Monday, 26 June 2017


नवरात्र की शुभकामनाओं संग --ईद मुबारक --
पत्थरबाजों का और पत्थरबाजों की मदद करने वालों का सर्वनाश हो इस ईद  में  यही कामना ----

शुभकामनायें और मेरी मीठी यादें ----------आषाढ़ मॉस की शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक ,गुप्त नवरात्र का पर्व होता है ,दो नवरात्रि गुप्त रखी गयी हैं आषाढ़ और माघ मास की ,इनमे भी भगवती महिसासुरमर्दनि की पूजा अर्चना होती है। हरियाली भी बोई जाती है। शारदीय और वासंतिक नवरात्रि में तो  दुर्गा के नव रूपों -- शैलपुत्री ,ब्रह्मचारिणी ,चंद्रघंटा ,कूष्माण्डा स्कन्धमाता ,कात्यायिनी ,कालरात्रि ,महागौरी सिद्धिदात्री ---की पूजा अर्चना होती है ,दशहरे और रामजन्म की धूम होती है। 
 अन्य दोनों  नवरात्रि में में देवी की मौन आराधना का निर्देश है। साथ ही तांत्रिक साधनाओं के लिए भी ये गुप्त नवरात्रि का समय उपयुक्त माना गया है -इन नवरात्रि में दसमहाविद्या रूपी देवियों की पूजा अर्चना होती है ---जिनमे ---माँ काली ,तारादेवी ,त्रिपुरसुंदरी ,भुवनेश्वरी ,माता छिन्नमस्ता ,त्रिपुरभैरवी ,माँ ध्रूमावती ,माँ बगुलामुखी ,मातंगी एवं माँ कमला की आराधना की जाती है। 
हो सकता है ,इस समय में पृथ्वी के वायुमंडल और चुंबकीय क्षेत्र में कुछ विशेष तरंगें बनती हों जो मंत्रों की ध्वनि तरंगों से झंकृत होके विशेष सिद्धि देती हों ------आम आदमी और विशेषत: भयंकर बुद्धिजीवी वर्ग इन बातों को मूर्खता मानता है ,पर मेरे जैसे बहुत हैं जो विश्वास और परम्परा के धरातल पर खड़े रहते हैं बिना आडंबर और ढोंग के।
वर्षा ऋतु ,गढ़वाल में गुप्त-नवरात्रि  ---प्रकृति पूजन का  सुंदर तरीका।  यवांकुरण ---गुप्त नवरात्रि में हमारे घर में पंडित जी आते थे पाठ करने और उस कमरे में हम बच्चे वर्जित होते थे बस केवल आरती के वक्त प्रवेश कर सकते थे। बाकी दोनों नवरात्रि पाठ माँ पिताजी ही करते थे।
 नवरात्रि पूजन की तैयारी गंगाल से   मलमल के कपड़े में धुली हुई रेत लाना  , हरियाली के लिए अरंडी के पत्ते लाना ये कार्य हम बच्चों की ही जिम्मेदारी होते थे। उस उम्र में काम करना भी उत्सव से कुछ कम नहीं होता था ,वो भी  व्रत,पर्वों का काम। जब त्यौहारो को समझने की उम्र आई तो पता चला कितनी समृद्ध परम्पराएँ हैं हम उत्तराखंडियों की ---हरियाली से जुड़े त्यौहार ,पेड़ लगाओ ,संरक्षित करो ,अन्न की पूजा गुणवत्ता ,स्वच्छ्ता ,और ऋतुओं का सम्मान। 
मैं गुप्त नवरात्रि में यवांकुर नहीं डालती हूँ --पर  हरियाली को देख आज भी ऊर्जा का संचार होता है। 
कुछ तो होता है ऋतुपरिवर्तन के इस संक्रमण काल में जो शुक्लपक्ष के कुछ दिनों को पूजा व्रत उपवास ,यम नियम आसन से जोड़ा गया है ,वैज्ञानिक कारणों से सभी परिचित हैं पर आध्यात्मिक ,अशरीरी ,धार्मिक ,मानसिक मायामय या रूहानी धरातल पे भी कुछ हलचल होती ही है प्रकृति में। 
तनमन की पवित्रता बनाये रखने का आदेश।  प्रकृति के निकट बैठ उसे  समझने का आदेश, 'उपवास ' भूखा रहना नहीं।
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मातंगी धूमावती माता ,भुवनेश्वरी बगला सुखदाता 
श्री भैरव तारा जग तारिणी क्षिन्नभाल भव दुःख निवारिणी। 
केहरि वाहन सोहे भवानी ,लांगुर वीर करत अगुवानी 
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नाग कोटि में तुम्हीं विराजत ,तिहुँ लोक में डंका बाजत। --
प्रतिदिन दुर्गाचालीसा पढ़ते हुये हम केवल यही सोचते हैं दुर्गाचालीसा पढ़ने से हमे अमुक लाभ मिलेगा ,इतनी बार पढ़ेंगे तो ये काम बन जायेगा। हमारे इंसानी मन को इन मन्त्रों के मूल उद्देश्य को देखने का समय ही नहीं होता। 
शक्ति रूप को मरम न पायो ,शक्ति गयी तब मन पछितायो --
ये शक्तिरूप --प्रकृति ही है --जिसका हम सर्वनाश करके दुर्गाचालीसा का पाठ एक से लेकर इक्कीस बार तक करते हैं। 
अभी भी समय है ,प्रकृति को संवारना शुरू करें। 

