Wednesday, 29 July 2015

-----------वो बतकहियां हमारी ---------
 आम से जीवन की बतकहियां ,किसी ख़ास से अपने को जोड़ती हुई ,वो ख़ास हमारा हीरो था ,उसकी कई किताबें हमने साथ बैठ के पढ़ीं --बस यूँ ही भावुकता भरे कुछ क्षण -----जो बस मेरे लिए खास हैं ---
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अक्सर बरामदे में शाम की चाय पे जीवन क्या है ?कैसा है ?क्यों है ?पे चर्चा होती जब मेरी और अजय की तो अंत में टकराहट पे आके रूकती। वो कहते आभा आदमी कितना सुखी है ये मत देखो उसे मौत कैसी मिलती है ये देखो। जीवन भर सुखों के झूले पे झूलता रहे , अंतिम समय बिस्तर पे पड़ जाए , बैड - सोल हो जाएँ ,त्रिशंकु बनके लटक जाए मौत और जिंदगी के बीच में या फिर  मिनटों में बैठे-बैठे प्राण पखेरू उड़ जाएँ। यदि काम करते हुए आदमी जाए तो उससे सुखी कोई नहीं ,और मैं टकरा जाती ,आपको तो मौत के क्षण ही दिखाई देते हैं जीवन की सफलता या सुख  को परिभाषित करने के लिए । ये भी कोई बात हुई ;जीवन भर जो सफल सुखी और संपन्न रहा है ,वो तो सुखी ही कहलायेगा न। पर अजय ये कभी मानने को ही तैयार नहीं होते थे ,उनका कहना था एक व्यक्ति यदि जिंदगी भर जूझ रहा है ,बीमार भी है पर फिर भी कर्मठ है ,कर्मठ संतानें देता है राष्ट्र को और अंत में चैन से प्राण निकल जाते हैं तो उससे बढ़कर भाग्यवान कोई नहीं। लेकिन साथ ही ये भी ,ऐसा उस ही व्यक्ति के साथ होगा जिसके मन में किसी के लिए कलुष न हो ,जिसने मानवता के लिए अधिक नहीं तो कुछ तो किया हो ,जिसमे इतना साहस हो  कि उसे पता है कि फलां शख्स मुझसे हद दर्जे हा द्वेष रखता है , पर उससे मिलके माफ़ी मांग सके कि कही मेरी ही तो कोई गलती तो  नहीं थी और साथ ही सबको माफ़ करने की कूवत रखता हो ,जिसे लोभ न हो --वही फटाफट मृत्यु पाता  है।
मुझे लगता ये इंसान किस मिट्टी का बना है ,झूठ  ,धोखा ,फरेब ,निंदा सबकुछ पचा जाता है ,किसी के लिए मन में कोई द्वेष ही नहीं और सभी चालबाजों और धोखेबाजों को भी ख़ुशी बाँट रहा है। क्यों दूर कर रहे हो नकारात्मकता ,आपने क्या ठेका लिया है ,बिना बात में उस लफंगे लम्पट से माफ़ी मान ली ,जब कोई आपने कुछ किया नहीं ,कोई दोष  नहीं तो किस बात की माफ़ी ?
सीधे इतने कि खुद बीमार हैं पर किसी का फोन आ जाए मेरी माँ बीमार है ,बीबी को बच्चा होना है ,तो चल देंगे उठ के ,खुद की  तबियत ठीक नहीं है ,पर कोई  बड़ी उम्र साथी अकेला है [अक्सर इस उम्र में कोई न कोई अकेला होता है और बच्चे भी जीविकोपार्जन के लिए चले जाते हैं ]तो चलदेंगे उसकी खैर-खबर लेने --चलो उसे थोड़ी देर की ही ख़ुशी दे आते हैं और ये तब जब उस आदमी ने हमेशा डिपार्टमेंट में अजय की काट करी हो ,अरे उसका उसके साथ मेरा मेरे साथ।  मैं अक्सर किलसती  भी थी ,देखो इतना सीधा सरल होना भी अच्छा नहीं होता ,लोग तुम्हारी राह में दोस्त बनके रोड़ा अटकाते हैं ,पर वो कभी नहीं माने ,कहते मेरा भाग्य थोड़े ही कोई छीन लेगा।

कुछ दिनों से अजय ने जिन भी लोगों के लिए वो सुनते थे कि वो मुझ से कुछ द्वेष रखते हैं ,उनसे फोन पे बात शुरू की ,मेरे पूछने पे बोले संवाद बहुत बड़ी शह है ,वो मेरे लिये कलुष लिए बैठा है ,मुझे पता चला तो मैं क्यों न अपने लिए उसकी नकारात्मकता मिटाऊं। और धीरे -धीरे सभी से उन्होंने संवाद किया ,किसी को चाय पे बुलाया ,किसी को खाने पे। मैंने इसे गंभीरता से लिया ही नहीं। जब काम ज्यादा बढ़ गया तो रोकने की कोशिश   भी की ; क्यों कर रहे हो ? कुछ लोग ऐसे जो जॉब शुरू होने से लेकर अब तक जान के पीछे पड़े थे [और मैं तो आज भी उनका चेहरा नहीं देखना चाहती ]सभी से रिश्ते सहज और सौहार्दयपूर्ण कर लिये ---मैं समझ ही न पायी कि आत्मा निर्मल होना चाहती है और -------------------
