खाली समय और बैठे ठाले ---मन के लड्डू खाना-----
श्रीमद्भागवतगीता,पराशरगीता,अनुगीता,मंकीगीता ,अष्टावक्रगीता, रामगीता---और भी कई ऋषि -महात्माओं केप्रवचन गीता रूप में ,और इनमें से अधिकतर का महाभारत के ही विभिन्न पर्वों में उल्लेख है | कुछ मैंने पढ़ीं हैं कुछ अभी मेरे सामने प्रकट नही हुयीं | पर जब एक सबसे छोटी गीता--कामगीता ; जिसमें श्रीकृष्ण ममता को त्यागने को ही सबसे महत्वपूर्ण बताते हैं ; का दर्शन हुआ --महाभारत परायण के वक्त तो जैसे मन को मजबूती मिली और मिली एक नई दिशा -------------------
भीष्म को जलांजलि देने के पश्चात ,धृतराष्ट्र शोक से व्याकुल होगये--बाकी सारे कार्य करने का भार युधिष्ठर पे डाल दिया ये कह के कि शोक तो केवल मेरा और गांधारी का है --तुम तो अब अपने भाइयों और सुह्रिद्यों केसाथ मनोवांछित फल भोगो --बस ये व्यंग भरे वचन सुनके युधिष्ठर भी ग्लानिर्भवति वाली स्टेज में आगये --शायद धृतराष्ट्र यही चाहते थे ,वो पांडवों को अब भी प्रसन्न नही देख पा रहे थे और इसी लिए उन्होंने सबसे कमजोर कड़ी युधिष्ठर पे शब्द बाण चलाए |
युधिष्ठर ग्लानि से भर उठे , वो अपने को सभी गुरुजनों , बन्धु-बांधवों का कातिल समझने लगे तथा राजा बनने की जगह संन्यास लेने की जिद पे अड़ गये --तब कृष्ण ने जैसे अर्जुन को युद्ध में गीतोपदेश दिया था वैसे ही युधिष्ठर को भी --कामगीता का उपदेश दिया ---बहुत छोटी सी गीता --पर जीने के लिये बहुत महत्वपूर्ण--यदि इसके सार को जान लें तो जीवन ही कृष्णमय हो जाये ---
एक दो श्लोक सभी की नजर --कहते हैं कुछ भी अच्छा मिले तो बांटने में कोताही नही करनी चाहिये---तो निज के जीवन में उतारने की कोशिस के साथ आज लिखने की भी धृष्टता--
----जब युधिष्ठर मरे हुए सम्बन्धियों के शोक में संतप्त होकर विलाप करने लगे तो कई धर्म को जानने वाले तत्ववेदा मुनियों ने उन्हें उपदेश दिए पर युधिष्ठर को तो धृतराष्ट्र के शब्दों ने मोह लिया था , वो मरने वालों के लिये विलाप किये जा रहे थे तथा समस्त कामनाओं से मुक्त होके संन्यास धारण की जिद लगा बैठे थे |अंत में व्यासजी ने भी हाथ खड़े कर दिए तथा उनको कहना पड़ा--युधिष्ठर-तुम दुर्बुद्धि और श्रद्धा विहीन हो गये हो --अब कृष्ण ने मोर्चा संभाला और बोले---
--''अत्र गाथा: कामगीता कीर्तयन्ति पुराविदा |''
प्राचीन लोग एक गाथा कहते है --जो कामगीता है और जिसे काम ने ही स्वयं को नष्ट करने के लिए सुनाया है --उसे सुनो ---
''यो मां प्रयतते हन्तुं ज्ञात्वा प्रहरणे बलम् |
तस्य तस्मिन् प्रहरणे पुन:प्रादुर्भवाम्यहम् ||''---------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
''यो मां प्रयतते हन्तुं धृत्या सत्य पराक्रम |
भावो भावामि तस्याहं स च मां नावबुध्यते ||''
-----------------------------------------
-----------------------------------------काम कह रहे है --मुझे अस्त्र से मारोगे तो मैं तुम्हारी बुद्धि में अस्त्र चलाने की और नये नये अस्त्रों की कामना बन के बैठ जाऊँगा ,मुझे धैर्य से मारना चाहोगे तो मैं तुम्हारे भावों में घुलमिल जाऊँगा और तुम कब धैर्य धारण करने वाली बुद्धि की कामना करने लगोगे तुम्हें ,पता ही नही चलेगा | जो मुझे वेद-शास्त्र का स्वाध्याय करके मिटाने काप्रयास करता है ,मैं उसके मन में
'' स्थावरेषिवव भूतात्मातस्य प्रादुर्भ्वाम्यहम् ''
प्राणियों में जीवात्मा की तरह प्रकट होता हूँ | जो कठोर तपस्या करके मुझे मिटाने की कोशिस करता है --मैं उसकी तपस्या की कामना बन तपस्या में ही पैदा हो जाता हूँ |
