-वटसावित्री व्रत कथा ---महाभारत के सात अध्यायों को कुछ पंक्तियों में समेटना -यद्यपि कथा के साथ अन्याय ही है --पर कथा की आत्मा को देखने दिखाने का एक क्षुद्र प्रयास --
--पुत्रि प्रदानकालस्ते न च कश्चिद वृणोति माम्।
--पुत्रि प्रदानकालस्ते न च कश्चिद वृणोति माम्।
---स्वयमन्विच्छ भर्तारं गुणै:सदृश्यमातमन: ||
--बेटी अब तेरे विवाह का समय आ गया है ,परन्तु तेरे तेज से प्रतिहत हो जाने कारण कोई भी राजकुमार , योग्य वर मुझसे तुझे मांग नहीं रहा है। इसलिये तू स्वयं ही ऐसे वर की खोज करले जो गुणों में तेरे सामान हो।
ऐसी थी सावित्री -जिसके तेज ,रूप गुण वीरता के सामने सभी निस्तेज हो जाते थे --सावित्री --जो मद्रनरेश अश्वपति को '' तपस्या और गायत्री मंत्र के जाप ''से प्रसन्न होकर माँ सावित्री से वरदान स्वरूप प्राप्त हुई थी।
-======विडंबना देखिये युग बीत गये ; आज भी अपने से अधिक गुणी कन्या [strong lady ] को कोई भी अपनी पत्नी रूप में स्वीकार नहीं करना चाहता। ====और एक बात उस समय भी -यदि कन्या सर्वगुण सम्पन्न है तो अपने लिए उपयुक्त वर वह स्वयं चुन सकती थी --आज भी समय की मांग है कन्या को सर्वगुण सम्पन्न बनायें वो आपका मान है और देवी का वरदान है। ======
सावित्री ने सभी राजकुमारों को छोड़ अपने लिए वन में ले पले -बढ़े सत्यवान को चुना तथा अपने पिता को बता दिया ,खोज -खबर करने पे मालूम हुआ सत्यवान शाल्व देश के ध्युमत्सेन नाम के राजा का पुत्र है --जो अंधे हो गए तो उनका राज्य शत्रु ने छीनलिया। वो अपने बालक पुत्र और पत्नी संग वनवासियों संग आश्रम में रहने लगे --सत्यवान आश्रम में ऋषिमुनियों संग पला ,निर्भीक बलिष्ठ युवक था।
राजा बड़े खुश हुए परन्तु तभी वहां पे नारद मुनि का आगमन हुआ। नारदमुनि जो सभी की कुंडली पल भर में बांच देते थे -पार्वती से लेकर सीता शकुंतला सभी की ---शायद सारे मीडिया हाउसेस के इकलौते मालिक थे और LIU के भी सर्वे सर्वा थे --वे बोले ये विवाह सावित्री के लिए ठीक नहीं है। राजा के प्रश्न करने पे कि क्या दोष है -नारद मुनि बोले --सत्यवान आश्रम में ऋषिमुनियों संग पला ,निर्भीक ,वीर ,जितेन्द्रिय ,मृदुल ,शूरवीर ,सर्वगुण सम्पन्न राजकुमार है पर वो अल्पायु है एक वर्ष पूर्ण होते ही उसकी मृत्यु हो जायेगी।
अब सावित्री के पिता परेशान हो गए परन्तु सावित्री बोली मैंने मन से सत्यवान को वरण कर लिया है ,विदुषी ,कन्या अपने निर्णय पे अटल थी ,सुख दुःख आने जाने है ,मैं तो वही करूंगी जो मन में संकल्प लिया है --
''मनसा निश्चयं कृत्वा ततो वाचाभिधीयते।
क्रियते कर्मणा पश्चात् प्रमाणं में मनस्तत: || --
मन से निश्चय करके वाणी से कहा और फिर कार्य रूप में परिणित किया जाता है --मेरा मन ही मेरा प्रमाण है --और-- सत्यवान सावित्री का विवाह हो गया। राजकुवंरी ने वल्कल वस्त्र धारण किये ,वन के कठोर जीवन को अपनाया ,आश्रम वासियों के साथ कार्य करते हुए एवं सास-श्वसुर की सेवा करते हुए कब वर्ष बीत गया पता ही न चला ,परन्तु नारद मुनि की बात सावित्री के मन में सदा रही। पति की मृत्यु का समय निकट आ गया। विदूषि तो थी ही ज्योतिषीय गणना से मृत्यु की घड़ी निकाल ली और तीन दिन पहले निर्जल व्रत प्रारम्भ कर दिया। एक जगह में स्थिर खड़े रह के निर्जल व्रत और माँ सावित्री देवी की आराधना। अमावस्या को व्रत का पारायण होना था पर पूजा अर्चना के बाद भी अन्न जल नहीं लिया।
सत्यवान फल और लकड़ी लेने वन को जाने लगा तो सावित्री भी माता-पिता से आज्ञा लेके साथ हो ली। मृत्यु की घड़ी आने पे सत्यवान के अस्वस्थ होने पे उसका सर अपनी गोद में लेके बैठ गयी।
