Thursday, 25 May 2017

-वटसावित्री व्रत कथा ---महाभारत के सात अध्यायों को कुछ पंक्तियों में समेटना -यद्यपि कथा के साथ अन्याय ही है --पर कथा की आत्मा को देखने दिखाने का एक क्षुद्र प्रयास --


--पुत्रि प्रदानकालस्ते न च कश्चिद वृणोति माम्।
---स्वयमन्विच्छ भर्तारं गुणै:सदृश्यमातमन: || 
--बेटी अब तेरे विवाह का समय आ गया है ,परन्तु तेरे तेज से प्रतिहत हो जाने  कारण कोई भी राजकुमार , योग्य वर मुझसे तुझे मांग नहीं रहा है। इसलिये तू स्वयं ही ऐसे वर की खोज करले जो गुणों में तेरे सामान हो। 
ऐसी थी सावित्री -जिसके तेज ,रूप गुण वीरता के सामने सभी निस्तेज हो जाते थे --सावित्री --जो  मद्रनरेश अश्वपति को '' तपस्या और गायत्री मंत्र के जाप ''से प्रसन्न होकर माँ सावित्री से वरदान स्वरूप प्राप्त हुई थी। 
-======विडंबना देखिये युग बीत गये ; आज भी अपने से अधिक गुणी कन्या [strong lady ] को कोई भी अपनी पत्नी रूप में स्वीकार नहीं करना चाहता। ====और एक बात  उस समय भी -यदि कन्या सर्वगुण सम्पन्न है तो अपने लिए उपयुक्त वर वह स्वयं  चुन सकती थी  --आज भी समय की मांग है कन्या को सर्वगुण सम्पन्न बनायें वो आपका मान है और देवी का वरदान है। ======
     सावित्री ने सभी राजकुमारों को छोड़ अपने लिए वन में ले पले -बढ़े सत्यवान को चुना तथा  अपने पिता को बता दिया ,खोज -खबर करने पे मालूम हुआ सत्यवान शाल्व देश के ध्युमत्सेन नाम के राजा का पुत्र है --जो अंधे हो गए तो उनका राज्य शत्रु ने छीनलिया।  वो अपने बालक पुत्र और पत्नी संग वनवासियों संग आश्रम में रहने लगे --सत्यवान आश्रम में ऋषिमुनियों संग पला ,निर्भीक बलिष्ठ युवक था। 
राजा बड़े खुश हुए परन्तु तभी वहां पे नारद मुनि का आगमन हुआ।  नारदमुनि जो सभी की कुंडली पल भर में बांच देते थे -पार्वती से लेकर सीता शकुंतला सभी की ---शायद सारे मीडिया हाउसेस के इकलौते मालिक थे और LIU के भी सर्वे सर्वा थे --वे बोले ये विवाह  सावित्री के लिए ठीक नहीं है।  राजा के प्रश्न करने पे कि क्या दोष है -नारद मुनि बोले --सत्यवान आश्रम में ऋषिमुनियों संग पला ,निर्भीक ,वीर ,जितेन्द्रिय ,मृदुल ,शूरवीर ,सर्वगुण सम्पन्न राजकुमार है पर वो अल्पायु है एक वर्ष पूर्ण होते ही उसकी मृत्यु हो जायेगी। 
अब सावित्री के पिता परेशान हो गए परन्तु सावित्री बोली मैंने मन से सत्यवान को वरण कर लिया है ,विदुषी ,कन्या अपने निर्णय पे अटल थी ,सुख दुःख आने जाने है ,मैं तो वही  करूंगी जो मन में संकल्प लिया है --
''मनसा निश्चयं कृत्वा ततो वाचाभिधीयते। 
क्रियते कर्मणा पश्चात् प्रमाणं में मनस्तत: || --
मन से निश्चय करके वाणी से कहा और फिर कार्य रूप में परिणित किया जाता है --मेरा मन ही मेरा प्रमाण है --और-- सत्यवान सावित्री का विवाह हो गया।  राजकुवंरी ने वल्कल वस्त्र धारण किये ,वन के कठोर जीवन को अपनाया ,आश्रम वासियों के साथ कार्य करते हुए एवं  सास-श्वसुर की सेवा करते हुए कब वर्ष बीत गया पता ही न चला ,परन्तु नारद मुनि की बात सावित्री के मन में सदा रही। पति की मृत्यु का समय निकट आ गया।  विदूषि तो थी ही ज्योतिषीय गणना से मृत्यु की  घड़ी निकाल ली और तीन दिन पहले निर्जल व्रत प्रारम्भ कर दिया। एक जगह में स्थिर खड़े रह के निर्जल व्रत और माँ सावित्री देवी की आराधना। अमावस्या  को व्रत का पारायण होना था पर पूजा अर्चना के बाद भी अन्न जल नहीं लिया। 
