बैठेठाले की बुढ़भस।।आभा।।
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पुस्तक पढ़ना प्रारम्भ करते समय लिखे गये आलेख की पुनरावृत्ति - उसे -पूरा पढ़ने पे हो - निष्कर्ष वही हो पर कुछ और प्रमाणिक्ताओं के साथ हो तो आनंद गीता पढ़ने से मिलने वाले आनंद की तरह ही होता है ----पुनरावलोकन -पुस्तक की समाप्ति पर ------
मैं कई बार यही सोचती हूँ --वो समय जब गीता लिखी गयी ,समाज को संस्कारित करने का ,जीने की कला सिखाने का ,प्रकृति के महत्व को समझाने का ,साम दाम दंड भेद से मानव को सामाजिक प्राणी बनाने का समय था। उस समय हमारे ऋषि मुनि -जो कुछ ईश्वरीय गुणों और बुद्धि से युक्त ज्ञान के साथ पैदा हुए और तप से उसे बढ़ाया ( ईश्वर प्रदत्त बुद्धि और गुण आज भी बहुत से इंसानों में हैं ,जिसे हम -giftedness कहते हैं ) -समाजनिर्माण के कार्य में लगे हुए थे। वेद उनकी प्रज्ञा में अवतरित हुए। मंत्र बने। हम वेद पढ़ें तो मंत्रों में उनके ऋषियों का नाम भी पाएंगे - इसीलिए --वेद ज्ञान -प्रभुवाणी है ,उन्हें ऋषिमुनियों ने संजोया , प्रत्यक्ष किया। वेद मंत्रों में आदि मानव और समाज के लिए नियम बनाये गए , प्रकृति से मनुष्य का परिचय ,सामंजस्य और संवर्धन ये सभी बताया गया - पर जनसंख्या बढ़ने के साथ ही मानव के समक्ष अन्य बहुत सी चुनौतियाँ आने लगीं -ऐसे में शिक्षा ही चपेट में आयी , मेहनत और शक्ति से सब मिलने लगा तो शिक्षा को समय बर्बाद मान उसकी अवहेलना हुई ( ये प्रवृति आज भी समाज में ज्यूँ की त्युं है ) फिर उसे राजघरानों की सम्पति मान लिया गया। आम गृहस्थ के पास ज्ञानार्जन का इतना समय न था -कि इन मंत्रों को समझे ऋषिमुनियों , शिक्षकों ,बुद्धिजीवियों ,वैज्ञानिकों ,और आमगृहस्थ में अंतर था , जीवनयापन कठिन था , बस गृहस्थी चलाने लायक ज्ञान मिल जाए आम जन यही चाहता था तब भी।
ऐसे समय में बुद्धिजीवियों को ये भय सताने लगा कि बिना शिक्षित हुए कहीं समाज अराजक न हो जाए। सबने मिलके समाधान निकाला कि वेद से इतर कोई उपनिषद हो जो क्लिष्ट न हो और सभी के लिए सुलभ हो। जीवन के प्रत्येक क्षण को सहज और सुंदर कैसे बनायें ये गान के रूप में हो -- मंथन के पश्चात इस सभी के लिए " गीतागान " को उपयुक्त माना गया। कृष्ण ने सूर्य को जो सृष्टि का राजा था गीता ज्ञान दिया -जिसे उन्होंने लोक में - प्रतिदिन के गान के रूप में गृहस्थियों के लिए गाया।
प्रभु मुख से निःसृत गीता -गान -- संक्षिप्त था ,हर गृहस्थ के लिए था ,हर पल के लिये था -- उसे व्यास मुनि ने जन -जन के लिए प्रत्यक्ष किया --इसका प्रमाण भी कृष्ण ने गीता में ही दिया है जब वो अर्जुन से कहते है --ये ज्ञान बहुत पुराना है तब तू नही था --मैंने इसे सूर्य को दिया था --सूर्य वो ऋषि जो सूर्यलोक बना के संसार का पिता बना और आज का प्रत्यक्ष देवता है --जिसके न होने से सृष्टि भी समाप्त ही समझो।
साथ ही कृष्ण ये भी कह रहे है --मैं मुनियों में व्यास मुनि हूँ --- ऋषि व्यास को ही गीता महाभारत ,भागवत और कई अन्य पुराणों की रचना का श्रेय जाता है।
