( हर क्षण सपना सपने में बस तुम )
सपनों के उपवन में जब भी मैं तुमसे मिलती हूँ ,
हर किसलय के अधरों की आभा सी बन कर खिलती हूँ .
जीवन के मरु ,नंदन कानन में ,याद तुम्हें जब करती हूँ ,
मैं रोती नहीं !........वारती ......मानस ...............मोती हूँ
..................................................................................
जब उपवन में दिख जाता है कोई काँटा ,
दुःख दर्द विरह की कसक और बढ़ जाती है ,
तब चुपके से आकर कानों में कह जाते तुम !
मेरे प्रांतर में क्यूँ कांटे ही देखूं मैं ?
हर डाली मैं मुस्कान तुम्हारी आली है ,
हर क्यारी में पद- चिन्ह तुम्हारे दिखते हैं ,
शीतल शबनम की बूंदें प्यास जगाती हैं .
सपनों में सरिता की लचकीली लहरें ,
मन उपवन के अरमानों को डस जाती हैं .
पर शांत किन्तु गंभीर वह नि:स्वन तेरा ,
भ्रमरों सा गुंजित होता है रंध्रों में मेरे ,
मैं बन कर कली हवा में इठला जाती हूँ ,
उपवन में खिलती और झूमती जाती हूँ .
जो पौध कीचकों की रोपी थी संग तेरे ,
उन क्वणित कीचकों के सुर में आनंद पाती हूँ .
अनियंत्रित भावों से हृदय निनादित होता है ,
सपनों के उपवन में जब भी मैं तुमसे मिलती हूँ ,
दृग युगल सींचने लगते हैं उस उपवन को ,
अवसादों के झरते फूलों की माला पहने ,
वेदना विदग्ध सपनों को मैं समझाती हूँ -----------
मेरा प्रेम नहीं सम्मोहन की हाला --
मेरा प्रेम नहीं विरह ,कटु -रस का प्याला ,
मैं बढती जाती हूँ नभ की ऊँची चोटी पर ,
औ व्यथित चित्त को बोध युक्त कर पाती हूँ .
मैने व्यथित हो जान लिया ,
विरहा में जल ज्ञान लिया ,
तन -मन का वह पावन नाता ,
वह अंतिम सच पहचान लिया .
मैने आहुती बन कर देखा ,
यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है .
मिलने के पल दो चार यहाँ ,
तप यज्ञ कल्प तक चलता ह.
सपनों के उपवन में मैं जब भी तुमसे मिलती हूँ ,
हर किसलय के अधरों की आभा सी बन कर खिलती हूँ ..
...................................................................................
.....................................................................................आभा ... यादों के झुरमुट से .......................................................................................................................................................................................