Monday, 24 November 2014

      श्रद्धांजली
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उर में भावों की उछल-कूद
दुःख तम से आलोकित जीवन
स्मृतियों के चल- चित्र सजा
मानस मेरा वह  काव्य रचे
हों ध्वनित जहाँपे बीते क्षण
औ वर्तमान संभाव्य बने |
लूटा सुहाग तूने मेरा
दारुण -प्रचंड उर में भर के ,
तंम  सागर में   जीवन नैया
पर  आदेश लेखनी को दो दो  !
संसृति की तपती धरती को
ये राम-कृष्ण संभाव्य बने |
हों ध्वनित जहाँ पे बीते क्षण
औ वर्तमान संभाव्य बने |
दो आशीष  मुझे प्रियतम
 जब गाऊं  गान प्रभाती का
तीनों काल ध्वनित  होंवें
औ राम कृष्ण संभाव्य बने |
सागर की उठती- गिरती लहरें
  मेरी  साँसों   का   नर्तन होवें
हिमगिरि के मस्तक की  किरणों में
मेरे आखर की चमक रहे |
उर के छाले    वरदान बनें
गाने को गान प्रभाती का
ये राम -कृष्ण संभाव्य बने |
झर चुके वृक्ष के पीले पत्ते
 चर-मर ,चर गान सुनाते हैं
औ राह भविष्य को दिखलाने
मिल मिट्टी में  खाद बनाते है
यादों के  पावस निर्झर बन
आगत को पोषित करने
सरिता बन बह जाऊं मैं
मिट सागर में मिल जाऊं मैं |
गाने को गान प्रभाती का
दो आशीष  मुझे प्रियतम
 वर्तमान के कोरे कागज पे
भूतकाल का गान सजे, औ
 राम-कृष्ण संभाव्य बनें |
वरदान लेखनी को दे दो
निविड़ निशा से तपते  उर को
प्राची की इंगुरी आभा दूँ -
सरिता की अल्हड गति औ
नव सुमनों-विहगों का गान मधुर
भर- भर अंजुरी  उलीच चलूं
 फिर भी न उऋण मैं  हो पाऊं
जो प्रेम दिया तूने मुझको
निर्बल का संबल बन कर मै
प्राणों में अंगारे भर दूँ
जब गाऊं गान प्रभाती का
तो वो भविष्य का गान बने
तीनों काल ध्वनित होवें
औ राम कृष्ण संभाव्य बने || आभा || ...२५ नवम्बर ,अजय की पुण्यतिथि ... जो चले गये उनकी तलाश में तो उनके लोक में ही जाना होगा ज्वाल-रथ पे चढ़ के ,पर ये सौभाग्य  और शुभ घड़ी  कब मिलेगी ईश्वर किसी को भी नहीं बताता है ,सत्य को आवरण में रखा है उसने | जो कल तक एक जगह थे वो आज कई दिलों में रहते हैं यही सत्य है |















Friday, 21 November 2014

                 ''रात का सम्पुट बनी मैं ''
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बैठ कर जब अग्नि रथ पे  ,
मेघ के द्रुत अश्व साधे ,
राह अनजानी गये तुम
गगन मेरा हुआ तब से ,
रात का सम्पुट बनी मै |
बादलों की क्यारियों की
 नर्म -नाजुक  सी गली में
ढूंढने प्रिय पद  के आखर
रात का सम्पुट बनी मैं |
मखमली जगमग निशाके
आंचल में झिलमिल तारकों में
ढूढने अपना सितारा --
रात का सम्पुट बनी मैं |
हैं वहां पे कृष्ण भी औ -
राम भी तुमको मिले  क्या ?
माँ भी तुम को मिली होंगी !
चाँद-तारों  के रथों पर
बैठ मुझको देखते तुम ?
देखने को इक झलक औ
ढूंढने अपना सितारा
रात का सम्पुट बनी मैं |
चाँद मेरा प्रिय बना अब
चांदनी मेरी सहेली
जगमगाते झिलमिलाते
सप्त ऋषि की राह पकड़े
रात का सम्पुट बनी मैं |
रात  भर सोती न जगती
शेष कितनी राह सोचूं
दलदली या है रेतीली
 है बारिशें या धूल  आंधी
बिजलियाँ है  कड़कड़ाती
 या कि बर्फीली हवा है
ढूढने  को शेष राहें
जानने रब की सदायें
तारकों की झलमिलों को
भरती हुई  अपने  हृदय में
रात का सम्पुट ही हूँ मैं -
रत का सम्पुट ही हूँ मैं ||आभा||









