Friday, 2 August 2013

                                                             सीता तत्व  
                                                           ************                                                                                                               इच्छाज्ञानक्रियाशक्तित्रयं    य्द्भाव्साधनम।
तदब्रह्मसत्तासामान्यं       सीतातत्वमुपास्महे।।
..........इच्छा ज्ञान और क्रिया ---इस शक्ति-त्रय के स्वरुप ज्ञान से जो  विमल भाव  ,बुद्धि में ...है ...वह - ब्रह्मसत्ता-ब्रह्म सचिदानंद स्वरूप भाव ही सीता तत्व है।    ----सत्व, रज और तम ये इस शक्ति -त्रय के ही गुण हैं ........................................
''.मूलप्रकृति रूपत्वात  सा सीता प्रकृति: स्मृता।
 प्रणव प्रकृति रूपत्वात सा सीता प्रकृतिरुच्यते।।''
  सीता मूल- प्रकृति वा प्रणव स्वरूपिणी हैं। वो सर्व वेदमयी है ,सीतादेवी वेदशास्त्रमयी हैं--- -[सीतोपनिषद]।  वो ब्रह्म विद्या स्वरूपिणी ,सर्ववेदमयी ,सर्वदेवमयी ,सर्वकीर्तिमयी ,सर्वधर्ममयी  ,सर्वकार्यकारणमयी ,इच्छा -ज्ञानक्रियामयी -विश्व माता हैंजोविष्णुअवतार  के समय अपने को उनके अनुरूप परिवर्तित कर लेती है ...और अपनी इच्छा से इस पृथ्वी पे आती है ...वो अयोनिजा हैं ..जो ब्रह्म को धारण करती हुई ,ब्रह्म के साथ इस दुखमय मृत्यु लोक की रक्षा हेतु अवतरित होती है ..[सीतोपनिषद ]
''उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं  क्लेशह़ारिणीम।।
सर्वश्रेयस्करीं  सीतां नतोह्म रामवल्लभाम।।''
सीता जी ही इस संसार का  उद्भव ,पालन और संहार करने वाली हैं ,वो ही रामके चरित को इतना महान बनाती हैं और गीद्ध ,दैत्य .राक्षस ,सहस्त्रों योनियों की मुक्ति का कारण हैं ,,इसीलिए सर्वश्रेयस्करी हैं ..[रामचरित मानस ]--
जगद को विशुद्ध ज्ञान तथा भक्ति सिखाने के लिए ,निखिल कोमल भावों का विमल रूप दिखाने के लिए जगन्माता इस लोक में अवतरित हुईं। वो पूरे जीवन काल में राम भक्त हैं और भक्ति के चरमोत्कर्ष की ओर  ले जाती है जीव को, जहाँ ब्रह्म से मिलन  है। ,पातिव्रत्य की विमल छवि नेत्रों के आगे नाचने लगती है जिनका स्मरण करते ही  ...वो छवि जो ..जो युवराज का पद मिलने की पूर्व संध्या पे राम से कहती है की वो राजा बननेसे पहले वल्कल वस्त्र धारण कर सीमाओं को सुरक्षित करें और अपनी भुजाओं का पराक्रम मनवायें ,वो छवि  अबला नहीं है ..जो वनवास में साथ जाने को कृत -संकल्प है ,और मुखर होकर अपनी बात रखती है ..वो छवि जो  वन में राम को सचेत करती है कि राक्षसों संहार करते करते निर्दोषों को मत मारना ...वो छवि जो एक वीरांगना की है जो बालपन में ही शिव -धनुष को उठालेती है...............................................................................................
   सीता के मातृभाव की उपमा नहीं है .उनके धैर्य की कोई सीमा नहीं है ,उनकी कोमलता का कोई दृष्टान्त नहीं है ..उनकी तेजस्विता अनुपम है ,वो अगाध करुणा का समुद्र है जो अपने को तंग करने वाली राक्षसियों को भी शरणागति में लेती हैं ..जिनका सुस्निग्ध ;अमृतमय हृदय देखकर अग्नि को भी शीतल होना पडा .........वो सीता राम से भिन्न नही है दोनों ब्रह्मस्वरूप हैंपर मानव रूप में, साधारण मानव को ,भिन्न -भिन्न दिखलायी पड़ते है .....राम के संकल्प रूप में ही वो इस धरती पर अवतरित हुई हैं धर्म की स्थापना हेतु ,समाज को तप और धैर्य सिखाने हेतु ,परमात्मा को[ राम ] को पाने हेतु कैसी तपस्या करनी पड़ती है .मार्ग में   सुख और दुःख दोनों आते हैं ,कभी आभास होता है पहुँच गये .परमात्मा पास ही हैं ..और फिर अचानक दूर बहुत दूर हो जाते हैं ...सीता के  वन गमन का हेतु  था ,समाज को समझाना कि वेदसे छूटा शास्त्र और राम से छूटी सीता दोनों दुःख हैं ....स्कन्द पुराण में कहा गया है कि  ''सीताकमला हैं ,ये जगन्माता हैं ; इन्होने लीला से मनुष्य -मूर्ति धारण की है ;ये देवत्व में देवदेहा हैं और मनुष्यत्व में मानुषी हैं ;ये विष्णु के अनुरूप अपनी देह धारण करती हैं।,--------------
''कमलेयं जगन्माता लीला मानुष विग्रह .
