Tuesday, 27 August 2013

तुम्हारी कर्म श्रृंखला हे देव ,
हमारी संस्कृति का श्रृंगार ।.
नमन हे कान्ह तुम्हें शत बार ,
नमन हे कृष्ण तुम्हें शत बार ।
                     कौन जानता था की भाद्रपद- अष्टमी की काली अंधियारी रात्रि को कारावास की कालकोठरी में अवतरित  होने  वाला--------दिव्य-शिशु ---युगों -युगों तक प्रेम का आह्लादक बन जाएगा। श्री वृन्दावन में वंशी -तट में वंशी बजाने वाला , ऐसी मुरली बजाएगा जिसके माधुर्य से मानवता चिरकाल तक प्रेम का साक्षात्कार करेगी। इस अलौकिक शिशु ने वृन्दावन में ,नन्द -यशोदा के लिए कान्हा बन कर पुत्र -प्रेम को अभिव्यंजित किया तो गोपियों के लिए वो निश्छल प्रेमी बने ...किसी ने उन्हें साख्य प्रेम के रूप में पाया , किसी ने राजा के रूप में अपना सर्वस्व उन्हें अर्पण किया ......तो किसीने दास भाव से इनकी भक्ति गंगा में अवगाहन किया ...कृष्ण के भिन्न -भिन्न रूपों के प्रति जीव का प्रेम सदियों से चला आ रहा है .उन्हें शिशु बनकर खिलाइये .......
    यशोदा हरी पालने झुलावे ,हलरावे दुलरावे मल्हावे ,जोई सोई कछु गावे ..............
सारे जग को चलाने  वाला माता  से चलना सीख रहा है ...सिखति चलन यशोदा मइया .,अरबराई कर पानि गहावत ,डगमगाई धरनी धरे पइया .............
वो चाँद के लिए रूठ जाता है ....मैया मेरी मैं चन्द्र खिलौना लेहूँ ..........वो अपनी तोतली वाणी से सबको लुभाता  है .....कहन लागे मोहन मैया -मैया ,नन्द महर सौं बाबा -बाबा अरु हलधर सुन भैया ...........धेनु चराने जाता  हैं ....आज हरि धेनु  चराये आवत मोर मुकुट बन माल विराजत पीताम्बर फहरावत ......वो माखन चोरी का उलाहना लेता और देता  हैं ......जो तुम सुनहुँ जसोदा गोरी ,नन्द -नन्दन मेरे मन्दिर में आजु करन गये चोरी .....और मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो .......शिशु रूप में ये एक अलौकिक बालक है .... पूतना वध से लेकर कालिया नाथने तक असंख्यों करतब करते हुए भी साधारण बालक के रूप में वृन्दावन की गलियों में खेलता है ...  और राधारानीके संग अपने प्रेम की एक नई और अलौकिक परिभाषा गढ़ता है ,,,गोपियों संग रास रचता हुआ मथुरा,वृन्दावन को सदिओं के लिए  प्रेम ,करुणा  और आनन्द का प्रतीक बना देता है ............
     वंशी धरं तोत्त्र धरं नमामि ,
     मनोहरं ,मोहहरं च कृष्णम ,
   करोति दूरं पथि विघ्न -बाधा ,
    ददाति शीघ्रं परमात्म सिद्धिं .......
 कृष्ण धर्म प्रवर्तक हैं ....प्रेरणा श्रोत्र हैं .जीवन की उत्पत्ति से लेकर संध्या काल तक अनेकों रूपों में जीवन को सार्थक बनाने को उपस्थित हैं ....हमारी संस्कृति को कर्म और प्रेम का संदेश देने  को प्रभु ने कालकोठरी में जन्म लिया और जन्म के साथ ही बंधन तोड़ के स्वतंत्र होने का उपदेश दिया ..कारागृह से बाहर आओ .....समाज ,शास्त्र ,शुभ -अशुभ,माया -मोह ,मान मर्यादा ,धर्म ,जांत -पांत के बंधन तोड़ो ........और हम कृष्ण -जन्म के उपलक्ष में कारागृह में ही झूला डाल के बैठ गये ..... कृष्ण की मानवता को सबसे बड़ी देन  गीता ...जो कर्मण्येवाधिकारस्तेका सिद्धांत   जगती को सिखाती है ....जो योग में अवस्थित रह के कर्म करना सिखाती है  .......