Tuesday, 18 November 2014

बैठे ठाले की बकवास -( निरर्थक  बहती नदी के प्रवाह से रोड़े इकट्ठे करना -और कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा -भानमती ने कुनबा जोड़ा ) यूँ भी आवश्यक नहीं है हर बात का कुछ अर्थ हो कभी बेमतलब की बकवास में भी सौन्दर्य ढूँढना आना चाहिये  ____________
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बुद्धि और अनुभूति ; दो जुड़वां बहनें ,फूलों सी नाजुक ,पराग सी महकती ,चिड़ियों सी चहचहाती सबकी लाड़ली एक सागर की चंचल लहर तो एक पर्वत सी कठोर ,एक सागर की गहराई तो एक पहाड़ की ऊंचाई |दोनों के बिना जीवन ही ठप्प | हर किसी के साथ हैं ,हर वक्त -तो कहाँ रहती हैं ये ? एक हमारे  मस्तिष्क और एक हृदय  में ,जी हाँ यही घर हैं दोनों बहनों के या कहिये दूसरी पहचान है इनकी |
हृदय और मस्तिष्क यानि बुद्धि और अनुभूति दोनों एक दूसरे के पूरक हैं  पर  एक पथ पे नहीं चलते |एक व्यवहारिक तो दूसरी भावप्रवण | बुद्धि  को यदि कहें कि इस रेखा को छोटा करो तो झट से एक दूसरी रेखा खींच देगी  उसके बराबर ,लो हो गया काम चुटकियों में ,|किसी वस्तु को हल्का और भारी मापा जा सकता है ,गति की सीमा बताई जा सकती है  | किसी वस्तु के होने न होने ,प्राचीन या अर्वाचीन को कार्बन डेटिंग से या ऐतिहासिक विश्लेषण से नियत किया जा सकता है पर एक रेखा पे आरम्भ से अंत  तक व्याप्त सजीवता का परिचय ,उसमे फैले सौन्दर्य और विद्रूप ,सत्य और अनन्त ,उसके बनने में कितनी बार रबर लगा के उसे मिटना भी पड़ा , रेखा के वैभव ,और उसे खींचने वाले हाथों का स्पर्श ,क्या ये भी दूसरी रेखा को दिया जा सकता है ? यही है बुद्धि और अनुभूति की चाल | अनुभूति हर बिंदु को परख के सोच के ,अपने संस्कारों में ढाल के  व्यष्टि -समष्टि का ध्यान करके फिर रेखा को खींचेगी, छोटी बड़ी हो पर उसका सौन्दर्य बरकरार रहे ,उसके अहसासों  को महसूस किया जा सके पर बुद्धि हानि लाभ देखेगी ,नियम कायदे कानून देखेगी फार्मूला देखेगी और हो गया काम  | इसी लिए ये कहा जाता है किसी भी फैसले में दिल को अवश्य शामिल करो | सोचें हम यदि मन -मस्तिष्क   ये दोनों साथ हो लें तो जीवन सत्य की सुगन्धि से महक जाये | सत्य यही है ,हम उसे अपने अनुसार ग्रहण करते हैं और वो व्यष्टि हो जाता है |तेरा सत्य ,मेरा सत्य जो हमारी  सीमा में तो सापेक्ष है पर अपनी  सीमा में निरपेक्ष | हम अपना सत्य दूसरे को बताना चाहते हैं और अगला व्यक्ति उसे अपनी बुद्धि ,दृष्टि और अनुभव के अनुसार तोलता है ,उसमे अपने स्वार्थ ,संस्कार ,उपादेयता और ग्राह्यता और रूचि  को मिला के उसे अलग ही रूप में ढाल लेता है क्यूंकि सबके पास ये जो दो बहने बुद्धि और अनुभूति हैं वो उनके संस्कारों में ही पली बढ़ी हैं न |
एक घटना एक वस्तु ,एक श्रुति हमने उसे किस रूप में पाया ,दूसरा उसे किस रूप में देखेगा ---दृष्टिकोण की भिन्नता भ्रान्ति उत्पन्न करती है ,और अक्सर विवाद की स्थिति पैदा हो जाती है ,ऐसे में हमारी ये दोनों बहने यदि अपना कार्य ठीक से मिलजुल के करें तो ! पर ऐसा अक्सर होता नहीं है |जबकि सत्य तो अपनी जगह अखंड है ,निर्विवाद है | बाह्य जगत में परिवर्तन होते रहते हैं ये सत्य है तो अंतर्जगत की संवेदनाएं भी देश काल और परिस्थितियों के अनुरूप परिवर्तनशील हैं ये भी उतना ही बड़ा सच है |
