[ मैं स्त्री !ये भूल भी मेरी ]
*******************
*****मैं एक स्त्री ,
*****क्यूँ करना चाहते हो मुझको मुझसे ही अलग .
तुम जो संतान हो मेरी , देह का हिस्सा हो मेरी
सृजन मैंने ही किया है ,जग में मैं ही लाई तुमको .
पाला -पोसा ,स्वावलम्बी बनाया ,बल अपना तुम्हें दे डाला .
तुम्हें सभ्य बनाने को ,इस जगती से मिलवाने को ,
देख नहीं पायी मैं , कब मेरे पंखों ने भूली उडान।
सोचा ,चलो ! पंखों से तुम्हारे ही भरुं लूंगी अब उड़ान ,
पर तुम, मेरी संतति ,पंख अपने ले उड़ चले .
औ ! करने लगे तैयारी, मेरे रहे-सहे पंख कतरने की ?
तुम !बलवान हुए ,तुम अहंकारी हो गये ...........
मैं स्त्री ! मैंने सोचा ,तुम मेरी संवेदनाओं के ग्राही बनोगे .
पर ! तुम तो संवेदनहीन हो गये ??
मैं तुम पे हावी न हो जाऊं ,तुम तो कुंठा-ग्रस्त हो गये .
मैं स्त्री !तुम मुझे ही मिटाने चले हो दुनिया से .
घोट देना चाहते हो मेरी साँसें ?पैदा होने से पहले ही .
मैंने पीड़ा सह दी हैं सासें तुम्हें ,तुम ने सदा ही रौंदा मुझे !
माँ ,बहन,बेटी ,पत्नी ,बहू ,मर्यादा --सब झूठा प्रपंच ,
मैं स्त्री ! मैं धरती !मैं प्रकृति !परम्परा सहनशक्ति की ,
देखते हो तुम केवल मेरी देह ,मेरा सुंदर रूप ..........
मुझपे अधिपत्य की लालसा में ,खो चुके हो अपने को ,
मैं स्त्री !मुझे मत देखो ,देखो अपनी ओर .
अरे! खो गयी हैसुन्दरता तुम्हारी दृष्टि में मेरी !
अरे! हो गए हो बलहीन दृष्टि में मेरी !
मैं स्त्री ! देखो मैं ही हूँ भीतर तुम्हारे .
मैं स्त्री !मुझसे ही बना है शरीर तुम्हारा .
मैं स्त्री !सह सकती हूँ तुम्हें दुनियां में लाने की पीड़ा .
तो हो सकती हूँ क्या तुम से निर्बल ?
ओ मेरी संतानों !अपना बल मैंने ही दिया तुम्हें था ,
जान तुम्हें असहाय व् निर्बल .
सोचा तुम ही होओगे अब मेरा बल .
पर --------------------------------------
मैं स्त्री ! सदियों तक छली गयी .
मोह ,ममता बस चुप ही रही ,
तुमने मुझको निर्बल समझा .
तुमने मुझको त्रस्त किया .
मैं स्त्री !घर का हूँ श्रृंगार कहा ,
बनाती हूँ समाज कहा ,
रूप रंग की रानी हूँ ,चन्दा का अवतार कहा ,
कैसी छलना !क्या प्रपंच यह ?
मैं स्त्री!
,जो संतति का जो करे सृजन ,रूप बन गयी ,देह बन गयी ???
------ पाने तो लगी हूँ फिर से पहचान अब मैं अपनी ,
आने तो लगा है अपना अस्तित्व नजर मुझे .
जानती हूँ ये भूल नहीं है तुम सब की ,,मैं ही खुद को भूली थी .
मैं तो प्रकृति हूँ !प्रकृति खुद को भूले तो ?
परिणाम में आंधियां ही होंगी .
अब मैं अपनी स्व प्रकृति में आउंगी ,में बस केवल देह नहीं हूँ .
अब मैं करवट बदलूंगी ,अपने पंखों को सबल करुँगी ,
दुर्गा लक्ष्मी संग मैं काली भी हूँ ,
सौम्य वेश अब बहुत हो चुका ,रौद्र रूप अपनाना होगा ,
मैं स्त्री !काली रूप जो धर लेती हूँ ,शिव भी चरणों में आजाते हैं।
मैं स्त्री !मैं ही आदि और अंत भी मैं ही ............................................आभा ,,,,,,,,,,,,,,
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*****मैं एक स्त्री ,
*****क्यूँ करना चाहते हो मुझको मुझसे ही अलग .
तुम जो संतान हो मेरी , देह का हिस्सा हो मेरी
सृजन मैंने ही किया है ,जग में मैं ही लाई तुमको .
