवी चैनल पे कुकरी शो चल रहा हो ,अन्यथा तो घर -घर में खाना पकाने वालियां होती हैं , कामकाजी स्त्री की टी आर पी खाना पकाने से घटजो  जाती है |फिर हमारे देश की संस्कृति में असली अतिथी तो अब आतंकवादी और पडोसी राज्य के अध्यक्ष ही होते हैं | मेरी बेचारी माओं ने किसी तरह से चाय बिस्किट (वो जो मैं भी कभी न खा पाती  हूँ )चखे और धरती भ्रमण  की इच्छा प्रकट की |
   हम निकले दिल्ली की सड़कों पे |सामने ही एकबड़ा सा नाला था |कुछ मजदूर और निम्न -मध्यम वर्ग की औरतें और बच्चे ,कोल्ड -ड्रिंक की बोतलों के साथ चहल-कदमी करते हुए दिखाई दिए |कुछ रात्रि सेवा वाले टैक्सी और टेम्पो वाले भी आ -जा रहे थे|देवी ने प्रश्नवाचक निगाहों से देखा तो मैंने  समझाया -ये सब वो स्त्रियाँ हैं जिनकी दुनिया एक कमरे का ईंटों का ढांचा है जहाँ ये खाना, सोना, रहना सब करती हैं ,पाखाना इनके लिए सुविधाओं में आता है और दिन भर हाड़तोड़ मेहनत करने वालियों के भाग्य में ये सुविधा नहीं है | इसलिए लोकलाज के भय से ये इस वक्त हाजत को जाती  हैं पर  इस समय पे भी इन  टैक्सी ,टेम्पो वालों का डर रहता है |अपनी जाति की ऐसी दुर्दशा देख देवी द्रवीभूत हो गयी | हम आगे चले |सुकून की बात ये थी की घना अँधियारा होने की वजह से मार्ग के दोनों ओर की गंदगी नजर नहीं आ रही थी पर हवा के झोंकों के साथ आ रही गंध देवियों को परेशान कर रही थी ,फुट -पाथपे सोते परिवार उनके साथ पड़े श्वान और गायें देख के देवी को बहुत दुःख हुआ |आगे चले तो पुलिस चेक पोस्ट पे दो पुलिसवाले बैठे थे |नौ देवियों के तेज से भ्रमित होकर दोनों ने जोर दार सैल्यूट ठोका |माँ ने आशीर्वाद दिया और हम आगे बढ़े पर अचानक दोनों सिपाहियों को ख्याल आया की ये तो लाल बत्ती वाली गाडी में सवार नहीं थीं ,साधारण स्त्रियाँ ही है ,बेफिजूल सैल्यूट खराब कर दिया वो जोर से रौब ग़ालिब करते हुए बोले -'इत्ती रात में पेदल घुमणकी क्या सूझी ' माँ बोली -वत्स नवरात्रों में पृथ्वी भ्रमण को आयी हूँ ,ताकि भक्तों की आवश्यकता के अनुसार वर दे सकूँ ! दोनों ने हैरत से हमें देखा और बोले चलो थानेचलो हम 'रिक्स 'नी ले सकते ,माँ बेचारी भोली -भाली उन्हें क्या खबर थाना क्या होता है, हो गयीं चलने को तैयार ,अब मेरे पास कैश भी नहीं था जो पीछा छुड़ालेते ,माँ को इशारों में समझाया और गायब होने को कहा ,फिर तो हम ये जा और वो जा ,मैं देवी को अपने ही घर ले आयी|चाह तो रही थी की संसार की दुर्दशा माँ अपनी  आँखों से देखे पर जगह -जगह रुकावटें थीं |सो मैंने ही माँ को बताना शुरू किया |ॐ नमश्चचण्डिकायै..सुनो माँ! अब तेरी भारत भूमि बदल गयी है ;यहाँ स्त्री दोयम दर्जे की नागरिक है ; पैदा होना ही उसका मुश्किल है कोख में ही मार दी जातीहै ,तरह तरह से कन्या भ्रूण ह्त्या को अंजाम दिया जाता है , और पैदा हो गयी तो घर बाहरकहीं भी सुरक्षित नहीं हैं बचपन से बुढ़ापे तक समाज में छिपे कुछ नर पिशाच उसे नोचने को तैयार बैठे रहते हैं ,शादी में दहेज़ भी गुण भी ,और नौकरी भी तीनों चाहियें ,घर परिवार दोनों को संभालती स्त्री को हर तरह से प्रताड़ना मिलती है | पति नाम का प्राणी जब दुल्हन को घर ले के जाता है तो पहले ही दिन जता देता है कि मैं तुझे रहने को छत दे रहा हूँ और इसके लिए मुझे बहुत से एडजस्टमेंट करने होंगे सो जो मैं कहूंगा वही करना ,जिस लड़की ने सर झुका के मान लिया तो ठीक अन्यथा तलाक,एक ऐसा शब्द जो हमारी सनातन संस्कृति में है ही नहीं ,कार्यालयों में स्त्रियों के साथ दोयम दर्जे का सुलूक ,राजनीती में शोषण ,और अब नवरात्रों में बड़े -बड़े पंडालों में तेरी पूजा अर्चना |कन्या पूजा ,कंजक जीमना .