व्यष्टि जो देखना चाहता है वही देखता है ,बुद्धि की ये चाल है वो तुरत पे यकीन करती है ,एक रेखा के नीचे दूसरी रेखा हो गयी छोटी बड़ी |पर हृदय का क्षेत्र अनुभूति से संचालित होता है जहाँ हम एक रेखा में गहरे और गहरे उतरते हैं और छोटी बड़ी करने के लिए उसी रेखा पे आगे बढ़ते है | ज्ञान में एक ही वस्तु की हर व्यक्ति भिन्न-भिन्न व्याख्या करेगा ,दृष्टिकोण भिन्न होगा पर धरातल एक ही होगा |  एक ही मंच पे कई प्रस्तुति कार्यक्रम बुद्धि की क्रिया और, आनंद की अनुभूति हृदय की कथा |
सुख को ग्रहण करने की ,दुःख की तीव्रता को  महसूस करने की सबकी अपनी अलग क्षमता होती है | अपने दुःख की तीव्रता को हम अधिक महसूस कर सकते हैं पर अपने किसी आत्मीय के उसी  दुःख को हम उस तीव्रता से नहीं लेते और वही दुःख  किसी तीसरे व्यक्ति का हो तो तीव्रता और भी कम महसूस होती है | जहाँ तक संवेदना का प्रश्न है ,हम सब एक ही रेखा पे खड़े हैं अनुभूति की रेखा | अपने हाथ पे काँटा चुभे या अपना हाथ जलने की अनुभूति  दूसरे के राख हो जाने के अहसास से भी अधिक होती है | अनुभूति जितनी निकट उतनी तीव्र | पर दूसरे के लिए भी संवेदना है तो है ही |
बुद्धि के कमाल से हम नीले को काला या पीतल को सोना कह सकते हैं पर रेत को चांदी नहीं कह सकते ,जबकि अनुभव कर सकते हैं  चांदी का , धूप में  चमकते  हुए  रेतीले फलक के विस्तार में |   किसी के हाथ में काँटा चुभने पे उसे भ्रान्ति हुई है पीड़ा की, यह कह के नहीं बहला  सकते हैं उसे ,यही  पीड़ा है  जिसे बुद्धि ने जाना अनुभूति ने माना, यही सत्य है ,पर मेरे लिए क्यूंकि मैंने  झेला |बुद्धि नेति नेति करके अलग करती है , अणु को परमाणु में बाँटती है |जबकि हृदय संयोजन का काम करता है | मस्तिष्क जीवन चक्र  के बिन्दुओं को जोड़ के सामंजस्य बिठाता है पर इस कर्म में बनी परिधि में सजीवता के  रंग तो हृदय ही भरता है  जीवन के इन बिन्दुओं को जोड़ने का अहसास खुशनुमा हो या दुःख भरा ,श्रृंगार  का कोई भी पक्ष -संयोग या वियोग ,यही काव्य भी है और यही सौन्दर्य भी है | जहाँ हृदय है वहां काव्य है और जहाँ काव्य है वहां सत्य है -सौन्दर्य है -सजीवता है -अनुभूति है  और है जीजिविषा हर कालखंड का अनेकता भरा सौन्दर्य और उससे प्रतिपादित अखंडित सत्य , सौन्दर्य को परिभाषित करना अपने आप में एक दुरूह कार्य है ,उलझन भरा |  मन मस्तिष्क ,बुद्धि अनुभूति ,एक पथ पे बमुश्किल ही चल पाते है , बुद्धि अनुभूति एक ही धरातल पे पर आसमान अलग अलग दोनों के ,शायद यह भी इनकी सुन्दरता ही है कि फिर भी साथ ही रहती हैं ये दोनों बहने ,लड़ती झगडती पर एक दूसरे को प्यार करती | बस यूँ ही अपने दांत टूटने के दर्द को जब महसूस किया तो पता चला दूसरे के दांत टूटने पे उसे सूजी की खीर बनाके देना ही संवेदना नहीं होती जा के पैर न पड़ी बिवाई सो क्या जाने पीर पराई कितने सोच समझ के बनाया गया मुहावरा है ,किसी भुक्त भोगी ने ही बनाया होगा ,पर मैं तो सौन्दर्य को ढूंढती हूँ हर बात में सो कह देती हूँ भाई मेहंदी से फूल पत्ती बना लो या आलता लगा लो ,बिवाइयां भी खिल जायेंगी ,बुद्धि और अनुभूति दोनों ही खुश ||आभा ||

