Tuesday, 27 March 2018




बैठेठाले की बुढ़भस।।आभा।।
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पुस्तक पढ़ना प्रारम्भ करते  समय  लिखे  गये आलेख की पुनरावृत्ति - उसे -पूरा पढ़ने पे हो - निष्कर्ष वही हो पर  कुछ और प्रमाणिक्ताओं के साथ  हो तो आनंद गीता पढ़ने से मिलने वाले आनंद की तरह ही होता है ----पुनरावलोकन -पुस्तक  की समाप्ति पर ------

मैं  कई बार यही सोचती हूँ --वो समय जब गीता लिखी गयी ,समाज को संस्कारित करने का ,जीने की कला सिखाने का ,प्रकृति के महत्व को समझाने का ,साम दाम दंड भेद से मानव को सामाजिक प्राणी बनाने का समय था।  उस समय  हमारे ऋषि मुनि -जो कुछ ईश्वरीय गुणों और बुद्धि से युक्त ज्ञान के साथ पैदा हुए और तप से उसे बढ़ाया ( ईश्वर प्रदत्त बुद्धि और गुण आज भी बहुत से इंसानों में हैं ,जिसे  हम -giftedness  कहते हैं )   -समाजनिर्माण के कार्य में लगे हुए थे।  वेद उनकी प्रज्ञा में अवतरित हुए। मंत्र बने।  हम वेद पढ़ें तो मंत्रों में उनके ऋषियों का नाम भी पाएंगे -  इसीलिए --वेद ज्ञान -प्रभुवाणी है ,उन्हें ऋषिमुनियों ने संजोया , प्रत्यक्ष किया। वेद मंत्रों में  आदि मानव और समाज के लिए नियम बनाये गए , प्रकृति से मनुष्य का परिचय ,सामंजस्य और संवर्धन ये सभी बताया गया - पर जनसंख्या बढ़ने के साथ ही मानव के समक्ष अन्य बहुत सी चुनौतियाँ आने लगीं  -ऐसे में शिक्षा ही चपेट में आयी , मेहनत और शक्ति से सब मिलने लगा तो शिक्षा को समय बर्बाद  मान  उसकी अवहेलना हुई ( ये प्रवृति आज भी समाज में ज्यूँ की त्युं है )  फिर उसे राजघरानों की सम्पति मान लिया गया।  आम गृहस्थ के पास  ज्ञानार्जन का इतना समय न  था -कि इन मंत्रों को समझे  ऋषिमुनियों , शिक्षकों ,बुद्धिजीवियों ,वैज्ञानिकों ,और आमगृहस्थ में अंतर   था , जीवनयापन कठिन था , बस गृहस्थी चलाने लायक ज्ञान मिल जाए आम जन यही चाहता था तब भी। 
ऐसे समय में बुद्धिजीवियों को ये भय सताने लगा कि बिना शिक्षित हुए कहीं समाज अराजक न हो जाए। सबने मिलके समाधान निकाला कि वेद से इतर कोई उपनिषद हो जो क्लिष्ट न हो और सभी के लिए सुलभ हो। जीवन के प्रत्येक क्षण को सहज और सुंदर कैसे बनायें ये गान के रूप में हो -- मंथन के पश्चात इस सभी के लिए  " गीतागान " को उपयुक्त माना गया।  कृष्ण ने सूर्य को जो सृष्टि का राजा था  गीता ज्ञान दिया -जिसे उन्होंने लोक में - प्रतिदिन के  गान  के रूप में गृहस्थियों के लिए गाया।  
 प्रभु मुख से  निःसृत गीता -गान  -- संक्षिप्त था ,हर गृहस्थ के लिए था ,हर पल के लिये था -- उसे व्यास मुनि ने जन -जन के लिए प्रत्यक्ष किया --इसका प्रमाण भी कृष्ण ने गीता में ही दिया है जब वो अर्जुन से कहते है --ये ज्ञान बहुत पुराना है तब तू नही था --मैंने इसे सूर्य को दिया था --सूर्य वो ऋषि जो सूर्यलोक बना के  संसार का पिता बना और आज का प्रत्यक्ष देवता है --जिसके न होने से सृष्टि भी समाप्त ही समझो।
 साथ ही कृष्ण ये भी कह रहे है --मैं मुनियों में व्यास मुनि हूँ --- ऋषि व्यास को ही गीता महाभारत ,भागवत और कई अन्य पुराणों की रचना का श्रेय जाता है।
मेरी कल्पना तो यही है  कि गीता को वेदों के साथ ही रचा गया। वेद तब शिक्षा के लिए पाठ्यक्रम का हिस्सा थे - गीता को प्रतिदिन के पाठ  के रूप में गृहस्थियों के लिए लिखा गया  ,ठीक ऐसे ही जैसे वाल्मीकि रामायण और तुलसी रामायण।
समय का पहिया घूमता रहा - मनुष्य भौतिक वस्तुओं में उलझता गया -वेद और गीता समाज के एक छोटे से अंग के लिए ही सीमित हो गए ,यदाकदा लोग इनके पास जाते पर केवल हाथ जोड़ने के लिए।  