सत्यवान फल और लकड़ी लेने वन को जाने लगा तो सावित्री भी माता-पिता से आज्ञा लेके साथ हो ली। मृत्यु की घड़ी आने पे सत्यवान के अस्वस्थ होने पे उसका सर अपनी गोद में लेके बैठ गयी। 
त्रिकाल दर्शी विद्या में निपुण थी सो यम को देख पायी तथा   उससे अपने पति के प्राणो की भीख मांगी। यम ने अन्य कोई वर मांगने को कहा ,क्यूंकि मृत्यु तो अटल है उसे कोई नहीं टाल सकता। यम के साथ -साथ चलते हुए उसे अपनी बुद्धि विवेक से प्रसन्न करते हुए सावित्री ने तीन वरों में अपने श्वशुर की आंखें ,उनका राज्य ,पुत्र ,अपने पिता के लिए पुत्र ,सुखी -प्रसन्न प्रजा सब -कुछ मांग लिया पर यम के लौटने पे कहने पे भी वो उनके पीछे ही चलती रही और उनसे बुद्धिविलास की बातें करती रही।  यम ने कहा; सावित्री ,पुत्री ! एक वर और मांग ले बस -फिर लौट जा इससे आगे तुझे नहीं जाने दूँगा ---तो सावित्री बोली मुझे सौ पुत्रो की माँ बना दो अखंड सौभाग्य दो --यम के तथास्तु कहने पे वो फिर उनके पीछे चली तो अब यमराज क्रोधित हो बोले पुत्री अब लौट जाओ --
--तब सावित्री ने कहा --
''न तेSपवर्ग:सुकृताद् विनाकृतस्तथा यथान्येषु वरेषु मानद ''
--हे मान्यवर आपने जो पहले वर दिए उनकी और इस अंतिम वर की स्थिति एक सी नहीं है ,अंतिम वर बिना सत्यवान के पूर्ण नहीं हो सकता --
''वरातिसर्ग: शतपुत्रता मम त्वयैव दत्तो ह्रियते च में पति: | ''
---मुझे पुत्रवती होने का वर देके मेरे ही पति को ले जाते हैं ?-आपके वचन की लाज रखने के लिये ही मैं सत्यवान के प्राणों को वापिस मांगती हूँ। 
और यमराज ने ये कहते हुए ----
''ऐष भद्रे मया मुक्तो भर्ता ते कुलनंदनी 
तोषितोSहं त्वया साध्वि वाक्यैरधर्मार्थसंहितै:|| ''
---------तूने अपने धर्मयुक्त वचनों द्वारा मुझे संतुष्ट किया ,मैं तेरे पति को छोड़ता हूँ।  
--पश्चात दोनों का घर आना ,दोनों परिवारों में ख़ुशी। 
-----और ये कथा ऋषि मार्कण्डेय ने युधिष्ठर को सुनाई जब युधिष्ठर ने उनसे पूछा की --मुनिवर क्या कोई द्रौपदी से बड़ी पतिव्रता स्त्री भी इस संसार में हुई है ,जिसने इतने कष्ट भी सहन किये हों। 
--- कहानी जो भी हो --ये सदियों पहले के लोकमन की झांकी तो है ही। तब भी एक सशक्त स्त्री को कोई नहीं अपनाना चाहता था --क्यूंकि समाज पुरुष प्रधान था ,अपने से अधिक गुणी स्त्री से पुरुषों को हेठी होती। 
साथ ही , सर्वगुणसम्पन्न कन्या के लिये माता-पिता को तप करना पड़ता था। कन्या यदि शिक्षित है शूरवीर है ,सत्यनिष्ठ मृदुल और गुणों से युक्त है तो वो अपना जीवन साथी चुन के माता-पिता की सहमति से विवाह करे --यही ऋग्वेद का भी कहना है। --
जहां तक प्रश्न है बरगद वृक्ष का तो इस पूरी कथा में बरगद कहीं नहीं है। शायद व्यास पीठ से कालांतर में प्रकृति के संरक्षण और संवर्धन हेतु बरगद की महत्ता को इस व्रत से जोड़ दिया गया। 
आज हम -मिनसना पूजना ,कथा ,बरगद की टहनी तोड़ के इसे  पति मान गमले में रख  उसकी पूजा करते हैं और दूसरे दिन बरगद को घर में नहीं रहना चाहिये तो उसे छत पे फेंक देते हैं --यानी आपने पति को फेंक दिया। व्रत का स्वरूप ही बदल गया --क्यूँ ? क्यूंकि कन्याओं को वो शिक्षा और दीक्षा ही नहीं मिल रही जो बुद्धि का विकास करे --एक बंधे बँधाये ढर्रे पे चल पड़े हैं सभी --खाओ पियो मौज करो और बाजार के हाथों में खेलो। 
--महाभारत के रामोपाख्यानपर्व में 293 से 299 -अध्याय तक पतिव्रतामहात्म्यपर्व के अंतर्गत सत्यवान-सावित्री की कथा विस्तार से है। पढ़िए पढ़ के आनंद आ जायेगा और कथा के कई अर्थ समझ आएंगे --
वटसावित्री व्रत की शुभकामनायें सभी को --आभा  ---