Sunday, 16 November 2014



 ...................बाल्मीकि रामायण से .................................
ऐसे हैं मेरे राम -- उन्हें इतिहास पुरुष कहें ,पूर्वज कहें या ब्रह्म कहें , राम का जीवन संस्कारी व्यक्ति की पिटारी ही है , जीवन के हर मोड़ पे एक सीख | ऐसा ही एक प्रसंग बाल्मीकि रामायण में है ______ राम लंका विजय के पश्चात सीता सहित अयोध्या आ रहे हैं , विमान से राम ने अयोध्या के दर्शन भी कर लिए हैं , वे भारद्वाज मुनि के आश्रम में विश्राम हेतु ठहरे हैं पर मन में कुछ द्वंद चल रहा है , वो सोच रहे हैं ----
-संगत्या भरत: श्रीमान् राज्येनार्थी स्वयं भवेत |
प्रशास्तु वसुधां सर्वामखिलाम रघुनन्दन:|| .....
चौदह वर्ष का समय कुछ कम नहीं होता ,मैं तो यहाँ उलझनों में फंसा हुआ था पर अयोध्या में भरत कैकेयी की संगती में है |यदि कैकयी की संगती और और चिर काल तक राज्य वैभव के संसर्ग में रहने से भरत राज्य को नहीं छोड़ना चाहते हों तो मैं उनके रास्ते में नहीं आऊंगा , कहीं वन में जा बसूँगा और तपस्वी जीवन व्यतीत करूंगा || क्या हैं किसी और धर्म में ये उच्च आदर्श ?
भरत के मन की बात को जानने के लिए राम हनुमान को नियुक्त करते हैं --वे हनुमानजी से कहते हैं ,कि तुम जाओ ,पहले निषाद राज से मिलना उन्हें बताना कि मैं आ रहा हूँ ,फिर अयोध्या जाके भरत से मिलना ,उन्हें हमारी कुशलता का समाचार देना , हमारे वापिस आने के विषय में बताना ,यहाँ की पूरी घटनाओं को भरत जी को सुनना ,और उस वक्त उनके चेहरे पे आने वाले भावों को ,उनकी मुख मुद्रा को ,उनके बर्ताव को बहुत बारीकी से समझना ,फिर आके मुझे बताना ,मैं समझ बूझ के निर्णय करूंगा |_____
भरतस्तुत्वया वाच्य: कुशलं वचनान्मम |
सिद्धर्थं शंस मां तस्मै सभार्यं सहलक्ष्मणम् ||
..................................................
ऐतत्छ्रुत्वा यामाकारं भजते भरतस्तत |
स च ते वेदितव्य: स्यात् सर्वं यच्चापि मां प्रति ||
राम कहते हैं ,हनुमान भरत से बातचीत करके उसके मनोभावों और उसकी मुद्राओं को समझने की कोशिस करना --- यद्यपि मुझे भरत पे पूरा विश्वास है पर हो सकता है भरत के मनोभाव बदल गये हों ,क्यूंकि ----
-सर्वकामसमृद्धम हि हस्त्यश्वरथसंकुलम् |
पित्रिपैतामहं राज्यं कस्य नावर्तयेन्मन:||
समस्त भोगों से युक्त ,रथ हाथी घोड़ों से युक्त बाप-दादों का राज्य और कैकई जैसी स्त्री का संग किसी का भी मन बदलने में सक्षम होता है | ____यहाँ पे राम बाप दादाओं की सम्पत्ति का दोष भी गिना रहे हैं ,ये भी सन्तति के लिए एक सीख रामजी की ओर से कि यदि स्वयं के पराक्रम से अर्जित सम्पत्ति नहीं है तो भरत जैसे सदाचारी ,मर्यादा का पालन करने वाले के भी मन को पलटते देर नहीं लगती |
क्या कहीं और मिल सकती है ऐसी मिसाल जहाँ चौदह वर्ष के बनवास के बाद भी भाई के लिए ऐसी सोच हो ! मैं सोचती हूँ -- ऐसा क्या हुआ कि राज्य न रहने पे अब हम एक दूसरे के मकान- दुकान पे ही कब्जा करने लगे हैं ,और छोटी -छोटी सम्पत्ति के लिए लड़ मर रहे हैं |
असल में हम अपनी जड़ों से कट गये | हम राम के होने की , ईसा पूर्व और ईसा बाद की जिरह में फंस गये | अपने श्रुति और उपनिषद के ज्ञान पे प्रश्न चिन्ह ला बैठे और महज कुछ सैकड़ा वर्ष पहले जो इतिहास लिखा गया उसे ही सच मान बैठे | हम ये भूल गये कि हमें तो अपने झड़ दादा ,नकड़ दादा ,का भी नाम नहीं मालूम ,और हमारे खानदान की १० पीढ़ियों का इतिहास भी नहीं लिखा हुआ है ,तो क्या वो भी नहीं थे | हमे अपनी संस्कृति अपने साहित्य और अपने पूर्वजों पे प्रश्न करना छोड़ना होगा ,अपनी विरासत ,रामकृष्ण की सीखों को मानते हुए उनका सकारात्मक विश्लेषण करना होगा | ये राम कृष्ण ,हमारे आराध्य ही नहीं हमारे इतिहास पुरुष भी हैं ,जो जीवन जीने का सही तरीका हमें बता रहे हैं आज भी ,गीता और मानस के रूप में |आभा || 