जीवन जीने की कला ,योग ,यम-नियम ,प्राणायाम एवं श्रद्धा ,संस्कार युक्त कर्मप्रधान ,त्यागमय भोग ,का मार्ग प्रशस्त करने के लिए उपनिषद थी  गीता पर किन्ही कारणों से ये उपनिषद लोकप्रिय (बेस्ट सैलर) की श्रेणी में नही आ पाया ,उस समय के ''बेस्ट सैलर'' का निर्णय पुस्तक की '1000' कॉपी बिकने पे नही होता था अपितु समाज का हर वर्ग उसे अपनाये ,उसकी चर्चा करे ,उस पुस्तक से अपने को जोड़े उस पुस्तक को जिये तब वो लोकप्रिय की श्रेणी में आती थी। 
शायद "गीता माफलेषुकदाचन '' के सिद्धांत पे गायी गयी।  वो युग भौतिक संसाधनों को बढ़ाने और संजोने की प्रारम्भिक अवस्था में था अधिकतर समाज के लिए भौतिक सम्पन्नता के आगे आध्यात्मिक सम्पन्नता का कोई मोल नहीं था। 
ऐसे में  " फल की चिंता मत कर " को अपनाने वाले समाज में केवल मुट्ठी भर लोग ही रहे होंगे। 
अब तक व्यास मुनि महाभारत  लिख चुके थे। महाभारत उस काल का इतिहास है ,जो मनु से प्रारम्भ हो के कृष्ण के समय तक का  लिखित दस्तावेज है -सरल और सहज भाष्य। इसमें मानव मन की प्रत्येक प्रवृति का वर्णन है -लोभ-लालच से लेकर वरदानों का प्रामाणिक आलेख ,जड़ों से जोड़ता उपनिषद जो अपने अतीत पे गर्व करना सिखा  रहा था और जीवन-यापन तथा सफलता-असफलताओं  के प्रामाणिक उदाहरण दे रहा था।  ये उपनिषद समाज में  गया -लोकप्रियता की कसौटी पे खरा उतरा , वो  सारे उपनिषदों में सबसे अधिक गाया जा रहा था ,इसमें और भी कई गीताएं थीं जो  विद्वानों के मुंह से गायी गयी थीं ,पर कोई भी पूर्ण नही थी --तो 
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् --
कृष्ण, वेदव्यास [कृष्णद्वैपायन ] इत्यादि ऋषियों ने मन्त्रणा की और सृष्टि के आरम्भ में  कृष्ण द्वारा गाये गए " गीतागान "  को समष्टि के लिए सर्वोच्च ग्रन्थ मानके उसे महाभारत में समाहित किया गया।
महाभारत के युग में  लोभ ,लालच स्वार्थ ने मानव को जकड़ लिया ,वेदों को क्लिष्ट समझ के छोड़ दिया गया --- ऐसे समय  में कृष्ण ने समाज को संस्कारित करने के लिए गीता का सहारा लिया।  वो भक्तियोग का समय भी था --
''ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्द्देशेअर्जुन तिष्ठति --मद्याजी मां नमस्कुरु " --
से सभी में ईश्वरीय तत्व है की  पुनर्स्थापना की गयी। 
गीता को प्रभावशाली बनाने के लिए उसे युद्ध  क्षेत्र में और युद्ध के प्रारम्भ में ही प्रस्तुत किया गया। जनता अहंकारी और पांडवों को पीड़ा देने वाले कौरवों का विनाश चाहती थी। अत: बड़े मनोयोग से युद्ध को देख रही थी। ....... 
  भाई -भाई ,सभी बन्धु-बांधव आमने सामने हों ,रणभेरी बज चुकी हो , जब सभी बड़े अपने क्षुद्र स्वार्थों और पूर्वाग्रह युक्त कर्तव्यनिष्ठा के लिये अत्याचारी शासन के साथ हों --ऐसे में अर्जुन का अवसाद , कृष्ण का गीताज्ञान --और उस ज्ञान से मिली जीत ,निश्चय ही समाज को गीता के उपदेशों पे विश्वाश  करने को प्रेरित करती। 
बस यही समय उपयुक्त समझा गया जब सृष्टि के आरम्भ में प्रभु के द्वारा गाये गए गान को ,जो मानव के लिये जीने  का आधार था -एक बार पुन: प्रकट किया गया।
महाभारत में स्पष्ट है कि युद्ध से पूर्व ,युद्ध टालने की हर छोटी से छोटी कोशिश की गयी। दूत भेजे गये ,यहां तक कि कृष्ण स्वयं दूत बनके गये ,एक- एक व्यक्ति से पूछा गया कि वो युद्ध होने की अवस्था में किसके साथ होगा --तो क्या अर्जुन जैसा वीर ऐन युद्ध के आरम्भ होने पे अपना गांडीव नीचे रख देता ? जबकि अर्जुन को कृष्ण  पूर्व में ही पूरी तरह से देख-परख के ठोक-बजा के युद्ध के लिए तैयार कर चुके थे। 
700 -श्लोकों के उपदेशों तक दोनों ओर की सेना प्रतीक्षा करती ! जबकि दुर्योधन शीघ्रातिशीघ्र पांडवों का अस्तित्व समाप्त कर देना चाहता था  । शकुनि जैसे अराजक तत्व युद्ध को शीघ्रातिशीघ्र चाहते थे ? क्या वो लोग अर्जुन को गांडीव भूमि पे रखते हुए देख चुपचाप खड़े रहते ! कौरव तो अनेकों बार अनैतिक व्यवहार और पांडवों को मारने की कोशिश कर ही चुके थे -तो- वो गीता के सातसौ श्लोक सुनने के लिए कैसे खड़े रह सकते थे ? 