Tuesday, 23 May 2017

आभा अग्रवाल 
'' अपनी बीती '' (सत्यघटना )

कैम्पस स्लैकशन आज का ट्रेंड है।  सैंतीस - अड़तीस वर्ष पूर्व डिग्री लेने के पश्चात अखबारों से या जान-पहचान से ही मालूम होता था कहाँ मिलेगी नौकरी। ''अपने पैरों पर खड़े होना'' तब भी ''टेढ़ी खीर'' ही था| MSc के बाद एक महीना "घर" में बैठना इतना असहज होगा कभी सोचा भी न था। ये वही तो घर है जहाँ "पंछी ''बनी उड़ती रही बचपन से अब तक, फिर अब क्या हो गया ? शायद सभी को ऐसा ही कुछ अनुभव होता हो। इसी उधेड़बुन में थी  और इसी बीच टिहरी कन्या विद्यालय से राजमाता का बुलावा आया। मैं स्वेच्छा से टीचर बनना नही चाहती थी पर एक महीने में ही सारे सपने ''गूलर का फूल ''हो गये थे। इससे पहले विज्ञानं पढने के चक्कर में पंतनगर से होमसाइंस के डिप्लोमा को ठुकरा चुकी थी। इसलिये इस बार कोई ''अटकल पच्चू '' नही चलाया और TGMO की बस में सवार होकर माँ के साथ आ गयी उत्तरकाशी से टिहरी। लेकिन  हाय री किस्मत -  महल में इन्टरव्यू होना था पर बाहर ही राजमाता का फरमान  लिए एक आदमी मिल गया। उसने बताया की तबियत अचानक खराब होने से उन्हें दिल्ली जाना पड़ा।  

माँ ने सोचा आज बिटिया को विद्यालय घुमाया जाये। विद्यालय देखने की "जिज्ञासा" तो थी ही क्यूंकि कभी मेरी माँ भी यहाँ पढ़ी थीं और शिक्षिका भी रह चुकी थीं। पर माँ से कहा हम आज ही लौट चलेंगे।  बस में तब गेट सिस्ट्म हुआ  करता था, समय से ही बसें छूटती थीं।  इस बीच माँ ने अपने एक रिश्ते के भाई से मुलाकात करवाई, वो बैंक मैनेजर थे। लंच का समय था और जब हम पहुंचे तो वे खाना खा रहे थे। केवल एक दाल और रोटी. बोले मैं कम से कम में गुजारा करता हूँ और जितना भी मेरे पास है उससे गरीब बच्चों को पढ़ाता हूँ, परिवार में भी यही संस्कार हैं - वो मेरे जीवन का शुरूआती सबक था जो आज भी फ़ालतू खर्च नही करने देता। मन पे अंकुश हम स्वयं ही लगा सकते हैं। खुद खाया तो क्या खाया, किसी के काम आये यही जिन्दगी। कहना नही चाहिये पर अपनी कमाई होने पे एक बच्चे की फीस तो देनी ही है - यह सीख लेकर मैं उठी वहां से और ईश्वर ने साथ भी दिया संकल्प पूरा करने में।