जो समाज कन्या धन का संवर्धन और मान नहीं कर पा रहा है वो  हलवा पूरी खा के अघा चुकी कन्याओं को रोज जिमा रहा है ,हे प्रात: स्मरणीय माँ तू इस जगती में आयी है  तू ही इस निशाचरी माया को समाप्त कर ,हे देवी -''त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं ही वषट्कार: स्वरात्मिका |यया त्वया जगत्स्त्रष्टा ज्गत्पात्यत्ति यो जगत | सोपि निद्रा वशं नीत:''  .तुमने तो भगवानविष्णु को भी निद्रा के वश में करदिया है तुम से ही जगत है , महालक्ष्मी तुम ही  तमस में अपनी कुक्षी में सृष्टि को पालती हो !आज क्यूँ मौन हो! तुम्हारी स्तुति कौन कर सकता है! तुम तो स्वयं ही स्तुति हो ! हे माँ'' यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता ''वाले इस देश में  स्त्री जाति का ये अपमान क्यूँ ?स्त्री जाति को शक्ति दे माँ ,हम तेरी ही संताने है ,पर अब नारी भी उच्चश्रिंखल होने लगी है |सदियों से गुलामी सहते सहते वो भी राह भटक रही है और अपना और नुकसान कर रही है ,,तू सबको राह दिखा माँ ,हमारे देश में  स्त्री पुरुष ,भाई बहिन ,सब बराबर का मान पाए और मिलके समाज की उन्नति की सोचें , कोई ऐसी जुगत भिडा मेरी माँ !और एक बात जो मैं तुझसे पूछना चाहती हूँ  तू तो सब जानती है  ,फिर ये सब तुझ से क्यूँ छिपा है ?   जो उत्तर माँ ने दिया वो मुझे संतुष्ट कर गया और मेरी शिकायतें भी मिट गयीं |माँ बोली !जब तुम ब्याह के ससुराल आयी तो माँ को  अपने दुःख दर्द तो नहीं बतातीं थीं न |.यूँ ही दिखाती थीं किबहुत खुश हो और वो भी निश्चिंत हो जाती थी तुम्हारी ओर से |बस यही समझलो, मैं भी दूसरी दुनिया में उलझी हुई थी, अब आयी हूँ यहाँ तो सब ठीक करके ही जाऊँगी |माँ का आश्वासन पा के मुझे भी चैन मिला |सोचा माँ को तस्वीर तो दिखा ही दी है सो अब कुछ पकवान बना के खिलाये जाएँ और लाड किया जाए फिर तो  उषा आने तक  आरती गाई मधुर व्यंजन बना के प्रसाद चढ़ाया  और माँ का स्तवन किया -
  देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या
निश्शेषदेवगणशक्तिसमूहमूर्त्या
ताम्बिकामखिदेवमहर्षिपूज्यां
भक्त्या नता: स्म विदधातु शुभानि सा न:||
  माँ आशीष दे के और फिर आने का वादा करके अंतर्ध्यान हो गयीं |फिर वही रेशमी अँधेरा ,गहनतम मौन और अमावस की रात्रि की नीरवता पर अब नींद  की चाहत न थी | गीता का श्लोक याद आ गया -
देहिनोsस्मिन्यथा देहे कौमारं  यौवनं जरा |
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धिरस्तत्र  न मुह्यति ||
 माँ का साथ और कृष्णा का सन्देश मैं फिर से जगत में आ गयी और
जुट गयी जीवन रूपी यज्ञं में बिना किसी हानि  लाभ की चिंता के -------
सुखदु;खे समे कृत्वा  लाभा लाभौजयाजयौ|
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसी ||................आभा ------------





     
 







 


Saturday, 5 October 2013

तव च का किल न स्तुतिरम्बिके !
सकलशब्दमयी किल ते तनु: |
निखिलमुर्तिषु में भवद्न्वयो
मनसिजासु बहि:प्रसरासु च ||
इति विचिन्त्य शिवे !शमिता शिवे !
