Wednesday, 29 April 2015

                     कलयुग
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 [ कहाँ का ईंट कहाँ का रोड़ा ,भानमती ने कुनबा जोड़ा --मस्तिष्क में चलती विचारों की आँधियों में धूल धक्क्ड़ जैसे विचारों को सहेजना --सही में भानमती का कुनबा ही बन जाता है ======================================================================
कलपुर्जों का युग ,तकनिकी का युग ,और तकनिकी में आविष्कारों और नवीनता का युग।  ये भी तो पहले से ही निश्चित था न-   एक ऐसा ही युग होगा जिसे कलयुग कहेंगे। ' गतानुगति को लोको ' जहां मानवीय संवेदनायें  भी कलपुर्जा ही बन जाएंगी। संस्कृति ,साहित्य -वही सब पुराना , लीक पे चलना।  मुट्ठी भर क्रांतिकारी , साहित्यकार --और आज तो वो भी तारा  बन के आकाशमंडल में जगमगा रहे हैं। कलयुग की एक रीती -बुद्धिजीवी वही ,जो नकारना और संदेह करना जानता हो बस यही मौलिक अन्यथा सब उधारी का पिछले युगों से।
आज गीता पे चर्चा -जी नहीं आज कान्हा का गायन -वो कन्हैया जो मक्खन से भी कोमल वज्र से भी कठोर है , जो कण -कण  में व्याप्त है ,विराट है पर सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है ----
  '' सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
    अहं त्वा  सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि माँ शुच।।---------की विराट एवं वातसल्य मयी  पुकार से -हमें कर्तव्य बोझ से मुक्त करने की चिंता में रहता है , माँ की तरह जैसे वह अपने बच्चे के कीचड़ में गिरने पे उसकी गंदगी साफ़ करने को आतुर रहती है वैसे ही कोमल मन कृष्णा शोक-संतप्त मानवता के लिए दिव्य-आह्वान करता है -'' माशुच '' का आह्वान--तू उतार फेंक आडंबर और आ मेरे पास।  आज इस कलयुग में ,हम उस गीता को  कान्हा की नहीं व्यासजी की रचना कहके --कान्हा के अस्तित्व को ही नकार देते हैं। जबकि गीता में ही विभूति योग में  कान्हा ने व्यास को अपना ही अवतार  बताया है ---''मुनिनामप्यहं व्यास:''  .
पर आज गीता का गायन नहीं बस कान्हा का गायन।
एक नटखट बंसी बजैया ,रास रचैया -जो गंवई गाँव में धमाल मचाता  है --सारा गांव माँ यशोदा और नंदबाबा के पास उलाहने लेके जाता है ,माखनचोर ,नटवरनागर ,गोपियों को सतानेवाला। मैं सोचने लगती हूँ --आज कोई  सोसाइटी का बच्चा रोज आये ,हमारे फ्रिज से चुराके खाये और अपने संगियों को भी खिलाये , राह चलती लड़कियों को छेड़े  तो उसके माता-पिता तो समाज में मुहं दिखाने के काबिल नहीं रहेंगे। बालक को भी बाल सुधार -गृह में डाल दिया जाएगा। और बाल -सुधार गृह में क्या होता है ये तो सर्व -विदित ही है क्यों लिया होगा कन्हैया ने कारगर में जन्म ? इसलिए कि  हमें संदेश दे ,  मानव वही  जो जन्म  से  क्रांतिकारी हो - तो तोड़ो सारे बंधन ,मुक्त होओ।