गीता में प्रथम अध्याय ही युद्ध के सम्बन्ध में है अन्य सभी अध्याय समष्टि को कृष्ण का गान हैं।
क्या हम ये सोच सकते हैं कि प्रथम अध्याय कृष्ण की सहमति से इसमें क्षेपक किया गया और फिर इस गीतोपनिषद को महाभारत में डाला गया ? बीच-बीच में अर्जुन से वार्तालाप के द्वारा इसकी युद्ध में और महाभारत में होने की पृष्ठभूमी को भी परिभाषित किया गया। 
बस यूँ ही कुछ नया विचार यदि आपकी सोच से भी मिलता हुआ हो तो खाली पड़े दिमागी घोड़े दौड़ने लगते हैं। 
भगवद्गीता पे एक पुस्तक पढ़ी  --पुस्तक तो अंग्रेजी में है और अंग्रेजों के लिए ही लिखी गयी है -मैंने खरीदी भी पिछले वर्ष टेक्सास में ही थी --शायद -- EKNATH EASWARAN --केरल के विद्वान थे जो कलिफ़ोर्निया में रहने लगे उनके द्वारा लिखी गयी है ,पर है अच्छी। 
एक बात जो मेरे मन में भी चलती है वो मुझे इस पुस्तक में भी मिली --लेखक कहता है की गीता एक पूर्ण उपनिषद है। ये महाभारत का भाग हो ही नही सकता। इसमें वेदों का मंथन कर जीवनजीने की उत्कृष्ट कला का वर्णन है और ऐसा उपदेश लड़ाई के वक्त सम्भव ही नही। ये वेदों के समय में ही लिखा गया एक स्वतन्त्र उपनिषद है ,समाज में अधिक प्रचलित न होने के कारण इसे महाभारत के युद्ध काल के पहले डाला गया ,लोकहित हेतु । युद्ध के नाम पे गीता का केवल प्रथम अध्याय ही है।
"गीता की  विशेषता यही  है ,उसे मन की जिस अवस्था में पढो ,समाधान उसी के अनुरूप  मिलता है।"
मैं अभी इस लायक नही हूँ कि गीता का विश्लेषण कर पाऊं ,पर यूँ ही लिख दिया ,शायद किसी और की भी मेरे जैसी सोच हो--कि गीता अपने आप में एक संपूर्ण उपनिषद है जो वैदिक काल की रचना है --इसे महाभारत में डाला गया इसलिये ये महाभारत में भी है और उससे बाहर भी पूर्ण ही है ---कन्हैया और वेदव्यास जी से क्षमा प्रार्थना के आवेदन सहित-
गीता वैदिक काल का ही गान है ,पर उसके मंत्र उतने क्लिष्ट न होकर सरल और सहज हैं , भाषा वेदमंत्रों से अलग है -आम संस्कृत बोलचाल की भाषा - इस कारण कालांतर में बुद्धिजीवी इसे वेदों के साथ बना ग्रंथ नहीं मानते।
मुझे लो लगता है महाभारत में अन्य जितनी भी गीता हैं वो श्रीकृष्ण के मुंह से निःसृत गीता ज्ञान का ही सार हैं - "गीता "वो उपनिषद जो सृष्टि के आरम्भ में ही वेदों के साथ अवतरित हुआ पर कुछ स्थितप्रज्ञ  ऋषियों तक ही सिमित होके  रह गया। 
        कुछ जोड़ा -कुछ मिटाया और पुरानी रचना को " नवानि गृह्णाति नरोपराणि " का कलेवर -कैवल्य दिया -बैठेठाले की बुढ़भस।।आभा।।















Saturday, 24 March 2018



रामनवमी बधाई और पितृ प्रसाद 
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राम अब तुम्हारी न चलेगी
अब तो है रम का राज्य 
ररररराम तुम दीर्घ रूप हो 
रम तुम लघु रूप हो 
जब लघु से ही बनते काम 
तब दीर्घ का क्यों लें नाम 
राम तुमको जपने से 
ऋषि हो गए ग्यानी 
रम को पीने से मानव हो जाता वि --ग्यानी 
 विज्ञान का युग ही तो है ये   कलयुग।  
 राम अब रम की ही सजती  हैं दुकानें 
चमचमाते शीशों के पीछे 
जगमाती दुकानों में रम 
बड़े करीने से जाती सजाई
जितनी पुरानी उतने सुंदर लिबास में
पर राम तू तो है सबसे पुराना  
 तुझे तो तम्बू में ही रहना होगा 
क्यूंकि तू दीर्घ है ,सनातन है
आज की पीढ़ी के लिए रूढ़ि है
तुझे ये  अपमान सहना  होगा !