 वृक्ष ,हरियाली बच्चों के साथ वन सम्पदा में जानवरों को भी आशीष मिले  सुरक्षित रिहायश मिले - केहरि ,लांगुर नाग सभी माँ के बच्चे ,मनुष्य से अधिक माँ की सेवा में बिना किसी लोभ लालच के समर्पित। हम भी इस संकेत को समझें। 
पहाड़ों में इस समय कई जगहों पे कुलदेवता की पूजा रखी जाती है और जाट दी जाती है। 
कई गावों में बकरे कटते हैं  मांस का प्रसाद लगता है भगवती का प्रसाद कहके। 
ऋग्वेद में अजा पृथ्वी का ही रूप है ,भूमिपुत्री -और उसके संरक्षण का आदेश है तो हमारे पहाड़ों के धार्मिक अनुष्ठानों में ये बकरे काटने की प्रथा वो भी देवीआराधना में ,जहां पवित्रता एक आवश्यक नियम है -कैसे शुरू हो गयी। जात देने का अर्थ --मिलजुलके कार्य करना है न की बलि देना ---
यदि हम धर्मग्रंथों की मूल भावना को पहचान व्यष्टि -समष्टि हेतु कार्य करें तो प्रकृति की  खूबसूरती और उपयोगिता में चार चाँद लग जाएँ--आभा ....--

चाँद का जिक्र इसलिये कि चाँद मन है ,मन प्रसन्न तो ईद स्वयं ही हो जाती है ----ईद मुबारक -साथ ही गुप्त नवरात्रि की शुभकामनायें। देवी असुरों का विनाश करें ,शुभ की स्थापना करें। 