..नात्यश्रन्तस्तुयोग:अस्तिनचैकान्तम्नश्र्न्त:,  न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ....................यानी सम्यक दृष्टि रखने का उपदेश देती है ........कर्म करो और फल की इच्छा मत करो ......और हम दिन भर उपवास रखके रात्रि में परायण के लिए तरह -तरह के पकवान बना के मध्य रात्रि उसके आगे खड़े हो गए आरती का थाल  ,घंटे ,घड़ियाल ले के ..प्रभु हमने उपवास -व्रत किया है दिन भर, अब हमें मनवांछित फल दो ...हमारा आरत हरो ...........कान्हा ने गीता बांची हमें जाग्रत करने को ,मूढ़ता और किंकर्तव्यविमूढ़ता ...दूर करने को और हम गीता के श्लोकों का अपने साध्य की पूर्ति के लिए अनुष्ठान करने लगे ......गीता के महात्म में उलझ के रह गए ............कान्हा को समग्र और सहज रूप में समझने की आवश्यकता आज के माहौल में अधिक है .....आज कृष्णमय होने का समय आन पड़ा है ............कृष्ण जन्म से उद्धारक हैं और अंतिम समय तक उद्धार ही करते हैं .....उन्होंने वचन में बंधे हुए ही कारागृह में जन्म लिया ,अपने शरीर और समाज के बन्धनों को तोड़ने की शिक्षा दी .......प्रेम के प्रतीक बने और मोह के फंदे को काटने की , निर्लिप्त  रहने की शिक्षा दी ...योग में बंध कर कर्म करने और फल की चाह में न बंधने की, स्थितिप्रज्ञहोने की  शिक्षा दी ,विभूति योग दिखाया ....भक्ति योग सिखाया ....और आत्मा और परमात्मा के एक होने की शिक्षा दी ......और वचन में बंधे हुए ही परमधाम सिधारे .....कृष्ण वो नाम जो सर्वत्र बंधन में है फिर भी स्वतंत्र है ..     ...कृष्ण की सुन्दरता और कार्यों का  वर्णन बड़े बड़े ऋषि मुनि योगी भी न कर पाए ....वाणी न सकती देख ,जाता है न आँखों से कहा ....वो गीता की ही भांति सहज ,समग्र ,विस्तृत ,अलौकिक और शांति दायक हैं   ....वो मीरा की वाणी में हैं ...रसखान के दोहों में हैं ....सूर का जीवन हैं ...और अनगिनत मनीषियों के जीवन धन हैं ...............कान्हा  हमें सिखाते हैं की कल्याण की उत्कट अभिलाषा रखने वाला मनुष्य हरेक परिस्थिति में परमात्मा को प्राप्त हो सकता है और युद्ध जैसी परिस्थिति में भी परमात्मा का साक्षात्कार कर कल्याण को प्राप्त हो सकता है ..........विद्वानों का कहना है की आज भी ग्रहों का वो ही संयोग बन रहा है जो पांच हजार वर्ष पहले कृष्ण जन्म में था .......ये संयोग हम सब के लिए ,.देश के लिए और विश्व के लिए कल्याणकारी हो ............सभी को कृष्ण -जन्माष्टमी की बहुत -बहुत शुभकामनायें ...........बधाई तो बनती है ................................
 आज तो बधाई बाजे नन्द महर के ,
फूले फिरें गोपी ग्वाल ठहर -ठहर के ,
नृत्यत मदन फूलो ,फूली रति अंग -अंग ,
मन के मनोज फूलें हलधर वर के ....
आनन्दोत्सव है आनन्द मनाइए ,,,,,,,,,,,,,,हाथी घोड़े पालकी
जै कन्हैया लाल की .........................आभा ........