पाला -पोसा ,स्वावलम्बी बनाया ,बल अपना तुम्हें दे डाला .
तुम्हें सभ्य बनाने को ,इस जगती से मिलवाने को ,
देख नहीं पायी मैं , कब मेरे पंखों ने भूली उडान।
सोचा ,चलो ! पंखों से तुम्हारे ही भरुं लूंगी अब उड़ान ,
पर तुम, मेरी संतति ,पंख अपने ले उड़ चले .
औ ! करने लगे तैयारी, मेरे रहे-सहे पंख कतरने की ?
तुम !बलवान हुए ,तुम अहंकारी हो गये ...........
मैं स्त्री ! मैंने सोचा ,तुम मेरी संवेदनाओं के ग्राही बनोगे .
पर ! तुम तो संवेदनहीन हो गये ??
मैं तुम पे हावी न हो जाऊं ,तुम तो कुंठा-ग्रस्त हो गये .
मैं स्त्री !तुम मुझे ही मिटाने चले हो दुनिया से .
घोट देना चाहते हो मेरी साँसें ?पैदा होने से पहले ही .
मैंने पीड़ा सह दी हैं सासें तुम्हें ,तुम ने सदा ही रौंदा मुझे !
माँ ,बहन,बेटी ,पत्नी ,बहू ,मर्यादा --सब झूठा प्रपंच ,
मैं स्त्री ! मैं धरती !मैं प्रकृति !परम्परा सहनशक्ति की ,
देखते हो तुम केवल मेरी देह ,मेरा सुंदर रूप ..........
मुझपे अधिपत्य की लालसा में ,खो चुके हो अपने को ,
मैं स्त्री !मुझे मत देखो ,देखो अपनी ओर .
अरे! खो गयी हैसुन्दरता तुम्हारी दृष्टि में मेरी !
अरे! हो गए हो बलहीन दृष्टि में मेरी !
मैं स्त्री ! देखो मैं ही हूँ भीतर तुम्हारे .
मैं स्त्री !मुझसे ही बना है शरीर तुम्हारा .
मैं स्त्री !सह सकती हूँ तुम्हें दुनियां में लाने की पीड़ा .
तो हो सकती हूँ क्या तुम से निर्बल ?
ओ मेरी संतानों !अपना बल मैंने ही दिया तुम्हें था ,
जान तुम्हें असहाय व् निर्बल .
सोचा तुम ही होओगे अब मेरा बल .
पर --------------------------------------
मैं स्त्री ! सदियों तक छली गयी .
मोह ,ममता बस चुप ही रही ,
तुमने मुझको निर्बल समझा .
तुमने मुझको त्रस्त किया .
मैं स्त्री !घर का हूँ श्रृंगार कहा ,
बनाती हूँ समाज कहा ,
रूप रंग की रानी हूँ ,चन्दा का अवतार कहा ,
कैसी छलना !क्या प्रपंच यह ?
मैं स्त्री!
,जो संतति का जो करे सृजन ,रूप बन गयी ,देह बन गयी ???
------ पाने तो लगी हूँ फिर से पहचान अब मैं अपनी ,
आने तो लगा है अपना अस्तित्व नजर मुझे .
जानती हूँ ये भूल नहीं है तुम सब की ,,मैं ही खुद को भूली थी .
मैं तो प्रकृति हूँ !प्रकृति खुद को भूले तो ?
परिणाम में आंधियां ही होंगी .
अब मैं अपनी स्व प्रकृति में आउंगी ,में बस केवल देह नहीं हूँ .
अब मैं करवट बदलूंगी ,अपने पंखों को सबल करुँगी ,
दुर्गा लक्ष्मी संग मैं काली भी हूँ ,
सौम्य वेश अब बहुत हो चुका ,रौद्र रूप अपनाना होगा ,
मैं स्त्री !काली रूप जो धर लेती हूँ ,शिव भी चरणों में आजाते हैं।
मैं स्त्री !मैं ही आदि और अंत भी मैं ही ............................................आभा ,,,,,,,,,,,,,,
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