''एक सुबह ,६ बजे --ताजा गुड बनवाया था ,वो गुड की चाय कभी नहीं पीते थे पर जुकाम था तो मैंने अदरख गुड की चाय बनाई --आज उठने में देर हो गयी कहके चाय के लिए उठाया तो एक सिप लेके बोले थोड़ा कमजोरी हो रही है ,कुछ देर और सो जाऊं और बस कहते कहते रामजी की चिड़िया रामजी के पास। ''------------
अजय के  जाने के कुछ समय बाद जब होश आया तो पता चला सही में भाग्यशाली वही है जिसको अपने जाने का अहसास भी न हो ,पल भर में उड़ जाए ,चेहरे पे भी न शिकन न डर। --जब जरा मनन करने लगी तो पाया ,पिताजी ,माँ ,श्वसुरजी --मेरे आगे ये सभी शख्श ऐसे रहे जो चेतनावस्था में चलते-फिरते चले गए --और ये सब वही लोग थे जो सीधे ,सच्चे और सरलमना थे।
 अभी कलाम सर का जाना देखा तो ये सारी बतकहियां चलचित्र की भांति घूम गयी आँखों के आगे ,मानो अभी की ही बात हो ,एक सीधे ,सच्चे सरल ,आदमी का जाना क्या होता है --पल भर में कार्य करते हुए प्राण पखेरू उड़ गए ---सही में यही व्यक्ति भाग्यशाली होता है। अजय तुम ठीक कहते थे।
काश मैं भी इतनी ही सहज हो पाऊं।  कोशिश  तो कर रही हूँ पर अभी ऐंठ है कहीं मन में ,कुछ गांठें हैं जो खुलती नहीं ,,कुछ लोग जिन्होंने तुम्हें   धोखा दिया मेरी माफ़ी की जद में नहीं आते --शायद मैं उतनी सरलमना नहीं हूँ और कोई बिरला ही हो सकता है ऐसा।
''मैं रोती नहीं वारती मानस  मोती हूँ ''---जाने वाले अब हमारे दिलों में हैं अपनी राह पे  चलने को प्रेरित करते हुए ----





















Monday, 20 July 2015

[              [सावन --शिवार्चन को समर्पित ऋतु ]
सावन  में  ,सभी को बाबा विश्वनाथजी का आशीष मिले
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**** शिव को समर्पित ऋतु ,शिव ,जो सत्य है ,वही शिव है -वही सुंदर है | ,सत्य नेति -नेति करके जो शेष बचे ,ज्ञान से परे __जो केवल होने का अहसास मात्र है जब! सब कुछ मिल जाए -वही शिव है जिसे ब्रह्मा -विष्णु महेश सब पूजते हैं ,जिसे राम भी अपना आराध्य मानते हैं -___
" लिंग थापी विधिवत करी पूजा |शिव सामान प्रिय मोहि न दूजा "-----
मानस में तुलसी ने प्रत्येक काण्ड का प्रारंभ शिवार्चन से ही किया है _________
_"भवानीशंकरौवन्दे श्रद्धा विश्वास रुपिणौ |
याभ्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धा: स्वान्तःस्थमीशवरम " ||_____
शिव ---जिसके स्वरूप को जानने के लिए कृष्ण भी हिमालय पर्वत पे गए तपस्या करने और उमा का आशीष लेके आये ---
कृष्ण कहते है ---
नमोस्तु ते शाश्वत सर्वयोनो 
ब्रह्माधिपं त्वामृषयो वदन्ति 
तपश्च सत्त्वं च रजस्तमश्च 
त्वामेव सत्यं च वदन्ति संत:।। 
शिव जिसको सृष्टि में केवल कृष्ण ही जानते है ---
न ही शक्तो भवं ज्ञातुं मद्विध:परमेश्वरम्।
ऋते नारायणात् पुत्र शंखचक्रगदाधरात्।। 
शिव जो ब्रह्मा विष्णु इंद्र ,भूत पिशाच सबके आराध्य हैं --
ब्रह्मा विष्णु सुरेशानां स्रष्टा च प्रभुरेव च। 
ब्रह्माद्य पिशाचान्ता यं ही देवा उपासयते।।---
शिव जिसके बिना हम अपने अंत:करण में स्थित ईश्वर को देख ही नहीं सकते |
***कंकर -कंकर में है शंकर | शिवोहम -शिवोहम | सारी जगति ,जगती के सारे क्रिया कलाप सब शिव का ही स्वरूप हैं ,शिव को ही समर्पित हैं और शिव की ही अर्चना हैं | गौर वर्ण शिव ,__________
शंखेन्द्वाममतीव सुन्दरतनुम् शार्दूलचर्माम्बरं |
