नवरात्र की शुभकामनाओं संग --ईद मुबारक --
पत्थरबाजों का और पत्थरबाजों की मदद करने वालों का सर्वनाश हो इस ईद में यही कामना ----
शुभकामनायें और मेरी मीठी यादें ----------आषाढ़ मॉस की शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक ,गुप्त नवरात्र का पर्व होता है ,दो नवरात्रि गुप्त रखी गयी हैं आषाढ़ और माघ मास की ,इनमे भी भगवती महिसासुरमर्दनि की पूजा अर्चना होती है। हरियाली भी बोई जाती है। शारदीय और वासंतिक नवरात्रि में तो दुर्गा के नव रूपों -- शैलपुत्री ,ब्रह्मचारिणी ,चंद्रघंटा ,कूष्माण्डा स्कन्धमाता ,कात्यायिनी ,कालरात्रि ,महागौरी सिद्धिदात्री ---की पूजा अर्चना होती है ,दशहरे और रामजन्म की धूम होती है।
अन्य दोनों नवरात्रि में में देवी की मौन आराधना का निर्देश है। साथ ही तांत्रिक साधनाओं के लिए भी ये गुप्त नवरात्रि का समय उपयुक्त माना गया है -इन नवरात्रि में दसमहाविद्या रूपी देवियों की पूजा अर्चना होती है ---जिनमे ---माँ काली ,तारादेवी ,त्रिपुरसुंदरी ,भुवनेश्वरी ,माता छिन्नमस्ता ,त्रिपुरभैरवी ,माँ ध्रूमावती ,माँ बगुलामुखी ,मातंगी एवं माँ कमला की आराधना की जाती है।
हो सकता है ,इस समय में पृथ्वी के वायुमंडल और चुंबकीय क्षेत्र में कुछ विशेष तरंगें बनती हों जो मंत्रों की ध्वनि तरंगों से झंकृत होके विशेष सिद्धि देती हों ------आम आदमी और विशेषत: भयंकर बुद्धिजीवी वर्ग इन बातों को मूर्खता मानता है ,पर मेरे जैसे बहुत हैं जो विश्वास और परम्परा के धरातल पर खड़े रहते हैं बिना आडंबर और ढोंग के।
वर्षा ऋतु ,गढ़वाल में गुप्त-नवरात्रि ---प्रकृति पूजन का सुंदर तरीका। यवांकुरण ---गुप्त नवरात्रि में हमारे घर में पंडित जी आते थे पाठ करने और उस कमरे में हम बच्चे वर्जित होते थे बस केवल आरती के वक्त प्रवेश कर सकते थे। बाकी दोनों नवरात्रि पाठ माँ पिताजी ही करते थे।
नवरात्रि पूजन की तैयारी गंगाल से मलमल के कपड़े में धुली हुई रेत लाना , हरियाली के लिए अरंडी के पत्ते लाना ये कार्य हम बच्चों की ही जिम्मेदारी होते थे। उस उम्र में काम करना भी उत्सव से कुछ कम नहीं होता था ,वो भी व्रत,पर्वों का काम। जब त्यौहारो को समझने की उम्र आई तो पता चला कितनी समृद्ध परम्पराएँ हैं हम उत्तराखंडियों की ---हरियाली से जुड़े त्यौहार ,पेड़ लगाओ ,संरक्षित करो ,अन्न की पूजा गुणवत्ता ,स्वच्छ्ता ,और ऋतुओं का सम्मान।
नवरात्रि पूजन की तैयारी गंगाल से मलमल के कपड़े में धुली हुई रेत लाना , हरियाली के लिए अरंडी के पत्ते लाना ये कार्य हम बच्चों की ही जिम्मेदारी होते थे। उस उम्र में काम करना भी उत्सव से कुछ कम नहीं होता था ,वो भी व्रत,पर्वों का काम। जब त्यौहारो को समझने की उम्र आई तो पता चला कितनी समृद्ध परम्पराएँ हैं हम उत्तराखंडियों की ---हरियाली से जुड़े त्यौहार ,पेड़ लगाओ ,संरक्षित करो ,अन्न की पूजा गुणवत्ता ,स्वच्छ्ता ,और ऋतुओं का सम्मान।
मैं गुप्त नवरात्रि में यवांकुर नहीं डालती हूँ --पर हरियाली को देख आज भी ऊर्जा का संचार होता है।
कुछ तो होता है ऋतुपरिवर्तन के इस संक्रमण काल में जो शुक्लपक्ष के कुछ दिनों को पूजा व्रत उपवास ,यम नियम आसन से जोड़ा गया है ,वैज्ञानिक कारणों से सभी परिचित हैं पर आध्यात्मिक ,अशरीरी ,धार्मिक ,मानसिक मायामय या रूहानी धरातल पे भी कुछ हलचल होती ही है प्रकृति में।
तनमन की पवित्रता बनाये रखने का आदेश। प्रकृति के निकट बैठ उसे समझने का आदेश, 'उपवास ' भूखा रहना नहीं।
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मातंगी धूमावती माता ,भुवनेश्वरी बगला सुखदाता
श्री भैरव तारा जग तारिणी क्षिन्नभाल भव दुःख निवारिणी।
केहरि वाहन सोहे भवानी ,लांगुर वीर करत अगुवानी
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नाग कोटि में तुम्हीं विराजत ,तिहुँ लोक में डंका बाजत। --
प्रतिदिन दुर्गाचालीसा पढ़ते हुये हम केवल यही सोचते हैं दुर्गाचालीसा पढ़ने से हमे अमुक लाभ मिलेगा ,इतनी बार पढ़ेंगे तो ये काम बन जायेगा। हमारे इंसानी मन को इन मन्त्रों के मूल उद्देश्य को देखने का समय ही नहीं होता।
शक्ति रूप को मरम न पायो ,शक्ति गयी तब मन पछितायो --
ये शक्तिरूप --प्रकृति ही है --जिसका हम सर्वनाश करके दुर्गाचालीसा का पाठ एक से लेकर इक्कीस बार तक करते हैं।
अभी भी समय है ,प्रकृति को संवारना शुरू करें।
पहाड़ों में इस समय कई जगहों पे कुलदेवता की पूजा रखी जाती है और जाट दी जाती है।
कई गावों में बकरे कटते हैं मांस का प्रसाद लगता है भगवती का प्रसाद कहके।
ऋग्वेद में अजा पृथ्वी का ही रूप है ,भूमिपुत्री -और उसके संरक्षण का आदेश है तो हमारे पहाड़ों के धार्मिक अनुष्ठानों में ये बकरे काटने की प्रथा वो भी देवीआराधना में ,जहां पवित्रता एक आवश्यक नियम है -कैसे शुरू हो गयी। जात देने का अर्थ --मिलजुलके कार्य करना है न की बलि देना ---
यदि हम धर्मग्रंथों की मूल भावना को पहचान व्यष्टि -समष्टि हेतु कार्य करें तो प्रकृति की खूबसूरती और उपयोगिता में चार चाँद लग जाएँ--आभा ....--