Sunday, 23 June 2013

ऊर्ध्वभूलोs  वाक्शाख ऐषोअश्वत्थः सनातन:|
तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते ||
तस्मिंल्लोका: श्रिता:सर्वे तदु नात्येति कश्चन |
एतदैव्तत्  ||
अनुवाद ---------------ऊपर कि ओर मूल वाला ,नीचे की ओर शाखा वाला यह सनातन अश्वथः वृक्ष है ,वह विशुद्ध् तत्व है ,वही ब्रह्म है ,वही  अमृत कह्लाता है ,सब् लोग उसी के आश्रित हैं | कोई भी उसका उल्लङ्घन नही कर सकता | वही वह है |........
....................     प्रकट में उत्तराखंड की विकराल त्रासदी  से ये सोच और मजबूत होती है की कहीं कोई सत्ता है ,वह  अपने बनाये नियमों में थोड़ा बहुत ही छेड़ -छाड़ सहन कर सकती है .. अराजक होने पे वो सबक सिखाती है .वो सबक भयानक होता है और कौन बीच में आये ये हमें नहीं पता चलता ....कठोपनिषद में यह सब नचिकेता को भगवान यमराज कितनी अच्छी  तरह से समझा रहे हैं .....
.........किसी वृक्ष का मूल नीचे जमीन में होता है , उससे उत्पन्न हुआ वृक्ष ऊपर की ओर बढ़ता है .इसीप्रकार इस सम्पूर्ण विश्व का एक ही मूल है जिसे ब्रह्म या परमब्रह्म कहते हैं .इसका मूल ऊपर की ओर है ,तथा सृष्टि के अन्य लोक जो इसके तने और शाखाएं -प्रशाखाएं हैं ,नीचे की और फैले हुए हैं। यह मूल अति सूक्ष्म है  जो क्रमश:स्थूलता को प्राप्त होता चला गया है। इसकी तुलना अश्वत्थ वृक्ष से की गयी है जिसका मूल वही परमब्रह्म है। इससे क्रमश:,ब्रह्मा .देव ,पितर ,मनुष्य ,पशु -पक्षी आदि उत्पन्न होते हैंजो  इसका तना ,शाखाएं व् पत्ते आदि हैं। यह मूल सनातन है इसका कभी नाश नहीं होता। जिस प्रकार पीपल के छोटे से बीज में वृक्ष की सम्पूर्ण सत्ता  विद्यमान है उसी प्रकार इस ब्रह्मत्व में सम्पूर्ण सृष्टि की सत्ता  निहित है जिसकी अभिव्यक्ति  होने पे यह विश्व प्रगट होता है। यही एक मात्र विशुद्ध सत तत्व है। अन्य  सभी इसी की विभिन्न  शक्तियों से निर्मित हैं, जिनका  विनाश ही होता रहता है ,इसीलिये वे असत एवं अनित्य है। एक ब्रह्म ही ऐसा है जो अमृत है कभी नहीं मरता। वही सबका रक्षक और पालक है। सभी लोक व् देवगण आदि भी उसी के आश्रय में रहकर अपने -२ कर्मों में लिप्त रहते हैं। उसका एक अनुशासन है ,नियम ,मर्यादा है जिसका उल्लंघन करने में कोई भी समर्थ नहीं है। सृष्टि में जो भी घटित है ,वह उसी के नियम के अनुसार होता है। वह वही परमब्रह्म है।। ...................................................
   भयादस्याग्निस्तपति   भयात्तपति  सूर्य: । 
   भयादिन्द्रश्च  वायुश्च मृत्युर्धावति  पंचम।।
अनुवाद -----------------इसी परब्रह्म के भय से अग्नि तपता है ,इसी के भय से सूर्य तपता है तथा इसी के भय से इंद्र ,वायु और पांचवाँ मृत्यु दौड़ता है। ....................
.....    इस श्लोक को समझने पे हम प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने से पहले सोचने को तो मजबूर हो ही जाते है ............
 वह ईश्वर ही इस समस्त सृष्टि का शासक है जिसके नियम इतने कठोर हैं की उनका पालन न करने पर सभी को कठोर यातनाएं सहन  करनी पड़ती हैं ,वह शक्ति किसी को क्षमा नहीं करती ,न किसी पे प्रसन्न हो कर अपने नियमों को तोड़कर किसी को मनमाना करने की छूट ही देती है। जिस -जिस ने उसके नियमों का उल्लंघन किया उसे दण्डित ही होना पड़ा है। इसी भय से सभी देवगण ,अग्नि ,सूर्य,इंद्र,वायु आदि अपने -अपने कर्तव्यों में लगे रहते हैं ....यहाँ तक की मृत्यु को भी इसका पालन करता है। यदि ईश्वर के नियम इतने कठोर न होते तो इस सृष्टि का सुचारू रूप से संचालन सम्भव ही नहीं था  ..................इसीलिए वह ईश्वर  सर्वशक्तिमान है ....
................. कठोपनिषद  का सीधा -सीधा सन्देश यह है कि हम अपने बच्चों को बचपन से ही चरित्र निर्माण की ये बातें सिखाएं ..ताकि प्रकृति और मानव में एक तारतम्य बनारहे ..मानव लालच में न बहके ...और नियमों में बंधकर ही विकास कीओर अग्रसित होवे ...पर हम सब भूल गए ,,और अब तो हिन्दू धर्म का प्रचार ही  साम्प्रदायिक हो गया है ....ये भी उसकी ही इच्छा है क्या ....??....................................................................?.......आभा ....