आज पनघट तो हैं नहीं ,न ही कुँए -बावड़ी -तालाब का जमाना है। हम विकसित समाज हैं ,बोतल बंद  या आर. ओ  का पानी पीते हैं खरीद के. न वो समाज, न उसकी मासूमियत।  मासूम तो खैर बचपन भी नहीं रहा।  कान्हा के साथ  कंदुक क्रीड़ा करने वाले बच्चों की  अब टीवी सोसियल मीडिया से भावनाएं कुत्सित और विकृत होती जा रही हैं। अब मधुर छेड़खानी और जीवंत चुहलबाजी का स्थान विकृत बलात्कारों ने ले लिया है।  आज कन्हैया की प्रासंगिकता और भी अधिक है --समाज उसी संवेदना ,मासूमियत और सहजावस्था को लौटना तो चाहता है पर परिस्थियाँ आड़े आती हैं।
आज सुबह से ही मेघ बरस रहा है  झमाझम ,ब्रह्म-मुहूर्त -हल्की सी ठंडक और मैं यहाँ  बालकॉनी  में खड़ी  कृष्ण -कृष्ण बोल रही हूँ --सोच रही हूँ कैसे एक नटखट ,बिगड़ैल ,गवँि  गाँव का बालक --जो कभी पूतना को मारता है ,कभी  वासुकि के फन पे नाचता है , इंद्र के प्रकोप से बचाते  हुए ,राधा -गोपियों से अठखेलियाँ  करते हुए ,समाज को जीवन का पाठ पढ़ा गया --गीता दे गया --युगों युगों के लिए।
देखती हूँ मेरी कल्पना साकार होने लगी --मेरे समक्ष कृष्णा ,अरे हाँ ! ये तो कन्हैया ही है -----वही रूप जो सदियों से मेरे मन में बसा है ,छोटा सा नटखट -हाथ में बंसी ,माथे पे मोर मुकुट, गले मैं वैजयंती माला।  मैं हतप्रभ क्या ये हेल्युसिनेशन है ,अभी दो दिन पहले ही तो सत्तावन वर्ष की हुई हूँ --हाँ बुढ़ापा भी आ ही गया है ---तभी कान्हा ने बंसी में टेर  लगाई मधुर संगीत     और बोला दादी --- मैं तो मीरा सी बावरी हुई ,पधारो म्हारे देश भी न बोल पायी ,बड़ी मुश्किल से भावनाओं को चाबुक लगाई ,और कान्हा को भीतर लायी --बलैयां ली निछावर किया मन प्राण ,लल्ला को दूध मलाई दिया ,मीठा परोसा  और पूछा --कान्हा तू  दोग्धागोपाल  ,मथुरा ,वृन्दावन ,बरसाने में उद्धम मचाता हुआ कैसे आने वाली सदियों के लिए गीता दे गया ,एक ऐसी विरासत ,जो हमारी  चेतना की अमूल्य थाती है ,हमारी सांस्कृतिक ,आध्यात्मिक विरासत है  --कैसे कैसे कान्हा ?
नटवर नागर ने स्मित  हास्य ,कुटिल दृष्टि और तंज से कहा --क्या दादी ; तू भी भावनाओं में ही जीती है ,बुद्धिजीवी तो है ही नहीं।  आज का बुद्धिजीवी वर्ग तो गीता को व्यास मुनि के द्वारा लिखी हुई मानता है ,मुझे तो  केवल एक पात्र बना के रख दिया है ,कुरुक्षेत्र के मंच का --जिसके मुहं से गीता बुलवाई गयी है। --पर चलो गीता तो है न --तू तो मानती है न गीता में मैं ही हूँ और तेरी तरह न जाने कितने  हैं जो मुझे मानते हैं ,प्यार करते हैं, गीता  मेरी वाणी है ऐसा मानते हैं। दादी मैंने भी तो सुख -दुःख दोनों झेले --चाहे राम रूप में ,चाहे श्याम रूप में ,या फिर शंकर बन के और साथ ही सीता ,राधा ,गौरी ने भी दुःख झेले। दादी अब जन्म लिया तो प्रारब्ध भी होगा ही न।   शायद गीता व्यास ऋषिवर की ही हो जाएगी  ,तेरा कान्हा गौण हो जाएगा।  