प्रश्न === गीता को संजय के मुख से सुनते हैं तो वो कृष्ण के मुख से निःसृत गान कैसे हुआ ?
मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार प्रश्न हल करने की कोशिश की। हो सकता है आने वाले समय में मैं इस प्रश्न को किसी और रूप में हल करूँ ,गीता है ही वो ग्रन्थ जिसके अलग-अलग समय में अलग- अलग अर्थ निकलते है --कहने का तातपर्य ये है कि गीता अपने को प्रकट करती है हमारी आवश्यक्ता के अनुसार बस इसे पढ़ना पड़ता है मेहनत लगन और श्रद्धा से ,अटूट श्रद्धा जैसी माता-पिता और गुरु पे होती है।
मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार प्रश्न हल करने की कोशिश की। हो सकता है आने वाले समय में मैं इस प्रश्न को किसी और रूप में हल करूँ ,गीता है ही वो ग्रन्थ जिसके अलग-अलग समय में अलग- अलग अर्थ निकलते है --कहने का तातपर्य ये है कि गीता अपने को प्रकट करती है हमारी आवश्यक्ता के अनुसार बस इसे पढ़ना पड़ता है मेहनत लगन और श्रद्धा से ,अटूट श्रद्धा जैसी माता-पिता और गुरु पे होती है।
जब कुछ केने को न हो और बुद्धि भी कुंड हो मन कल्पनाओं के सागर में तैरने लगता है आज यूँ ही गीता गंगा में डुबकी लगाने लगा और लगा अनर्गल प्रलाप करने ---
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै: शास्त्रविस्तरै: ।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृता।।--
---गीता स्वयं कृष्ण के मुख से निकली ज्ञान गंगा है , पर हम इसे संजय के मुख से ही सुन पाते हैं अतः ये संशय भी हो जाता है कि क्या सही में ये" कृष्ण का गान" है या किसी संजय नामक व्यक्ति ने धृतराष्ट्र जैसे दृष्टिहीन को कृष्ण का नाम लेकर उपकृत किया ?
गीता जगत् जननी है वो किसी को निराश नही करती। गीता में बुद्धि से भी अधिक जो वस्तु है ,बुद्धि से परे है --वो है श्रद्धा।
बच्चे का संसार से प्रथम परिचय माँ ही करवाती है। परिवार में रहते हुए वो अपने सारे रिश्तों को जानने की कोशिश करता है। पर यदि उसकी माँ पे ही श्रद्धा न हो और वो ये कहे ,मैंने तो अपने को पैदा होते हुए देखा ही नही ,क्या पता तुम मेरी माँ हो भी या नही तो बच्चे का जीवन ही नरक हो जायेगा। बच्चा माँ पे विश्वास के साथ ही पैदा होता है --अटूट श्रद्धा --और यही है गीता का ज्ञान।
गीता योगशास्त्र है -योग का शाब्दिक अर्थ है मिलन --गीता में श्रद्धा से हमारा अटूट मिलन होता है और हम कृष्ण तक पहुंचते हैं।
अर्जुन को यूँ ही नही गीता का उपदेश दिया कृष्ण ने --पहले अर्जुन को पूर्ण समर्पण करना पड़ा कृष्ण के सामने --अटूट श्रद्धा --तुम्ही हो माता -पिता तुम्ही हो --
कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव: पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निष्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेSहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।
मैं तुम्हारा शिष्य हूँ प्रभू ,तुम्हारे बताये मार्ग पे चलूंगा ---अब मुझे उचित शिक्षा देकर मेरा मार्गदर्शन करो।
----बच्चा ममममममम बोलने के बाद अपनी तोतली टूटीफूटी भाषा में शब्द बोलने लगता है ,सब सुन-सुन के ( हो सकता है कुछ पूर्वजन्मों की भी यादें हों उसके साथ --जो वो बता नही सकता उस वक्त क्यों कि बोलना नही आता और ये ईश्वर का ही विधान हो सृष्टि चलाने के लिए )--कालांतर में शब्द फिर वाक्य। अभी तक उसे यह नही ज्ञान है कि इस बोलचाल को मैं लिख भी सकता हूँ और लिख सकता हूँ तो कैसे पर अक्षरज्ञान के बाद वो लेखन से परिचित होता है बाराखड़ी जो विभिन्न भाषाओं की अपनी- अपनी है को वो श्रद्धा विशवास से अपनाता है --अ को अ और A को Aलिखा जाता है इसे उसकी श्रद्धा और विशवास अपनाते हैं।