राम ! तू जनजन में क्या समाया 
तुझे घर से ही बेघर कर दिया 
तेरा मंदिर एक म्लेच्छ ने तोडा 
और हम अब तक देख रहे हैं -
वो सौदाई हैं वोट के 
वो नेता हैं -तेरा जन्म हुआ !
यही नहीं मानते -
तू जो कण-कण में समा गया 
बहस का विषय हो गया !
तुझे एक जरा सी जगह पे क्यों पूजें ?
बुद्धिजीवी यही तर्क हैं देते। 
हर शहर ,गाँव गली मुहल्ले में 
कितने ही रूपों में मिलती रम 
सस्ती से सस्ती महंगी से  महंगी 
ऐसे ही जैसे  तेरी तस्वीर या मूरत
कागज से लेकर चंदन से बनतीं 
रूपये से लेकर अरबों में बिकती ,
पर राम तू -क्यों  कण- कण में जा बसा  
तुझे रहना था अयोध्या ही में। 
तूने रावण जैसे शिवभक्त 
का किया था शिरोच्छेदन 
क्यूंकि ,  वो हो गया था पथभ्रष्ट! 
आज हैं  हम सभी पथभ्रष्ट  -
रम के नशे में है आधी आबादी -
पुनर्संस्थापन मांगती है  जगती 
तो क्या -प्रकृति बदला लेगी? 
हाँ ! मैं भी चाहती हूँ !
प्रकृति के रौद्र रूप में आओ राम -
एक नहीं अब लाखों हैं रावण-
जानकी का होता रोज ही हरण !
सब पे करना होगा शरसंधान। 
हे माँ सीता! राम का प्राकट्य दिवस 
कैसे दूँ बधाई ?
 मेरे इष्ट की मूर्ति तम्बू में है - 
क्षमा करो राम हमें  क्षमा करो 
तुम हो हममें  समाये 
पर , जन्मस्थान की गरिमा 
हम न संभाल पाए 
एक आतातायी के कुकर्म को 
हम आज तक हैं ढोते 
हर वर्ष नवरात्रि पे 
शक्ति आराधना कर 
रामनवमी की खोखली 
बधाई कहते -
हम तेरी नकारा संतानें हैं 
भेड़ हैं -बस-
 शुभकामनायें देने को अभिशप्त
 सुरा सुंदरी का ही वर्चस्व 
रम में हैं डूबे युवा एक तिहाई 
 है लक्ष्मण बिन सूनी  ठकुराई ,
गूँज रही रामनवमी की बधाई -
तेरे लिए बधाई ,मेरे लिए बधाई 
सबके लिए बधाई ,खूब बाजे बधाई 
पर राम तुझे कैसे दूँ बधाई !
राम ! तेरा नाम अब वोटों की फसल है 
मौसिम पे बस नेता ही करते हैं कटाई 
देके प्रजा को रम की बाटली की दुहाई
राम नाम की फसल काटते है सौदाई-
कैसे दूँ रामनवमी की बधाई  ।।आभा।।







Tuesday, 20 March 2018

बैठेठाले का अनर्गल प्रलाप --
प्रश्न === गीता को संजय के मुख से सुनते हैं तो वो कृष्ण के मुख से निःसृत गान कैसे हुआ ?
मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार प्रश्न हल करने की कोशिश की। हो सकता है आने वाले समय में मैं इस प्रश्न को किसी और रूप में हल करूँ ,गीता है ही वो ग्रन्थ जिसके अलग-अलग समय में अलग- अलग अर्थ निकलते है --कहने का तातपर्य ये है कि गीता अपने को प्रकट करती है हमारी आवश्यक्ता  के अनुसार बस इसे पढ़ना पड़ता है मेहनत लगन और श्रद्धा से ,अटूट श्रद्धा जैसी माता-पिता और गुरु पे होती है। 
जब कुछ केने को न हो और बुद्धि भी कुंड हो मन कल्पनाओं के सागर में तैरने लगता है आज यूँ ही गीता गंगा में डुबकी लगाने लगा और लगा अनर्गल प्रलाप करने ---
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै: शास्त्रविस्तरै: । 
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृता।।--
---गीता स्वयं कृष्ण के मुख से निकली ज्ञान गंगा है , पर हम इसे संजय के मुख से ही सुन पाते हैं अतः ये संशय भी हो जाता है कि क्या सही में ये" कृष्ण का गान" है या किसी संजय नामक व्यक्ति ने धृतराष्ट्र जैसे दृष्टिहीन को कृष्ण का नाम लेकर उपकृत किया ?