जगति जातमयत्नवसादिदम |
स्तुतिजपार्चनचिन्तन वर्जिता
न खलु काचन कालकलास्ती  में ||
 हे माँ !ये सारा संसार तेरा ही रूप है ,कण-कण में तू व्याप्त है ,जहाँ दृष्टि जाती है तेरा ही प्रकाश दृष्टिगोचर है ,वाणी में तू .चित्त मे तू ,मेरा रोम -रोम तेरी ही पूजा अर्चना हो ,मेरा प्रत्येक कार्य तुझे ही समर्पित होवे ............................................................
नवरात्रि ! माँ दुर्गा के नौ रूपों का स्मरण पूजन और चिन्तन . प्रकृति में ऊर्जा का प्रवाह .रामलीला का मंचन .व्रत, कथा,साक्षात् श्रधा की गंगा यमुना ही बहने लगती है ..........दुर्गा पूजन में माँ के नौ रूपों के साथ -साथ - यव बोनेका और यावान्कुर को पूजने का विधान है . ये यावंकुर चेतना के प्रतीक स्वरुप पूजे जाते हैं ,दानों को ताजा मिट्टी के बर्तनों में बोया जाता है ,वर्षा ऋतू के बाद कुम्हार की पहली बोनी -माँ को समर्पित .प्रथम नवरात्र को ही इन्हें बोया जाता है और तीसरे दिन यवान्कुरके दर्शन हो जाने चाहिये.पुराने ज़माने में वर्षा ऋतू समाप्त होने पे  लोग व्यापार के लिए प्रदेश को  निकलते थे . तो इन यवान्कुरों की बढ़ोतरी  व् प्रफुल्लता पर कार्य सिद्धि की परीक्षा होती थी .और सुरक्षा, सुधार और उपचार   के कदम भी उठाये जाते थे ,-------------
----''-अवृष्टिमकुरुते कृष्ण ,धूम्रामंकलहंतथा'' ,अर्थात काले अंकुर उगने पे उस वर्ष अनावृष्टि ,निर्धनता ;;धुएंके वर्ण वाले होने पे परिवार में कलह  ;न उगने पे जन नाश  मृत्यु ,कार्य -बाधा ;नीले रंग के होने पे दुर्भिक्ष और अकाल; .रक्त वर्णके होने पे रोग ,व्याधि ,शत्रु -भय ; हरे रंग की दुर्बा पुष्टि -वर्धक तथा लाभ-प्रद मानी जाती है ,;आधी हरी व् पीली दुर्बा होने पे पहले कार्य होगा पर बाद में हानि होगी ;श्वेत दुर्बा अत्यंत शुभ -फलदायक और शीघ्र लाभ का प्रतीक है .श्वेत दुर्बा पे कई तांत्रिक प्रयोग भी किये जाते हैं ;   इस तरह से इन यावान्कुरों को आने वाले दिनों के शुभाशुभ का पंचांग माना जाता था और उसी के अनुसार उपक्रम किये जाते थे . तब से अब तक  ये रीति यूँ ही चली आ रही है . घर -घर में जौ बोये जाते हैं , हरियाली प्रसन्नता और सृजन का सबब होती है,हम बचपन में  रामलीला के अंतिम दिन रामदरबार में सभी के लिए हरियाली की माला बना के ले जाते थे , राम लक्ष्मण को माला  पहनाने की ख़ुशी आज भी बयां नहीं की जा सकती है . .माँ सब का कल्याण करें .सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह हो और कन्या धन का संवर्धन और संरक्षण हो यही हमारा व्रत होना चाहिए ,.स्नेह और प्यार की प्रतिमा बन जाएँ हम यही हमारा व्रत होना चाहिए ,कर्मनिष्ठ ,अनुशासित जीवन जीयें , दृढ -व्रती ,त्यागी, परोपकारी, आस्थावान ,और चरित्रवान बने यही हो हमारा व्रत;
 आपत्सु मग्न: स्मरणं त्वदीयं करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि |
नैतच्छठत्वं मम भावयेथा: क्षुधात्रिषार्ता जननीं स्मरन्ति||
....................................................................................
मत्सम: पातकी नास्ति पापाघ्नी त्वत्समा न हि|
एवं ज्ञात्वा महादेवि यथायोग्यं तथा कुरू ||
    पहले कभी माँ का स्मरण न किया हो ,उसकी स्तुति न की हो ,शठता का स्वभाव हो तो भी माँ की शरण में आने पे माँ स्वाभाव वश ही  बालक को क्षमा करदेती है .
  नवरात्रि का मूलमंत्र जब जागो तभी सवेरा .आओ माँ की शरणागती होओं. मंगल ही होगा .माँ दुर्गा सब की पीर हरें .सबपे कृपा करें ,देश और देश वासियों का कल्याण हो .सभीको नवरात्री की शुभकामनाएं ,---------------------------आभा