यही श्रद्धा गीता को जननी बनाती है। गीता कृष्ण मुख से ही निःसृत गान है ? यदि ये संशय मन में आ ही गया है तो हमें गीता को बार-बार पढ़ना होगा ,वो अपना भेद अपने आप खोलेगी ,ये अनुभूत प्रयोग है ,दूसरे हमे भागवत और हो सके तो महाभारत का अध्ययन भी करना होगा। भागवत और महाभारत के अध्ययन से आगे पीछे की घटनाओं के माध्यम से हमें स्पष्ट हो जाएगा कि गीतोपदेश श्री कृष्ण का गान ही हैं --जो अर्जुन के माध्यम से पूरी सृष्टि को उपहार स्वरूप दिया गया है --
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।
इस दृष्टि से संजय , कृष्ण ही है ,मैंने कहीं और भी ये पढ़ा था संजय कृष्ण का ही स्वरूप था --सं एक अव्यय है जिसका व्यवहार शोभा, समानता, संगति, उत्कृष्टता, निरंतरता, औचित्य आदि सूचित करने के लिये शब्द के आरंभ में होता है। कभी कभी इसे जोड़ने पर भी मूल शब्द का अर्थ ज्यों का त्यों बना रहता है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता--इसीलिये शायद गीता के वाचक को संजय नाम दिया गया --वो ,जो विजय घोष करेगा !
मैं बैठी हुई अपने को देखूं और अपना नाम लूँ --फिर अपने को देखूं --वो जो मेरा नाम पुकार रहा है वो कौन है ,उसे मैं क्यों नही देख पा रही हूँ --वही संजय है जिसके द्वारा कृष्ण भी अपने मुंह से निकले ज्ञान को सुन पा रहे हैं --हमें संवेदना और ज्ञान के उसी चरम तक पहुंचना है और यही गीता है --नेति नेति करके जो बचे ---
गीता की यही विशेषता है कि वो अपने पे संशय करने वाले को पूर्ण स्वतन्त्रता देती है ,प्रश्न पूछने की संपूर्ण आजादी। लाग भर भी संशय मन में न रह जाय --और हर तरह से संतुष्ट करने के बाद भी शिष्य को कह देती है --देख मैंने तुझे सबकुछ बता दिया ,जीवन जीने का प्रत्येक सूत्र तेरे हाथ में थम दिया। यहां तक की क्या खाना है कब खाना है ,कैसे रहना हैं किस पे विष्वास करना है किसपे नही से लेकर कब क्या आचरण करना है तक सभी कुछ। तू स्वतन्त्र है मानने या न मानने के लिये जो तेरी इच्छा हो कर।
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्यातगुह्यतरं मया।
विमृशयेतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।।
और यही है उत्तम गुरु की पहचान ,वो पंखों से कैसे उड़ान भरनी है ये सिखाता है और छोड़ देता है शिष्य को अब जो करना है कर।
गीता का ज्ञान ,गीता के तरह- तरह के विश्लेषण पढ़ने से सुनने से नही होता ,इसे स्वयं ही पढ़के लेना पड़ता है , आज मुझे एक अर्थ मिलता है, कल ये दूसरे अर्थ में सामने होती है ,इसे जिसने जैसा पढा उसने वैसा ही पाया। पर कृष्ण भी कह रहे हैं केवल सुना हुआ ज्ञान और स्वभाव से पैदा हुई श्रद्धा ,सात्विकी,राजसी और तामसी तीनों हो सकती है ,अतः शास्त्र को स्वयं ही पढो ,सद्गुरु की मदद लो पर कर्म स्वयं करो ,विद्यार्थी बनो --पाठशाला की संस्कृति --
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्वकि राजसी चैव तामसी चेति तां श्रीणु।।
और --
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोsयं पुरुषो यो यच्छ्रद्ध: स एव सः।।
--जिसकी जैसी श्रद्धा होगी वो गीता को वैसा ही देखेगा।
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
इस तरह से भी संजय कृष्ण ही होते हैं।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
----गीता का प्रतिपाद्य विषय कर्मयोग नही कर्मसंन्यास है --मेरे अनुसार --शायद इसीलिये कृष्ण ने उसे संजय के मुंह से कहलवाया ,ताकि '' माफलेषुकदाचन् '' को प्रत्यक्ष दिखा सकें।
प्रश्न === गीता को संजय के मुख से सुनते हैं तो वो कृष्ण के मुख से निःसृत गान कैसे हुआ ?
मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार प्रश्न हल करने की कोशिश की। हो सकता है आने वाले समय में मैं इस प्रश्न को किसी और रूप में हल करूँ ,गीता है ही वो ग्रन्थ जिसके अलग-अलग समय में अलग- अलग अर्थ निकलते है --कहने का तातपर्य ये है कि गीता अपने को प्रकट करती है हमारी आवश्यक्ता के अनुसार बस इसे पढ़ना पड़ता है मेहनत लगन और श्रद्धा से ,अटूट श्रद्धा जैसी माता-पिता और गुरु पे होती है।
गीता महाभारत का ही एक अंश है और कई सारे श्लकों की पुनरावृत्ति केशव के मुंह से महाभारत और भागवत में हुई है गीता के कई श्लोक वेदों में भी मिलते हैं जहां व्यास ऋषि नही हैं तो इसे हम व्यास की कल्पना कहें ये भी हमारी कृष्ण के प्रति अश्रद्धा ही कहा जाएगा ---
गीता जगत् जननी है वो किसी को निराश नही करती। गीता में बुद्धि से भी अधिक जो वस्तु है ,बुद्धि से परे है --वो है श्रद्धा।
बच्चे का संसार से प्रथम परिचय माँ ही करवाती है। परिवार में रहते हुए वो अपने सारे रिश्तों को जानने की कोशिश करता है। पर यदि उसकी माँ पे ही श्रद्धा न हो और वो ये कहे ,मैंने तो अपने को पैदा होते हुए देखा ही नही ,क्या पता तुम मेरी माँ हो भी या नही तो बच्चे का जीवन ही नरक हो जायेगा। बच्चा माँ पे विश्वास के साथ ही पैदा होता है --अटूट श्रद्धा --और यही है गीता का ज्ञान।
गीता योगशास्त्र है -योग का शाब्दिक अर्थ है मिलन --गीता में श्रद्धा से हमारा अटूट मिलन होता है और हम कृष्ण तक पहुंचते हैं।
अर्जुन को यूँ ही नही गीता का उपदेश दिया कृष्ण ने --पहले अर्जुन को पूर्ण समर्पण करना पड़ा कृष्ण के सामने --अटूट श्रद्धा --तुम्ही हो माता -पिता तुम्ही हो --
कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव: पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निष्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेSहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।
मैं तुम्हारा शिष्य हूँ प्रभू ,तुम्हारे बताये मार्ग पे चलूंगा ---अब मुझे उचित शिक्षा देकर मेरा मार्गदर्शन करो।
----बच्चा ममममममम बोलने के बाद अपनी तोतली टूटीफूटी भाषा में शब्द बोलने लगता है ,सब सुन-सुन के ( हो सकता है कुछ पूर्वजन्मों की भी यादें हों उसके साथ --जो वो बता नही सकता उस वक्त क्यों कि बोलना नही आता और ये ईश्वर का ही विधान हो सृष्टि चलाने के लिए )--कालांतर में शब्द फिर वाक्य। अभी तक उसे यह नही ज्ञान है कि इस बोलचाल को मैं लिख भी सकता हूँ और लिख सकता हूँ तो कैसे पर अक्षरज्ञान के बाद वो लेखन से परिचित होता है बाराखड़ी जो विभिन्न भाषाओं की अपनी- अपनी है को वो श्रद्धा विशवास से अपनाता है --अ को अ और A को Aलिखा जाता है इसे उसकी श्रद्धा और विशवास अपनाते हैं।
यही श्रद्धा गीता को जननी बनाती है। गीता कृष्ण मुख से ही निःसृत गान है ? यदि ये संशय मन में आ ही गया है तो हमें गीता को बार-बार पढ़ना होगा ,वो अपना भेद अपने आप खोलेगी ,ये अनुभूत प्रयोग है ,दूसरे हमे भागवत और हो सके तो महाभारत का अध्ययन भी करना होगा। भागवत और महाभारत के अध्ययन से आगे पीछे की घटनाओं के माध्यम से हमें स्पष्ट हो जाएगा कि गीतोपदेश श्री कृष्ण का गान ही हैं --जो अर्जुन के माध्यम से पूरी सृष्टि को उपहार स्वरूप दिया गया है --