Sunday, 25 June 2017

बैठे ठाले ''मन से वार्तालाप'' --
योगरतो वा भोगरतो वा सङ्गरतो व संगविहीन:| --
यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तं नन्दति नन्दति नन्दति एव।| --और वो आनंद वो परमात्मा मुझमे ही है -आज बैठे ठाले -के अंतर्गत -'मुझमें रह के मुझी से अपनी ये खोज कैसी करा रहे हो। ==================
विगत की पोटली को कंधों में लादे आगे बढ़ने की कला का नाम ही जीवन है ,''मेरी दृष्टि में।''
हम पोटली को कितना भारी कर लेते हैं ,समय -समय पे कुछ निकाल फेंकने की कला भी जानते हैं या नहीं ये सब हमें संस्कारों में मिलता है वो संस्कार जो कब आके हमारे भीतर रंजित हो गये अपनी गहरी जड़ों के साथ ! और हमें भान भी नहीं हुआ।
ये संस्कार और कुछ नहीं हमारा व्यक्तित्व ही हैं। माँ-पिता ,गुरु ,मित्र ,आसपास रहने वाले बुजुर्ग , यहां तक कि हमउम्र भाई-बहन सखा सहोदर ,सभी का कुछ न कुछ कोई न कोई रंग हमारे पास होता ही है।
जब हम संस्कार देने की उम्र में आते हैं -{ [ ( जैसे कि बुजुर्गियत आने पे हमे महसूस होने लगता है और सीखें बरसने लगती हैं आशीर्वचनों सी हमारे मुंह से ) ] } तो अचानक अपने मुंह से निकलने वाली ध्वनि ----माता-पिता, सास श्वसुर या अन्य किसी शख्स की जिसके व्यक्तित्व ने कभी हमे छुआ हो --की लगने लगती है।
मन -मंथन की इस प्रक्रिया में मुझे लगता है ,संस्कार देने नहीं पड़ते जीने होते हैं ,जो हम जियेंगे वही पीढ़ियों को चला जाएगा -
तो मेरा मानना है -संस्कार तो हम दे चुके अपनी पीढ़ी को पालते -पालते अब तो बस टीमटाम बाकी है ,ऐसे ही जैसे हमें मिलगये बिन- मांगे और बिना किसी संघर्ष के।
वो बातें जिन्हें कभी महत्व नहीं दिया ,सुन के अनसुना कर दिया आज मुझे अपने अंदर तक आरोपित ,बद्धमूल हुई दिखाई देती हैं ,कभी मैं माँ की तरह बोलने लगती हूँ , कभी पिताजी की तरह तो कभी श्वसुरजी की तरह ---
मेरी अपनी सोच ? कुछ तो होगी ही।
जब भी आँख बंद कर -शांत बैठ -अपनी विचारप्रक्रिया का निरीक्षण किया तो पाया- 'मैंने ' -घर ,समाज ,प्रकृति (वृक्ष,फूल,पत्ते नदियां बादल,स्थान-विशेष,जानवर ) सभी से कुछ न कुछ उधार लिया है साथ ही कुछ ऐसा है जो अनोखा भी है सबसे अलग -शायद पूर्व जन्मों के व्यक्तित्व की पोटली भी लाद लायी हूँ अपने कन्धों पे।
महत्वाकांक्षाएं भी हमें विगत के संस्कारों से दूर नहीं कर सकतीं। कर्मठ होना और अतिमहत्वाकांक्षा में लालची हो जाना ये भी विगत के संस्कारों का ही रूप है।
बस यूँ ही ध्यान में सोच रही थी कि ध्यान क्या है ? शायद अपने को जानने समझने की कोशिश ही ध्यान है ,जब तक अपना स्वरूप ही समझ न आये उस सर्वव्यापी परमात्मा के स्वरूप को कैसे समझ पाएंगे। तो फिर ध्यान का क्या अर्थ ?
ध्यान का अर्थ है -शांत बैठना।शांत बैठने पे मैंने पाया कि विचारों की प्रक्रिया धीमी हो जाती है। बस यही समय है जब हम अपने विचारों का विश्लेषण कर अपने को जान सकते हैं। विचारों के परीक्षण से अपने व्यक्तित्व का भी निरीक्षण हो जाता है,हम पाते हैं क़ि विचारों के अंधड़ एकाएक शिथिल हो रहे हैं और उनके बीच से उबरते अक्स हमें अचम्भित करते चलते हैं ; हम स्तब्ध हो जाते हैं ,अपना स्वरूप पा के।
कभी- कभी संस्कारों की चिंता छोड़ हमें शांत भी बैठना चाहिये ,भले ही ये परिवारजनों के लिये कुतूहल का विषय हो -पर स्वयं के लिये आवश्यक है।
देना -पाना तो चल ही रहा है , खोजने की प्रक्रिया भी सतत चलनी चाहिये ,अंत में आनंद तो उस अनदेखे को पाने में ही है जिसे पाने हेतु जीव -पुनरपिजन्मं -पुनरपिमरणं पुनरपिजननी जठरेशयनमं की कष्टपूर्ण प्रक्रिया से बारम्बार गुजरता है। --
असल में जीव के संस्कार तो परमात्मा को पाने की राह में किये जाने वाले कर्म ही हैं। बस भटकाव है। जिसने इस भटकाव को देख लिया वो चौराहे से सही राह पे मुड़ जाता है ,अन्यथा तो वही गोलगोल घूमते हुए उसी जगह पे आ खड़े होता है।
इस राह को पाने का सुगम मार्ग आदिशंकराचार्य ने सुझाया था -
प्राणायामं प्रत्याहारं ,नित्यानित्य विवेक विचारं।
जाप्यसमेत समाधि विधानं कुर्ववधानं महदवधानं।।
--और शायद ये योग -प्राणायाम ही -----विश्व में फैली अराजकता ,आतंकवाद ,महत्वाकांक्षाओं के दंश से उपजे भ्रष्टाचार -लोभ -लालच के संस्कारों के उन्मूलन का एक मात्र आयुध है।
अपने को देखना यही ध्यान है,यहीं से रूपांतरण की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। इसकेलिये किसी विशेष उम्र या समय की आवश्यकता नहीं है। जब भी मन शांत हो अपने विचारों का परीक्षण निरीक्षण और घटना घट जायेगी बहुत कुछ टूटेगा और कुछ बन भी जायेगा-आभा -.


















