आभा अग्रवाल
'' अपनी बीती '' (सत्यघटना )
कैम्पस स्लैकशन आज का ट्रेंड है। सैंतीस - अड़तीस वर्ष पूर्व डिग्री लेने के पश्चात अखबारों से या जान-पहचान से ही मालूम होता था कहाँ मिलेगी नौकरी। ''अपने पैरों पर खड़े होना'' तब भी ''टेढ़ी खीर'' ही था| MSc के बाद एक महीना "घर" में बैठना इतना असहज होगा कभी सोचा भी न था। ये वही तो घर है जहाँ "पंछी ''बनी उड़ती रही बचपन से अब तक, फिर अब क्या हो गया ? शायद सभी को ऐसा ही कुछ अनुभव होता हो। इसी उधेड़बुन में थी और इसी बीच टिहरी कन्या विद्यालय से राजमाता का बुलावा आया। मैं स्वेच्छा से टीचर बनना नही चाहती थी पर एक महीने में ही सारे सपने ''गूलर का फूल ''हो गये थे। इससे पहले विज्ञानं पढने के चक्कर में पंतनगर से होमसाइंस के डिप्लोमा को ठुकरा चुकी थी। इसलिये इस बार कोई ''अटकल पच्चू '' नही चलाया और TGMO की बस में सवार होकर माँ के साथ आ गयी उत्तरकाशी से टिहरी। लेकिन हाय री किस्मत - महल में इन्टरव्यू होना था पर बाहर ही राजमाता का फरमान लिए एक आदमी मिल गया। उसने बताया की तबियत अचानक खराब होने से उन्हें दिल्ली जाना पड़ा।
माँ ने सोचा आज बिटिया को विद्यालय घुमाया जाये। विद्यालय देखने की "जिज्ञासा" तो थी ही क्यूंकि कभी मेरी माँ भी यहाँ पढ़ी थीं और शिक्षिका भी रह चुकी थीं। पर माँ से कहा हम आज ही लौट चलेंगे। बस में तब गेट सिस्ट्म हुआ करता था, समय से ही बसें छूटती थीं। इस बीच माँ ने अपने एक रिश्ते के भाई से मुलाकात करवाई, वो बैंक मैनेजर थे। लंच का समय था और जब हम पहुंचे तो वे खाना खा रहे थे। केवल एक दाल और रोटी. बोले मैं कम से कम में गुजारा करता हूँ और जितना भी मेरे पास है उससे गरीब बच्चों को पढ़ाता हूँ, परिवार में भी यही संस्कार हैं - वो मेरे जीवन का शुरूआती सबक था जो आज भी फ़ालतू खर्च नही करने देता। मन पे अंकुश हम स्वयं ही लगा सकते हैं। खुद खाया तो क्या खाया, किसी के काम आये यही जिन्दगी। कहना नही चाहिये पर अपनी कमाई होने पे एक बच्चे की फीस तो देनी ही है - यह सीख लेकर मैं उठी वहां से और ईश्वर ने साथ भी दिया संकल्प पूरा करने में।
पहाड़ों का जुलाई का महिना - कब झड़ी लग जाये. और हुआ भी यूं ही। लो झड़ी लग गयी, डुंडा तक आते आते घना अँधेरा घिर आया और स्वाद में सुगंध की तरह ये खबर कि सड़के बंद हो गयी है। कानो में सुनाई भी पड़ा कि पहाड़ तीन जगहों पे टूट चुके है और सड़को पर मलबा आ गया है। यदि आपने कभी पहाड़ी रास्तों में सफर किया हो तो आपको मालूम होगा यहाँ आपको सुविधा के नाम पे सड़क किनारे चाय की दुकानें ही मिलेंगी वो भी अँधेरा घिरते ही बंद हो जाती हैं. अब रात भर कहाँ रुकें, कई सारी बसे पर महिला यात्री केवल हम दो। हमने निश्चय किया अठारह मील जाना है तो पैदल चलते है। कुछ दूर तक सह यात्री चले पर फिर बारिश, अँधेरे और ठंड ने सभी के "हौसले" पस्त कर दिये। सभी यात्री दुकानों की बैंच पे बैठ गये। मन हमारा भी घबराया, मजबूत इरादों की" उड़ान" "टूटने" लगी पर हम दोनों माँ बेटी चलती रहीं। रात्री का अन्धकार, सड़क के एक ओर विशालकाय काला पहाड़ तो दूसरी ओर खाई - नीचे बहती गंगा की सांय-सांय - वो भी बरसात की चढ़ी हुई गंगा, झींगुरों का शोर ,बारिश की बौछार और गिरते पत्त्थर। कुल मिलाकर भय का वातावरण बना हुआ था।
