Friday, 3 July 2015

बैठे ठाले की बुढ़भस  --[जब मस्तिष्क को छुट्टी दी हो और तन भी कुछ  आराम के मूड में हो -पर भूख तो लगती है न]=====
 --- ऐसे में सोच का विस्तार ; ------------
……दृष्टि के समक्ष क्षितज का विस्तार अनंत तक फैला हुआ ,चाहे जहां तक देखो। विस्मयकारी इंद्रजाल ! वासना नहीं विरक्ति ; राग नहीं अनुराग ; इस इंद्रजाल में उलझता वही है जो उलझना चाहे , भरके भाव प्रकृति के ,अपने मन में ;
उषा=== उगते सूर्य का सिंदूरी आँचल मानो मेरे माथे की बिंदिया और कुमकुम के सारे रंग चुरा के प्राची ने अपने दूधिया -आसमानी आँचल में छिड़क लिये हों-- मेरे जीवन के सारे इंद्रधनुषी और उस से निर्मित होने वाले असंख्यों रंगो संग -संग और मुझे दे दिया है अपनी धूप सा झक श्वेत निर्माल्य ; ले इसे शीतल कर।
संध्या ===डूबते  सूर्य संग क्षितिज की इंगूरी स्वर्णिम आभा ;पीत -  हरित -लालिमा , मैं ही तो हूँ वहां दूर डूबती हुई तुझ संग ,ऐ सूर्य ! -- ये भाव ही बावरा करने को काफी ;देखूं तुझे जी भर के ;दिवस के अवसान की इस बेला में; वो तेज भी नहीं अब ;क्षण भर में तू दूसरे देश जा बैठेगा अपने तेज और चटख रंगों के साथ  और मैं जीवन में कोई रंग न रहने पे भी सूरज के रंगों में ही जीती रहूंगी।
सूरज === जाने क्यूं मुझे बचपन से ही लुभाता है वो उषा का हो ,संध्या का हो या संधि पर्व का हो। सूर्यारघ्य  - आवश्यक रहा सदैव पता है क्यूँ -- सूर्य के सातों रंगों को आत्मसाध करने का अवसर वो भी जल से छन-छन के आते रंग , किरणे सराबोर कर देती हैं और सारा मालिन्य हर लेती हैं ,किरण-किरण को दंडवत करने का समय सूर्यारघ्य ,अपने आराध्य को अनुभूत करने का समय उसके प्रति नतमस्तक  होने का समय। सूर्य === जिसमे निष्ठा है -रूढ़िग्रस्त होने तक की ,जिसके आँचल में जगत की चंचल क्रीड़ा है- रीतिकालीन प्रवृतियों की गतिशीलता तक। बस जब भी हारने लगूं ,सूर्य को अनुभूत करती हूँ अपने भीतर ,एक ऐसा ऋषि जो स्वयं जलते हुए ,जगत को चला रहा है ,बिना कुछ पाने की चाहत के।
 निशा ===जाने क्यों सूर्य मुझे अटका ही लेता है ,पर निशा भी तो है न जीवन में। बिना उसके जीवन कहां ? आसमान तारों भरा हो ,अमावस की रात हो तो चटख काली चुनरी को ओढ़नी बना के ओढ़ लेना मेरा प्रिय शगल रहा । इतने सारे बड़े छोटे चमकते हीरों भरी ओढ़नी ;आह ! स्त्री के सौंदर्य को और क्या निखार चाहिये ; धूप से दीप्त तन पे काली हीरों जड़ी ओढ़नी---या फिर पूर्णिमा के अकेले चाँद वाली रात्रि ; श्याम वर्ण आवरण पे स्वर्णिम चाँद की बड़ी सी बिंदिया ,इतनी बड़ी कि तन ही सोने सा दमकने लगे -ऐ रात !  क्यूँ हो तेरे रहते मनुजता अकेली -तेरे चाँद सितारे चलते हैं न साथ मेरे ,देते हैं गति मुझे ,कैसे नींद में जाऊं जब तू इतना सौंदर्य लिये जग रही है अपनी सम्पूर्ण नीरवता और शीतलता के साथ निःशब्द ; तू मुझे भी अपने जैसा कर दे -नीरव ,निःशब्द ,शीतल ,मेरे आँचल में भी लोरियाँ ,प्यार ,दुलार और सुकून हो तेरी ही तरह ,मैं भी जगूं किसी की मीठी नींद के लिये ;