Sunday, 18 June 2017

"अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि धूपदानविधे: फलम् |
धूपांश्च विविधान् साधुनसाधूँश्च निबोध मे।| "
ये श्लोक महाभारत में भीष्म ने युधिष्ठर से कहा पर-" हाँ जी " आज मैं इसी धूप प्रकरण को सुनाने का क्षुद्र प्रयास कर रही हूँ। काम की जानकारी न हो पर खोजी प्रवृति के लिये एक छोटा सा ग्रास [गफ़्फ़ा -निवाला ]तो है ही ---
तो मेहरबानों ,कद्रदानों बतकही ये है कि धूप आप सभी ने कभी न कभी जलाई ही होगी। शायद सभी धर्मों में जलाई जाती है सो सेक्युलर भी है पर बांटने वाली सेक्युलर नहीं बाँधने वाली सेक्युलर।
--"निर्यासा: सारिणश्चैव कृत्रिमाश्चैव ते त्रय: |
इष्टोsनिष्टो भवेद् गन्धस्तन्मे विस्तरशः श्रृणु।।"
------धूप जो हम प्रतिदिन प्रात:सांय संध्या करते हुए देवता को अर्पण करते हैं वो मुख्यत: तीन प्रकार की होती हैं। निर्यास , सारी और कृत्रिम।
वृक्षों के रस [गोंद ] को "निर्यास" कहते हैं। इनसे बनी धूप देवताओं और दैत्यों दोनों को अतिप्रिय है।
 गुग्गुल धूप श्रेष्ठतम घूप की श्रेणी में आता  है । गुग्गुल commiphora mukul का वृक्ष भारत में ही होता है पर हमारी मेहरबानियों से ये विलुप्ति के कगार आ गया है।
शाल्लकी नामक वृक्ष से निकले गोंद से बनी धूप  उत्तम होती है इसे लोबान के नाम से जाना जाता है।
शाल्लकी [Boswellia serrata ] का गोंद ,लोबान ,कुंदर मुकुंद कहलाता है।
कुछ काष्ठ होते हैं जिन्हें जलाने से सुगंध आती है जैसे ,चंदन ,अगर तगर इन्हें "सारी "कहते हैं। इनसे बनी धूप अगरबत्ती यक्ष ,राक्षस और नागों को प्रिय है।
शाल्की ,गुग्गल आदि का गोंद ,सुगंधित काष्ठचूर्ण ,घी और शक़्कर मिश्रित करके जो धूप बनाई जाती है वो "कृत्रिम " धूप है  जो मनुष्यों के उपयोग में आती  है।
"देवदानवभूतानां सध्यस्तुष्टिकर: स्मृत:|
येअन्ये वैहारिकास्तत्र मानुषाणमिति स्मृता:|| "
-------धूप देव- दानव ,भूत -गंधर्व ,यक्ष-राक्षस ,सभी को तत्काल संतोष प्रदान करने वाली होती है।
शल्लकी ,गूगल अगर तगर जैसे वृक्षों का आयुर्वेद में बहुत महत्व है ,बहुत से रोगों की दवायें बनती हैं। पर धूप अगरबत्ती यदि शुद्ध हों तो ये तनाव, सरदर्द डिप्रेशन दूर करने में बहुत कारगर हैं।
तो ये था धूप पुराण --महाभारत के सौजन्य से। चाहें तो इन सभी वृक्ष -पादपों के विषय में नेट से जानकारी लीजिये और नमन करिये अपने पूर्वजों को जिन्होंने प्रकृति का इतना सूक्ष्म अध्ययन किया ,उपभोग भी किया और संरक्षण भी किया पर आज हम जो अपने को अत्याधुनिक कहते हैं प्रकृति के विनाश का ही कारण बन रहे हैं।
यदि आसपास ये वृक्ष हों तो उस स्थान का भूजल भी औषधीय गुणों से युक्त होता है ,परन्तु आज हमारे आसपास गंदे नाले ,कूड़े के ढेर हैं। हम आधुनिक ,विद्वान ,उच्च-शिक्षित हैं -आभा -
















