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'मोह न नारि -नारि के रूपा ,पन्नगारि यह रीति अनूपा।।'' ----
यह विलक्षण रीति है की स्त्री स्त्री के रूप पे मोहित नहीं होती।
.... आज बाबा तुलसी की इस चौपाई का विश्लेषण ,''जसु कछु बुद्धि विवेक बल मोरे ,तस कहिये हिय हरि के प्रेरे।।'' --हरि की प्रेरणा स्वरूप ही--
रामायण की इस चौपाई के कई विश्लेषण ,कई अर्थ अपने -अपने अनुसार ,नारी 'नारी' को ईर्ष्या से देखती है ,एक नारी दूसरी को पसंद नहीं करती या सहन नहीं कर सकती ,हर नारी अपने को सर्वश्रेष्ठ मानती है।
शायद शाब्दिक अर्थ यही निकले ,पर ऐसा है नही.
उत्तरकाण्ड अंत में ये चौपाई नारी शक्ति होने का ही एक प्रमाण है ,और तुलसी के मानस में स्त्री को अबला कहने वालों के लिये एक उदाहरण।
'' मोह न नारि नारि के रूपा '', अब क्यूँ लिख गए गोस्वामीजी जबकि सीतास्वयंबर के स्थल में वो स्वयं लिख चुके है --''रंग भूमि जब सिय पगु धारी ,देखि रूप मोहे नर नारि ''----नारी भी मोहित हैं जानकी के रूप में।
और एक उदाहरण ---सीयस्वयंबर को देखने देवों की स्त्रियां सामान्य स्त्रियों का रूप बना के शामिल हो गयीं ,उन्हें देख के,महल की स्त्रियोंने बहुत सुख माना --''नारि वेष जे सुरवर -वामा सकल सुभाय सुंदरी श्यामा '' ।
ऐसे ही कई उदाहरण है जब गोस्वामीजी ,स्त्री की स्त्री से प्रशंसा करवाते हैं ,वन की स्त्रियों से सीता की ,सासुओं से सीता की ,त्रिजटा से सीता की और सीता से त्रिजटा की ,अनसूया की सिया से और सिया की अनसूया से ,और कई अनगिनत उदाहरण हैं ,तो गोस्वामीजी मानस के समापन पे ये क्यों लिख गये।
-----ये चौपाई गरुड़जी और कागभुशण्डिजी के वैराग्य की चर्चा के प्रसंग में आती है। गरुड़ का प्रश्न ,वैराग्य क्या है ज्ञान या भक्ति ? कागभुशुण्डि कहते हैं ज्ञानभक्ति एक ही है ,अलग नहीं है। जीव में ज्ञान होगा भक्ति होगी तभी वैराग्य होगा और वैराग्य होगा तभी चेतना होगी ,चेतना होगी तभी रामजी मिलेंगे। यहां ये समझना भी अनिवार्य है की वैराग्य का अर्थ सबकुछ छोड़ देना नहीं वरन रामजी पे अटूट अनुराग है ,उनको अपने को समर्पित करके फिर कर्म करना।
ज्ञान पुरुष और भक्ति नारी पर नारी के दो रूप हैं ,माया और भक्ति।
माया जो विष्णु का ही प्रपंच है ,स्वाभाव से निर्बल है तो अपने अस्तित्व को संजोये रखने के लिये दूसरे का आलंबन लेती है उसे जड़ कर देती है ,वो अहंकार है मैं के होने का। गीता में भी भगवान कह रहे हैं --जड़ कौन है जो अहंकारी है ,जो मैं कर्ता हूँ इस आसक्ति में लिप्त है ---''प्रकृते: क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वश:। अहंकार विमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।'' -- जो जीव प्रकृति के द्वारा गुणों को अपनी क्रिया समझे वही जड़ है। माया का यही गुण हैं वो मनुष्य को जड़वत बना देती है --इसी गुण से लिप्त जीव को ''ढोल गंवार शूद्र पशु नारी '' से परिभाषित किया गया है न की केवल स्त्री को।
भक्ति सीता हैं ,वो शक्ति जो अपना निर्णय स्वयं लेने में समर्थ है। जो शिव-धनुष को उठा सकती है। जिसे पार्वती के आशीष पे विशवास है। जो वैरागी है ,कर्म करना है यानी स्वयंबर में जाना है ,शेष माँ की इच्छा --पूर्ण समर्पण। जो दशरथ की राजयसभा में वन जाने के लिये अपना मत सबके आगे रखती है। जो वन में सारी कठिनाइयां सहती हुई भी राम को कहती है ,की तुम्हारे बाण से कोई भी निर्दोष राक्षस नहीं मारा जाय ,जो वनवासिनों की माँ बनजाती हैऔर राजमहलों से सुखों को भूल वन के हिंसक पशुओं को भी प्यार से अपना कर लेती है। भक्ति वो सीता है जो अग्नि परीक्षा देके ,राम को ग्लानि से बचाती है और सम्राटों की मर्यादा को अक्षुण रखती है पर दूसरी बार सम्राट का विरोध कर स्वयं की समाधी बना उसमें समा जाने की शक्ति भी रखती है -मोह का कोई बंधन नहीं।