तू तो जानती है न ये गतानुगति का लोक है ,यहां गीता समझने के लिए पहले दूसरों के अनुवादों और समालोचनाओं को पढ़ना आवश्यक सा है। जो विद्वानों ने प्रतिष्ठापित कर दिया वही सच ,ये तकनीकी का युग है न। यहाँ संस्कृत और साहित्य में अब कुछ भी नया नहीं है ,पर तू जो  है न दादी बस तू यूँ ही खुश रहा कर ,तेरे प्रिय जो तुझ से बिछड़ गए हैं मेरे पास हैं तू उनकी चिंता न करना  तुझे भी जल्दी ही अपने पास बुलाऊंगा। अब चलूँगा --उजेरा हो गया तो लोग मुझे बहुरूपिया समझ छेड़ेंगे। अंत समय तुम मेरे सिरहाने रहना और मेरी रसना पे तेरा ही नाम रहे ---मैं भी ये कह गयी --कलयुग है न लालची मैं भी हो गयी ,हृदय में हूक सी उठी पर लाडेसर को विदा किया और सोचने लगी ,इस युग में कृष्ण को नकारा जा रहा है ,राधा को नकारा जा रहा है ,राम के जन्म स्थान पे विवाद खड़े किये जा रहे हैं ,इन्हें केवल राजकुमार या युद्ध का पात्र बना दिया गया है ---केवल इसीलिये  कि  उन्होंने अवतार लेना स्वीकार किया।  किंवा अब हम अधिक बुद्धिमान हो गए हैं ! --तो फिर क्यों नहीं कोई व्यास मुनि ,कोई वाल्मीकि ,कोई शुकदेव ,कोई नारद आता जो इस विकसित समाज के लिए भी कुछ नियम बनाये ,क्यों हमें प्राचीन  संस्कृति को  ही तकना पड़ता है ,हजारों बाबा और आध्यात्मिक गुरु बैठे हैं अपनी दुकान लगा के ,फिर क्यों नहीं कोई मौलिक साहित्य बन रहा। सत्य यही है कि  परमात्मा ही अवतार लेके आये बारम्बार अपनी शक्तियों के साथ इस धरती में।  ऋषि मुनि ,तपस्वी ,ये सब परमात्मा का ऐश्वर्य थे --वो सहज विश्वास  का युग था --मानव को सीख देने का ,राह  दिखाने का युग था पर अब कल पुर्जों का युग है --इस युग की  बस एकमात्र यही सुंदरता है जो अन्य सभी युगों से भिन्न है कि  अब परमात्मा हम सभी के भीतर वास करता है।  कुछ समय बाद तो गंगा जमुना भी विलुप्त हो जायेंगीं --वैसे भी कह  ही दिया गया है ,मन ही में गंगा मन ही में यमुना मन स्नान करे ,हमारे तीर्थ कौन करे --और शायद तीर्थ भी मन में ही आ जाएंगे --जो होता हुआ लग रहा है। आज जब कि  मस्तिष्क बड़ा होता जा रहा है ,सब कुछ एक क्लिक में मिल जाने पे ,वो ;अपनी शक्ति खोता जा रहा है ,आधी से अधिक आबादी ने तो कुछ भी याद रखना छोड़ ही दिया है इससे मस्तिष्क ने जो शक्तियां अर्जित की थीं वो वो धीरे धीरे क्षीण हो थी हैं --ऐसे में मेरे कान्हा का गीता में कथन कि  हे अर्जुन तू और मैं कई जन्मों से साथ-साथ रहे हैं , मुझे सब याद है पर तुझे  नहीं ,क्यूंकि मैंने अपने मस्तिष्क को विस्तार दिया है --क्या आज की पीढ़ी के लिए शोध का विषय नहीं हो सकता ; प्रश्न नहीं समाधान है ;कान्हा का ही दिया हुआ वो भी गीता में --प्राणायाम। भविष्य में हो सकता है दिमाग में कोई ऐसी चिप फिट हो जाए जो सदियों को समेट  ले अपने में --शायद यही कल्कि अवतार हो। आभा।।

















Monday, 27 April 2015

माता च पार्वती देवो पिता देवो महेश्वर: ----