पिछले वर्ष तांबाखानी में पत्थर गिरने से मरे किस्णु की याद आ रही थी रह -रह के - लोग कहते हैं वो यहीं घूम रहा है भूत बनके ! रात का पक्षी भी बोल रहा था, और सड़क पर पड़ा मलबा दिखाई भी नही दे रहा था, जरा सा पैर गलत पड़ा तो सीधे गंगा शरण ! इस पर कहीं कहीं जुगनू भी थे जगमग करते हुए जो मन को ढाढस बंधा रहे थे हम हैं न साथ तुम्हारे। यूँ ही खतरों से खेलते हम ब्रह्ममुहूर्त में सवेरे चार बजे घर के किवाड़ खटखटा रहे थे। पिताजी को लगा इस वक्त कैसे आ सकती हैं ये लोग, कोई साधन भी नही, बरखा भी तेज, सड़क भी टूटी हुई, जरुर बस'' ढंगार '' [खाई ] में गिर गयी होगी, जरुर इन लोगो के साथ कोई हादसा हो गया है। ये उन दोनों का भूत आवाज दे रहा होगा! लेकिन हमें देख वो अचंभित रह गये खूब डांट भी पड़ी दुःसाहस के लिये। कई दिनों तक अस्थि पंजर ढीले रहे, हड्डियाँ कीर्तन करती रहीं ,पर मन प्रसन्न था मानो कोई किला फतह किया था।बरसात के महीनों में सड़क पे कच्चे पहाड़ का मलबा रपटन बना देता है ,ऊपर से अँधेरा ,टूटते पहाड़ से गिरते पत्थर और हर वर्ष पत्थर गिरने से हुई मौतों की याद जो उस वक्त मन पे हावी थी ---15 -20 किलोमीटर का सर्द -डरावना पर रोमांचक सफर आज भी रोमांचित कर देता है।
जी ये मेरी ही ''आप बीती '', हाँ ! माँ के साथ का ये मेरा पहला रोमांचक अनुभव। इससे अनुभव ने जीवन के आरम्भ में ही मुझे जीवट दिया, विजय का आभास सा दिलाया। और ये भूत, भविष्य और वर्तमान तो सब समय ही है, और अगर खुद पर भरोसा हो तो विजय ही विजय है, विजय अपने को पाना ही तो है। हाँ भूत मुझे तब भी नही मिला और आज भी खोज ही रही हूँ, शायद कभी मिले
आभा अग्रवाल
******जिस घर की में कहानी लिखी गयी उसी घर की किचन में। सिलबट्टे पे मसाला पीस के भिंडी काटती तब की आभा -1976 -यादें
कैम्पस स्लैकशन आज का ट्रेंड है। सैंतीस - अड़तीस वर्ष पूर्व डिग्री लेने के पश्चात अखबारों से या जान-पहचान से ही मालूम होता था कहाँ मिलेगी नौकरी। ''अपने पैरों पर खड़े होना'' तब भी ''टेढ़ी खीर'' ही था| MSc के बाद एक महीना "घर" में बैठना इतना असहज होगा कभी सोचा भी न था। ये वही तो घर है जहाँ "पंछी ''बनी उड़ती रही बचपन से अब तक, फिर अब क्या हो गया ? शायद सभी को ऐसा ही कुछ अनुभव होता हो। इसी उधेड़बुन में थी और इसी बीच टिहरी कन्या विद्यालय से राजमाता का बुलावा आया। मैं स्वेच्छा से टीचर बनना नही चाहती थी पर एक महीने में ही सारे सपने ''गूलर का फूल ''हो गये थे। इससे पहले विज्ञानं पढने के चक्कर में पंतनगर से होमसाइंस के डिप्लोमा को ठुकरा चुकी थी। इसलिये इस बार कोई ''अटकल पच्चू '' नही चलाया और TGMO की बस में सवार होकर माँ के साथ आ गयी उत्तरकाशी से टिहरी। लेकिन हाय री किस्मत - महल में इन्टरव्यू होना था पर बाहर ही राजमाता का फरमान लिए एक आदमी मिल गया। उसने बताया की तबियत अचानक खराब होने से उन्हें दिल्ली जाना पड़ा।
माँ ने सोचा आज बिटिया को विद्यालय घुमाया जाये। विद्यालय देखने की "जिज्ञासा" तो थी ही क्यूंकि कभी मेरी माँ भी यहाँ पढ़ी थीं और शिक्षिका भी रह चुकी थीं। पर माँ से कहा हम आज ही लौट चलेंगे। बस में तब गेट सिस्ट्म हुआ करता था, समय से ही बसें छूटती थीं। इस बीच माँ ने अपने एक रिश्ते के भाई से मुलाकात करवाई, वो बैंक मैनेजर थे। लंच का समय था और जब हम पहुंचे तो वे खाना खा रहे थे। केवल एक दाल और रोटी. बोले मैं कम से कम में गुजारा करता हूँ और जितना भी मेरे पास है उससे गरीब बच्चों को पढ़ाता हूँ, परिवार में भी यही संस्कार हैं - वो मेरे जीवन का शुरूआती सबक था जो आज भी फ़ालतू खर्च नही करने देता। मन पे अंकुश हम स्वयं ही लगा सकते हैं। खुद खाया तो क्या खाया, किसी के काम आये यही जिन्दगी। कहना नही चाहिये पर अपनी कमाई होने पे एक बच्चे की फीस तो देनी ही है - यह सीख लेकर मैं उठी वहां से और ईश्वर ने साथ भी दिया संकल्प पूरा करने में।