देवत्वे देवदेहेयं मनुष्यत्वे च मानुषी ;
विष्णोर्देहानुरूपां  वै करोत्येषामनस्तनूम।। ..स्कन्द पुराण ,.........
 ...सीता को अबला मानने वाले और राम पे ऊँगली उठाने वाले कुछ व्यक्ति सदैव ही इस जगद में हुए हैं ... यदि केवल रामचरितमानस को ही धैर्य और लगन पूर्वक पढ़ लिया जाये तो इन सारी घटनाओं के पीछे का मनोविज्ञान और कारण स्पष्ट हो जाता है ....राम शक्तिमान हैं तो सीता उनकी शक्ति है ..तो ये दोनों अभिन्न है शक्ति ही शक्तिमान का मूल है ...
एवं यदा जगद स्वामी देव देवौ जनार्दन।
अवतारं करोत्येषा तदा श्री स्तत्सहायिनी।।
राघवत्वेभवत्सीता रुक्मिणी कृष्णजन्मनी।।[विष्णु-पुराण ]
   श्री और श्रीमन एक तत्व होने पे भी लीला निमित्तक भिन्न रूप प्रतीति हैं ..
सूर्य एवं सूर्य की प्रभा ज्यूँ अभिन्न हैं ऐसे ही। .. रामचंदजी कहते हैं कि ------------
'' अनन्या हि मया सीता भास्करस्य प्रभा यथा ''...............सीताजी भी रावण से श्री राम के प्रति अपनी अनन्यता स्थापित करते हुए कहती हैं ......''वृथा लोभयितुं  नाहमैश्वर्येण  धनेन वा।
  ........................अनन्या राघवेनाहं भास्करेण प्रभा यथा।। ''..वाल्मीकि रामायण .......
     राम ही सीता हैं ,सीता ही राम है .....इन दोनों में कोई भेद नही है ...ये तो संसार को सदाचार ,धर्म ,कर्तव्य .और रिश्तों की मर्यादा का पाठ पढ़ाने को प्रभु का अवतरण हुआ था ...संत लोग इसी तत्व को भली भांति बुद्धि के द्वारा जान के भव -सागर से पार हो जाते है ....[अद्भुत रामायण ]..............सीता राम की लीला की आलोचना करने वाले ..यदि एक बार भी मानस को पढ़े तो उनकी बुद्धि पे छाये काले बादल छंट जाएँगे  ..... सीता को अबला नारी के रूप में चित्रित करने का षड्यंत्र जान बूझ के रचा गया ...आज की स्त्री को सीता के चरित्र को पढ़ना होगा .,सीता का पुरुषार्थ औरकरुणा ,दृढ़ता  और कोमलता, धैर्य और संकल्प ,बुद्धि और विवेक कठिनाइयों में भी सहजता ,समाज को अपनाने की कला ,बड़ो का सम्मान और छोटों को प्यार देते हुए भी अपने व्यक्तित्व की अलग पहचान बनाये रखना और अपने अस्तित्व के लिए सामंजस्य पूर्ण संघर्ष ..समय आने पे मुखर पर मृदुभाषिणी ..वो ब्रह्म   हैं . जो स्त्री को  .ये सबगुणजो   स्त्री के व्यक्तित्व के आभूषण  हैं और  आज की स्त्री के लिए भी प्रासंगिक हैं ...सिखाने के लिए अवतरित हुई हैं .....अबला नहीं है सीता वो माँ है .और आज भी घर -घर में प्रकृति रूप में .प्रणव रूप में ,ब्रह्म रूप में पूजी जाती है .....श्री सीता राम शरणम मम ....

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