              कृष्ण  मय हो जाऊं
             ****************
मैं बापुरी डूबन डरी रही किनारे बैठ।
    निकट कृष्ण के जब भी जाऊं
     उसके रंग में रंग जाने को ,
     जाने क्यूँ  अकुला  जाती हूँ,
     क्या? कान्हा बनना आसां  होगा !
     क्या ? वो फूल खिलेगा अंतर में !
    क्या ? वो दीप जला मैं पाऊँगी !
    प्रेम प्यार में पगी सुरभि का
    क्या मैं विस्तार पाऊँगी ?
     अहो !मन्त्र कान्हा बनने का ,
    मुझको देने आये हो। ……।
    मैं ! निष्ठा से सुनती हूँ,तुम को !
    बोलो तुम मेरे भगवन !
    अपनी गीता की वाणी में,
     कान्हा फिर मुझसे बोले------
     बीज वृक्ष से कह सकता तो ,
     वो भी ये सब ही कहता ,
    कहाँ क्षुद्र सा बीजऔ   तीर्थंकर तुम ,  मेरे। -
    फूलों  की करने से पूजा ,
    नए बीज बन पायेंगे ?
   सागर को पूजे नदि ,
     तो,  क्या? सागर  बन जायेगी !
     मैं तो तेरी जीवन धारा ,
    तेरे अंतर में रहता हूँ,
   बस! बीज सम खो जा मिटटी में ,
   नदी सी मिल जा सागर में ,
   कर्म प्यार की धारा बन जा,
   अपने स्व को मिटने दे.
  बंधन तोड़ स्वतंत्र जो होगी
 श्वासों को अपनी परखेगी ,
 तो घटना घट जायेगी ,
 और अनंत की यात्रा में तू-
 कान्हा संग ही जाएगी।।
कान्हा ,कृष्णा मुरली मनोहर,
राधाके तुम सांवरिया हो,
मेरे मन को मधुर बनाकर ,
  रूप दिखा गये नटवर का.।
मन मेरा कान्हा- कान्हा है
तन में भी मधुरिम कान्हा ,
मीरा सी मैं बावरिया हूँ,
 बोध हुआ तेरा कान्हा
……………………
    कृष्ण का बोध होना
  अस्तित्व का तिरोहित हो जाना ,
फूल का खिलना ,------------
सुगंधी देकर ,बिखर जाना।
लहर-लहर,
सागर तट आना।
बालू को, गीला कर  जाना।
असमान पे, बदरा  बन छाना,
  बिखर धरती की प्यास बुझाना।
  कृष्णा ,कान्हा,बनने का सुख ,
  कण -कण में बिखरने का सुख 
 मिटने का आह्लाद ,
  कारा से आजादी ,
 परम स्वतन्त्रता ,
 असीम आनन्द,
 स्व का विस्तार। .
और बन जाना इक प्यार का पारावार,
अब मैं भी कान्हा बनने  को ,
 उतरूँ  गहरे सागर में।
 और बावरी मीरा बन कर,
डूबन से नहीं डरती हूँ।
 नमन हे कान्ह तुम्हें शत बार ,
नमन हे कृष्ण तुम्हें शत बार। …………. आभा

   
 

   

     

Wednesday, 14 August 2013

 [  स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पे ]
                                                                 *****************************
  अस्त होते सूर्य की सुनहरी लालिमा ,शांत नीरव संध्या ,प्रकृति में चहुं -ओर शांति और स्थिरता ,सरिता भी मंथर गति से बह रही है , उसके ऊपर सूर्य का प्रकाश मानो दुल्हन ने लाल रंग का लहंगा पहनलिया हो , उठती -गिरती चंचल लहरों पे झलमल करती भुवन -भास्कर की सुनहरी किरणे, अठखेली करती सरिता को मानो सोने की करधनी पहना दी हो ...अदभुत विस्मयकारी समय और ऊपर से .लजीला बाल-चन्द्र वृक्षों की ओट से झांकता हुआ ,,सायं जब भी पुल के ऊपर से गाड़ी गुजरती है तो ये एक ऐसा दृश्य और समय होता है जब हर वस्तु का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है .......नदी का लजीली दुल्हन की तरह बलखाके बहना ,चाँद का लजाना ,झलमलाते तारों का आकाश में उदय होना .................पर इस दृश्य को देखने और अनुभूत करने को आपके पास होना चाहिए एक स्वतंत्र ,पूर्वाग्रहों से मुक्त मन , चिंताओं ,संघर्षों ,और अनुमानों से बोझिल मन ये सब नहीं देख सकता ,..............सम्भवत:यही स्वतंत्रता का मूल मन्त्र है .................पूर्वाग्रहों से मुक्त मन  अपने स्व में रहने वाला .... वो स्व नहीं जो विद्यालय जाता है कार्यालय जाता है ,झगड़ता है ,भयभीत है ,जो पुस्तकों ,समाचार -पत्रों ,या समाज और रुढियों से मिलकर बना है ,वरन जो चेतन है अपने प्रति और संवेदनशील है वातावरण के प्रति ....
