Sunday, 16 November 2014



 ...................बाल्मीकि रामायण से .................................
ऐसे हैं मेरे राम -- उन्हें इतिहास पुरुष कहें ,पूर्वज कहें या ब्रह्म कहें , राम का जीवन संस्कारी व्यक्ति की पिटारी ही है , जीवन के हर मोड़ पे एक सीख | ऐसा ही एक प्रसंग बाल्मीकि रामायण में है ______ राम लंका विजय के पश्चात सीता सहित अयोध्या आ रहे हैं , विमान से राम ने अयोध्या के दर्शन भी कर लिए हैं , वे भारद्वाज मुनि के आश्रम में विश्राम हेतु ठहरे हैं पर मन में कुछ द्वंद चल रहा है , वो सोच रहे हैं ----
-संगत्या भरत: श्रीमान् राज्येनार्थी स्वयं भवेत |
प्रशास्तु वसुधां सर्वामखिलाम रघुनन्दन:|| .....
चौदह वर्ष का समय कुछ कम नहीं होता ,मैं तो यहाँ उलझनों में फंसा हुआ था पर अयोध्या में भरत कैकेयी की संगती में है |यदि कैकयी की संगती और और चिर काल तक राज्य वैभव के संसर्ग में रहने से भरत राज्य को नहीं छोड़ना चाहते हों तो मैं उनके रास्ते में नहीं आऊंगा , कहीं वन में जा बसूँगा और तपस्वी जीवन व्यतीत करूंगा || क्या हैं किसी और धर्म में ये उच्च आदर्श ?
भरत के मन की बात को जानने के लिए राम हनुमान को नियुक्त करते हैं --वे हनुमानजी से कहते हैं ,कि तुम जाओ ,पहले निषाद राज से मिलना उन्हें बताना कि मैं आ रहा हूँ ,फिर अयोध्या जाके भरत से मिलना ,उन्हें हमारी कुशलता का समाचार देना , हमारे वापिस आने के विषय में बताना ,यहाँ की पूरी घटनाओं को भरत जी को सुनना ,और उस वक्त उनके चेहरे पे आने वाले भावों को ,उनकी मुख मुद्रा को ,उनके बर्ताव को बहुत बारीकी से समझना ,फिर आके मुझे बताना ,मैं समझ बूझ के निर्णय करूंगा |_____
भरतस्तुत्वया वाच्य: कुशलं वचनान्मम |
सिद्धर्थं शंस मां तस्मै सभार्यं सहलक्ष्मणम् ||
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ऐतत्छ्रुत्वा यामाकारं भजते भरतस्तत |
स च ते वेदितव्य: स्यात् सर्वं यच्चापि मां प्रति ||
राम कहते हैं ,हनुमान भरत से बातचीत करके उसके मनोभावों और उसकी मुद्राओं को समझने की कोशिस करना --- यद्यपि मुझे भरत पे पूरा विश्वास है पर हो सकता है भरत के मनोभाव बदल गये हों ,क्यूंकि ----
-सर्वकामसमृद्धम हि हस्त्यश्वरथसंकुलम् |
पित्रिपैतामहं राज्यं कस्य नावर्तयेन्मन:||
समस्त भोगों से युक्त ,रथ हाथी घोड़ों से युक्त बाप-दादों का राज्य और कैकई जैसी स्त्री का संग किसी का भी मन बदलने में सक्षम होता है | ____यहाँ पे राम बाप दादाओं की सम्पत्ति का दोष भी गिना रहे हैं ,ये भी सन्तति के लिए एक सीख रामजी की ओर से कि यदि स्वयं के पराक्रम से अर्जित सम्पत्ति नहीं है तो भरत जैसे सदाचारी ,मर्यादा का पालन करने वाले के भी मन को पलटते देर नहीं लगती |
क्या कहीं और मिल सकती है ऐसी मिसाल जहाँ चौदह वर्ष के बनवास के बाद भी भाई के लिए ऐसी सोच हो ! मैं सोचती हूँ -- ऐसा क्या हुआ कि राज्य न रहने पे अब हम एक दूसरे के मकान- दुकान पे ही कब्जा करने लगे हैं ,और छोटी -छोटी सम्पत्ति के लिए लड़ मर रहे हैं |
असल में हम अपनी जड़ों से कट गये | हम राम के होने की , ईसा पूर्व और ईसा बाद की जिरह में फंस गये | अपने श्रुति और उपनिषद के ज्ञान पे प्रश्न चिन्ह ला बैठे और महज कुछ सैकड़ा वर्ष पहले जो इतिहास लिखा गया उसे ही सच मान बैठे | हम ये भूल गये कि हमें तो अपने झड़ दादा ,नकड़ दादा ,का भी नाम नहीं मालूम ,और हमारे खानदान की १० पीढ़ियों का इतिहास भी नहीं लिखा हुआ है ,तो क्या वो भी नहीं थे | हमे अपनी संस्कृति अपने साहित्य और अपने पूर्वजों पे प्रश्न करना छोड़ना होगा ,अपनी विरासत ,रामकृष्ण की सीखों को मानते हुए उनका सकारात्मक विश्लेषण करना होगा | ये राम कृष्ण ,हमारे आराध्य ही नहीं हमारे इतिहास पुरुष भी हैं ,जो जीवन जीने का सही तरीका हमें बता रहे हैं आज भी ,गीता और मानस के रूप में |आभा || 

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