पहाड़ों का जुलाई का महिना - कब झड़ी लग जाये. और हुआ  भी यूं  ही। लो झड़ी लग गयी, डुंडा तक आते आते घना अँधेरा घिर आया और स्वाद में सुगंध की तरह ये खबर कि सड़के बंद हो गयी है। कानो में  सुनाई  भी पड़ा कि पहाड़ तीन जगहों पे टूट चुके है और सड़को पर मलबा आ गया है।  यदि आपने कभी पहाड़ी रास्तों में सफर किया हो तो आपको मालूम होगा यहाँ आपको सुविधा के नाम पे सड़क किनारे चाय की दुकानें ही मिलेंगी वो भी अँधेरा घिरते ही बंद हो जाती हैं. अब रात भर कहाँ रुकें, कई सारी बसे पर महिला यात्री केवल हम दो।  हमने निश्चय किया अठारह मील जाना है तो पैदल चलते है।  कुछ दूर तक सह यात्री चले पर फिर बारिश, अँधेरे और ठंड ने सभी के "हौसले" पस्त कर दिये। सभी यात्री  दुकानों की बैंच पे बैठ गये।  मन हमारा भी घबराया, मजबूत इरादों की" उड़ान" "टूटने" लगी  पर हम दोनों माँ बेटी चलती रहीं। रात्री का अन्धकार, सड़क के एक ओर विशालकाय काला पहाड़  तो दूसरी ओर खाई - नीचे बहती गंगा की सांय-सांय - वो भी बरसात की चढ़ी हुई गंगा, झींगुरों का शोर ,बारिश की बौछार और गिरते पत्त्थर। कुल मिलाकर भय का वातावरण बना हुआ था। 

पिछले वर्ष तांबाखानी में पत्थर गिरने से मरे किस्णु की याद आ रही थी रह -रह के - लोग कहते हैं वो यहीं घूम रहा है भूत बनके ! रात का पक्षी भी बोल रहा था, और सड़क पर पड़ा मलबा दिखाई भी नही दे रहा था, जरा सा पैर गलत पड़ा तो सीधे गंगा शरण ! इस पर कहीं कहीं जुगनू भी थे जगमग करते हुए जो मन को ढाढस बंधा रहे थे हम हैं न साथ तुम्हारे। यूँ ही खतरों से खेलते हम ब्रह्ममुहूर्त में सवेरे चार बजे घर के किवाड़ खटखटा रहे थे। पिताजी को लगा इस वक्त कैसे आ सकती हैं ये लोग, कोई साधन भी नही, बरखा भी तेज, सड़क भी टूटी हुई, जरुर बस'' ढंगार '' [खाई ] में गिर गयी होगी, जरुर इन लोगो के साथ कोई हादसा हो गया है। ये उन दोनों का भूत आवाज दे रहा होगा! लेकिन हमें देख वो अचंभित रह गये खूब डांट भी पड़ी दुःसाहस के लिये।  कई दिनों तक अस्थि पंजर ढीले रहे, हड्डियाँ कीर्तन करती रहीं ,पर मन प्रसन्न था मानो कोई किला फतह किया था।बरसात के महीनों में सड़क पे कच्चे पहाड़ का मलबा रपटन बना देता है ,ऊपर से अँधेरा ,टूटते पहाड़ से गिरते पत्थर और हर वर्ष पत्थर गिरने से हुई मौतों की याद जो उस वक्त मन पे हावी थी ---15 -20 किलोमीटर का सर्द -डरावना पर रोमांचक सफर आज भी रोमांचित कर  देता है। 

जी ये मेरी ही ''आप बीती '',  हाँ ! माँ के साथ का ये मेरा पहला रोमांचक अनुभव। इससे अनुभव ने जीवन के आरम्भ में ही मुझे जीवट दिया, विजय का आभास सा दिलाया।  और ये भूत, भविष्य और वर्तमान तो सब समय ही है, और अगर खुद पर भरोसा हो तो विजय ही विजय है, विजय अपने को पाना ही तो है। हाँ भूत मुझे तब भी नही मिला और आज भी खोज ही रही हूँ, शायद कभी मिले 
आभा अग्रवाल 


