Wednesday, 9 October 2013

       [  उप मा पेपि शत्तम: कृष्णं व्यक्तमस्थित |उषऋणऐव् यातय || ]
  *************************************************एक सच्ची घटना जो मेरे साथ घटी |घटना जिसको हम कल्पना में देखते हैं
खुली आँखों से वो सच ही होती है |इस जन्म में नहीं तो पूर्व जन्म में
तो घटी ही होगी -------------------
     मौन काली घनी निशा अमावस की | नींद तो आनी  ही न थी | आज पित्रि विसर्जन था और अजय का श्राद्ध भी था  | जो आपके जीवन का संबल हो वो इस संसार रूपी समुद्र मेंबीच में ही  आपको छोड़ कर चला जाए अचानक ,जबकि आपको तैरना भी न आता हो, उसे हम  अपने ही भीतर रख लेते हैं संजोके हर पल बतियाते हुए; उससे जीने की प्रेरणा लेते हैं |यही हाल हमारे परिवार का  भी है पर श्राद्ध-कर्म कठिन होता है और वो भी ख़ुशी-ख़ुशी सम्पन्न करना होता है |मन अशांत था |कई बार" या देवी सर्वभूतेषु निद्रा रूपेण संस्थिता " दोहराने पे भी जब निद्रा देवी के दर्शन नहीं हुए तो सोचा कुछ लिख ही लूँ  पर, लिखना भी एक बीमारी है, एक  वाइरल फीवर की तरह  |एक ऐसा वायरस जो आपके भीतर ही है और वक्त -बेवक्त आपको संक्रमित करता रहता है  और  बीमारी के लिए तापमान का बढ़ना भी तो आवश्यक है पर आज तो तापमान ९७ से भी नीचे था तो भई साधारण तापवाला क्या खा के लिखेगा | शिथिल तन ,विचार शून्य मन | मैं बाहर  आ गई | अमावस की घनी, अंधियारी ,शांत .मौन निशा अपने यौवन के उत्कर्ष पे थी | मखमली अँधेरा और मंद पवन ,धीरे-धीरे ये अंधकार मेरे भीतर उतरने लगा |परत दर परत मन में चढ़ते रेशमी अंधियारे ने कुछ ही देर में मुझे अपने आगोश में ले लिया |निशा सुन्दरी अपनी सम्पूर्ण कलाओं के साथ आँखों में समा  चुकी थी और शनै:-शनै: चक्षु अँधेरे में देखने के अभ्यस्त होने लगे |मौन -मौन गहनतम मौन !रेशमी कोमलता ,अधियारे में उजागर होते अतीत के इन्द्रधनुषी रंग,ठाठें मारता नीरवता का समुद्र ,लहर दर लहर बनता -टूटता अतीत , विस्मृति और ख़ामोशी के जंगल में उलझी मैं   |ये भी क्या उस बाजीगर की कोई बाजीगरी ही है ?मन का पिंजरा खुला , और पंछी कल्पना के पंखों पे सवार हो गया -----किसी ने हौले से छुआ ,ममता भरीप्यारी सी छुवन ; अरे ये तो माँ है ! माँ दुर्गे !तू यहाँ !मैं कैसे भूल गयी कि कल से नवरात्र प्रारम्भ  हैं | माँ ने गले लगाया |अभी ही मैं ये सोच रही थी कि कहीं माँ मिल जाए तो शिकायत करूँ ,अपने दुःख का कारण पूछूं ,पूछूं की माँ क्यूँ न हुई मैं तेरी लाडली .क्यूँ -क्यूँ ?ये दारुण दुःख, मुझे और मेरे परिवार को और मैं देख के माँ को; सब भूल गई ,कोई शिकायत कोई शिकवा कुछ नहीं बस स्तुति में हाथ जुड़ गए -------                                             -ॐ विश्र्वेश्र्वरीं जगद्धात्रीं   स्थितिसंहारकारिणीम|
निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजस: प्रभु: ||