कालव्यालकरालभूषणधरं गंगा शशांक प्रियम ||
काशीशं,कलिकल्मशौघशमनम कल्याणकल्पद्रुमं |
नौमीयम ! गिरिजापतिं गुणनिधिम कन्दर्पहं शंकरम।।
***यही तो है शिव का स्वरूप जो दैनिक जीवन को चरितार्थ करता हुआ ,विपरीत में भी शांत और स्थिर रहने का मार्ग दिखाता है | सुंदर गौर वर्ण ,कमल से नयन , आजन बाहू ,कोमल गात संग में , उमा -पार्वती -अम्बिका भवानी -जिनकी सुन्दरता --
''छबि गृह दीप शिखा जनु बरईं '' है
इसपर भी जोगी जटिल अकाम मन नग्न अमंगल वेष | घोर विपरीततायें जैसे संसार को हर पल याद दिला रहे है शिव कि जीवन हलाहल है , पर विष रोक लो कंठ में ही ,न अपनेशरीर को विष की बेली बनने दो और न ही विष को समाज पे उगलो , कि वो कंठ में जाय और दवा बन जाए ताकि रोग दूर हों और तुम भी नीलकंठ का सुंदर मनभावन रूप ले के जियो | कितनी अदभुत सीख है ,पर कहाँ हम देख पाते हैं हम तो केवल जल चढ़ा के ही कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं |
*** आस्तीन में ही नहीं शिव के तो गले में और सर पे भी सर्पों की माला है | हम तो आसपास आस्तीन का एक सांप होने से ही विचलित हो जाते हैं ,पर जहाँ धोखे ही धोखे हो ---अपने भोलेपन में भोले बाबा ने वर दिया भस्मासुर को वो उन्ही को भस्म करने की सोचने लगा ,रावण ने शिव के आराध्य राम से ही बैर मोल ले लिया ,
दक्ष ने अपने घमंड में जग करता को नहीं पहचाना ,यहाँ तक कि सती ने भी राम की परीक्षा के समय दुराव किया -तो भी विवेक रूपी समुंद्र को आनंद देने वाले ,पाप रूपी घोर अन्धकार का नाश करने वाले ,तीनों तापों को हरने वाले ,मोह रूपी बादल को छिन्न -भिन्न करने वाले ,वैराग्य रूपी कमल के सूर्य कभी विचलित नहीं हुए अपितु संसार के कल्याण हेतु समाधिष्ट होगये और समाधि की अवधि पूर्ण होने पे सकल जगत के कल्याण के कार्यों में प्रविष्ठ हुए | क्या शिव का ये स्वरूप क्षमा सिखाने के लिए ही नहीं है ?पर कहाँ सीख पाते हैं हम ?
*** शिव के वस्त्र ,व्याघ्र चर्म और वल्कल वस्त्र जो कहीं से भी सुखदायी नहीं हैं ,हर परिस्थिति में समायोजित होने और प्रसन्न रहनेकी सीख देते से प्रतीत होते हैं | मस्तक पे आधा चन्द्रमा , कलंकित को भी आश्रय देने की सीख सर्पों का संग यानी आप चन्दन बन जाओ और अपने शीतल व्यवहार से अपने दुश्मनों को भी शांत करने की कला सीखो ! कमंडल अर्थात संचय की प्रवृति का त्याग ,केवल जीने लायक संचय, जटाओं में गंगा ( गंगा को अपने वेग और पवित्रता पे बड़ा अभिमान था ,वो स्वर्ग से नीचे नहीं आना चाहती थीं उन्होंने शिव की जटाओं में समाना स्वीकार किया क्यूंकि गंगाजी को पूरा विश्वास था कि वो अपने वेग से शिव को पातळ में ढकेल देंगी पर शिव ने उन्हें संभाला और सात धाराओं में बाँट दिया ) शिव की दृढ़ता ,कठोरता संयम और तीक्ष्ण बुद्धिमता की एक झलक ,कठिनाई में भी विवेक मत खोओ ,स्थिर बुद्धि और दृढ संकल्प हर परिस्थिति में राह दिखाते हैं पर कहाँ समझ पाते हैं हम ?| समस्त कठिनाइयों को ,अशुभ को ,अशौच को , भय विद्वेष कलंक को ,दुःख -दाह को ,आत्मसाध कर सरल ,शांत ,निर्लिप्त ,बैरागी और लोककल्याणकारी जीवन शैली --यही शिव है ! जो जगतपिता है कल्याणकारी है ,जो दूसरे के हित हेतु विषपान करता है ------
जरत सकल सुर वृन्द विषम गरल जेंहि पान किया |
तेहिं न भजसि मन मंद को कृपालु संकर सरिस ||
जिस भीषण हलाहल से देव- दानव सब जल रहे थे उसको जिन्होंने स्वयं पान किया ,रे मन तू उस शंकरजी को क्यूँ नहीं भजता --उनके सामान कृपालु और कौन है | सावन की इस   पावन ऋतु  में अपने आराध्य शिव को उनके स्वरूप की विशेषताओं और कल्याणकारी भावनाओं को अपने अंदर उतारने का संकल्प ! यही है आजका मेरा सावन का  शिवार्चन | हर हर महादेव ,बम -बम भोले |
