Tuesday, 18 November 2014

बैठे ठाले की बकवास -( निरर्थक  बहती नदी के प्रवाह से रोड़े इकट्ठे करना -और कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा -भानमती ने कुनबा जोड़ा ) यूँ भी आवश्यक नहीं है हर बात का कुछ अर्थ हो कभी बेमतलब की बकवास में भी सौन्दर्य ढूँढना आना चाहिये  ____________
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बुद्धि और अनुभूति ; दो जुड़वां बहनें ,फूलों सी नाजुक ,पराग सी महकती ,चिड़ियों सी चहचहाती सबकी लाड़ली एक सागर की चंचल लहर तो एक पर्वत सी कठोर ,एक सागर की गहराई तो एक पहाड़ की ऊंचाई |दोनों के बिना जीवन ही ठप्प | हर किसी के साथ हैं ,हर वक्त -तो कहाँ रहती हैं ये ? एक हमारे  मस्तिष्क और एक हृदय  में ,जी हाँ यही घर हैं दोनों बहनों के या कहिये दूसरी पहचान है इनकी |
हृदय और मस्तिष्क यानि बुद्धि और अनुभूति दोनों एक दूसरे के पूरक हैं  पर  एक पथ पे नहीं चलते |एक व्यवहारिक तो दूसरी भावप्रवण | बुद्धि  को यदि कहें कि इस रेखा को छोटा करो तो झट से एक दूसरी रेखा खींच देगी  उसके बराबर ,लो हो गया काम चुटकियों में ,|किसी वस्तु को हल्का और भारी मापा जा सकता है ,गति की सीमा बताई जा सकती है  | किसी वस्तु के होने न होने ,प्राचीन या अर्वाचीन को कार्बन डेटिंग से या ऐतिहासिक विश्लेषण से नियत किया जा सकता है पर एक रेखा पे आरम्भ से अंत  तक व्याप्त सजीवता का परिचय ,उसमे फैले सौन्दर्य और विद्रूप ,सत्य और अनन्त ,उसके बनने में कितनी बार रबर लगा के उसे मिटना भी पड़ा , रेखा के वैभव ,और उसे खींचने वाले हाथों का स्पर्श ,क्या ये भी दूसरी रेखा को दिया जा सकता है ? यही है बुद्धि और अनुभूति की चाल | अनुभूति हर बिंदु को परख के सोच के ,अपने संस्कारों में ढाल के  व्यष्टि -समष्टि का ध्यान करके फिर रेखा को खींचेगी, छोटी बड़ी हो पर उसका सौन्दर्य बरकरार रहे ,उसके अहसासों  को महसूस किया जा सके पर बुद्धि हानि लाभ देखेगी ,नियम कायदे कानून देखेगी फार्मूला देखेगी और हो गया काम  | इसी लिए ये कहा जाता है किसी भी फैसले में दिल को अवश्य शामिल करो | सोचें हम यदि मन -मस्तिष्क   ये दोनों साथ हो लें तो जीवन सत्य की सुगन्धि से महक जाये | सत्य यही है ,हम उसे अपने अनुसार ग्रहण करते हैं और वो व्यष्टि हो जाता है |तेरा सत्य ,मेरा सत्य जो हमारी  सीमा में तो सापेक्ष है पर अपनी  सीमा में निरपेक्ष | हम अपना सत्य दूसरे को बताना चाहते हैं और अगला व्यक्ति उसे अपनी बुद्धि ,दृष्टि और अनुभव के अनुसार तोलता है ,उसमे अपने स्वार्थ ,संस्कार ,उपादेयता और ग्राह्यता और रूचि  को मिला के उसे अलग ही रूप में ढाल लेता है क्यूंकि सबके पास ये जो दो बहने बुद्धि और अनुभूति हैं वो उनके संस्कारों में ही पली बढ़ी हैं न |
एक घटना एक वस्तु ,एक श्रुति हमने उसे किस रूप में पाया ,दूसरा उसे किस रूप में देखेगा ---दृष्टिकोण की भिन्नता भ्रान्ति उत्पन्न करती है ,और अक्सर विवाद की स्थिति पैदा हो जाती है ,ऐसे में हमारी ये दोनों बहने यदि अपना कार्य ठीक से मिलजुल के करें तो ! पर ऐसा अक्सर होता नहीं है |जबकि सत्य तो अपनी जगह अखंड है ,निर्विवाद है | बाह्य जगत में परिवर्तन होते रहते हैं ये सत्य है तो अंतर्जगत की संवेदनाएं भी देश काल और परिस्थितियों के अनुरूप परिवर्तनशील हैं ये भी उतना ही बड़ा सच है |