     हडबडाहट में माँ से बोली माँ बैठो ! आसन ग्रहण करो| माँ अपने नौ रूपों सहित पधारी थीं |मुझे कुछ न सूझातो चाय बना लायी मारी के डाईट बिस्किट के साथ (अब आज कल कहीं जाओ तो ये मैन्यू स्टैट्स सिम्बल है ,और दिन भर अपने को ऊंचा दिखाने के चक्कर में हमारे रिफ्लैक्स में स्टेटस समागयाहै )माँ ने आश्चर्य से देखा तो मैं बोली माँ !अब इससे अधिक तो मैं मानसपूजा ही कर पाऊँगी |ये ठीक है कि हम आज भी अतिथि देवो भव: की संस्कृति को ही संवर्धित कर रहेहैं पर आज साधारण मनुष्य की औकात ही ये है ,और एकबात किआज स्त्री खाना  तभी पकातीहै जब किसी टीवी चैनल पे कुकरी शो चल रहा हो ,अन्यथा तो घर -घर में खाना पकाने वालियां होती हैं , कामकाजी स्त्री की टी आर पी खाना पकाने से घटजो  जाती है |फिर हमारे देश की संस्कृति में असली अतिथी तो अब आतंकवादी और पडोसी राज्य के अध्यक्ष ही होते हैं | मेरी बेचारी माओं ने किसी तरह से चाय बिस्किट (वो जो मैं भी कभी न खा पाती  हूँ )चखे और धरती भ्रमण  की इच्छा प्रकट की |
   हम निकले दिल्ली की सड़कों पे |सामने ही एकबड़ा सा नाला था |कुछ मजदूर और निम्न -मध्यम वर्ग की औरतें और बच्चे ,कोल्ड -ड्रिंक की बोतलों के साथ चहल-कदमी करते हुए दिखाई दिए |कुछ रात्रि सेवा वाले टैक्सी और टेम्पो वाले भी आ -जा रहे थे|देवी ने प्रश्नवाचक निगाहों से देखा तो मैंने  समझाया -ये सब वो स्त्रियाँ हैं जिनकी दुनिया एक कमरे का ईंटों का ढांचा है जहाँ ये खाना, सोना, रहना सब करती हैं ,पाखाना इनके लिए सुविधाओं में आता है और दिन भर हाड़तोड़ मेहनत करने वालियों के भाग्य में ये सुविधा नहीं है | इसलिए लोकलाज के भय से ये इस वक्त हाजत को जाती  हैं पर  इस समय पे भी इन  टैक्सी ,टेम्पो वालों का डर रहता है |अपनी जाति की ऐसी दुर्दशा देख देवी द्रवीभूत हो गयी | हम आगे चले |सुकून की बात ये थी की घना अँधियारा होने की वजह से मार्ग के दोनों ओर की गंदगी नजर नहीं आ रही थी पर हवा के झोंकों के साथ आ रही गंध देवियों को परेशान कर रही थी ,फुट -पाथपे सोते परिवार उनके साथ पड़े श्वान और गायें देख के देवी को बहुत दुःख हुआ |आगे चले तो पुलिस चेक पोस्ट पे दो पुलिसवाले बैठे थे |नौ देवियों के तेज से भ्रमित होकर दोनों ने जोर दार सैल्यूट ठोका |माँ ने आशीर्वाद दिया और हम आगे बढ़े पर अचानक दोनों सिपाहियों को ख्याल आया की ये तो लाल बत्ती वाली गाडी में सवार नहीं थीं ,साधारण स्त्रियाँ ही है ,बेफिजूल सैल्यूट खराब कर दिया वो जोर से रौब ग़ालिब करते हुए बोले -'इत्ती रात में पेदल घुमणकी क्या सूझी ' माँ बोली -वत्स नवरात्रों में पृथ्वी भ्रमण को आयी हूँ ,ताकि भक्तों की आवश्यकता के अनुसार वर दे सकूँ ! दोनों ने हैरत से हमें देखा और बोले चलो थानेचलो हम 'रिक्स 'नी ले सकते ,माँ बेचारी भोली -भाली उन्हें क्या खबर थाना क्या होता है, हो गयीं चलने को तैयार ,अब मेरे पास कैश भी नहीं था जो पीछा छुड़ालेते ,माँ को इशारों में समझाया और गायब होने को कहा ,फिर तो हम ये जा और वो जा ,मैं देवी को अपने ही घर ले आयी|चाह तो रही थी की संसार की दुर्दशा माँ अपनी  आँखों से देखे पर जगह -जगह रुकावटें थीं |सो मैंने ही माँ को बताना शुरू किया |ॐ नमश्चचण्डिकायै..सुनो माँ! अब तेरी भारत भूमि बदल गयी है ;यहाँ स्त्री दोयम दर्जे की नागरिक है ; पैदा होना ही उसका मुश्किल है कोख में ही मार दी जातीहै ,तरह तरह से कन्या भ्रूण ह्त्या को अंजाम दिया जाता है , और पैदा हो गयी तो घर बाहरकहीं भी सुरक्षित नहीं हैं बचपन से बुढ़ापे तक समाज में छिपे कुछ नर पिशाच उसे नोचने को तैयार बैठे रहते हैं ,शादी में दहेज़ भी गुण भी ,और नौकरी भी तीनों चाहियें ,घर परिवार दोनों को संभालती स्त्री को हर तरह से प्रताड़ना मिलती है | पति नाम का प्राणी जब दुल्हन को घर ले के जाता है तो पहले ही दिन जता देता है कि मैं तुझे रहने को छत दे रहा हूँ और इसके लिए मुझे बहुत से एडजस्टमेंट करने होंगे सो जो मैं कहूंगा वही करना ,जिस लड़की ने सर झुका के मान लिया तो ठीक अन्यथा तलाक,एक ऐसा शब्द जो हमारी सनातन संस्कृति में है ही नहीं ,कार्यालयों में स्त्रियों के साथ दोयम दर्जे का सुलूक ,राजनीती में शोषण ,और अब नवरात्रों में बड़े -बड़े पंडालों में तेरी पूजा अर्चना |कन्या पूजा ,कंजक जीमना .