*** पर शिव के अर्चन का कोई विशेष दिन विशेष ऋतु  ही क्यूँ ? क्यूँ न प्रतिदिन हम उन्हें ध्यायें ? हाँ ! हम प्रति दिन प्रतिपल शिव के ध्यान में रहें पर कभी अतिरिक्त ऊर्जा की भी आवश्यकता होती है |ये मानव मन बहुत शीघ्र विचलित हो जाता है इस की नीव बहुत ही कमजोर है ,अब एक मजबूत और पक्के मकान के लिए तो नीव का मजबूत होना बहुत आवश्यक है तो समय समय पे ये व्रत -त्यौहार हमारी नीव को पुख्ता करने का ही कार्य करते हैं ताकि हम आंधी तूफान और भूकम्प में भी डगमगाएं नहीं,चिन्तित न हों ,विचलित न हों | कलयुग में तो विचलित करने वाली घटनाएँ साथ-साथ ही चलती है | मीरा का जीवन नहीं हिला -नीव पक्की थी ,ध्यान की भक्ति की नीव थी मजबूत ! जैसे हम मोबाइल को रोज चार्ज करते हैं वैसे ही मन की चार्जिंग भी बहुत जरुरी है |मन को परमात्मा से कनेक्ट करना ,ये व्रत त्यौहार हमारे जीवन में सौकेट का काम करते हैं ,अपने मन की डोरी लगाइए और कई दिनों के लिए चार्ज हो जाइए | भगवान कहाँ खाते हैं वो तो भाव के ही भूखे हैं ,शिव ही सत्य है ये भाव कहीं गहरे हमारे भीतर पैंठ रहा है | हम शिवोहम को पहचान पा रहे हैं | नेति नेति करना हमें आने लगा है हम ज्ञान से परे जाने लगे हैं फिर जो बचता है वही कल्याणकारी शिव है।
पार्वती पति हर हर शंकर ,कण -कण शंकर ,शिवोहम ||
*** सावन  कल्याणकारी हो ,मंगलमयी हो ,स्वयं से स्वयं की पहचान करवाए .. सावन में कांवड़ आने वाले दिनों में ----

दक्ष प्रजापति मंदिर हरिद्वार ---------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

Friday, 17 July 2015

'' हरेला / गुप्त नवरात्रि''
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शुभकामनायें और मेरी मीठी यादें ----------आषाढ़ मॉस की शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक ,गुप्त नवरात्र का पर्व होता है ,दो नवरात्रि गुप्त रखी गयी हैं आषाढ़ और माघ मास की ,इनमे भी भगवती महिसासुरमर्दनि की पूजा अर्चना होती है और हरियाली भी बोई जाती है। शारदीय और वासंतिक नवरात्रि में तो ,दशहरे और रामजन्म की धूम होती है पर अन्य दोनों में देवी की मौन आराधना का निर्देश है ,साथ ही तांत्रिक साधनाओं के लिए भी ये गुप्त नवरात्रि का समय उपयुक्त माना  गया है ,हो सकता है ,इस समय में पृथ्वी  के  वायुमंडल और चुंबकीय क्षेत्र  में  कुछ  विशेष  तरंगें बनती हों  जो मंत्रों की ध्वनि तरंगों से झंकृत होके विशेष सिद्धि देती हों ------आम आदमी और विशेषत: भयंकर बुद्धिजीवी वर्ग इन बातों को मूर्खता मानता है ,पर मेरे जैसे बहुत हैं जो विशवास और परम्परा के धरातल पर खड़े रहते हैं बिना आडंबर और ढोंग के। 

वर्ष ऋतु ,गढ़वाल में गुप्त-नवरात्रि और कुमाऊं में हरेला ---प्रकृति पूजन का कितना सुंदर तरीका। हरेला पर्व में --गेहूं,जौ ,मक्का ,उड़द ,सरसों ,भट्ट गहत का अंकुरण कर हरेला उगाया जाता है और गढ़वाल में यवांकुरण ---गुप्त नवरात्रि में हमारे घर में पंडित जी आते थे पाठ करने और उस कमरे में हम बच्चे वर्जित होते थे बस केवल आरती के वक्त प्रवेश कर सकते थे ,बाकी दोनों नवरात्रि पाठ माँ पिताजी ही करते थे। 