गीता जगत् जननी है वो किसी को निराश नही करती। गीता में बुद्धि से भी अधिक जो वस्तु है ,बुद्धि से परे है --वो है श्रद्धा।
बच्चे का संसार से प्रथम परिचय माँ ही करवाती है। परिवार में रहते हुए वो अपने सारे रिश्तों को जानने की कोशिश करता है। पर यदि उसकी माँ पे ही श्रद्धा न हो और वो ये कहे ,मैंने तो अपने को पैदा होते हुए देखा ही नही ,क्या पता तुम मेरी माँ हो भी या नही तो बच्चे का जीवन ही नरक हो जायेगा। बच्चा माँ पे विश्वास के साथ ही पैदा होता है --अटूट श्रद्धा --और यही है गीता का ज्ञान।
गीता योगशास्त्र है -योग का शाब्दिक अर्थ है मिलन --गीता में श्रद्धा से हमारा अटूट मिलन होता है और हम कृष्ण तक पहुंचते हैं।
अर्जुन को यूँ ही नही गीता का उपदेश दिया कृष्ण ने --पहले अर्जुन को पूर्ण समर्पण करना पड़ा कृष्ण के सामने --अटूट श्रद्धा --तुम्ही हो माता -पिता तुम्ही हो --
कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव: पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निष्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेSहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।
मैं तुम्हारा शिष्य हूँ प्रभू ,तुम्हारे बताये मार्ग पे चलूंगा ---अब मुझे उचित शिक्षा देकर मेरा मार्गदर्शन करो।
----बच्चा ममममममम बोलने के बाद अपनी तोतली टूटीफूटी भाषा में शब्द बोलने लगता है ,सब सुन-सुन के ( हो सकता है कुछ पूर्वजन्मों की भी यादें हों उसके साथ --जो वो बता नही सकता उस वक्त क्यों कि बोलना नही आता और ये ईश्वर का ही विधान हो सृष्टि चलाने के लिए )--कालांतर में शब्द फिर वाक्य। अभी तक उसे यह नही ज्ञान है कि इस बोलचाल को मैं लिख भी सकता हूँ और लिख सकता हूँ तो कैसे पर अक्षरज्ञान के बाद वो लेखन से परिचित होता है बाराखड़ी जो विभिन्न भाषाओं की अपनी- अपनी है को वो श्रद्धा विशवास से अपनाता है --अ को अ और A को Aलिखा जाता है इसे उसकी श्रद्धा और विशवास अपनाते हैं।
यही श्रद्धा गीता को जननी बनाती है। गीता कृष्ण मुख से ही निःसृत गान है ? यदि ये संशय मन में आ ही गया है तो हमें गीता को बार-बार पढ़ना होगा ,वो अपना भेद अपने आप खोलेगी ,ये अनुभूत प्रयोग है ,दूसरे हमे भागवत और हो सके तो महाभारत का अध्ययन भी करना होगा। भागवत और महाभारत के अध्ययन से आगे पीछे की घटनाओं के माध्यम से हमें स्पष्ट हो जाएगा कि गीतोपदेश श्री कृष्ण का गान ही हैं --जो अर्जुन के माध्यम से पूरी सृष्टि को उपहार स्वरूप दिया गया है --
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।
इस दृष्टि से संजय , कृष्ण ही है ,मैंने कहीं और भी ये पढ़ा था संजय कृष्ण का ही स्वरूप था --सं एक अव्यय है जिसका व्यवहार शोभा, समानता, संगति, उत्कृष्टता, निरंतरता, औचित्य आदि सूचित करने के लिये शब्द के आरंभ में होता है। कभी कभी इसे जोड़ने पर भी मूल शब्द का अर्थ ज्यों का त्यों बना रहता है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता--इसीलिये शायद गीता के वाचक को संजय नाम दिया गया --वो ,जो विजय घोष करेगा !
मैं बैठी हुई अपने को देखूं और अपना नाम लूँ --फिर अपने को देखूं --वो जो मेरा नाम पुकार रहा है वो कौन है ,उसे मैं क्यों नही देख पा रही हूँ --वही संजय है जिसके द्वारा कृष्ण भी अपने मुंह से निकले ज्ञान को सुन पा रहे हैं --हमें संवेदना और ज्ञान के उसी चरम तक पहुंचना है और यही गीता है --नेति नेति करके जो बचे ---
गीता की यही विशेषता है कि वो अपने पे संशय करने वाले को पूर्ण स्वतन्त्रता देती है ,प्रश्न पूछने की संपूर्ण आजादी। लाग भर भी संशय मन में न रह जाय --और हर तरह से संतुष्ट करने के बाद भी शिष्य को कह देती है --देख मैंने तुझे सबकुछ बता दिया ,जीवन जीने का प्रत्येक सूत्र तेरे हाथ में थम दिया। यहां तक की क्या खाना है कब खाना है ,कैसे रहना हैं किस पे विष्वास करना है किसपे नही से लेकर कब क्या आचरण करना है तक सभी कुछ। तू स्वतन्त्र है मानने या न मानने के लिये जो तेरी इच्छा हो कर।
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्यातगुह्यतरं मया।
विमृशयेतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।।
और यही है उत्तम गुरु की पहचान ,वो पंखों से कैसे उड़ान भरनी है ये सिखाता है और छोड़ देता है शिष्य को अब जो करना है कर।
गीता का ज्ञान ,गीता के तरह- तरह के विश्लेषण पढ़ने से सुनने से नही होता ,इसे स्वयं ही पढ़के लेना पड़ता है , आज मुझे एक अर्थ मिलता है, कल ये दूसरे अर्थ में सामने होती है ,इसे जिसने जैसा पढा उसने वैसा ही पाया। पर कृष्ण भी कह रहे हैं केवल सुना हुआ ज्ञान और स्वभाव से पैदा हुई श्रद्धा ,सात्विकी,राजसी और तामसी तीनों हो सकती है ,अतः शास्त्र को स्वयं ही पढो ,सद्गुरु की मदद लो पर कर्म स्वयं करो ,विद्यार्थी बनो --पाठशाला की संस्कृति --
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्वकि राजसी चैव तामसी चेति तां श्रीणु।।
और --
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोsयं पुरुषो यो यच्छ्रद्ध: स एव सः।।
--जिसकी जैसी श्रद्धा होगी वो गीता को वैसा ही देखेगा।
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
इस तरह से भी संजय कृष्ण ही होते हैं।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
----गीता का प्रतिपाद्य विषय कर्मयोग नही कर्मसंन्यास है --मेरे अनुसार --शायद इसीलिये कृष्ण ने उसे संजय के मुंह से कहलवाया ,ताकि '' माफलेषुकदाचन् '' को प्रत्यक्ष दिखा सकें।
 प्रश्न === गीता को संजय के मुख से सुनते हैं तो वो कृष्ण के मुख से निःसृत गान कैसे हुआ ?
मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार प्रश्न हल करने की कोशिश की। हो सकता है आने वाले समय में मैं इस प्रश्न को किसी और रूप में हल करूँ ,गीता है ही वो ग्रन्थ जिसके अलग-अलग समय में अलग- अलग अर्थ निकलते है --कहने का तातपर्य ये है कि गीता अपने को प्रकट करती है हमारी आवश्यक्ता  के अनुसार बस इसे पढ़ना पड़ता है मेहनत लगन और श्रद्धा से ,अटूट श्रद्धा जैसी माता-पिता और गुरु पे होती है।
 गीता महाभारत का ही एक अंश है और कई सारे श्लकों की पुनरावृत्ति केशव के मुंह से महाभारत और भागवत में हुई है गीता के कई श्लोक वेदों में भी मिलते हैं जहां व्यास ऋषि नही हैं तो इसे हम व्यास की कल्पना कहें ये भी हमारी कृष्ण के प्रति अश्रद्धा ही कहा जाएगा ---
कुछ लोग महाभारत को ही प्रमाण स्वरूप उदृत करते हैं --कि गीता गान के लिए वेदव्यास ने ही प्रथमतया संजय को तैयार किया गीतागान धृतराष्ट्र को सुनाने के लिए हो सकता है ये सही हो पर मेरे मन में ये संशय सदैव रहा जिसे मैंने विस्तार से लिखा भी था कि गीता युद्ध क्षेत्र में सुनाई ही नहीं गयी ,ये कैसे संभव है कि शंखध्वनि हो चुकी है दोनों सेनाएं आमने-सामने हैं और अचानक कृष्ण उपदेश देना शुरू कर दें वो भी जीवनके प्रत्येक क्षण के लिये ,कैसे खाना-है कैसे रहना है मैं कौन हूँ जीव क्या है कर्तव्य और अधिकारों में क्या अंतर है --मेरे मतानुसार -
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तावानहमव्ययम्। 
विवस्वान्मनवे प्राह मुनिरिक्ष्वाकवेअब्रवीत।।------
ये श्लोक ही प्रमाण है कि गीतागान कुरुक्षेत्र में प्रकट होने वाली कृति नहीं है ,ये सदियों से आत्मा की मुक्ति का गान रहा है।
अर्जुन को तो युद्ध से बहुत पहले से ही गीतोपदेश से स्थितप्रज्ञ बना दिया गया था ,हाँ युद्ध क्षेत्र  में अपनों को देख उसकी बुद्धि थोड़ा अस्थिर तो हुई होगी क्यूंकि कितनी ही सत्य की लड़ाई हो सामने अपनों को देख मानव मन डगमगा ही जाता है ,हो ऐसे समय में हो सकता है पहला अध्याय और कुछ श्लोक दूसरे अध्याय के रणक्षेत्र में ही प्रकट हुए हों। 
अंत में शंकराचार्य जी का भजगोविंदम् --
भगवद् गीता किञ्चिदधीता,
गङ्गा जललव कणिकापीता।
सकृदपि येन मुरारि समर्चा,
क्रियते तस्य यमेन न चर्चा।।
जिन्होंने भगवदगीता का थोडा सा भी अध्ययन किया है, भक्ति रूपी गंगा जल का कण भर भी पिया है, भगवान कृष्ण की एक बार भी समुचित प्रकार से पूजा की है, यम के द्वारा उनकी चर्चा नहीं की जाती है। 
---आभा।।

Monday, 5 March 2018

{बैठे ठाले का फितूर } 
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कुहासा -घना अँधेरा - शून्यता - मन और मस्तिष्क में संघर्ष ! मन शांत रहना चाहता है पर मस्तिष्क का मानना है अँधेरा शांति नहीं है यहाँ तो अंदर कहीं उथल -पुथल है उससे उबरना होगा शून्य में जाने की आजादी है पर !पर अन्धकार में नहीं | दिमाग को आराम करने का फरमान जारी कर दिया है पर अतीत के झरोखों से यादों के  जुगनू अमावस में सितारों की मानिंद टिम-टिम ,झिलमिल कर रेशमी अँधेरे को पुखराजी हनक देते हैं और अंधियारे में सुनहरी यादों की नदी बहने लगती है |जीवन है अगर जहर तो पीना ही पड़ेगा | मन निष्क्रिय रहने पे अड़ा है और दिमाग कहता है भाई पेट तो भर लिया मुझे भी तो भूख लगती है --मैं भूखा हूँ ! भोजन लाओ --चलो कोई हल्का सा भोजन किया जाए और गुन-गुन करने लगा यादों में बसा एक लोकगीत ---
 अंगना में कुइयां राजा डूब के मरूंगी !