जो समाज कन्या धन का संवर्धन और मान नहीं कर पा रहा है वो  हलवा पूरी खा के अघा चुकी कन्याओं को रोज जिमा रहा है ,हे प्रात: स्मरणीय माँ तू इस जगती में आयी है  तू ही इस निशाचरी माया को समाप्त कर ,हे देवी -''त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं ही वषट्कार: स्वरात्मिका |यया त्वया जगत्स्त्रष्टा ज्गत्पात्यत्ति यो जगत | सोपि निद्रा वशं नीत:''  .तुमने तो भगवानविष्णु को भी निद्रा के वश में करदिया है तुम से ही जगत है , महालक्ष्मी तुम ही  तमस में अपनी कुक्षी में सृष्टि को पालती हो !आज क्यूँ मौन हो! तुम्हारी स्तुति कौन कर सकता है! तुम तो स्वयं ही स्तुति हो ! हे माँ'' यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता ''वाले इस देश में  स्त्री जाति का ये अपमान क्यूँ ?स्त्री जाति को शक्ति दे माँ ,हम तेरी ही संताने है ,पर अब नारी भी उच्चश्रिंखल होने लगी है |सदियों से गुलामी सहते सहते वो भी राह भटक रही है और अपना और नुकसान कर रही है ,,तू सबको राह दिखा माँ ,हमारे देश में  स्त्री पुरुष ,भाई बहिन ,सब बराबर का मान पाए और मिलके समाज की उन्नति की सोचें , कोई ऐसी जुगत भिडा मेरी माँ !और एक बात जो मैं तुझसे पूछना चाहती हूँ  तू तो सब जानती है  ,फिर ये सब तुझ से क्यूँ छिपा है ?   जो उत्तर माँ ने दिया वो मुझे संतुष्ट कर गया और मेरी शिकायतें भी मिट गयीं |माँ बोली !जब तुम ब्याह के ससुराल आयी तो माँ को  अपने दुःख दर्द तो नहीं बतातीं थीं न |.यूँ ही दिखाती थीं किबहुत खुश हो और वो भी निश्चिंत हो जाती थी तुम्हारी ओर से |बस यही समझलो, मैं भी दूसरी दुनिया में उलझी हुई थी, अब आयी हूँ यहाँ तो सब ठीक करके ही जाऊँगी |माँ का आश्वासन पा के मुझे भी चैन मिला |सोचा माँ को तस्वीर तो दिखा ही दी है सो अब कुछ पकवान बना के खिलाये जाएँ और लाड किया जाए फिर तो  उषा आने तक  आरती गाई मधुर व्यंजन बना के प्रसाद चढ़ाया  और माँ का स्तवन किया -
  देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या
निश्शेषदेवगणशक्तिसमूहमूर्त्या
ताम्बिकामखिदेवमहर्षिपूज्यां
भक्त्या नता: स्म विदधातु शुभानि सा न:||
  माँ आशीष दे के और फिर आने का वादा करके अंतर्ध्यान हो गयीं |फिर वही रेशमी अँधेरा ,गहनतम मौन और अमावस की रात्रि की नीरवता पर अब नींद  की चाहत न थी | गीता का श्लोक याद आ गया -
देहिनोsस्मिन्यथा देहे कौमारं  यौवनं जरा |
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धिरस्तत्र  न मुह्यति ||
 माँ का साथ और कृष्णा का सन्देश मैं फिर से जगत में आ गयी और
जुट गयी जीवन रूपी यज्ञं में बिना किसी हानि  लाभ की चिंता के -------
सुखदु;खे समे कृत्वा  लाभा लाभौजयाजयौ|
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसी ||................आभा ------------





     
 







 


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