हमारी  टीचर थी मुन्नी जोशी और  सुरेखा पन्त ,वो हरेला मनाती थी ,,उत्तरकाशी में टीचर्स हॉस्टल कैम्प्स में सड़क के पास ही था ,तो आते जाते उनके रूम से आरती की आवाजें ,खूब आती थीं इन नौ दिनों में। उन्हीसे हरेला के विषय में पता चला। हम बच्चों के मजे हो जाते थे। और भी कई   कुमाउनी टीचर थी जो मिलके हरेला मनाती थी , माँ -पिताजी उन सबके  अघोषित  लोकल गारजन थे तो हमारी बड़ी पूछ होती थी ,घर में नवरात्रि पूजन की स्थापना  और बगल में हरेला का समापन 
--- निःसंदेह काम दोनों जगह का हम बच्चों को ही करना होता था,विशेषत:नौवें दिन किसी पेड़ की टहनी जिससे गुड़ाई की जाती है[----] वो लाना ,और अपनी हरियाली के लिए अरंडी के पत्ते लाना  ,पर उस उम्र में काम करना भी उत्सव से कुछ कम नहीं होता था ,वो भो व्रत,पर्वों का काम।  जब हरेला हमको आशिषः  स्वरुप मिलता था तो पैर से सिर की ओर छुआ के[जैसे हल्दी हाथ में हल्दी लगती है ]आशीष  दिया जाता था ,''जी रये जागि राये --------और उसकी अंतिम पंक्ति कुछ ऐसी थी की जब तुम्हारे दांत न हों तब भात पीस के खाओ और लाठी के सहारे चलो ''--इतनी बड़ी जिंदगी का आशीष --उस वक्त बड़ा मजा आता था ,हम लाठी के सहारे चलने का स्वांग भी भरते थे तब।  वो तो जब त्यौहारो को समझने की उम्र आई तो पता चला कितनी समृद्ध परम्पराएँ हैं हम उत्तराखंडियों की ---हरियाली से जुड़े त्यौहार ,पेड़ लगाओ ,संरक्षित करो ,अन्न की पूजा गुणवत्ता ,स्वच्छ्ता ,और ऋतुओं का सम्मान।  मैं गुप्त नवरात्रि में यवांकुर नहीं डालती हूँ --पर हरेला को देख आज भी ऊर्जा का संचार होता है --सभी उत्तराखंड और देश वासियों को भी ''हरेला ''पर्व की शुभकामनायें --हरेला तो सभी अपने घरों में बो सकते हैं --अब तो ग्लोबल हो गया है सबकुछ ,जब करवा चौथ सभी मना सकते हैं तो हरेला भी मनाइये ,अच्छा लगेगा ,वर्षा ऋतु में नव सृजन ,नव अंकुर और फिर ''जीवेत: शरद शतम ''--सौ शरद देखने का आशीष ------सभी को आंचलिक पर्व '' हरेला पर्व ''और ''आषाढी नवरात्रि'' की शुभकामनाये ---''जी रये, जागि रये
धरती जस आगव, आकाश जस चाकव है जये
सूर्ज जस तराण, स्यावे जसि बुद्धि हो
दूब जस फलिये,
सिल पिसि भात खाये, जांठि टेकि झाड़ जाये।''-----''ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका।
क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते।
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यदि वृक्ष ,हरियाली बच्चों के साथ वन सम्पदा में जानवरों को भी आशीष मिले और सुरक्षित रिहायश मिले तो हरेला की खूबसूरती और उपयोगिता में चार चाँद लग जाएँ। 

Friday, 10 July 2015

आचमन -----------
किसी भी पूजा या धार्मिक अनुष्ठान में बैठने पे सर्व -प्रथम हम आचमन करते हैं।  कहते हैं आचमन अनिवार्य है  कर्मकांड या पूजा की शुद्धता और पवित्रता के लिए। पहले तो सभी को ज्ञात होता था इसके पीछे क्या धरणा है पर कालांतर में इंस्टेंट पूजा ,पंडितजी जल्दी करो ने इस क्रिया के महत्व को ही कम कर दिया। मेरे पिता नित्य संध्या वंदन आचमन से ही शुरू करते थे ,कुतूहल वश हम उनसे पूछते थे तो जो उन्होंने बताया वो ही महाभारत में भी पढ़ने को मिला। पित्रों और सांस्कृतिक विरासत के प्रति श्रद्धा और नित्य स्मरण ;  एक आचमन से इतना सब कुछ साथ ही जल की शुद्धता के महत्व का भान।
ॐ अपवित्रो पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोsपिवा।
य: स्मरेतपुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर:शुचिः।।
आचमन के समय मौन रह के तीन बार जल पियें ,उसमें कोई आवाज न हो ,अंगूठे के मूल भाग से दो बार मुहं पोंछे ,इसके बाद चक्षु ,नासिक ,कर्ण और मस्तक का स्पर्श।