त्रिकाल दर्शी विद्या में निपुण थी सो यम को देख पायी तथा उससे अपने पति के प्राणो की भीख मांगी। यम ने अन्य कोई वर मांगने को कहा ,क्यूंकि मृत्यु तो अटल है उसे कोई नहीं टाल सकता। यम के साथ -साथ चलते हुए उसे अपनी बुद्धि विवेक से प्रसन्न करते हुए सावित्री ने तीन वरों में अपने श्वशुर की आंखें ,उनका राज्य ,पुत्र ,अपने पिता के लिए पुत्र ,सुखी -प्रसन्न प्रजा सब -कुछ मांग लिया पर यम के लौटने पे कहने पे भी वो उनके पीछे ही चलती रही और उनसे बुद्धिविलास की बातें करती रही। यम ने कहा; सावित्री ,पुत्री ! एक वर और मांग ले बस -फिर लौट जा इससे आगे तुझे नहीं जाने दूँगा ---तो सावित्री बोली मुझे सौ पुत्रो की माँ बना दो अखंड सौभाग्य दो --यम के तथास्तु कहने पे वो फिर उनके पीछे चली तो अब यमराज क्रोधित हो बोले पुत्री अब लौट जाओ --
--तब सावित्री ने कहा --
''न तेSपवर्ग:सुकृताद् विनाकृतस्तथा यथान्येषु वरेषु मानद ''
--हे मान्यवर आपने जो पहले वर दिए उनकी और इस अंतिम वर की स्थिति एक सी नहीं है ,अंतिम वर बिना सत्यवान के पूर्ण नहीं हो सकता --
--हे मान्यवर आपने जो पहले वर दिए उनकी और इस अंतिम वर की स्थिति एक सी नहीं है ,अंतिम वर बिना सत्यवान के पूर्ण नहीं हो सकता --
''वरातिसर्ग: शतपुत्रता मम त्वयैव दत्तो ह्रियते च में पति: | ''
---मुझे पुत्रवती होने का वर देके मेरे ही पति को ले जाते हैं ?-आपके वचन की लाज रखने के लिये ही मैं सत्यवान के प्राणों को वापिस मांगती हूँ।
और यमराज ने ये कहते हुए ----
''ऐष भद्रे मया मुक्तो भर्ता ते कुलनंदनी
तोषितोSहं त्वया साध्वि वाक्यैरधर्मार्थसंहितै:|| ''
---------तूने अपने धर्मयुक्त वचनों द्वारा मुझे संतुष्ट किया ,मैं तेरे पति को छोड़ता हूँ।
--पश्चात दोनों का घर आना ,दोनों परिवारों में ख़ुशी।
-----और ये कथा ऋषि मार्कण्डेय ने युधिष्ठर को सुनाई जब युधिष्ठर ने उनसे पूछा की --मुनिवर क्या कोई द्रौपदी से बड़ी पतिव्रता स्त्री भी इस संसार में हुई है ,जिसने इतने कष्ट भी सहन किये हों।
--- कहानी जो भी हो --ये सदियों पहले के लोकमन की झांकी तो है ही। तब भी एक सशक्त स्त्री को कोई नहीं अपनाना चाहता था --क्यूंकि समाज पुरुष प्रधान था ,अपने से अधिक गुणी स्त्री से पुरुषों को हेठी होती।
साथ ही , सर्वगुणसम्पन्न कन्या के लिये माता-पिता को तप करना पड़ता था। कन्या यदि शिक्षित है शूरवीर है ,सत्यनिष्ठ मृदुल और गुणों से युक्त है तो वो अपना जीवन साथी चुन के माता-पिता की सहमति से विवाह करे --यही ऋग्वेद का भी कहना है। --
जहां तक प्रश्न है बरगद वृक्ष का तो इस पूरी कथा में बरगद कहीं नहीं है। शायद व्यास पीठ से कालांतर में प्रकृति के संरक्षण और संवर्धन हेतु बरगद की महत्ता को इस व्रत से जोड़ दिया गया।
आज हम -मिनसना पूजना ,कथा ,बरगद की टहनी तोड़ के इसे पति मान गमले में रख उसकी पूजा करते हैं और दूसरे दिन बरगद को घर में नहीं रहना चाहिये तो उसे छत पे फेंक देते हैं --यानी आपने पति को फेंक दिया। व्रत का स्वरूप ही बदल गया --क्यूँ ? क्यूंकि कन्याओं को वो शिक्षा और दीक्षा ही नहीं मिल रही जो बुद्धि का विकास करे --एक बंधे बँधाये ढर्रे पे चल पड़े हैं सभी --खाओ पियो मौज करो और बाजार के हाथों में खेलो।
--महाभारत के रामोपाख्यानपर्व में 293 से 299 -अध्याय तक पतिव्रतामहात्म्यपर्व के अंतर्गत सत्यवान-सावित्री की कथा विस्तार से है। पढ़िए पढ़ के आनंद आ जायेगा और कथा के कई अर्थ समझ आएंगे --
वटसावित्री व्रत की शुभकामनायें सभी को --आभा ---