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।
इस दृष्टि से संजय , कृष्ण ही है ,मैंने कहीं और भी ये पढ़ा था संजय कृष्ण का ही स्वरूप था --सं एक अव्यय है जिसका व्यवहार शोभा, समानता, संगति, उत्कृष्टता, निरंतरता, औचित्य आदि सूचित करने के लिये शब्द के आरंभ में होता है। कभी कभी इसे जोड़ने पर भी मूल शब्द का अर्थ ज्यों का त्यों बना रहता है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता--इसीलिये शायद गीता के वाचक को संजय नाम दिया गया --वो ,जो विजय घोष करेगा !
मैं बैठी हुई अपने को देखूं और अपना नाम लूँ --फिर अपने को देखूं --वो जो मेरा नाम पुकार रहा है वो कौन है ,उसे मैं क्यों नही देख पा रही हूँ --वही संजय है जिसके द्वारा कृष्ण भी अपने मुंह से निकले ज्ञान को सुन पा रहे हैं --हमें संवेदना और ज्ञान के उसी चरम तक पहुंचना है और यही गीता है --नेति नेति करके जो बचे ---
गीता की यही विशेषता है कि वो अपने पे संशय करने वाले को पूर्ण स्वतन्त्रता देती है ,प्रश्न पूछने की संपूर्ण आजादी। लाग भर भी संशय मन में न रह जाय --और हर तरह से संतुष्ट करने के बाद भी शिष्य को कह देती है --देख मैंने तुझे सबकुछ बता दिया ,जीवन जीने का प्रत्येक सूत्र तेरे हाथ में थम दिया। यहां तक की क्या खाना है कब खाना है ,कैसे रहना हैं किस पे विष्वास करना है किसपे नही से लेकर कब क्या आचरण करना है तक सभी कुछ। तू स्वतन्त्र है मानने या न मानने के लिये जो तेरी इच्छा हो कर।
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्यातगुह्यतरं मया।
विमृशयेतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।।
और यही है उत्तम गुरु की पहचान ,वो पंखों से कैसे उड़ान भरनी है ये सिखाता है और छोड़ देता है शिष्य को अब जो करना है कर।
गीता का ज्ञान ,गीता के तरह- तरह के विश्लेषण पढ़ने से सुनने से नही होता ,इसे स्वयं ही पढ़के लेना पड़ता है , आज मुझे एक अर्थ मिलता है, कल ये दूसरे अर्थ में सामने होती है ,इसे जिसने जैसा पढा उसने वैसा ही पाया। पर कृष्ण भी कह रहे हैं केवल सुना हुआ ज्ञान और स्वभाव से पैदा हुई श्रद्धा ,सात्विकी,राजसी और तामसी तीनों हो सकती है ,अतः शास्त्र को स्वयं ही पढो ,सद्गुरु की मदद लो पर कर्म स्वयं करो ,विद्यार्थी बनो --पाठशाला की संस्कृति --
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्वकि राजसी चैव तामसी चेति तां श्रीणु।।
और --
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोsयं पुरुषो यो यच्छ्रद्ध: स एव सः।।
--जिसकी जैसी श्रद्धा होगी वो गीता को वैसा ही देखेगा।
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
इस तरह से भी संजय कृष्ण ही होते हैं।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
----गीता का प्रतिपाद्य विषय कर्मयोग नही कर्मसंन्यास है --मेरे अनुसार --शायद इसीलिये कृष्ण ने उसे संजय के मुंह से कहलवाया ,ताकि '' माफलेषुकदाचन् '' को प्रत्यक्ष दिखा सकें।
प्रश्न === गीता को संजय के मुख से सुनते हैं तो वो कृष्ण के मुख से निःसृत गान कैसे हुआ ?
मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार प्रश्न हल करने की कोशिश की। हो सकता है आने वाले समय में मैं इस प्रश्न को किसी और रूप में हल करूँ ,गीता है ही वो ग्रन्थ जिसके अलग-अलग समय में अलग- अलग अर्थ निकलते है --कहने का तातपर्य ये है कि गीता अपने को प्रकट करती है हमारी आवश्यक्ता के अनुसार बस इसे पढ़ना पड़ता है मेहनत लगन और श्रद्धा से ,अटूट श्रद्धा जैसी माता-पिता और गुरु पे होती है।
गीता महाभारत का ही एक अंश है और कई सारे श्लकों की पुनरावृत्ति केशव के मुंह से महाभारत और भागवत में हुई है गीता के कई श्लोक वेदों में भी मिलते हैं जहां व्यास ऋषि नही हैं तो इसे हम व्यास की कल्पना कहें ये भी हमारी कृष्ण के प्रति अश्रद्धा ही कहा जाएगा ---
कुछ लोग महाभारत को ही प्रमाण स्वरूप उदृत करते हैं --कि गीता गान के लिए वेदव्यास ने ही प्रथमतया संजय को तैयार किया गीतागान धृतराष्ट्र को सुनाने के लिए हो सकता है ये सही हो पर मेरे मन में ये संशय सदैव रहा जिसे मैंने विस्तार से लिखा भी था कि गीता युद्ध क्षेत्र में सुनाई ही नहीं गयी ,ये कैसे संभव है कि शंखध्वनि हो चुकी है दोनों सेनाएं आमने-सामने हैं और अचानक कृष्ण उपदेश देना शुरू कर दें वो भी जीवनके प्रत्येक क्षण के लिये ,कैसे खाना-है कैसे रहना है मैं कौन हूँ जीव क्या है कर्तव्य और अधिकारों में क्या अंतर है --मेरे मतानुसार -
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तावानहमव्ययम्।
विवस्वान्मनवे प्राह मुनिरिक्ष्वाकवेअब्रवीत।।------
ये श्लोक ही प्रमाण है कि गीतागान कुरुक्षेत्र में प्रकट होने वाली कृति नहीं है ,ये सदियों से आत्मा की मुक्ति का गान रहा है।
अर्जुन को तो युद्ध से बहुत पहले से ही गीतोपदेश से स्थितप्रज्ञ बना दिया गया था ,हाँ युद्ध क्षेत्र में अपनों को देख उसकी बुद्धि थोड़ा अस्थिर तो हुई होगी क्यूंकि कितनी ही सत्य की लड़ाई हो सामने अपनों को देख मानव मन डगमगा ही जाता है ,हो ऐसे समय में हो सकता है पहला अध्याय और कुछ श्लोक दूसरे अध्याय के रणक्षेत्र में ही प्रकट हुए हों।
अंत में शंकराचार्य जी का भजगोविंदम् --
भगवद् गीता किञ्चिदधीता,
गङ्गा जललव कणिकापीता।
सकृदपि येन मुरारि समर्चा,
क्रियते तस्य यमेन न चर्चा।।
जिन्होंने भगवदगीता का थोडा सा भी अध्ययन किया है, भक्ति रूपी गंगा जल का कण भर भी पिया है, भगवान कृष्ण की एक बार भी समुचित प्रकार से पूजा की है, यम के द्वारा उनकी चर्चा नहीं की जाती है।
---आभा।।गङ्गा जललव कणिकापीता।
सकृदपि येन मुरारि समर्चा,
क्रियते तस्य यमेन न चर्चा।।
जिन्होंने भगवदगीता का थोडा सा भी अध्ययन किया है, भक्ति रूपी गंगा जल का कण भर भी पिया है, भगवान कृष्ण की एक बार भी समुचित प्रकार से पूजा की है, यम के द्वारा उनकी चर्चा नहीं की जाती है।
No comments:
Post a Comment