अब क्या कहता है महाभारत --प्रथम बार जल के पीने से ऋग्वेद ,द्वितीय बार से यजुर्वेद और तृतीय बार से सामवेद तृप्त होता है ,प्रथम बार के मुख-मार्जन से अथर्वेद और द्वितीय बार के मार्जन से इतिहास,पुराण व् स्मृतियों के अधिष्ठाता देवताओं को तृप्त किया जाता है। नेत्रों के स्पर्श से सूर्य को ,नासिका से वायु और कर्ण के स्पर्श से दिशाओं को संतुष्टि मिलती है।
मस्तक का स्पर्श ब्रह्माजी को संतुष्ट करता है व् मार्जन के पश्चात जो उपर की ओर  चारों ओर  जल फेंका जाता है वो  आकाश के अधिष्ठाता देवता को संतुष्ट करता है।  --अब जल को शुद्ध होना तो अनिवार्य ही हो गया न ,तभी तो सदियों पुरानी नदियाँ हमारी पीढ़ी की युवावस्था तक शुद्ध और स्वच्छ थीं।
यह तो रही संध्या पूजा के कर्म-काण्ड में सम्पन्न होने वाली क्रिया पर हिन्दू संस्कृति संस्कारों की सुंदरता देखिये ,''मन में ही गंगा मन में ही यमुना ''---चारों वेद ,इतिहास,स्मृति ,पुराण उपनिषद ,दशों  दिशाएँ ,और ब्रह्माण्ड के सभी तत्व आपके भीतर ही हैं अत: अपने को शुद्ध करो पहले ,केवल बाह्य ही नहीं ''बाह्याभ्यन्तर:शुचिः''  आंतरिक शुद्धता होनी भी आवश्यक है ,तभी वेद पुराण ,सभी आपको प्राप्य होंगे और अंतिम लक्ष्य तो पुण्डरीकाक्ष ही है --वो मैले मन को कैसे मिलेगा ;
आचमन के समय मौन रह  अपने मन की शुद्धता और पवित्रता से हम सभी को पा सकते हैं --साथ ही प्रकृति को शुद्ध और स्वच्छ रखना भी हमारा ही कर्तव्य है ये नित्य ही आचमन के द्वारा सिखाया जाता है।  सदियों तक गुरुकुल में संततियों को पीढ़ी दर  पीढ़ी यही शिक्षा मिली तब ही आज भी हम इस धरा को भोग पा रहे हैं। आधुनिक शिक्षा में संस्कारों के मायने ही बदल गए ,इतिहास स्मृति--सब जगह   विदेशी आक्रान्ताओं का बोलबाला है इसीलिये बच्चे इन छोटी-छोटी संवेदनाओं से वंचित हो गए हैं ,इन क्रियाओं के पीछे की भावना--प्रकृति से जुड़ाव , श्रद्धा --सब लोप हो गया है --वरना तो नहाते ,खाते पूजा करते सदैव ''अपवित्रो पवित्रो वा '' की ध्वनि कानों में हर घर में सुनाई देती थी और ये कुछ पलों का संस्कार पोंगापंथी नहीं वरन सहज होने की क्रिया है   ----क्रमश:








Friday, 3 July 2015

बैठे ठाले की बुढ़भस  --[जब मस्तिष्क को छुट्टी दी हो और तन भी कुछ  आराम के मूड में हो -पर भूख तो लगती है न]=====
 --- ऐसे में सोच का विस्तार ; ------------
……दृष्टि के समक्ष क्षितज का विस्तार अनंत तक फैला हुआ ,चाहे जहां तक देखो। विस्मयकारी इंद्रजाल ! वासना नहीं विरक्ति ; राग नहीं अनुराग ; इस इंद्रजाल में उलझता वही है जो उलझना चाहे , भरके भाव प्रकृति के ,अपने मन में ;
उषा=== उगते सूर्य का सिंदूरी आँचल मानो मेरे माथे की बिंदिया और कुमकुम के सारे रंग चुरा के प्राची ने अपने दूधिया -आसमानी आँचल में छिड़क लिये हों-- मेरे जीवन के सारे इंद्रधनुषी और उस से निर्मित होने वाले असंख्यों रंगो संग -संग और मुझे दे दिया है अपनी धूप सा झक श्वेत निर्माल्य ; ले इसे शीतल कर।
संध्या ===डूबते  सूर्य संग क्षितिज की इंगूरी स्वर्णिम आभा ;पीत -  हरित -लालिमा , मैं ही तो हूँ वहां दूर डूबती हुई तुझ संग ,ऐ सूर्य ! -- ये भाव ही बावरा करने को काफी ;देखूं तुझे जी भर के ;दिवस के अवसान की इस बेला में; वो तेज भी नहीं अब ;क्षण भर में तू दूसरे देश जा बैठेगा अपने तेज और चटख रंगों के साथ  और मैं जीवन में कोई रंग न रहने पे भी सूरज के रंगों में ही जीती रहूंगी।