 ससुरा बोल बोलेंगे तो कछु न कहूँगी ,
सासू बोल बोले घुंघटा खोल के लडूंगी ||
बचपन में खूब मस्त होके अनेकों बार नृत्य  किया इस गीत  पे पर आज याद आया तो सोचने लगी __________
तब होते थे न हर आंगन में कुऐं |  क्या प्रबन्धन था पानी  का ,जितना चाहिये उतना लो ,ताजा -ताजा मीठा पानी ,न आर ओ का झंझट न बिसलरी का रोना | आंगन  के कुऐं में ही नहाना धोना। ब्रह्ममुहूर्त में रसोई में काम करने वाली स्रियों का ,फिर मर्दों का उनके जाने पे घर की अन्य स्त्रियों और लड़कियों  का सब समय- बद्ध ,चरण- बद्ध काम | पर शायद किसी सास -ननदों की मारी  को जब कुछ न  सूझा होगा तो उसने ससुराल वालों को डराने को और पति का प्यार पाने को ही ने ही ये गाना गाया होगा |
ननदोई आंगन में बरसे कुछ न कहूंगी
ननद बोल- बोले चूनर फाड़ के लडूंगी ||
क्या संस्कार थे लड़ाई में भी ससुर और ननदोई का मान रखना | कुंए में छलांग लगाने का डर दिखा कर, सबको सूत में साधना और अपना काम निकलना क्या इनोवेटिव आइडिया था |
     आंगन में कुआँ होने से तकरार होने पे सही में ,छलांग मारने का खतरा तो बना ही रहता होगा  |भय तो बना ही रहता होगा किसी के भी रूठ के कुऐं में समा जाने का  शायद ये आंगन और कुऐं का भय ही परिवारों को एक डोर में बांधे रखता था  | तुलसी बाबा ने भी कहा है ---
   भय बिन होय न प्रीति गुसाईं ......
    इसी लिए मनमुटाव को बढ़ने नहीं दिया जाता होगा और तकरार नहीं तो प्यार और मनुहार | क्या साजिश थी कुओं की और  प्यार की ! कुआँ कहे मैं हूँ तो ही प्यार है , प्यार कहे मैं हूँ तो ही परिवार है और आंगन कहे अरे अहमकों मैं हूँ तभी तक तुम दोनों हो- आंगन नहीं तो कुआँ नहीं -,कुआँ नहीं तो भय नहीं- भय नहीं तो प्यार  नहीं और प्यार नहीं तो परिवार नहीं | संयुक्त परिवार के लिए एक आंगन और एक कुआँ आवश्यक थे। 
धीरे- धीरे  जब कलयुग ने अपने पैर फैलाने शुरू किये तो उसे अहसास हुआ आदमी को आदमी से अलग करना है अब विलेज नहीं ग्लोबल विलेज बनाना है तो प्यार को ख़त्म करो, मनुष्य को अपने लिए जीना सिखाओ | उस के लिए सबसे पहले संयुक्त परिवार से   एकल परिवार (नुक्लियर फैमिलीज्यादा आधुनिक लगता है )  पे आओ  पर जब तक ये आंगन हैं , ये कुऐं हैं  , प्यार कैसे खत्म होगा तो पहला हमला कुऐं पर | प्यार को बनाये रखने के लिए ये ही ब्लेकमेलिंग का जरिया हैं | घरों के आंगन से कुऐं ऐसे गायब हुए जैसे गधे के सर से सींग | फिर उनके बड़े भाई  तालाबों को नजर लगी कलयुग की, ये भी तो गाँव को  भय की और प्यार की डोर में बांधते है तो लैंड माफिया को कहा गया इन्हें पाटने को | अब पानी पाइप से आयेगा तो झगड़े होंगे प्यार और परिवार ख़त्म और साजिशें काम कर गयीं | अब जैसे चाहे जियो किसी को गरियाओ ,लतियाओ क्या फर्क पड़ता है कोई कुआँ थोड़े ही है जो  कोई छलांग मार देगा और जान  दे देगा |वैसे अब जान देने के बहुत से तरीके हैं पर कुऐं से अच्छा कोई कहाँ ?