Wednesday, 12 June 2013

स्त्री को समाज और रिश्तों को जीते हुए कई बार कड़वी सच्चाइयों से रूबरू होना पड़ता है।,कडवे घूंट पी कर मन में उठते विद्रोह पर ठंडा पानी डाल कर बर्फ बनाने का का नाम ही स्त्री है। ...........
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           मानव मन के झंझावत को ,
           मन में उमड़े तूफानों को ,
           बांध तोड़ कर बहना चाहे ,
           सरिता की उद्दात लहर को ,
           किसने समझा ,किसने जाना
पर्वत शिखर की बर्फ पिघल कर
जलधारा बन सबको जीवन दे जायेगी ,
मेरे मन की बर्फ पिघल कर ,
क्या ?मुझको जीवन दे पाएगी .
             शिखरों पर पड़ी बर्फ -------
             इक सर्द नदी बन जायेगी ,
             पर मेरे मन की बर्फ पिघल कर ,
             एक लावे सी बह जायेगी ,---------इस बर्फ की अग्नि में -
             कितने जीवन जल जायेंगे ,
             एक जरा सी हलचल से,
              भूकम्प हजारों आयेंगे ..............
मन में उमड़े झंझावत को ,
अपने मन के तूफानों को ,
सर्द बर्फ से ढक लूँ मैं ,
ना ही छेड़ूँ ,ना ही कुरेदूँ ,
बस ! अंतर मन में रख लूँ मैं ,
                इस जीवन संघर्ष को .
                पर्व मान कर जीलूं मैं ,
                बर्फ  बहे ना लावा बन कर ,
                हिमालय सी बन जाऊं मैं .................आभा ............