''ततस्तपसि तस्याथ पुन: प्रादुर्भवाम्यहम् || ''
और तो और जो मोक्ष का सहारा लेके मेरे विनाश का प्रयत्न करता है --वह भी अपनी मोक्षविषयक आसक्ति से ही बंधा हुआ है --और उसके मोक्ष के विचार पे मुझे हंसी आती है और मैं ख़ुशी से नाचनेलगता हूँ --
-''तस्य मोक्षरतिस्थस्य नरित्यामि च हसामि च''||---
मैं काम [ कामना किसी भी रूप में] हीएकमात्र अवध्य एवं सदा रहने वाला हूँ --जो मरने पे भी साथ जाता हूँ ----मरे हुए लोगों की कामना से कुछ हासिल नही होगा | यहाँ धरा पे रह गये लोगों को उन चले गये लोगों की प्रतिष्ठा और कीर्ति बढ़ाने का यत्न करना चाहिये ,यहीसच्ची श्रद्धांजली है --
तो तुमतो अपने इस ''काम'' को प्रजा के हित में किये जाने वाले यज्ञों में लगा दो ,ऐसे यज्ञ करो जिनसे दीन-दुखियों को लाभ हो ,यश कीर्ति बढ़े ,किसी की हानि न हो ,समाज में पुण्य बढ़ें ,इसीसे ,तुम्हारी व् तुम्हारे पुरखों की भी यश कीर्ति बढ़ेगी और तुम शुभ कामना को लेकर इह लोक से परलोक गमन करोगे --
-'' त्स्मात्त्वम्पी तं कामं यग्यैर्विवधदक्षिनै: |
धर्मे कुरु महाराज तत्र ते स भविष्यति'' ||---
अपने काम को धर्म में लगाओ --धर्म ! केवल पूजा-पाठ संध्या-उपासना वाला नही अपितु कर्म करने वाला बुद्धि और विवेक से किया गया कर्म जिसमे समष्टि का लाभ हो --
-----
कृष्ण ने जीवनके हर पल के लिये उपदेश दिए | जीवन संग्राम में जब भी हम हारा हुआ महसूस करते हैं कृष्ण खड़े रहते हैं आस-पास ,दिलासा भी देते हैं और आगे केलिए तैयार भी करते हैं--निर्भर हमपे करता है क्या हम उन्हें सुनपाते हैं,देख पाते है ! कोशिस तो करनी ही होगी | ----- निठ्ल्ला चिन्तन आभा का ----
श्रीमद्भागवतगीता,पराशरगीता,अनुगीता,मंकीगीता ,अष्टावक्रगीता, रामगीता---और भी कई ऋषि -महात्माओं केप्रवचन गीता रूप में ,और इनमें से अधिकतर का महाभारत के ही विभिन्न पर्वों में उल्लेख है | कुछ मैंने पढ़ीं हैं कुछ अभी मेरे सामने प्रकट नही हुयीं | पर जब एक सबसे छोटी गीता--कामगीता ; जिसमें श्रीकृष्ण ममता को त्यागने को ही सबसे महत्वपूर्ण बताते हैं ; का दर्शन हुआ --महाभारत परायण के वक्त तो जैसे मन को मजबूती मिली और मिली एक नई दिशा -------------------
भीष्म को जलांजलि देने के पश्चात ,धृतराष्ट्र शोक से व्याकुल होगये--बाकी सारे कार्य करने का भार युधिष्ठर पे डाल दिया ये कह के कि शोक तो केवल मेरा और गांधारी का है --तुम तो अब अपने भाइयों और सुह्रिद्यों केसाथ मनोवांछित फल भोगो --बस ये व्यंग भरे वचन सुनके युधिष्ठर भी ग्लानिर्भवति वाली स्टेज में आगये --शायद धृतराष्ट्र यही चाहते थे ,वो पांडवों को अब भी प्रसन्न नही देख पा रहे थे और इसी लिए उन्होंने सबसे कमजोर कड़ी युधिष्ठर पे शब्द बाण चलाए |
युधिष्ठर ग्लानि से भर उठे , वो अपने को सभी गुरुजनों , बन्धु-बांधवों का कातिल समझने लगे तथा राजा बनने की जगह संन्यास लेने की जिद पे अड़ गये --तब कृष्ण ने जैसे अर्जुन को युद्ध में गीतोपदेश दिया था वैसे ही युधिष्ठर को भी --कामगीता का उपदेश दिया ---बहुत छोटी सी गीता --पर जीने के लिये बहुत महत्वपूर्ण--यदि इसके सार को जान लें तो जीवन ही कृष्णमय हो जाये ---
एक दो श्लोक सभी की नजर --कहते हैं कुछ भी अच्छा मिले तो बांटने में कोताही नही करनी चाहिये---तो निज के जीवन में उतारने की कोशिस के साथ आज लिखने की भी धृष्टता--