बाकि बचा एक आंगन , दो में से दो गया सिफर ,वो बेचारा भी कब तक टिकता ,अब तो बड़े शहरों में एक पूरी पीढ़ी ऐसी गुजर गयी है जिसने  आंगन को केवल फिल्मों में ही देखा है और गानों में ही सुना है ....
 मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम  है ?पर साजिश रची गयी बेचारे ,आंगन के खिलाफ और गाना ही उलट गया मेरे छोटे से घर में आंगन का क्या काम है | छोटे शहरों में मिल जाते है भूले बिसरे कहीं आंगन या गाँव में बड़े रसूखदारों के यहाँ घेर पर उनमे कुआं नहीं है |
आंगन की यादें भी कितनी सुहानी हैं | बचपन से अब तक कितने आंगन कितनी यादें |कभी अमरूद, आडू का पेड़ आंगन में ,तो कभी आम लीची का |वो गोबर मिट्टी से चौक पुरना और पानी के छींटे डाल बाबले के झाड़ू से साफ़ करना ,माड़ने मांडना ऐपन बनाना ,रंगोली बनाना | गेहूं धो के सुखाने का हड़कम्प और गिलहरियों , चिड़ियों को चुगते देखने का आनंद |आचार के मर्तबान तो पूरे आंगन में धूप के साथ -साथ चलते थे | वो मूढे सरकाते हुए धूप के साथ बालों को सुखाते हुए बिनाई- सिलाई करना |कभी आँवले-नीम्बू काले नमक में रचे हुए सूख रहे है तो कभी उबटन के लिए संतरों के छिलके | रजाई- कम्बल रोज ही धूप देखते थे, दिन में उनपे धूप में आराम करो शाम को गर्मागर्म भीतर ,सारा दिन कैसे गुजर गया पता ही न चला धूप सेकनेसे न कोई जुकाम का वाईरस  न सीलन | मुफ्त की विटामिन डी और कैल्शियम |  गर्मियों की शामें तो आंगन में और भी मस्ती की हो जाती थीं जब अमलतास की डालियाँ पीले फूलों के कुंडल और झुमके पहन के इठलाती  ,मोगरे ,बेला ,चमेली की कलियाँ चटखती और संध्या का आगाज देख रातकी रानी के साथ मिलके खुशबू की साजिशें रची जातीं ताकि गर्मी भूल पूरा परिवार खुशबू से सराबोर रहे | जलती तपती दोपहरी में जब आंगन के गुलमोहर के सुर्ख फूल हवा चलने से सनसनाते तो यूँ लगता मानो दुल्हन की रेशमी सुर्ख चुनर लहरा रही है और नीला अम्बर गा उठता ....हुजूर  इस कदर भी न इतरा के चलिए खुले आम आंचल न लहरा के चलिए .....प्रकृति की ये सरगोशियाँ सारा ताप हर लेती थीं | सुबह उठते तो पूरे आंगन में अमलतास के फूलों का गलीचा सजा होता और उस पीले गलीचे पे सुर्ख लाल गुलमोहर ,नारंगी धवल पारिजात -सितारों से नीम के फूलों और निम्बौरियों के फूल टंके होते --फूलों से बचते हुए चलते देख पड़ोस की छत से निहारता कोई दीवाना गुनगुनाने लगता --पाँव छू लेने दो फूलों को इनायत होगी ---
तो साहब अब तो आंगन हैं नहीं महानगरों में | ये अय्याशियां  भी आंगन के साथ ही खत्म | इश्क मुश्क और कनखियों के इशारे भी फाख्ता हुए। 
 कहने को अब ज्यादा अमीरी है मध्यम और उच्चमध्यम वर्ग में पर आंगन की  अय्याशियां   नहीं हैं तो प्यार -मुहब्बत - मनुहार भी नहीं है ,सांझा कुछ नहीं है तो स्वार्थ भी बढ़ ही रहा है ,डिप्रेशन है ,विटामिन डी की कमी के रोग हैं और न जाने क्या - क्या है |  अब न आंगन हैं न होंगे | हम महानगर वालों को बालकनी  से ही संतोष करना पड़ेगा | 
अब सौतन कभी भी न गाएगी ....मैं तुलसी तेरे आंगन की ...अब तो वो बालकनी  में भी न बैठेगी सीधे घर में ही घुस आएगी |
  अंगना में बाबा दुआरे पे माँ ,कैसे आउं गोरी तुहारे घर मा ...गाने का सुख भी न होगा  बच्चू जब अंगना ही नहीं है तो घर में कैसे घुसोगे --जाओ -जाओ काफी शाप में ही मिलो अब ज्यादा चोंचलों की जगह ही नहीं है |
 जो बीत गया सो बीत गया  | परिवर्तन प्रकृति का नियम है | पर कुछ यादें ऐसी होती हैं जो जेहन में छप जाती हैं और जब मन निढाल हो तो दिमाग को बहलाने के काम आती हैं  | हल्का दिमागी भोजन ताकि सनद रहे | .  :D  :)  :)  :D.........आभा .......