सूरज === जाने क्यूं मुझे बचपन से ही लुभाता है वो उषा का हो ,संध्या का हो या संधि पर्व का हो। सूर्यारघ्य  - आवश्यक रहा सदैव पता है क्यूँ -- सूर्य के सातों रंगों को आत्मसाध करने का अवसर वो भी जल से छन-छन के आते रंग , किरणे सराबोर कर देती हैं और सारा मालिन्य हर लेती हैं ,किरण-किरण को दंडवत करने का समय सूर्यारघ्य ,अपने आराध्य को अनुभूत करने का समय उसके प्रति नतमस्तक  होने का समय। सूर्य === जिसमे निष्ठा है -रूढ़िग्रस्त होने तक की ,जिसके आँचल में जगत की चंचल क्रीड़ा है- रीतिकालीन प्रवृतियों की गतिशीलता तक। बस जब भी हारने लगूं ,सूर्य को अनुभूत करती हूँ अपने भीतर ,एक ऐसा ऋषि जो स्वयं जलते हुए ,जगत को चला रहा है ,बिना कुछ पाने की चाहत के।
 निशा ===जाने क्यों सूर्य मुझे अटका ही लेता है ,पर निशा भी तो है न जीवन में। बिना उसके जीवन कहां ? आसमान तारों भरा हो ,अमावस की रात हो तो चटख काली चुनरी को ओढ़नी बना के ओढ़ लेना मेरा प्रिय शगल रहा । इतने सारे बड़े छोटे चमकते हीरों भरी ओढ़नी ;आह ! स्त्री के सौंदर्य को और क्या निखार चाहिये ; धूप से दीप्त तन पे काली हीरों जड़ी ओढ़नी---या फिर पूर्णिमा के अकेले चाँद वाली रात्रि ; श्याम वर्ण आवरण पे स्वर्णिम चाँद की बड़ी सी बिंदिया ,इतनी बड़ी कि तन ही सोने सा दमकने लगे -ऐ रात !  क्यूँ हो तेरे रहते मनुजता अकेली -तेरे चाँद सितारे चलते हैं न साथ मेरे ,देते हैं गति मुझे ,कैसे नींद में जाऊं जब तू इतना सौंदर्य लिये जग रही है अपनी सम्पूर्ण नीरवता और शीतलता के साथ निःशब्द ; तू मुझे भी अपने जैसा कर दे -नीरव ,निःशब्द ,शीतल ,मेरे आँचल में भी लोरियाँ ,प्यार ,दुलार और सुकून हो तेरी ही तरह ,मैं भी जगूं किसी की मीठी नींद के लिये ;
और दिवस ===क्या आसान है समेटना इसे शब्दों में ? दृष्टि के समक्ष दूर क्षितिज तक फैला विस्तार सागर का ,आसमान से मिलता, एक में दूजे में समाया  निर्मल नीला ,आसमानी विस्तार , चारों प्रहर रंग बदलता हुआ ,नीचे चंचल लहरें अठखेलियां करती हुई ऊपर  मृग-छौनों से मखमली बादल ,धवल -भूरे -काले और नारंगी भी ;मानो मैं रंगमंच पे पर्दे के आगे पीछे ,कभी नायिका और कभी सूत्रधार बनी तरह-तरह के रंगों के परिधानों  में मंच को संभाल रही हूँ ,हाँ मैं ही तो होती हूँ इस दृश्य में ,तू भी होगा कहीं यहीं ,सभी को यहीं तो आना है इस विशाल सागर के असीम विस्तार में खोने के लिये , बनना है बादल टकराने को पर्वत से और खो देना  है अपना अस्तित्व फिर एक बार, बरसा के प्यार इस धरा पे ताकि पर्वतों और खाइयों की हरियाली ,क्षितिज तक फैले खेतों की हरीतिमा  का विस्तार ,फूलों फलों से लदे  पेड़ ,लहलहाते फसलों के गोटा किनारी वाले परिधानों से सजी धरती  का श्रृंगार यूँ ही बना  रहे ,धरा में पर्वतो से निकल सोने चांदी का रूप ले ,सूरज चंदा की किरणों की करधनी पहने ,बलखाती इठलाती चंचल सर्पीली चाल वाली  नदियां यूँ ही बहती रहें। जल ही जीवन है का मंत्र सिखा  सकूँ मैं मिट के भी। मनुज जल की शुद्धता को आत्मसाध करें वैसे ही पूजे जल को नदियों को जैसे पूर्वज पूजते थे मेरे --हाँ मैं ही तो हूँ वो नदी जो सदियों से बह रही है निरंतर ,जिसे हम जितना देख पाते हैं वो उतने में ही अपनी पूर्णता का परिचय देती है।  क्या सम्भव है नदी को उद्गम से अंत तक एक साथ देखना ,फिर भी नदी देख उसकी पूर्णता का अहसास होता है हमें ,ऐसे ही हो मेरा भी जीवन ,अधूरे सोपान की पूर्णता लिये ;पूर्ण तो मिलन पे ही होउंगी न ,और वो सदियों की आस -प्यास कब पूरी होगी -तू ही जानता है।