Monday, 12 June 2017

स्त्री को समाज और रिश्तों को जीते हुए कई बार कड़वी सच्चाइयों से रूबरू होना पड़ता है।,कडवे घूंट पी कर मन में उठते विद्रोह पर ठंडा पानी डाल कर बर्फ बनाने का का नाम ही स्त्री है। ...........
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           मानव मन के झंझावत को ,
           मन में उमड़े तूफानों को ,
           बांध तोड़ कर बहना चाहे ,
           सरिता की उद्दात लहर को ,
           किसने समझा ,किसने जाना।
पर्वत शिखर की बर्फ पिघल
जलधारा बन  जीवन देने आयेगी
मेरे मन की बर्फ पिघल क्या?,
मुझको जीवन दे पाएगी !
             शिखरों पर पड़ी बर्फ -------
             इक सर्द नदी बन जायेगी ,
             पर मेरे मन की बर्फ पिघल कर ,
             एक लावे सी बह जायेगी ,------
           ---इस बर्फ की अग्नि में -
             कितने जीवन जल जायेंगे ,
             एक जरा सी हलचल से,
              भूकम्प हजारों आयेंगे ..............
मन में उमड़े झंझावत को ,
अपने मन के तूफानों को ,
सर्द बर्फ से ढक रखूं
ना छेड़ना ,ना कुरेदना 
मन कपाट बस बंद रखूं
             
                जीवन नामहै संघर्षों का .
                पर्व मान इसको जी लूँ
                बर्फ  बहे ना लावा बन कर ,
                हिम-आलय बन अडिग रहूं                                  ...............आभा ..........