Tuesday, 11 June 2013

उड़ा बगूला प्रेम का तिनका आकाश ,
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अस्तित्व का तिरोहित होना ,
अकारण आनन्दित मन ,
प्रेम ,करुणा ,आनन्द !
जिसे कोई भंग नहीं कर सकता ,
स्व भंग हो तो अंतस जाग जाता है ,
आत्मा का परमात्मा से मिलन ,
कृष्ण   ही बन  जाना आत्मा का ,
कृष्ण वो जो प्रेम के देवता हैं ,
कृष्ण जो करुणा के सागर हैं ,
वो शस्त्रों  वाले कृष्ण नहीं ,
कृष्ण मेरे मन में रहने वाले ,
जो कारागृह में पैदा होते है ,
जो जन्म से ही उपदेश देते हैं ,
कारागृह से बाहर आओ ,
समाज ,शास्त्र ,जाती धर्म ,
शुभ अशुभ ,मान मर्यादा ,
मोह के बंधन में मत बांधो अपने को ,
तोड़ो बंधन तोड़ो ,मुक्त होओ कारा से ,
करुणा प्रेम का सागर बन लहराओ ,
और हमने ..................................
कारागृह में ही झूला डाल -दिया ,
वहीँ पे शुरू कर दी कृष्ण की पूजा ,
समझ ही न पाए कान्हा का सन्देश ,
कृष्ण कह रहे हैं मन के कारा को तोड़ो ,
मोह के बंधन तोड़ो ,मन के बाहर निकलो ,
अपने शरीर के बाहर  निकलो ,
मन को देखना सीखो .
जागरूक रहो ,
सहज और सरल बनो ,
मुक्त होओ ,सहज होओ ,
साक्षी होओ हर घटना के ,
तभी खिलोगे फूल से ,
फैलेगी सुवास ,
सुरभित होगी धरा ,
खिलखिलाएगी मानवता ,
पैदा होगी करुणा ,
फैलेगा प्रेम ,
,सत्य ही तो है ,
कान्हा उतर आये मन में ,
  स्व तिरोहित हो जाता है ,
एक सुवासित आनंद
करुणा से उपजा प्रेम 
आनंद  जो कोई भंग नहीं कर सकता ......................आभा ..............

Wednesday, 5 June 2013

                                                            [   मैं स्त्री !ये भूल भी मेरी   ]
                                                             *******************
*****मैं एक स्त्री ,
*****क्यूँ करना चाहते हो मुझको मुझसे ही अलग .
          तुम जो संतान हो मेरी , देह का हिस्सा हो मेरी
          सृजन मैंने ही किया है  ,जग में मैं ही लाई तुमको .
          पाला -पोसा ,स्वावलम्बी बनाया ,बल अपना तुम्हें दे डाला .
          तुम्हें सभ्य बनाने को ,इस जगती से मिलवाने को ,
          देख नहीं पायी मैं , कब मेरे पंखों ने भूली  उडान।
          सोचा ,चलो ! पंखों से तुम्हारे ही  भरुं लूंगी  अब उड़ान ,
          पर तुम, मेरी संतति  ,पंख अपने ले  उड़ चले .
           औ !  करने लगे तैयारी, मेरे रहे-सहे पंख कतरने की ?
          तुम !बलवान हुए ,तुम अहंकारी हो गये ...........
           मैं स्त्री ! मैंने सोचा ,तुम मेरी संवेदनाओं के ग्राही बनोगे .
           पर ! तुम तो संवेदनहीन  हो गये ??
           मैं तुम पे हावी न हो जाऊं ,तुम तो कुंठा-ग्रस्त हो गये .
           मैं स्त्री !तुम मुझे ही मिटाने चले हो दुनिया से .
           घोट देना चाहते हो मेरी साँसें ?पैदा होने से पहले ही .
           मैंने पीड़ा सह दी हैं  सासें तुम्हें ,तुम ने सदा ही रौंदा मुझे  !
           माँ ,बहन,बेटी ,पत्नी  ,बहू ,मर्यादा --सब झूठा प्रपंच ,
           मैं स्त्री ! मैं धरती !मैं प्रकृति !परम्परा सहनशक्ति की ,
           देखते हो तुम केवल मेरी देह ,मेरा सुंदर रूप ..........
           मुझपे अधिपत्य की लालसा में ,खो चुके हो अपने को ,
           मैं स्त्री !मुझे मत देखो ,देखो अपनी ओर .
           अरे! खो गयी हैसुन्दरता तुम्हारी   दृष्टि में मेरी  !
           अरे! हो गए हो बलहीन  दृष्टि में मेरी !
           मैं स्त्री ! देखो मैं ही हूँ  भीतर तुम्हारे .
           मैं स्त्री !मुझसे ही बना है शरीर तुम्हारा  .
          मैं स्त्री !सह सकती हूँ तुम्हें दुनियां में लाने की पीड़ा .
         तो   हो सकती हूँ क्या तुम से निर्बल ?
           ओ मेरी संतानों !अपना बल मैंने ही दिया तुम्हें था ,
           जान तुम्हें असहाय व्   निर्बल .
           सोचा तुम ही होओगे अब मेरा बल .
           पर --------------------------------------
           मैं स्त्री ! सदियों तक छली गयी .
           मोह ,ममता बस  चुप ही रही ,
           तुमने मुझको निर्बल समझा .
          तुमने मुझको त्रस्त किया .
          मैं स्त्री !घर का हूँ श्रृंगार कहा ,
           बनाती हूँ समाज कहा ,
          रूप रंग की रानी हूँ ,चन्दा का अवतार कहा ,
          कैसी छलना !क्या प्रपंच यह ?
         मैं स्त्री!
,जो संतति का जो करे सृजन  ,रूप बन गयी ,देह बन गयी ???
       ------  पाने तो लगी हूँ फिर से पहचान अब मैं अपनी ,
          आने तो लगा है अपना अस्तित्व नजर मुझे .
         जानती हूँ ये भूल नहीं है तुम सब की  ,,मैं ही खुद को भूली थी .
         मैं तो प्रकृति हूँ !प्रकृति खुद को भूले तो ?
         परिणाम में आंधियां ही होंगी .
         अब मैं अपनी स्व प्रकृति में आउंगी ,में बस केवल देह नहीं हूँ .
          अब मैं करवट बदलूंगी ,अपने पंखों को सबल करुँगी ,
          दुर्गा लक्ष्मी संग मैं काली भी हूँ ,
          सौम्य वेश अब बहुत हो चुका ,रौद्र रूप अपनाना होगा ,
         मैं स्त्री !काली रूप जो धर लेती हूँ ,शिव भी चरणों में आजाते हैं।
         मैं स्त्री !मैं ही आदि और अंत भी मैं ही ............................................आभा ,,,,,,,,,,,,,,

