Monday, 3 June 2013

                                            [ अनन्त की यात्रा और अंतिम इच्छा ]
                                            **************************************
...........  पुनरपि जन्मम्,  पुनरपि मरणम् |
...........  पुनरपि  जननी  ,जठरे  शयनम् |
  कथा पढूं जब कान्हा तेरी ,
  वृन्दावन मथुरा हो आती हूँ  ।
  कदंब तले ,जमुना के तीरे ,
  राधा-गोपी संग, धुन बंसी की सुन आती हूँ ।
  क्या?मैं एक गोपी थी! या मैं, कान्हा की राधा ।
   हो सकता है मैं ! एक ग्वाला जो  कान्हा संग, धेनु, चराता ।
   या मैं मैया  यशोदा संग  माखन तुझे खिलाती थी ।
   उद्धव औ श्रीदामा के संग गुरु गृह पढने जाती थी ।
   किंवा! मैं बाँसुरिया  ही थी ,ताने मधुर सुनाती थी ।
   होंठों से लग के कान्हा के ,इंद्र -धनुष बन जाती थी ।
    जो ..... भी ..... हो .... मैं .... द्वापर ... मैं ...थी। .....
   पढ़ते -पढ़ते मानस को मैं ,जा बसूं  अयोध्या नगरी में ।
   माँ कौशल्या के अंगना डोलूं ,सीता की दासी बन खेलूं ।
   सरयू के संग -संग बहती मैं ,वन में भी रम जाती हूँ ।
    कोल ,भील ,निषाद ,किरात सब को अपना पाती हूँ ।
    केवट संग मैं नाव चलाऊं और स्वर्ण मृग भी बन जाऊं ।
    हनुमंत औ जामवंत ,सब मेरे अपने लगते हैं 
    राम ,लखन औ भरत शत्रुघ्न !मेरे सपने लगते हैं ।
     जो ..... भी .....हो .....मैं .....त्रेता .....में  ......थी। ....
     कुछ न कुछ तो है भगवन ,हम बार बार जग में आते हैं ।
     युग बीते औ सदियाँ बीतीं ,जाने कितने लिए जन्म औ ,
     कई .....बार .....मिट्टी .....में ..... मिलके ,
     पुनरपि जन्मम् ,पुनरपि मरणम् ,
      पुनरपि जननी जठरे शयनम्..
      आग्रही अब मुक्ती की हूँ ,
      चरणों में थोड़ी जगह चाहिये ,
      तू मुझको शरणागति ले ले ,
      कान्हा मैं राधा होना चाहती हूँ  !.............
************************************आभा ...........

No comments:

Post a Comment