[ अनन्त की यात्रा और अंतिम इच्छा ]
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........... पुनरपि जन्मम्, पुनरपि मरणम् |
........... पुनरपि जननी ,जठरे शयनम् |
कथा पढूं जब कान्हा तेरी ,
वृन्दावन मथुरा हो आती हूँ ।
कदंब तले ,जमुना के तीरे ,
राधा-गोपी संग, धुन बंसी की सुन आती हूँ ।
क्या?मैं एक गोपी थी! या मैं, कान्हा की राधा ।
हो सकता है मैं ! एक ग्वाला जो कान्हा संग, धेनु, चराता ।
या मैं मैया यशोदा संग माखन तुझे खिलाती थी ।
उद्धव औ श्रीदामा के संग गुरु गृह पढने जाती थी ।
किंवा! मैं बाँसुरिया ही थी ,ताने मधुर सुनाती थी ।
होंठों से लग के कान्हा के ,इंद्र -धनुष बन जाती थी ।
जो ..... भी ..... हो .... मैं .... द्वापर ... मैं ...थी। .....
पढ़ते -पढ़ते मानस को मैं ,जा बसूं अयोध्या नगरी में ।
माँ कौशल्या के अंगना डोलूं ,सीता की दासी बन खेलूं ।
सरयू के संग -संग बहती मैं ,वन में भी रम जाती हूँ ।
कोल ,भील ,निषाद ,किरात सब को अपना पाती हूँ ।
केवट संग मैं नाव चलाऊं और स्वर्ण मृग भी बन जाऊं ।
हनुमंत औ जामवंत ,सब मेरे अपने लगते हैं ।
राम ,लखन औ भरत शत्रुघ्न !मेरे सपने लगते हैं ।
जो ..... भी .....हो .....मैं .....त्रेता .....में ......थी। ....
कुछ न कुछ तो है भगवन ,हम बार बार जग में आते हैं ।
युग बीते औ सदियाँ बीतीं ,जाने कितने लिए जन्म औ ,
कई .....बार .....मिट्टी .....में ..... मिलके ,
पुनरपि जन्मम् ,पुनरपि मरणम् ,
पुनरपि जननी जठरे शयनम्..
आग्रही अब मुक्ती की हूँ ,
चरणों में थोड़ी जगह चाहिये ,
तू मुझको शरणागति ले ले ,
कान्हा मैं राधा होना चाहती हूँ !.............
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