पहाड़ों का जुलाई का महिना - कब झड़ी लग जाये. और हुआ भी यूं ही। लो झड़ी लग गयी, डुंडा तक आते आते घना अँधेरा घिर आया और स्वाद में सुगंध की तरह ये खबर कि सड़के बंद हो गयी है। कानो में सुनाई भी पड़ा कि पहाड़ तीन जगहों पे टूट चुके है और सड़को पर मलबा आ गया है। यदि आपने कभी पहाड़ी रास्तों में सफर किया हो तो आपको मालूम होगा यहाँ आपको सुविधा के नाम पे सड़क किनारे चाय की दुकानें ही मिलेंगी वो भी अँधेरा घिरते ही बंद हो जाती हैं. अब रात भर कहाँ रुकें, कई सारी बसे पर महिला यात्री केवल हम दो। हमने निश्चय किया अठारह मील जाना है तो पैदल चलते है। कुछ दूर तक सह यात्री चले पर फिर बारिश, अँधेरे और ठंड ने सभी के "हौसले" पस्त कर दिये। सभी यात्री दुकानों की बैंच पे बैठ गये। मन हमारा भी घबराया, मजबूत इरादों की" उड़ान" "टूटने" लगी पर हम दोनों माँ बेटी चलती रहीं। रात्री का अन्धकार, सड़क के एक ओर विशालकाय काला पहाड़ तो दूसरी ओर खाई - नीचे बहती गंगा की सांय-सांय - वो भी बरसात की चढ़ी हुई गंगा, झींगुरों का शोर ,बारिश की बौछार और गिरते पत्त्थर। कुल मिलाकर भय का वातावरण बना हुआ था।
पिछले वर्ष तांबाखानी में पत्थर गिरने से मरे किस्णु की याद आ रही थी रह -रह के - लोग कहते हैं वो यहीं घूम रहा है भूत बनके ! रात का पक्षी भी बोल रहा था, और सड़क पर पड़ा मलबा दिखाई भी नही दे रहा था, जरा सा पैर गलत पड़ा तो सीधे गंगा शरण ! इस पर कहीं कहीं जुगनू भी थे जगमग करते हुए जो मन को ढाढस बंधा रहे थे हम हैं न साथ तुम्हारे। यूँ ही खतरों से खेलते हम ब्रह्ममुहूर्त में सवेरे चार बजे घर के किवाड़ खटखटा रहे थे। पिताजी को लगा इस वक्त कैसे आ सकती हैं ये लोग, कोई साधन भी नही, बरखा भी तेज, सड़क भी टूटी हुई, जरुर बस'' ढंगार '' [खाई ] में गिर गयी होगी, जरुर इन लोगो के साथ कोई हादसा हो गया है। ये उन दोनों का भूत आवाज दे रहा होगा! लेकिन हमें देख वो अचंभित रह गये खूब डांट भी पड़ी दुःसाहस के लिये। कई दिनों तक अस्थि पंजर ढीले रहे, हड्डियाँ कीर्तन करती रहीं ,पर मन प्रसन्न था मानो कोई किला फतह किया था।बरसात के महीनों में सड़क पे कच्चे पहाड़ का मलबा रपटन बना देता है ,ऊपर से अँधेरा ,टूटते पहाड़ से गिरते पत्थर और हर वर्ष पत्थर गिरने से हुई मौतों की याद जो उस वक्त मन पे हावी थी ---15 -20 किलोमीटर का सर्द -डरावना पर रोमांचक सफर आज भी रोमांचित कर देता है।
जी ये मेरी ही ''आप बीती '', हाँ ! माँ के साथ का ये मेरा पहला रोमांचक अनुभव। इससे अनुभव ने जीवन के आरम्भ में ही मुझे जीवट दिया, विजय का आभास सा दिलाया। और ये भूत, भविष्य और वर्तमान तो सब समय ही है, और अगर खुद पर भरोसा हो तो विजय ही विजय है, विजय अपने को पाना ही तो है। हाँ भूत मुझे तब भी नही मिला और आज भी खोज ही रही हूँ, शायद कभी मिले
आभा अग्रवाल
******जिस घर की में कहानी लिखी गयी उसी घर की किचन में। सिलबट्टे पे मसाला पीस के भिंडी काटती तब की आभा -1976 -यादें
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