                अपनी इच्छा से सारे काम करना और अपने अनुसार जीवन जीना ही क्या स्वतंत्रता है .यह तो अधिकांश लोग करते ही हैं ,किसी के आश्रित न होना ही स्वतंत्रता नहीं है ...स्वतंत्रता का अर्थ है मेधावी [intelligent] होना .अपने संस्कार ,सरोकार .धरोहर ,संस्कृति ,रीति -रिवाज ,माता -पिता और गुरुजनों तथा पूर्वजों की सीखों और परम्परा को सहजता ,समग्रता और अपनी मेधा का उपयोग करके जानना .समझना और गहरी अंतरदृष्टि के साथ अपनाना . कहाँ कितना बंधन में बंधना है .कितना मुक्त होना है ,बिना किसी पूर्वाग्रह ,समाज के भय ,या बदनामी के डर से अपने स्व को पोषित करना .
       हम जैसे हैं, उसे पहचाने, और वैसे ही रहें ....कुछ और बनने की कोशिश न करें .यदि हम रुक्ष हैं तो ,क्रोधी हैं तो ,संवेदनशील हैं तो वैसे ही रहें ...बस सहजता और समग्रता से अपने को पढने की कोशिश करें  ....हमारा व्यवहार किसी बड़े और प्रतिष्ठित व्यक्ति के साथ  विनम्र है और अपने अधीन के साथ रुक्ष है ,,,हम मजबूरी में ही संवेदनशीलता दिखाते हैं ,,ये सब जब हम अपने में अनुभव करेंगे तो पायेंगे कि  धीरे -धीरे हम अपने व्यक्तित्व के पूर्वाग्रहों से मुक्त होकरएक स्वतंत्र व्यक्तित्व की और बढ़ते जा रहे हैं .......वहां पहुँच रहे हैं जो हमारा लक्ष्य है ........
    केवल पद -प्रतिष्ठा ,कुछ पदक ,कुछ सर्टिफिकेट या अर्थोपार्जन ही शिक्षा का उद्देश्य नहीं है ...हम महान  बनना चाहते हैं, धन कमाना चाहते हैं ,प्रसिद्धि पाना चाहते हैं ,बुद्धि मान कहलाना चाहते हैं , जहाँ हम ये सब प्राप्त करलेते हैं वहीँ असुरक्षित हो जाते हैं और बन्धनों में जकड जाते हैं , स्वतंत्रता को खो देते है ...जो व्यक्ति इन  उपाधियों  की व्यर्थता को  समझता है , अपनी क्षमता को पहचान के सहजता और समग्रता से जीता है ....जिसके लिए शिक्षा का उद्देश्य जीने की कला सीखना है ....जो कुछ बनना नहीं चाहता ,जो किसी का अनुकरण करने की कोशिश नहीं करता ,वही स्वतंत्र है .....इस स्वतंत्रता में एक विलक्षण सौन्दर्य है ...कुछ न बनने की इच्छा यानी एक नया आयाम विकसित होना ,यानि क्रांति होना ,,,और कुछ नया प्रस्फुटित होना बिना बंधन के! यही स्वतंत्रता है ...