व्यष्टि जो देखना चाहता है वही देखता है ,बुद्धि की ये चाल है वो तुरत पे यकीन करती है ,एक रेखा के नीचे दूसरी रेखा हो गयी छोटी बड़ी |पर हृदय का क्षेत्र अनुभूति से संचालित होता है जहाँ हम एक रेखा में गहरे और गहरे उतरते हैं और छोटी बड़ी करने के लिए उसी रेखा पे आगे बढ़ते है | ज्ञान में एक ही वस्तु की हर व्यक्ति भिन्न-भिन्न व्याख्या करेगा ,दृष्टिकोण भिन्न होगा पर धरातल एक ही होगा |  एक ही मंच पे कई प्रस्तुति कार्यक्रम बुद्धि की क्रिया और, आनंद की अनुभूति हृदय की कथा |
सुख को ग्रहण करने की ,दुःख की तीव्रता को  महसूस करने की सबकी अपनी अलग क्षमता होती है | अपने दुःख की तीव्रता को हम अधिक महसूस कर सकते हैं पर अपने किसी आत्मीय के उसी  दुःख को हम उस तीव्रता से नहीं लेते और वही दुःख  किसी तीसरे व्यक्ति का हो तो तीव्रता और भी कम महसूस होती है | जहाँ तक संवेदना का प्रश्न है ,हम सब एक ही रेखा पे खड़े हैं अनुभूति की रेखा | अपने हाथ पे काँटा चुभे या अपना हाथ जलने की अनुभूति  दूसरे के राख हो जाने के अहसास से भी अधिक होती है | अनुभूति जितनी निकट उतनी तीव्र | पर दूसरे के लिए भी संवेदना है तो है ही |
बुद्धि के कमाल से हम नीले को काला या पीतल को सोना कह सकते हैं पर रेत को चांदी नहीं कह सकते ,जबकि अनुभव कर सकते हैं  चांदी का , धूप में  चमकते  हुए  रेतीले फलक के विस्तार में |   किसी के हाथ में काँटा चुभने पे उसे भ्रान्ति हुई है पीड़ा की, यह कह के नहीं बहला  सकते हैं उसे ,यही  पीड़ा है  जिसे बुद्धि ने जाना अनुभूति ने माना, यही सत्य है ,पर मेरे लिए क्यूंकि मैंने  झेला |बुद्धि नेति नेति करके अलग करती है , अणु को परमाणु में बाँटती है |जबकि हृदय संयोजन का काम करता है | मस्तिष्क जीवन चक्र  के बिन्दुओं को जोड़ के सामंजस्य बिठाता है पर इस कर्म में बनी परिधि में सजीवता के  रंग तो हृदय ही भरता है  जीवन के इन बिन्दुओं को जोड़ने का अहसास खुशनुमा हो या दुःख भरा ,श्रृंगार  का कोई भी पक्ष -संयोग या वियोग ,यही काव्य भी है और यही सौन्दर्य भी है | जहाँ हृदय है वहां काव्य है और जहाँ काव्य है वहां सत्य है -सौन्दर्य है -सजीवता है -अनुभूति है  और है जीजिविषा हर कालखंड का अनेकता भरा सौन्दर्य और उससे प्रतिपादित अखंडित सत्य , सौन्दर्य को परिभाषित करना अपने आप में एक दुरूह कार्य है ,उलझन भरा |  मन मस्तिष्क ,बुद्धि अनुभूति ,एक पथ पे बमुश्किल ही चल पाते है , बुद्धि अनुभूति एक ही धरातल पे पर आसमान अलग अलग दोनों के ,शायद यह भी इनकी सुन्दरता ही है कि फिर भी साथ ही रहती हैं ये दोनों बहने ,लड़ती झगडती पर एक दूसरे को प्यार करती | बस यूँ ही अपने दांत टूटने के दर्द को जब महसूस किया तो पता चला दूसरे के दांत टूटने पे उसे सूजी की खीर बनाके देना ही संवेदना नहीं होती जा के पैर न पड़ी बिवाई सो क्या जाने पीर पराई कितने सोच समझ के बनाया गया मुहावरा है ,किसी भुक्त भोगी ने ही बनाया होगा ,पर मैं तो सौन्दर्य को ढूंढती हूँ हर बात में सो कह देती हूँ भाई मेहंदी से फूल पत्ती बना लो या आलता लगा लो ,बिवाइयां भी खिल जायेंगी ,बुद्धि और अनुभूति दोनों ही खुश ||आभा ||

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