यही है नारी के दो रूप ,माया और भक्ति दोनों नारी संज्ञक हैं ये जग विदित है ,पर भक्ति जगद्जननी जानकी है ,शक्तिस्वरूपा ,भक्ति मीरा है भक्ति राधा है और माया जो कुशल नर्तकी है। जिसके हृदय में भक्ति का वास है ,वहां माया रहने से सकुचाती है।
यही है इस चौपाई का अर्थ --सारा संसार जिस पुरुषात्मक शक्ति का गर्व करता है वो पुरुष माया और भक्ति के चारों ओर ही नृत्य कर रहा है ,इस स्त्री शक्ति के बिना वो शक्तिहीन है ,यही नारी उसे जड़ बनाती है माया का रूप लेके और यही चेतन बनाती है भक्ति से ज्ञान और वैराग्य का आलंबन देके।
पर अभी अर्थ कुछ और भी है ,एक शब्द और डाला है चतुर भुशुण्डी ने इसमें --वो है --पन्नगारी --जो उन्होंने गरुड़ के लिये पूरी रामायण में पहली बार कहा। अब पन्नगारी का अर्थ ----साँपों का शत्रु अर्थात गरुड़ पर कुछ और भी देखिये
पन्न = गिरापड़ा
पन्नग =सर्प
पन्ना =रत्न
पन्ना= पृष्ठ
पन्नी =रंगीन ,चमकीला ,सुनहरा कागज।
और गारी =गाली।
नारी =जो हमारा अरि [शत्रु ]नहीं है अर्थात मित्र है। वो कई रूपों में हमारे सामने आती है पर हम अपने मन की भावना के अनुसार ही उसे महत्व देते है। हम चमकीली पन्नी के मोह में फंसे भ्रम में पड़के ,पन्न गारि --हो जाते हैं ,जड़ प्रकृति--और गोस्वामीजी कहते है --''सो माया बस भयहुँ गुसाईं ,बँधेहुँ कीर मर्कट की नाई। ''
पन्नगारी ==============
'' यज्ञमूर्ति पुराणात्मा साममूर्द्धा च पावन:।
ऋग्वेदपक्षवान् पक्षी पिंगलो जटिलाकृति:।
ताम्रतुण्ड सोमहर:शक्रजेता महाशिर:।
पन्नगारि -पद्मनेत्र साक्षाद् विष्णुरिवापर: ॥ ''--गरुड़ के लिए है ये विशेषण ''वेदराशि ,यज्ञमूर्ति ,साममूर्द्धा ,ऋग्वेदपक्षवान् ,साक्षाद् विष्णुरिवापर: ---अति महत्व के विशेषण। गरुड़ को वेद का प्रतीक स्वीकार किया गया है। वेदस्वरूप गरुड़ पे विष्णु रूपी ब्रह्म आरूढ़ हैं। अर्थात ब्रह्मज्ञान होने के लिये ,शरीर रूपी पक्षी भी आवश्यक है।
---''विजयो विक्रमेणेव प्रकाश इव तेजसा। पर्ज्ञोंतकर्ष: श्रुतेनेव --सुपर्णेनायमुह्यते।।''=======विष्णुवाहन गरुड़ (सुपर्ण ),विजय को विक्रम की तरह ,प्रकाश को तेज की तरह ,बुद्धि के निर्माल्य को विद्या की तरह वहन करते हैं।
---और यही गरुड़ हैं जिन्हें पन्नगारी कहा गया इस चौपाई में ,अर्थात साक्षात् विष्णु ==विष्णु और विष्णुवाहन को एक ही कहा गया बस स्वरूपत: यौक्तिक भेद --विष्णु को उपेन्द्र और गरुड़ को खगेन्द्र मान के इंद्र विष्णु और गरुड़ में समन्वय स्थापित किया गया।
अब एक और संकेत है यहां पे ----महाभारत काल के आगमन की पूर्व सूचना। ''मोह न नारि नारि के रूपा ''---इस उक्ति के साक्षात दर्शन महाभारत में होते हैं --शुरू होने पे ही कद्रु और विनीता के वैमनस्य की कहानी ,गरुड़ अरुण और नाग की उतपत्ति और महाभारत काल का पूर्वार्ध। ----पौष्यपर्व और पौलोमपर्व में हीसर्पयज्ञ का प्रारम्भ। दक्ष पुत्रियों ,वनिता-कद्रु का ''मोह न नारी नारी के रूपा '' को चरितार्थ करना और गरुड़ , अरुण का उद्भव। ---------
यूँ ही सोच रही थी ,रामचरित मानस की एक -एक में चौपाई ,कई सारे अर्थ समाये हुये हैं ,जितनी बार पढ़ो ये नए रूप में सामने आती है ,मंत्र तो हैं ही ये चौपाइयां। इन्हें पढ़ने से ध्वनि तरंगें आसपास एक सकारात्मक आभामंडल बना देती हैं हमारे आसपास और हम चेतन हो जाते हैं ,हनुमानजी की कृपा भी मिलनी प्रारम्भ हो जारी है।
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