'' हरेला / गुप्त नवरात्रि''
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शुभकामनायें और मेरी मीठी यादें ----------आषाढ़ मॉस की शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक ,गुप्त नवरात्र का पर्व होता है ,दो नवरात्रि गुप्त रखी गयी हैं आषाढ़ और माघ मास की ,इनमे भी भगवती महिसासुरमर्दनि की पूजा अर्चना होती है और हरियाली भी बोई जाती है। शारदीय और वासंतिक नवरात्रि में तो ,दशहरे और रामजन्म की धूम होती है पर अन्य दोनों में देवी की मौन आराधना का निर्देश है ,साथ ही तांत्रिक साधनाओं के लिए भी ये गुप्त नवरात्रि का समय उपयुक्त माना गया है ,हो सकता है ,इस समय में पृथ्वी के वायुमंडल और चुंबकीय क्षेत्र में कुछ विशेष तरंगें बनती हों जो मंत्रों की ध्वनि तरंगों से झंकृत होके विशेष सिद्धि देती हों ------आम आदमी और विशेषत: भयंकर बुद्धिजीवी वर्ग इन बातों को मूर्खता मानता है ,पर मेरे जैसे बहुत हैं जो विशवास और परम्परा के धरातल पर खड़े रहते हैं बिना आडंबर और ढोंग के।
वर्ष ऋतु ,गढ़वाल में गुप्त-नवरात्रि और कुमाऊं में हरेला ---प्रकृति पूजन का कितना सुंदर तरीका। हरेला पर्व में --गेहूं,जौ ,मक्का ,उड़द ,सरसों ,भट्ट गहत का अंकुरण कर हरेला उगाया जाता है और गढ़वाल में यवांकुरण ---गुप्त नवरात्रि में हमारे घर में पंडित जी आते थे पाठ करने और उस कमरे में हम बच्चे वर्जित होते थे बस केवल आरती के वक्त प्रवेश कर सकते थे ,बाकी दोनों नवरात्रि पाठ माँ पिताजी ही करते थे।
हमारी टीचर थी मुन्नी जोशी और सुरेखा पन्त ,वो हरेला मनाती थी ,,उत्तरकाशी में टीचर्स हॉस्टल कैम्प्स में सड़क के पास ही था ,तो आते जाते उनके रूम से आरती की आवाजें ,खूब आती थीं इन नौ दिनों में। उन्हीसे हरेला के विषय में पता चला। हम बच्चों के मजे हो जाते थे। और भी कई कुमाउनी टीचर थी जो मिलके हरेला मनाती थी , माँ -पिताजी उन सबके अघोषित लोकल गारजन थे तो हमारी बड़ी पूछ होती थी ,घर में नवरात्रि पूजन की स्थापना और बगल में हरेला का समापन
--- निःसंदेह काम दोनों जगह का हम बच्चों को ही करना होता था,विशेषत:नौवें दिन किसी पेड़ की टहनी जिससे गुड़ाई की जाती है[----] वो लाना ,और अपनी हरियाली के लिए अरंडी के पत्ते लाना ,पर उस उम्र में काम करना भी उत्सव से कुछ कम नहीं होता था ,वो भो व्रत,पर्वों का काम। जब हरेला हमको आशिषः स्वरुप मिलता था तो पैर से सिर की ओर छुआ के[जैसे हल्दी हाथ में हल्दी लगती है ]आशीष दिया जाता था ,''जी रये जागि राये --------और उसकी अंतिम पंक्ति कुछ ऐसी थी की जब तुम्हारे दांत न हों तब भात पीस के खाओ और लाठी के सहारे चलो ''--इतनी बड़ी जिंदगी का आशीष --उस वक्त बड़ा मजा आता था ,हम लाठी के सहारे चलने का स्वांग भी भरते थे तब। वो तो जब त्यौहारो को समझने की उम्र आई तो पता चला कितनी समृद्ध परम्पराएँ हैं हम उत्तराखंडियों की ---हरियाली से जुड़े त्यौहार ,पेड़ लगाओ ,संरक्षित करो ,अन्न की पूजा गुणवत्ता ,स्वच्छ्ता ,और ऋतुओं का सम्मान। मैं गुप्त नवरात्रि में यवांकुर नहीं डालती हूँ --पर हरेला को देख आज भी ऊर्जा का संचार होता है --सभी उत्तराखंड और देश वासियों को भी ''हरेला ''पर्व की शुभकामनायें --हरेला तो सभी अपने घरों में बो सकते हैं --अब तो ग्लोबल हो गया है सबकुछ ,जब करवा चौथ सभी मना सकते हैं तो हरेला भी मनाइये ,अच्छा लगेगा ,वर्षा ऋतु में नव सृजन ,नव अंकुर और फिर ''जीवेत: शरद शतम ''--सौ शरद देखने का आशीष ------सभी को आंचलिक पर्व '' हरेला पर्व ''और ''आषाढी नवरात्रि'' की शुभकामनाये ---''जी रये, जागि रये
धरती जस आगव, आकाश जस चाकव है जये
सूर्ज जस तराण, स्यावे जसि बुद्धि हो
दूब जस फलिये,
सिल पिसि भात खाये, जांठि टेकि झाड़ जाये।''-----''ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका।
क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते।
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यदि वृक्ष ,हरियाली बच्चों के साथ वन सम्पदा में जानवरों को भी आशीष मिले और सुरक्षित रिहायश मिले तो हरेला की खूबसूरती और उपयोगिता में चार चाँद लग जाएँ।
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