मेरी कल्पना तो यही है कि गीता को वेदों के साथ ही रचा गया। वेद तब शिक्षा के लिए पाठ्यक्रम का हिस्सा थे - गीता को प्रतिदिन के पाठ के रूप में गृहस्थियों के लिए लिखा गया ,ठीक ऐसे ही जैसे वाल्मीकि रामायण और तुलसी रामायण।
समय का पहिया घूमता रहा - मनुष्य भौतिक वस्तुओं में उलझता गया -वेद और गीता समाज के एक छोटे से अंग के लिए ही सीमित हो गए ,यदाकदा लोग इनके पास जाते पर केवल हाथ जोड़ने के लिए।
जीवन जीने की कला ,योग ,यम-नियम ,प्राणायाम एवं श्रद्धा ,संस्कार युक्त कर्मप्रधान ,त्यागमय भोग ,का मार्ग प्रशस्त करने के लिए उपनिषद थी गीता पर किन्ही कारणों से ये उपनिषद लोकप्रिय (बेस्ट सैलर) की श्रेणी में नही आ पाया ,उस समय के ''बेस्ट सैलर'' का निर्णय पुस्तक की '1000' कॉपी बिकने पे नही होता था अपितु समाज का हर वर्ग उसे अपनाये ,उसकी चर्चा करे ,उस पुस्तक से अपने को जोड़े उस पुस्तक को जिये तब वो लोकप्रिय की श्रेणी में आती थी।
शायद "गीता माफलेषुकदाचन '' के सिद्धांत पे गायी गयी। वो युग भौतिक संसाधनों को बढ़ाने और संजोने की प्रारम्भिक अवस्था में था अधिकतर समाज के लिए भौतिक सम्पन्नता के आगे आध्यात्मिक सम्पन्नता का कोई मोल नहीं था।
ऐसे में " फल की चिंता मत कर " को अपनाने वाले समाज में केवल मुट्ठी भर लोग ही रहे होंगे।
अब तक व्यास मुनि महाभारत लिख चुके थे। महाभारत उस काल का इतिहास है ,जो मनु से प्रारम्भ हो के कृष्ण के समय तक का लिखित दस्तावेज है -सरल और सहज भाष्य। इसमें मानव मन की प्रत्येक प्रवृति का वर्णन है -लोभ-लालच से लेकर वरदानों का प्रामाणिक आलेख ,जड़ों से जोड़ता उपनिषद जो अपने अतीत पे गर्व करना सिखा रहा था और जीवन-यापन तथा सफलता-असफलताओं के प्रामाणिक उदाहरण दे रहा था। ये उपनिषद समाज में गया -लोकप्रियता की कसौटी पे खरा उतरा , वो सारे उपनिषदों में सबसे अधिक गाया जा रहा था ,इसमें और भी कई गीताएं थीं जो विद्वानों के मुंह से गायी गयी थीं ,पर कोई भी पूर्ण नही थी --तो
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् --
कृष्ण, वेदव्यास [कृष्णद्वैपायन ] इत्यादि ऋषियों ने मन्त्रणा की और सृष्टि के आरम्भ में कृष्ण द्वारा गाये गए " गीतागान " को समष्टि के लिए सर्वोच्च ग्रन्थ मानके उसे महाभारत में समाहित किया गया।
महाभारत के युग में लोभ ,लालच स्वार्थ ने मानव को जकड़ लिया ,वेदों को क्लिष्ट समझ के छोड़ दिया गया --- ऐसे समय में कृष्ण ने समाज को संस्कारित करने के लिए गीता का सहारा लिया। वो भक्तियोग का समय भी था --
''ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्द्देशेअर्जुन तिष्ठति --मद्याजी मां नमस्कुरु " --
से सभी में ईश्वरीय तत्व है की पुनर्स्थापना की गयी।
गीता को प्रभावशाली बनाने के लिए उसे युद्ध क्षेत्र में और युद्ध के प्रारम्भ में ही प्रस्तुत किया गया। जनता अहंकारी और पांडवों को पीड़ा देने वाले कौरवों का विनाश चाहती थी। अत: बड़े मनोयोग से युद्ध को देख रही थी। .......