Monday, 3 November 2014

            ''  स्फोट ''
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 कृष्ण का बोध होना
अस्तित्व का तिरोहित हो जाना
खिलना फूल का  -बिखरना सुगंध का
 टकराना सागर किनारे से लहर का
  भीग  जाना दूर तक फैली रेत का
  और मिटा देना  अपना अस्तित्व
राह देने को दूसरी लहर को
बादल का बरस जाना बिखर जाना
समुद्र से लेकर उसका धन
देना पहाड़ को , बर्फ हो  जाना
पुनरपि नदी का संघर्ष
चलते जाना अनथक, सागर से मिलन को
बिखरने में सुख
मिटने का आह्लाद
कारा से  आजादी
परम् स्वतंत्रता
असीम आनंद
स्व का अनन्त विस्तार
कृष्ण का बोध होना
यानि स्फोट होना आत्मा में
कृष्ण ही हो जाना ||आभा ||


               ''  नेह ''
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*** कि , जब   भी   चुरुगन   के   पंख   होते   हैं  मजबूत
       मेरी बालकनी से भरता है  उड़ान वो, पंख फड़फड़ाते हुए --
                 मेरे जीवन में चलती  है  बसंती बयार |
कि ,जब भी  पोंछती हूँ किसी बच्चे की  आँख से बहते आंसू
वो      खिलखिला      देता       है      ताली      बजा      के --
                 चंदामामा    खेलते हैं मेरे आंगन में  |
कि, झरता है नेह   आंचल से झर-झर जब भी
 मन के जुगनू आंगन में टिमटिमाते हैं |
कि , बांटती  हूँ  दर्द किसी का जब भी
  जीवन में इक  सूर्य नया   उग आता है |
कि , जब भी खिलाती हूँ खाना   किसी भूखे को
 अंगना में  डोलने लगता है प्रेम का डोला |
         कि , किसी बूढ़े रिक्शेवाले के रिक्शे में बैठ के .
          चढाई में उतर जाती हूँ जब भी
         उसकी आँखों की चमक से, मन में सुकूं होता है |
         कि , लाल बत्ती पे   भीख मांगते किसी बच्चे को
         पैसे की जगह चाकलेट पकडाने पे
वो ले आता है  पूरे झुण्ड कोअपने
सभी को  एक-एक  चाकलेट देने का सुख
उनकी आखों की चटकीली ख़ुशी
मन प्रेम का निर्झर  ही बन जाता है ||आभा ||