      हमें अपने बच्चों को एक ऐसा ही वातावरण देना होगा जहाँ, उनपे कोई आग्रह न हो किसी को भी अनुकरण करने का ,एक ऐसी अंतर दृष्टि देनी होगी जहाँ वे अपने स्व को विकसित कर सकें बिना किसी पूर्वाग्रह के ,ऐसी शिक्षा देनी होगी जो उन्हें इन्सान बनाये न कि  पैसा और प्रतिष्ठा कमाने की मशीन ,हमें उन्हें कुछ बनने  को नही कहना है ,,वरन ऐसा माहौल देना है जहाँ वो अपनी वास्तविकता को क्षण प्रतिक्षण समझेंऔर बांधने और कुचलने वाले संस्कारों से मुक्त हो मानवता के विकास की ओर बढ़ें , ,अराजकता ,विद्रोह ,जय पराजय  से मुक्त सरल,सहज , संवेदनशील ,और समग्र मन के स्वामी हों ................और करें एक नूतन विश्व का निर्माण जो किसी आदर्शवादी , दार्शनिक , की सनक पे  नहीं खड़ा होगा वरन,,निश्छल प्रकृति की छाँव तले सुन्दरता का मानदंड होगा ....हम प्रकृति की सुन्दरता का अनुभव करें ,स्वयं भी सुंदर बनें .............सहज सुंदर प्रकृति जैसे एक नियम और बंधन में  बंधी हुई  भी स्वतंत्र है ..वही हमें भी बनना है और अपने बच्चों को भी वही वातावरण देना है ..तभी हम सही अर्थों में स्वतंत्र कहलायेंगे ....और मानवता की रक्षा कर पायेंगे ............................................
                 [[वीर शहीदों की शहादत से मिली स्वतंत्रता की आप सब को बहुत बहुत बधाई ]]................आभा .......




Friday, 2 August 2013

                                                             [  जीवन फिर भी जीवन ]
                                                             *************************
     बसंती बयार में सुबह की सैर ;
     शाखों से टूटे बिखरे .सूखे----
      पत्तों पे चलने  का स्वर ;
      चर -मर, चर -मर ,चररमरर ;
      यूँ  ही    चरमराता   जीवन !
      बारिशों  से   भीगी   गीली ,
     फिसलन भरी पहाड़ी पगडंडी ;
     चप्पलें   हाथ   में    लिए ,
      छाता    कंधे    पे    टाँगे 
      अपने गाँव की चढाई चढना ;
      सपनों की टूटन तक पहुंचना !
      दरकते पहाड़ों से गिरती बालू ,
      मिट्टी के साथ बरसते पत्थर ,
       घाटी     से      चोटी      तक ,
      पेड़ों की याद में रोते पहाड़ों का दर्द ;
       हाथों  से  छूटती  जिन्दगी !
      भूखी माँ के सीने से चिपका ,
       .............. बच्चा ...............
       कंकाल  हो  चुके  शरीर  से ,
       सडकें  खोदने को मजबूर  ,
       गैंती     चलाता        पिता ;
       दुश्वारियों में जीवन संवारने की नाकाम सी  कोशिश !
       जीवन फिर भी जीवन ;
       जीने  को  मचलता  है ! ........................
.................आभा ........................
                                                             सीता तत्व  
                                                           ************                                                                                                               इच्छाज्ञानक्रियाशक्तित्रयं    य्द्भाव्साधनम।
तदब्रह्मसत्तासामान्यं       सीतातत्वमुपास्महे।।
..........इच्छा ज्ञान और क्रिया ---इस शक्ति-त्रय के स्वरुप ज्ञान से जो  विमल भाव  ,बुद्धि में ...है ...वह - ब्रह्मसत्ता-ब्रह्म सचिदानंद स्वरूप भाव ही सीता तत्व है।    ----सत्व, रज और तम ये इस शक्ति -त्रय के ही गुण हैं ........................................