और दिवस ===क्या आसान है समेटना इसे शब्दों में ? दृष्टि के समक्ष दूर क्षितिज तक फैला विस्तार सागर का ,आसमान से मिलता, एक में दूजे में समाया  निर्मल नीला ,आसमानी विस्तार , चारों प्रहर रंग बदलता हुआ ,नीचे चंचल लहरें अठखेलियां करती हुई ऊपर  मृग-छौनों से मखमली बादल ,धवल -भूरे -काले और नारंगी भी ;मानो मैं रंगमंच पे पर्दे के आगे पीछे ,कभी नायिका और कभी सूत्रधार बनी तरह-तरह के रंगों के परिधानों  में मंच को संभाल रही हूँ ,हाँ मैं ही तो होती हूँ इस दृश्य में ,तू भी होगा कहीं यहीं ,सभी को यहीं तो आना है इस विशाल सागर के असीम विस्तार में खोने के लिये , बनना है बादल टकराने को पर्वत से और खो देना  है अपना अस्तित्व फिर एक बार, बरसा के प्यार इस धरा पे ताकि पर्वतों और खाइयों की हरियाली ,क्षितिज तक फैले खेतों की हरीतिमा  का विस्तार ,फूलों फलों से लदे  पेड़ ,लहलहाते फसलों के गोटा किनारी वाले परिधानों से सजी धरती  का श्रृंगार यूँ ही बना  रहे ,धरा में पर्वतो से निकल सोने चांदी का रूप ले ,सूरज चंदा की किरणों की करधनी पहने ,बलखाती इठलाती चंचल सर्पीली चाल वाली  नदियां यूँ ही बहती रहें। जल ही जीवन है का मंत्र सिखा  सकूँ मैं मिट के भी। मनुज जल की शुद्धता को आत्मसाध करें वैसे ही पूजे जल को नदियों को जैसे पूर्वज पूजते थे मेरे --हाँ मैं ही तो हूँ वो नदी जो सदियों से बह रही है निरंतर ,जिसे हम जितना देख पाते हैं वो उतने में ही अपनी पूर्णता का परिचय देती है।  क्या सम्भव है नदी को उद्गम से अंत तक एक साथ देखना ,फिर भी नदी देख उसकी पूर्णता का अहसास होता है हमें ,ऐसे ही हो मेरा भी जीवन ,अधूरे सोपान की पूर्णता लिये ;पूर्ण तो मिलन पे ही होउंगी न ,और वो सदियों की आस -प्यास कब पूरी होगी -तू ही जानता है।
आह !ईश्वर ने दिया तो है हमारी आँखों को विस्तार। बस भावों की आवश्यकता है। तार जोड़ लूँ क्षितिज तक अपने मन के तो पूजा हो जाती है प्रकृति की ,उसे सीता कहूँ या राधा ,दुर्गा कहूँ या भवानी ,लक्ष्मी कहूँ या सरस्वती --सब मुझमें ही हैं कहीं न कहीं --तुझसे मिलने को आतुर -तू जो ॐ कहलाता है ,जो परम कहलाता है ,है तो अधूरा ही तू भी मेरे बिना ;क्या नहीं ? मैं ही तो धारण करती हूँ तुझे और लाती हूँ विश्व में। ---- अकेले रहने पे भी भाव रूप से प्रकृति के साथ जुड़ जाना ,उसमे अपने को देखना ,अपने को उसमे महसूसना ,एक अनोखी अनुभूति ,एक अनोखा ध्यान --ध्यान के कई सोपानों को पार करते  हुये  कुण्डलिनी के कई रहस्यों को उजागर करते  हुये विशुद्धि और आज्ञा चक्र तक ले जाती है  ये अनुभूति ,भाव ही जगत है और प्रकृति से बंधन ही सही मायनों में जीवन है ,वो प्रकृति जिसे अक्षुण रखना है अपनी संतति के लिये तो उसे अपने में महसूस करना होगा तभी हम उसका सम्मान कर पाएंगे।तब ही हम उसको स्वच्छ और निरोग रख पाएंगे।