भाई -भाई ,सभी बन्धु-बांधव आमने सामने हों ,रणभेरी बज चुकी हो , जब सभी बड़े अपने क्षुद्र स्वार्थों और पूर्वाग्रह युक्त कर्तव्यनिष्ठा के लिये अत्याचारी शासन के साथ हों --ऐसे में अर्जुन का अवसाद , कृष्ण का गीताज्ञान --और उस ज्ञान से मिली जीत ,निश्चय ही समाज को गीता के उपदेशों पे विश्वाश करने को प्रेरित करती।
बस यही समय उपयुक्त समझा गया जब सृष्टि के आरम्भ में प्रभु के द्वारा गाये गए गान को ,जो मानव के लिये जीने का आधार था -एक बार पुन: प्रकट किया गया।
महाभारत में स्पष्ट है कि युद्ध से पूर्व ,युद्ध टालने की हर छोटी से छोटी कोशिश की गयी। दूत भेजे गये ,यहां तक कि कृष्ण स्वयं दूत बनके गये ,एक- एक व्यक्ति से पूछा गया कि वो युद्ध होने की अवस्था में किसके साथ होगा --तो क्या अर्जुन जैसा वीर ऐन युद्ध के आरम्भ होने पे अपना गांडीव नीचे रख देता ? जबकि अर्जुन को कृष्ण पूर्व में ही पूरी तरह से देख-परख के ठोक-बजा के युद्ध के लिए तैयार कर चुके थे।
700 -श्लोकों के उपदेशों तक दोनों ओर की सेना प्रतीक्षा करती ! जबकि दुर्योधन शीघ्रातिशीघ्र पांडवों का अस्तित्व समाप्त कर देना चाहता था । शकुनि जैसे अराजक तत्व युद्ध को शीघ्रातिशीघ्र चाहते थे ? क्या वो लोग अर्जुन को गांडीव भूमि पे रखते हुए देख चुपचाप खड़े रहते ! कौरव तो अनेकों बार अनैतिक व्यवहार और पांडवों को मारने की कोशिश कर ही चुके थे -तो- वो गीता के सातसौ श्लोक सुनने के लिए कैसे खड़े रह सकते थे ?
गीता में प्रथम अध्याय ही युद्ध के सम्बन्ध में है अन्य सभी अध्याय समष्टि को कृष्ण का गान हैं।
क्या हम ये सोच सकते हैं कि प्रथम अध्याय कृष्ण की सहमति से इसमें क्षेपक किया गया और फिर इस गीतोपनिषद को महाभारत में डाला गया ? बीच-बीच में अर्जुन से वार्तालाप के द्वारा इसकी युद्ध में और महाभारत में होने की पृष्ठभूमी को भी परिभाषित किया गया।
बस यूँ ही कुछ नया विचार यदि आपकी सोच से भी मिलता हुआ हो तो खाली पड़े दिमागी घोड़े दौड़ने लगते हैं।
भगवद्गीता पे एक पुस्तक पढ़ी --पुस्तक तो अंग्रेजी में है और अंग्रेजों के लिए ही लिखी गयी है -मैंने खरीदी भी पिछले वर्ष टेक्सास में ही थी --शायद -- EKNATH EASWARAN --केरल के विद्वान थे जो कलिफ़ोर्निया में रहने लगे उनके द्वारा लिखी गयी है ,पर है अच्छी।
एक बात जो मेरे मन में भी चलती है वो मुझे इस पुस्तक में भी मिली --लेखक कहता है की गीता एक पूर्ण उपनिषद है। ये महाभारत का भाग हो ही नही सकता। इसमें वेदों का मंथन कर जीवनजीने की उत्कृष्ट कला का वर्णन है और ऐसा उपदेश लड़ाई के वक्त सम्भव ही नही। ये वेदों के समय में ही लिखा गया एक स्वतन्त्र उपनिषद है ,समाज में अधिक प्रचलित न होने के कारण इसे महाभारत के युद्ध काल के पहले डाला गया ,लोकहित हेतु । युद्ध के नाम पे गीता का केवल प्रथम अध्याय ही है।
"गीता की विशेषता यही है ,उसे मन की जिस अवस्था में पढो ,समाधान उसी के अनुरूप मिलता है।"
मैं अभी इस लायक नही हूँ कि गीता का विश्लेषण कर पाऊं ,पर यूँ ही लिख दिया ,शायद किसी और की भी मेरे जैसी सोच हो--कि गीता अपने आप में एक संपूर्ण उपनिषद है जो वैदिक काल की रचना है --इसे महाभारत में डाला गया इसलिये ये महाभारत में भी है और उससे बाहर भी पूर्ण ही है ---कन्हैया और वेदव्यास जी से क्षमा प्रार्थना के आवेदन सहित-
गीता वैदिक काल का ही गान है ,पर उसके मंत्र उतने क्लिष्ट न होकर सरल और सहज हैं , भाषा वेदमंत्रों से अलग है -आम संस्कृत बोलचाल की भाषा - इस कारण कालांतर में बुद्धिजीवी इसे वेदों के साथ बना ग्रंथ नहीं मानते।
मुझे लो लगता है महाभारत में अन्य जितनी भी गीता हैं वो श्रीकृष्ण के मुंह से निःसृत गीता ज्ञान का ही सार हैं - "गीता "वो उपनिषद जो सृष्टि के आरम्भ में ही वेदों के साथ अवतरित हुआ पर कुछ स्थितप्रज्ञ ऋषियों तक ही सिमित होके रह गया।
कुछ जोड़ा -कुछ मिटाया और पुरानी रचना को " नवानि गृह्णाति नरोपराणि " का कलेवर -कैवल्य दिया -बैठेठाले की बुढ़भस।।आभा।।