देवाधिदेव महादेव ,जिनकी रामजी भी आराधना करतेहैं ----दीन ,हीन ,अक्षम ,और समाज के अशुभ ,अपशकुनी ,चर- अचर को भी अपनी शरण में लेने वाले ,विश्व के हित हेतु गरल पान करने वाले ,सर्पों को ,और कलंकित चन्द्रमा को भी अपना आभूषण बना पूजनीय बनाने वाले , भक्ति की पराकाष्ठा --सती ने राम की परीक्षा के लिये सीता रूप धरा तो उन्हें माँ सामान मान समाधि में चले गए ,प्रेम की पराकाष्ठा ---सती ने दक्ष के हवन कुण्ड में प्राणों की आहुति दी तो उसके शरीर को लेके ब्रह्माण्ड के चक्कर लगाने लगे -- भोले भंडारी ---अनेकों वर , भक्त की भक्ति से प्रसन्न होके दे देते हैं --रावण , भस्मासुर और अनेकों उदाहरण -- मित्रता की पराकाष्ठा --राम कृष्ण के साथ सदैव रूद्र रूप में रहे --कल्याण हेतु गंगा के प्रवाह को अपनी जटाओं में धारण करने वाले ,लोभ ,मोह मद ,काम क्रोध से परे - कल्याणकारी देवता परम पिता --क्या कभी संहारक हो सकता है ? इंसान के रूप में जो पिता है जब वो अपनी संतानो के लिये बुरा नहीं कर सकता --वरन इस धरती का पिता कई बार अपने बच्चों की भलाई के लिए सारी बुराई -सारे कलंक अपने सर ले लेता है --तो क्या कारण है की हम किसी भी शिव धाम में आपदा आने पे उसे शिव तांडव का नाम देदेते हैं --शिव तो गुरु हैं --वो हर विधा के ज्ञाता है --तांडव भी नृत्य की एक विधा है न कि विनाश का द्योतक। शिव पूर्ण काम हैं। उनका तीसरा नेत्र उनकी दूर दृष्टि है न की भस्म करने का आयुध ----शिव क्रुद्ध हो ही नहीं सकते।
ये तो प्राकृतिक आपदाएं हैं। प्रकृति हमें देती है पर वो किसी एक की नहीं है वो निर्लिप्त है। जब हम रहने के साधारण नियम भूल के प्रकृति के निष्ठुर और निर्लज्ज दोहन पे उतर आते हैं तो इस तरह की आपदाएं आती हैं।
केदारनाथ की आपदा --जहां प्रकृति ने ५० जन के रहने लायक जगह दी वहां ५०० तो मजदूर और खच्चर ही पहुंच गए और स्थानीय निवासी - पर्यटकों का बोझ भी। जहाँ कुछ अदद घर होने चाहिए थे वो भी काष्ठ के या झोपड़ीनुमा या फिर टेंट, वहां हमने हर पहाड़ी ढलान पे कंक्रीट का जंगल खड़ा कर दिया --ऊपर से गंदगी का अम्बार और निर्लज्जता इतनी कि हम नदी के मुहाने तक बस्ती बनाते चले गए --नतीजा अपने ही लालच में खूबसूरती पे बदनुमा दाग लगा बैठे और अपना ही जन धन का नुकसान कर बैठे और हमने बाबा केदार का क्रोध कह के पल्ला झाड़ लिया।
कश्मीर की आपदा --जो शहर झीलों के शहर के नाम से ही जाना जाता है -कहते हैं कश्यप ऋषि ने बहुत सोच समझ के इसकी कुछ झीलों को सुखाया था और कुछ के मुहानों को दूसरी झीलों औ
र नदियों की और मोड़ दिया था----- हमने उन उसकी झीलों को पाट के संकरा कर दिया और -+जमीन पे कब्जा --झीलों ,नदियों का रकबा कम कर वहां मकान --गंदगी ,शहरीकरण --बेतरतीब
फैलाव प्रकृति का निर्लज्ज दोहन नदियों के मुहाने तक घर और गंदगी --नतीजा बारिश में जल प्रलय और दोष भोले बाबा अमरनाथ जी पे !