''कोई साथ न रहने पर भी जन-मन मौन नहीं रहता आप-आप की कहता है वो आप आप से सुनता है '' साकेत ली ये पंक्तियाँ यूँ लगता है मेरे लिए ही लिखी गयीं। जब भी खालीपन हो अपने से ही बतियाओ ,जब भी कुछ करने का मन न हो ,शरीर -मन -मस्तिष्क ने छुट्टी का प्रार्थना पत्र भेजा हो तो  प्रकृति और ॐ की शरण में अपने को समर्पित कर देना एक उपाय है --मन की आँखों से विस्तार को निहार सकते हैं हम वैसे ही जैसे क्षितिज तक देख सकते हैं बाहरी आँखों से  पर नयन पुतली के आगे यदि एक भी तिनका आ गया तो सब दिखाई देना बंद।  बस यही तिनका  नियति बन गयी है , इससे ही पार पाना ध्येय है मेरा ,इसे ही हटाना है।
यहाँ मैं से अर्थ शुद्ध मैं से  नहीं  , आत्मा से लिया है मैंने।  आत्मा जो होती है ,[स्त्रीलिंग ]. वो पुरुषात्मक आत्मतत्व --स्त्री में लीन होके ही अपने को प्रकट करता है ---और फिर वो परमात्मा  जगत के लिये-- आत्मा होती है। आत्मा होता है वो शरीर में आने से पहले और शरीर से निकलने के बाद ,एक बार जन्म लिया तो फिर आत्मा [स्त्रीलिंग -चाहे वो पुरुष की हो या स्त्री की] होती है  जो जीवन भर उस शुद्ध -बुद्ध तत्व से मिलन के लिए  कर्मों का श्रृंगार करती है ,तो मेरा मानना है यदि इन कर्मों में प्रकृति की आराधना भी हो तो सोने पे सुहागा  ,मिलन सहज और सरल हो जाए।
एक बाणबिद्ध क्रौंच की वेदना से यदि ''मा निषाद प्रतिष्ठात्वं '' से द्रवित हृदय चेतन होके आदिकाव्य की रचना करने में समर्थ हो सकता है ---तो ---क्यूँ नहीं हम उस क्षुद्र पक्षी की वेदना को ऋषि की गरिमा से अधिक महत्व देते। एक फल के डाल से टूटके गिरने से यदि गुरुत्वाकर्षण के विषय में ज्ञान मिलता है तो उस फल की टूटन को पर्वतों के टूटने से अधिक महत्व क्यूँ नहीं दिया जाता --काश पर्वत फलों के पेड़ों से लद जायें ताकि फल ही टूटें पर्वत नहीं। टूटते पर्वत विनाश का संकेत और टूटता फल सुख समृद्धि का। कुछ देने का संकल्प ,टूटता फल बनूं मैं प्रकृति का ,न की टूटता पहाड़। विशालता विनम्र हो।  बस इसी उहापोह में जी गयी मैं जीवन। आत्मा की परमात्मा से मिलन की कोशिश में न जाने कितने जन्म निकल गये ,सूरज चंदा ,नदिया ,वृक्ष ,पर्वत नदी ,सागर कितना समेटा अपने में --इस विस्तार को क्या कोई लिख सकता है नहीं ---पर जीवन की गहराई की अनुभूति  कुछ ही क्षणों में होती है वर्षों में नहीं और वो क्षण निरंतरता के न होते हुये  भी जीवन के लिये काफी होते है।
======बस यही होता है मेरे साथ जब कभी ठाली बैठने का मन हो ,विचार अक्षरों की शक्ल ले कोरे कागज पे उछल कूद करने लगते हैं और विचार शून्य मन अनर्गल प्रलाप की बरसाती नदी बन उमड़ पड़ता है न जाने किस ओर ---

























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