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Friday, 9 June 2017


बैठे ठाले की बकबक -गीता संग ''जो भिड़ा तेरे ''=====
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''जो भिड़ा तेरे नैनों से टांका तो आशिक सरंडर हुआ।
तूने शरमा के विंडो से झाँका तो आशिक सरंडर हुआ।।''
=====और सूर्यदेव ने निशा की काली चादर में छोटी सी विंडो बना झाँका तो प्राची में सिंदूर बिखर-बिखर गया। मानो निशा ने उषा के स्वागत हेतु मुट्ठी में भर के सिंदूर आसमान में उछाल दिया हो या निशा- उषा सूर्य से मिलने पे गुलाल से होली खेल रही हों।
सूर्य से नयन मिलाने की हिम्मत किसकी ? जपा कुसुम संकाशं -से जल अर्पित कर  उसके समक्ष नतमस्तक होना यही उसको आभार प्रकट करने का साधन है। प्रत्यक्ष देवता !जिसके ; होने से ये पृथ्वी है।
-अब प्रश्न ये है कि इस गीत का सूर्योदय से क्या संबंध -कहां का ईंट कहां का रोड़ा --संबंध स्थापित करना पड़ा ,मेरी मजबूरी ही समझें इसे -क्यों मैं बताती हूँ -आजकल बिजली की आँख-मिचौली रहती है।कभी -कभार प्रतिदिन ऐसा समय आता है जब आपका किसी कार्य में मन नहीं लगता अकेलापन सालने [सालन से -सालना ]लगता है तो बुद्धू बक्से [idiot box ]--यानी टीवी की हलचल से थोड़ा माहौल को बदलने की साजिशें रचनी पड़ती हैं ,अब इस बक्से में अक्सर काँव-काँव या साजिशें रचते फूहड़ सीरियल --ऊपर से बिजली महारानी के नखरे -कुछ देखने की कोशिश करो तो कट-कट-कट-कट पावर कट और घूम फिर के टाटास्काई के ऐड --तो बस मैं टीवी चला के अन्य कार्य करने लगती हूँ बस हलचल होती रहती है क्या आ रहा है इसपे ध्यान नहीं रहता --और अक्सर टाटास्काई के ऐड ही चलते रहते हैं। कल रात भी यही हुआ -बहुत देर तक यही ऐड चलते रहे और उनमे बार बार ये गाना --''जब भिड़ा तेरे नैनों से टांका तो आशिक सरंडर हुआ'' --चलता रहा। अब गाना ऐसा दिमाग में चढ़ा कि नींद में भी और जब भी नींद खुले यहां तक की सुबह उठने पे और तो और पूजा में भगवान को पिठाईं लगा रही हूँ , सूर्य को जल चढ़ा रही हूँ और मन में चल रहा है --''जब भिड़ा तेरे नैनों  से टांका ''--अब बताइये फेसबुक में लिखना भी तो सरंडर ही हुआ न --तो यहां लिख मारा गाने को --
अभी एक बात और====
गीता को मैं क्यूँ अपना सच्चा साथी मानती हूँ --क्यूंकि वो मेरे सामने मेरे मन में चलती दुविधा का समाधान प्रत्यक्ष कर देती है ---बस प्रतिदिन के पाठ में जो श्लोक थे उन्होंने पूजा के वक्त मन में ''भिड़ा तेरे ''आने के अपराधबोध [गिल्टी]  से मुक्त कर दिया ---
''न मां कर्म लिम्पन्ति न में कर्मफले स्पृहा ''
''किं कर्म किमकर्मेति कवयोSप्यत्र मोहिता:''
''कर्मण्यकर्म य:पश्येदकर्मणि च कर्म य:
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त:कृत्स्नकर्मकृत् ''
''यञं यज्ञेनैवोपजुह्यति ''=========
कन्हैया कह रहे हैं --सुन पुत्री !कर्म फल में मेरी स्पृहा नहीं है इसलिए मुझे कर्म लिपायमान नहीं करते बस तेरी सच्ची श्रद्धा ,और प्रकृति के प्रति प्यार यही मुझे चाहिये।
तू जो मन में ये गाना  आने से अपराधी महसूस [guilt ] कर रही है तो सुन  -इसे आने दे ,दूर करने की कोशिश में ये और जम के बैठ जाएगा तेरे मस्तिष्क में ,पूजा कर्म या और कोई भी कर्म ,स्वात्विक बुद्धि और मन से किया जाये ,जिसमे किसी की भी हानि न हो वो सभी मेरे लिए ही होते हैं कर्म क्या है और अकर्म  क्या इसमें तो विद्वान भी मोहित हैं तू तो कर्मों के तत्व को देख सो गाना चलने दे -''जो भिड़ा तेरे नैनों से टांका ''और मैंने सूर्य कन्हैया ,सभी के समक्ष सरंडर कर दिया -तेरी माया तू ही जाने।
वैसे भी भगवान कह रहे हैं कर्मों को प्रकृति  के लिए समर्पित करते हुये कर्म को न देख उसका होना न देख बस चरैवेति चरैवेति ---कर्म किये जा --फल देखना मेरा काम है। बुद्धिमान मनुष्य मन की पवित्रता और कर्म में लिपायमान न होके ही  कर्म करते हैं -[तो क्या मैं भी अपने को बुद्धि मान बनाने की कोशिश में हूँ -नहीं कदापि नहीं मैं तो बस ईश्वर का सानिध्य चाहती हूँ ] जो कर्म किसी कामना से किया जाता है वो उस कामना तक ही पहुंचता है -पर मुझ तक पहुंचने के लिए निस्पृह होना ही होगा --तो फिर मैं गाने लगी ''जो भिड़ा तेरे नैनो से टांका'' --
''ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।''
गाने वाला भी ब्रह्म ,सुनने वाला भी ब्रह्म ,गाना भी ब्रह्म तो ब्रह्म में ब्रह्म विलीन हो गया और ''जो भिड़ा तेरे नैनों से टांका ''--
परमात्म रूपी अग्नि में यज्ञ द्वारा यज्ञ को यज्ञ में ही समर्पित कर -यहां पे लिख दिया अब देखिये कितनी देर में ये गाना  मन से निकलता है -----
एक बात और आप सभी के साथ होता होगा ये कभी न कभी --कहीं भी मन अटक जाता है --तो मेरे अनुभव को अपनाइये मन को अटकने दीजिये --यदि गीता पढ़ते-गुनते हैं तो मन फ़ालतू की बकवास से स्वयं ही बाहर निकल आएगा ----