******जिस घर की में कहानी लिखी गयी उसी घर की किचन में। सिलबट्टे पे मसाला पीस के भिंडी काटती  तब की आभा -1976 -यादें 

Saturday, 13 May 2017

आज माँ का दिन ,मई का दूसरा रविवार ,माँ को समर्पित -
,,मदर्स डे ,,,
होना भी चाहिये माता पिता का दिन -
सारे दिन तो बच्चों के ही होते हैं ,कहाँ  देख पाते हैं हम 44 डिग्री की गर्मी में रसोई में खटती माँ को ,
सारे दिन पसीने में दौड़धूप करते अनथक थके माता-पिता को -
पर ये इमोशन ये पैशन एक दिनी ही होकर रह जाते हैं -
व्हट्स आप पे मैसेज और अमेजन से गिफ्ट ,हमारी संतति के इमोशन पे बाजार हावी है ,जकड़ गए हैं फंस गए हैं सब बाजारू चाल में --
मेरे बच्चे नहीं लिखते कहते मुझे happy mothers day --शायद मैं happy हूँ इसलिये --वो मेरा सुख-सुविधा का ध्यान रखते हैं हर पल ,कुछ देर चुप बैठ जाऊं --तो तबियत तो ठीक है पूछ-पूछ के मुझे इरिटेट कर देते हैं - सोच रही थी -क्या हम लोग मॉडर्न [आधुनिक [नहीं हैं ?
??????????????????????
एक पुरानी पोस्ट आज के दिन पे ---


 इमोशन्स ,पैशन और संवेदनशीलता के साथ मनाया जा रहा है '' माँ का दिन'' ,,यूँ लगता है मानो माँ को जमीं से उठा कर सिंहासन पे बिठाने कीही 
                                                                                          =========

देर है उसकी औलादों के द्वारा ,,अपनी माँ की कुर्बानियों के किस्से और उन पे निछावर होने के लिए उत्सुक संतान ,अरे माँ के बेटे बेटियों माँ क्या है !एक हाड़ मांस का पुतला जो एक दिल भी रखती है ,तुम रोटी ,,पद ,प्रतिष्ठा के लिए उसे छोड़ के चले आये हो , कभी पूछा है उससे जो एक क्षण भी तुम्हारे बिना नहीं रह सकती थी ,[,और तुम भी ]आज केवल तुम्हारी भूख के कारण तुम से दूर है ,वो आज भी चाहती है बच्चे की भूख शांत हो [चाहे वो कैसी भी हो ] तुम्हारे बचपन में तुम उसे देखते थे अपने लिए खटते हुए  ,वो आज भी तुम से दूर रह कर वही कर रही है ,वो तुम्हारे पास रहना चाहती है ,क्या रख------------- पाओगे ?क्यूँ दूर रखा है उसे ,और बचपन की यादे,माँ की जिजीविषा ,समर्पण - कर्तव्य -परायणता के किस्से गा -गा कर आप मातृभक्त  नहीं हो जाओगे ,अपने पुश्तैनी घर को आप छोड़ चुके है ,कोई परदेस  ,कोई विदेश में बस गया है ,माँ -पिता छूट चुके हैं अपनी संतानों के लिए प्रार्थना करते हुए , उनकी उन्नती की कामना करते हुए ,साथ ही अपनी संतति के लिए संपत्ति की रक्षा करते हुए ,माँ तो बूढी हो गयी है पर आज भी तुम्हारे घर आने पे तुम्हारी पसंद का खाना बनाती है ,तुम्हारे साथ तुम्हारी पसंद और जरूरत का सामान बांध देती है तुम्हारे चलने पे ,प्रतिदिन एक फोन को बनता है माँ के नाम  या वो भी कर्याधिकता का बहाना ले कर ???? माँ नहीं चाहती है मदर्स डे !!उसने किसी लालच वश हमें नहीं पाला है -उसका प्यार तो समर्पण और कर्तव्य की पराकाष्ठा है ,वो संसार को पालती है बिना धैर्य खोये ,बिना किसी पूर्वाग्रह और आकांक्षा के ,मदर्स डे मनाइये खूब धूम-धाम से मनाइये पर ये याद रहे माँ को इस दिन की दरकार नहीं है ये आपकी आवश्यकता है ,इसी बहाने आप एक दिन घर के कोने में पड़ी रात -दिन खटती माँ को याद करके अपने को संतुष्टि देते हैं ,वरना तो मदर्स-फादर्स डे हर-डे ही होता है ,भला जन्मदाताओं को याद करने को भी कोई एक दिन होना चाहिए  ?पर चलो कुछ न होने से कुछ तो है ,अब माँ इंतजार तो कर सकती है मदर्स डे का ,अपनी संतानों की चहचहाती हुई आवाज सुनने के लिए ,इसमें भी सुकून है ,सब से अनुरोध है अपनी माँ को एक फ़ोन कर लेना निगोड़ों ----