''.मूलप्रकृति रूपत्वात  सा सीता प्रकृति: स्मृता।
 प्रणव प्रकृति रूपत्वात सा सीता प्रकृतिरुच्यते।।''
  सीता मूल- प्रकृति वा प्रणव स्वरूपिणी हैं। वो सर्व वेदमयी है ,सीतादेवी वेदशास्त्रमयी हैं--- -[सीतोपनिषद]।  वो ब्रह्म विद्या स्वरूपिणी ,सर्ववेदमयी ,सर्वदेवमयी ,सर्वकीर्तिमयी ,सर्वधर्ममयी  ,सर्वकार्यकारणमयी ,इच्छा -ज्ञानक्रियामयी -विश्व माता हैंजोविष्णुअवतार  के समय अपने को उनके अनुरूप परिवर्तित कर लेती है ...और अपनी इच्छा से इस पृथ्वी पे आती है ...वो अयोनिजा हैं ..जो ब्रह्म को धारण करती हुई ,ब्रह्म के साथ इस दुखमय मृत्यु लोक की रक्षा हेतु अवतरित होती है ..[सीतोपनिषद ]
''उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं  क्लेशह़ारिणीम।।
सर्वश्रेयस्करीं  सीतां नतोह्म रामवल्लभाम।।''
सीता जी ही इस संसार का  उद्भव ,पालन और संहार करने वाली हैं ,वो ही रामके चरित को इतना महान बनाती हैं और गीद्ध ,दैत्य .राक्षस ,सहस्त्रों योनियों की मुक्ति का कारण हैं ,,इसीलिए सर्वश्रेयस्करी हैं ..[रामचरित मानस ]--
जगद को विशुद्ध ज्ञान तथा भक्ति सिखाने के लिए ,निखिल कोमल भावों का विमल रूप दिखाने के लिए जगन्माता इस लोक में अवतरित हुईं। वो पूरे जीवन काल में राम भक्त हैं और भक्ति के चरमोत्कर्ष की ओर  ले जाती है जीव को, जहाँ ब्रह्म से मिलन  है। ,पातिव्रत्य की विमल छवि नेत्रों के आगे नाचने लगती है जिनका स्मरण करते ही  ...वो छवि जो ..जो युवराज का पद मिलने की पूर्व संध्या पे राम से कहती है की वो राजा बननेसे पहले वल्कल वस्त्र धारण कर सीमाओं को सुरक्षित करें और अपनी भुजाओं का पराक्रम मनवायें ,वो छवि  अबला नहीं है ..जो वनवास में साथ जाने को कृत -संकल्प है ,और मुखर होकर अपनी बात रखती है ..वो छवि जो  वन में राम को सचेत करती है कि राक्षसों संहार करते करते निर्दोषों को मत मारना ...वो छवि जो एक वीरांगना की है जो बालपन में ही शिव -धनुष को उठालेती है...............................................................................................
   सीता के मातृभाव की उपमा नहीं है .उनके धैर्य की कोई सीमा नहीं है ,उनकी कोमलता का कोई दृष्टान्त नहीं है ..उनकी तेजस्विता अनुपम है ,वो अगाध करुणा का समुद्र है जो अपने को तंग करने वाली राक्षसियों को भी शरणागति में लेती हैं ..जिनका सुस्निग्ध ;अमृतमय हृदय देखकर अग्नि को भी शीतल होना पडा .........वो सीता राम से भिन्न नही है दोनों ब्रह्मस्वरूप हैंपर मानव रूप में, साधारण मानव को ,भिन्न -भिन्न दिखलायी पड़ते है .....राम के संकल्प रूप में ही वो इस धरती पर अवतरित हुई हैं धर्म की स्थापना हेतु ,समाज को तप और धैर्य सिखाने हेतु ,परमात्मा को[ राम ] को पाने हेतु कैसी तपस्या करनी पड़ती है .मार्ग में   सुख और दुःख दोनों आते हैं ,कभी आभास होता है पहुँच गये .परमात्मा पास ही हैं ..और फिर अचानक दूर बहुत दूर हो जाते हैं ...सीता के  वन गमन का हेतु  था ,समाज को समझाना कि वेदसे छूटा शास्त्र और राम से छूटी सीता दोनों दुःख हैं ....स्कन्द पुराण में कहा गया है कि  ''सीताकमला हैं ,ये जगन्माता हैं ; इन्होने लीला से मनुष्य -मूर्ति धारण की है ;ये देवत्व में देवदेहा हैं और मनुष्यत्व में मानुषी हैं ;ये विष्णु के अनुरूप अपनी देह धारण करती हैं।,--------------
''कमलेयं जगन्माता लीला मानुष विग्रह .