नेपाल तो आता ही भूकम्प पट्टी पे है , पहले भी विनाश कारी भूकम्प आये हैं वहां पे --पर पर्यटन उद्योग की मोहमयी छलना और बरसते सिक्कों की झंकार के बीच सरकारें इन खतरों को भुला देती हैं --हर पहाड़ी ढलान पेहोटल वो भी नियमों को ताक पे रख के -- जहां आबादी विरल और घर एक विशेष तकनीक से बने होने चाहियें वहां कंक्रीट के जंगल और गंदगी और दोष शिवपर --पशुपतिनाथ जी क्रोधित हुए --बार बार पिता को दोष देना -जन्मजन्मांतर के लिये पापों की गठरी बाँध लेना होता है।
और अंत में हमारे प्राचीन शिवालय हों ,देवीके धाम हो ,या राधाकृष्ण ,राम ,विष्णु धाम हों ,जितने भी तीर्थ हैं प्राचीन ,वो सब विशेष चुंबकीय विधुत तरंगीय क्षेत्रोंमें विशेष वास्तु तकनीक से निर्मित हैं --आप किसी भी तीर्थ पे जाइए --कितने ही थके हो ,तीर्थ के पुण्य क्षेत्र के स्पर्श मात्र से ही आप नयी ऊर्जा से भर जाते हैं। वहां पे जाने के कुछ नियम हैं कुछ वर्जनायें हैं, इन्हें हमें मानना ही होगा -देवता तो आपको अपनी शरण में ले ही लेगा वो माँ है वो पिता है पर उस क्षेत्र विशेष में जो अदृश्य तार बाड़ है , वहां जो विधुत -चुंबकीय तरंगें हैं वो ,वो तो अपना असर दिखाएंगी ही।
दुर्गम साधनविहीन,कठिन परिस्थियों में रहने से ऊब चुके जन मानस को उबारने के लिए सरकारों को पहल करनी होगी --ताकि पर्यटन से होने वाली आमदनी के लालच में तीर्थों के ये प्रहरी अपने को ही न छलें। प्रकृति का निष्ठुर और निर्लज्ज दोहन रोकना ही होगा --इसे भोले भंडारी का कोप कहके कल्याणकारी शिव को बदनाम न किया जाए आभा 

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Monday, 13 April 2015

       ''  शब्द पहचान मेरी ''
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अक्षरों की बूंदाबांदी ,
शब्दों के ओले ,
उजलापन शब्दों का ,
झरा  वाक्यों का झरना।
जो हैं हम ,
वही तो झरेंगे ,
मन आसमां में  है ,
वही  रंग बिखेरेगा।
शब्दों का झरना ,
मधुर ,शीतल फुहारें ,
झंकृत कर दे प्राण ,
भिगोये  तन -मन ,
सृजता हरियाली ,
      ,अथवा ,
गंदला बरसाती दरिया ,
वेग से  उमड़ा ,
 बह चला,दिशा हीन  ,
तोड़ता तट-बंध ,
लट्ठों -पत्थरों संग ,
  कठोर !शब्दों का वेग
सब बहाने को आतुर ,
दूरी बढ़ाता दो किनारों की ,
तोड़ दे  दृढ सेतु  को भी।
एक उजाड़े  दहशत दे ,
एक मन प्रांगण का
अंतर भिगो, पुलक दे  ,
हरियाली दे ,आनंद दे।
अक्षरों की बूंदा-बांदी तो वही
शब्द हमें चुनने हैं ,
वाक्य हमें बनाने हैं ,
बनाएंगे तो वही न ,
जो अंतर में होगा।।



यादों के जंगल में --उपवन बनाना ,मुश्किल होता है खुद को पाना।।आभा।।