----जब युधिष्ठर मरे हुए सम्बन्धियों के शोक में संतप्त होकर विलाप करने लगे तो कई धर्म को जानने वाले तत्ववेदा मुनियों ने उन्हें उपदेश दिए पर युधिष्ठर को तो धृतराष्ट्र के शब्दों ने मोह लिया था , वो मरने वालों के लिये विलाप किये जा रहे थे तथा समस्त कामनाओं से मुक्त होके संन्यास धारण की जिद लगा बैठे थे |अंत में व्यासजी ने भी हाथ खड़े कर दिए तथा उनको कहना पड़ा--युधिष्ठर-तुम दुर्बुद्धि और श्रद्धा विहीन हो गये हो --अब कृष्ण ने मोर्चा संभाला और बोले---
--''अत्र गाथा: कामगीता कीर्तयन्ति पुराविदा |''
प्राचीन लोग एक गाथा कहते है --जो कामगीता है और जिसे काम ने ही स्वयं को नष्ट करने के लिए सुनाया है --उसे सुनो ---
''यो मां प्रयतते हन्तुं ज्ञात्वा प्रहरणे बलम् |
तस्य तस्मिन् प्रहरणे पुन:प्रादुर्भवाम्यहम् ||''---------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
''यो मां प्रयतते हन्तुं धृत्या सत्य पराक्रम |
भावो भावामि तस्याहं स च मां नावबुध्यते ||''
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-----------------------------------------काम कह रहे है --मुझे अस्त्र से मारोगे तो मैं तुम्हारी बुद्धि में अस्त्र चलाने की और नये नये अस्त्रों की कामना बन के बैठ जाऊँगा ,मुझे धैर्य से मारना चाहोगे तो मैं तुम्हारे भावों में घुलमिल जाऊँगा और तुम कब धैर्य धारण करने वाली बुद्धि की कामना करने लगोगे तुम्हें ,पता ही नही चलेगा | जो मुझे वेद-शास्त्र का स्वाध्याय करके मिटाने काप्रयास करता है ,मैं उसके मन में
'' स्थावरेषिवव भूतात्मातस्य प्रादुर्भ्वाम्यहम् ''
प्राणियों में जीवात्मा की तरह प्रकट होता हूँ | जो कठोर तपस्या करके मुझे मिटाने की कोशिस करता है --मैं उसकी तपस्या की कामना बन तपस्या में ही पैदा हो जाता हूँ |
''ततस्तपसि तस्याथ पुन: प्रादुर्भवाम्यहम् || ''
और तो और जो मोक्ष का सहारा लेके मेरे विनाश का प्रयत्न करता है --वह भी अपनी मोक्षविषयक आसक्ति से ही बंधा हुआ है --और उसके मोक्ष के विचार पे मुझे हंसी आती है और मैं ख़ुशी से नाचनेलगता हूँ --
-''तस्य मोक्षरतिस्थस्य नरित्यामि च हसामि च''||---
मैं काम [ कामना किसी भी रूप में] हीएकमात्र अवध्य एवं सदा रहने वाला हूँ --जो मरने पे भी साथ जाता हूँ ----मरे हुए लोगों की कामना से कुछ हासिल नही होगा | यहाँ धरा पे रह गये लोगों को उन चले गये लोगों की प्रतिष्ठा और कीर्ति बढ़ाने का यत्न करना चाहिये ,यहीसच्ची श्रद्धांजली है --
तो तुमतो अपने इस ''काम'' को प्रजा के हित में किये जाने वाले यज्ञों में लगा दो ,ऐसे यज्ञ करो जिनसे दीन-दुखियों को लाभ हो ,यश कीर्ति बढ़े ,किसी की हानि न हो ,समाज में पुण्य बढ़ें ,इसीसे ,तुम्हारी व् तुम्हारे पुरखों की भी यश कीर्ति बढ़ेगी और तुम शुभ कामना को लेकर इह लोक से परलोक गमन करोगे --
-'' त्स्मात्त्वम्पी तं कामं यग्यैर्विवधदक्षिनै: |
धर्मे कुरु महाराज तत्र ते स भविष्यति'' ||---
अपने काम को धर्म में लगाओ --धर्म ! केवल पूजा-पाठ संध्या-उपासना वाला नही अपितु कर्म करने वाला बुद्धि और विवेक से किया गया कर्म जिसमे समष्टि का लाभ हो --
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कृष्ण ने जीवनके हर पल के लिये उपदेश दिए | जीवन संग्राम में जब भी हम हारा हुआ महसूस करते हैं कृष्ण खड़े रहते हैं आस-पास ,दिलासा भी देते हैं और आगे केलिए तैयार भी करते हैं--निर्भर हमपे करता है क्या हम उन्हें सुनपाते हैं,देख पाते है ! कोशिस तो करनी ही होगी | ----- निठ्ल्ला चिन्तन आभा का ----