देवत्वे देवदेहेयं मनुष्यत्वे च मानुषी ;
विष्णोर्देहानुरूपां  वै करोत्येषामनस्तनूम।। ..स्कन्द पुराण ,.........
 ...सीता को अबला मानने वाले और राम पे ऊँगली उठाने वाले कुछ व्यक्ति सदैव ही इस जगद में हुए हैं ... यदि केवल रामचरितमानस को ही धैर्य और लगन पूर्वक पढ़ लिया जाये तो इन सारी घटनाओं के पीछे का मनोविज्ञान और कारण स्पष्ट हो जाता है ....राम शक्तिमान हैं तो सीता उनकी शक्ति है ..तो ये दोनों अभिन्न है शक्ति ही शक्तिमान का मूल है ...
एवं यदा जगद स्वामी देव देवौ जनार्दन।
अवतारं करोत्येषा तदा श्री स्तत्सहायिनी।।
राघवत्वेभवत्सीता रुक्मिणी कृष्णजन्मनी।।[विष्णु-पुराण ]
   श्री और श्रीमन एक तत्व होने पे भी लीला निमित्तक भिन्न रूप प्रतीति हैं ..
सूर्य एवं सूर्य की प्रभा ज्यूँ अभिन्न हैं ऐसे ही। .. रामचंदजी कहते हैं कि ------------
'' अनन्या हि मया सीता भास्करस्य प्रभा यथा ''...............सीताजी भी रावण से श्री राम के प्रति अपनी अनन्यता स्थापित करते हुए कहती हैं ......''वृथा लोभयितुं  नाहमैश्वर्येण  धनेन वा।
  ........................अनन्या राघवेनाहं भास्करेण प्रभा यथा।। ''..वाल्मीकि रामायण .......
     राम ही सीता हैं ,सीता ही राम है .....इन दोनों में कोई भेद नही है ...ये तो संसार को सदाचार ,धर्म ,कर्तव्य .और रिश्तों की मर्यादा का पाठ पढ़ाने को प्रभु का अवतरण हुआ था ...संत लोग इसी तत्व को भली भांति बुद्धि के द्वारा जान के भव -सागर से पार हो जाते है ....[अद्भुत रामायण ]..............सीता राम की लीला की आलोचना करने वाले ..यदि एक बार भी मानस को पढ़े तो उनकी बुद्धि पे छाये काले बादल छंट जाएँगे  ..... सीता को अबला नारी के रूप में चित्रित करने का षड्यंत्र जान बूझ के रचा गया ...आज की स्त्री को सीता के चरित्र को पढ़ना होगा .,सीता का पुरुषार्थ औरकरुणा ,दृढ़ता  और कोमलता, धैर्य और संकल्प ,बुद्धि और विवेक कठिनाइयों में भी सहजता ,समाज को अपनाने की कला ,बड़ो का सम्मान और छोटों को प्यार देते हुए भी अपने व्यक्तित्व की अलग पहचान बनाये रखना और अपने अस्तित्व के लिए सामंजस्य पूर्ण संघर्ष ..समय आने पे मुखर पर मृदुभाषिणी ..वो ब्रह्म   हैं . जो स्त्री को  .ये सबगुणजो   स्त्री के व्यक्तित्व के आभूषण  हैं और  आज की स्त्री के लिए भी प्रासंगिक हैं ...सिखाने के लिए अवतरित हुई हैं .....अबला नहीं है सीता वो माँ है .और आज भी घर -घर में प्रकृति रूप में .प्रणव रूप में ,ब्रह्म रूप में पूजी जाती है .....श्री सीता राम शरणम मम ....