       
         
         
         
          

Monday, 3 June 2013

                                            [ अनन्त की यात्रा और अंतिम इच्छा ]
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...........  पुनरपि जन्मम्,  पुनरपि मरणम् |
...........  पुनरपि  जननी  ,जठरे  शयनम् |
  कथा पढूं जब कान्हा तेरी ,
  वृन्दावन मथुरा हो आती हूँ  ।
  कदंब तले ,जमुना के तीरे ,
  राधा-गोपी संग, धुन बंसी की सुन आती हूँ ।
  क्या?मैं एक गोपी थी! या मैं, कान्हा की राधा ।
   हो सकता है मैं ! एक ग्वाला जो  कान्हा संग, धेनु, चराता ।
   या मैं मैया  यशोदा संग  माखन तुझे खिलाती थी ।
   उद्धव औ श्रीदामा के संग गुरु गृह पढने जाती थी ।
   किंवा! मैं बाँसुरिया  ही थी ,ताने मधुर सुनाती थी ।
   होंठों से लग के कान्हा के ,इंद्र -धनुष बन जाती थी ।
    जो ..... भी ..... हो .... मैं .... द्वापर ... मैं ...थी। .....
   पढ़ते -पढ़ते मानस को मैं ,जा बसूं  अयोध्या नगरी में ।
   माँ कौशल्या के अंगना डोलूं ,सीता की दासी बन खेलूं ।
   सरयू के संग -संग बहती मैं ,वन में भी रम जाती हूँ ।
    कोल ,भील ,निषाद ,किरात सब को अपना पाती हूँ ।
    केवट संग मैं नाव चलाऊं और स्वर्ण मृग भी बन जाऊं ।
    हनुमंत औ जामवंत ,सब मेरे अपने लगते हैं 
    राम ,लखन औ भरत शत्रुघ्न !मेरे सपने लगते हैं ।
     जो ..... भी .....हो .....मैं .....त्रेता .....में  ......थी। ....
     कुछ न कुछ तो है भगवन ,हम बार बार जग में आते हैं ।
     युग बीते औ सदियाँ बीतीं ,जाने कितने लिए जन्म औ ,
     कई .....बार .....मिट्टी .....में ..... मिलके ,
     पुनरपि जन्मम् ,पुनरपि मरणम् ,
      पुनरपि जननी जठरे शयनम्..
      आग्रही अब मुक्ती की हूँ ,
      चरणों में थोड़ी जगह चाहिये ,
      तू मुझको शरणागति ले ले ,
      कान्हा मैं राधा होना चाहती हूँ  !.............
************************************आभा ...........