आह !ईश्वर ने दिया तो है हमारी आँखों को विस्तार। बस भावों की आवश्यकता है। तार जोड़ लूँ क्षितिज तक अपने मन के तो पूजा हो जाती है प्रकृति की ,उसे सीता कहूँ या राधा ,दुर्गा कहूँ या भवानी ,लक्ष्मी कहूँ या सरस्वती --सब मुझमें ही हैं कहीं न कहीं --तुझसे मिलने को आतुर -तू जो ॐ कहलाता है ,जो परम कहलाता है ,है तो अधूरा ही तू भी मेरे बिना ;क्या नहीं ? मैं ही तो धारण करती हूँ तुझे और लाती हूँ विश्व में। ---- अकेले रहने पे भी भाव रूप से प्रकृति के साथ जुड़ जाना ,उसमे अपने को देखना ,अपने को उसमे महसूसना ,एक अनोखी अनुभूति ,एक अनोखा ध्यान --ध्यान के कई सोपानों को पार करते  हुये  कुण्डलिनी के कई रहस्यों को उजागर करते  हुये विशुद्धि और आज्ञा चक्र तक ले जाती है  ये अनुभूति ,भाव ही जगत है और प्रकृति से बंधन ही सही मायनों में जीवन है ,वो प्रकृति जिसे अक्षुण रखना है अपनी संतति के लिये तो उसे अपने में महसूस करना होगा तभी हम उसका सम्मान कर पाएंगे।तब ही हम उसको स्वच्छ और निरोग रख पाएंगे।
''कोई साथ न रहने पर भी जन-मन मौन नहीं रहता आप-आप की कहता है वो आप आप से सुनता है '' साकेत ली ये पंक्तियाँ यूँ लगता है मेरे लिए ही लिखी गयीं। जब भी खालीपन हो अपने से ही बतियाओ ,जब भी कुछ करने का मन न हो ,शरीर -मन -मस्तिष्क ने छुट्टी का प्रार्थना पत्र भेजा हो तो  प्रकृति और ॐ की शरण में अपने को समर्पित कर देना एक उपाय है --मन की आँखों से विस्तार को निहार सकते हैं हम वैसे ही जैसे क्षितिज तक देख सकते हैं बाहरी आँखों से  पर नयन पुतली के आगे यदि एक भी तिनका आ गया तो सब दिखाई देना बंद।  बस यही तिनका  नियति बन गयी है , इससे ही पार पाना ध्येय है मेरा ,इसे ही हटाना है।
यहाँ मैं से अर्थ शुद्ध मैं से  नहीं  , आत्मा से लिया है मैंने।  आत्मा जो होती है ,[स्त्रीलिंग ]. वो पुरुषात्मक आत्मतत्व --स्त्री में लीन होके ही अपने को प्रकट करता है ---और फिर वो परमात्मा  जगत के लिये-- आत्मा होती है। आत्मा होता है वो शरीर में आने से पहले और शरीर से निकलने के बाद ,एक बार जन्म लिया तो फिर आत्मा [स्त्रीलिंग -चाहे वो पुरुष की हो या स्त्री की] होती है  जो जीवन भर उस शुद्ध -बुद्ध तत्व से मिलन के लिए  कर्मों का श्रृंगार करती है ,तो मेरा मानना है यदि इन कर्मों में प्रकृति की आराधना भी हो तो सोने पे सुहागा  ,मिलन सहज और सरल हो जाए।
एक बाणबिद्ध क्रौंच की वेदना से यदि ''मा निषाद प्रतिष्ठात्वं '' से द्रवित हृदय चेतन होके आदिकाव्य की रचना करने में समर्थ हो सकता है ---तो ---क्यूँ नहीं हम उस क्षुद्र पक्षी की वेदना को ऋषि की गरिमा से अधिक महत्व देते। एक फल के डाल से टूटके गिरने से यदि गुरुत्वाकर्षण के विषय में ज्ञान मिलता है तो उस फल की टूटन को पर्वतों के टूटने से अधिक महत्व क्यूँ नहीं दिया जाता --काश पर्वत फलों के पेड़ों से लद जायें ताकि फल ही टूटें पर्वत नहीं। टूटते पर्वत विनाश का संकेत और टूटता फल सुख समृद्धि का। कुछ देने का संकल्प ,टूटता फल बनूं मैं प्रकृति का ,न की टूटता पहाड़। विशालता विनम्र हो।  बस इसी उहापोह में जी गयी मैं जीवन। आत्मा की परमात्मा से मिलन की कोशिश में न जाने कितने जन्म निकल गये ,सूरज चंदा ,नदिया ,वृक्ष ,पर्वत नदी ,सागर कितना समेटा अपने में --इस विस्तार को क्या कोई लिख सकता है नहीं ---पर जीवन की गहराई की अनुभूति  कुछ ही क्षणों में होती है वर्षों में नहीं और वो क्षण निरंतरता के न होते हुये  भी जीवन के लिये काफी होते है।
======बस यही होता है मेरे साथ जब कभी ठाली बैठने का मन हो ,विचार अक्षरों की शक्ल ले कोरे कागज पे उछल कूद करने लगते हैं और विचार शून्य मन अनर्गल प्रलाप की बरसाती नदी बन उमड़ पड़ता है न जाने किस ओर ---